Jaynandan

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@jainandanjamshedpurg

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आपके बारे में

जन्म : 26 फरवरी, 1956 को नवादा (बिहार) के मिलकी गांव में । शिक्षा : एम. ए. (हिन्दी) रचानायें : पहली कहानी आगरा की एक पत्रिका युवक में 1981 में। किसी बहुप्रसारित और प्रतिष्ठित पत्रिका में पहली कहानी सारिका में 1983 में। इसके बाद धर्मयुग, रविवार, गंगा, कादम्बिनी, सारिका, हंस, पहल, वर्तमान साहित्य, इन्द्रप्रस्थ भारती, समकालीन भारतीय साहित्य, इंडिया टुडे, आउटलुक, शुक्रवार, कथादेश, सबरंग, अक्षरा, अक्षरपर्व, आजकल, कथाबिंब, कथाक्रम, पलप्रतिपल, पश्यंती, हिमप्रस्थ, संबोधन, आधारशिला, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, लोकमत, सहारा समय, जनसत्ता, हिन्दुस्तान, जागरण, हरिभूमि, पुनर्नवा, स्वाधीनता, नवनीत, निकट, मित्र, नया ज्ञानोदय, वसुधा, अन्यथा, वागर्थ, पाखी, बहुवचन, किस्सा, मधुमती, मंतव्य, माटी आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग डेढ़ सौ कहानियां प्रकाशित। नाटकों का दिल्ली, देहरादून, इलाहाबाद, पटना, रांची, नागपुर,, जमशेदपुर आदि शहरों में कई-कई मंचन। आकाशवाणी और दूरदर्शन के कई चैनलों पर नाटक और कहानी के टीवी रूपांतरणों का प्रसारण। अब तक कुल तीस पुस्तकें प्रकाशित। ‘श्रम एव जयते’, ‘ऐसी नगरिया में केहि विधि रहना’, ‘सल्तनत को सुनो गांववालो’, ‘विघटन’, ‘चौधराहट’, ‘मिल्कियत की वागडोर’, ‘रहमतों की बारिश’ (उपन्यास) । ‘सन्नाटा भंग’, ‘विश्व बाजार का ऊंट’, ‘एक अकेले गान्ही जी’, ‘कस्तूरी पहचानो वत्स’, ‘दाल नहीं गलेगी अब’, ‘घर फूंक तमाशा’, ‘सूखते स्रोत’, ‘गुहार’, ‘गांव की सिसकियां’, ‘भितरघात’, ‘मेरी प्रिय कथायें’, ‘मेरी प्रिय कहानियां’, ‘सेराज बैंड बाजा’, ‘संकलित कहानियां’, चुनी हुई कहानियां’, ‘गोड़पोछना’, ‘चुनिंदा कहानियाँ’ (सभी कहानी संग्रह)। ‘नेपथ्य का मदारी’, ‘हमला’ तथा ‘हुक्मउदूली’ (तीनों नाटक) । ‘मंथन के चौराहे’, ‘मीमांसा के पराग’ (वैचारिक लेखों का संग्रह) तथा ‘राष्ट्रनिर्माण के तीन टाटा सपूत’ (टाटाओं की जीवनी)। 2015 में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा ‘भारतीय साहित्य पुस्तकमाला’ योजना के अन्तर्गत साझी संस्कृति पर आधारित ‘जयनंदन संकलित कहानियां’ प्रकाशित दर्जनों महत्वपूर्ण संकलनों एवं विशेषांकों में कहानियां संकलित तथा उनका अंग्रेजी, स्पैनिश, फ्रेंच, जर्मन, नेपाली, तेलुगु, मलयालम, तमिल, गुजराती, उर्दू, पंजाबी, मराठी, उड़िया, मगही आदि भाषाओं में अनुवाद। मराठी में अनुदित कहानियों की एक पुस्तक ‘आईएसओ 900’ प्रकाशित। अखबारों में वैचारिक लेख एवं थोड़े-थोड़े समय के लिए स्तम्भ लेखन। अब तक मेरी कहानियों पर राँची वि.वि., राजर्षि टंडन मु.वि.वि., मगध वि.वि., कोल्हापुर आदि से शोधार्थियों द्वारा पीएच.डी की डिग्री। पुरस्कार : 1984 में डॉ शिवकुमार नारायण स्मृति पुरस्कार। 1990 में बिहार सरकार राजभाषा विभाग द्वारा नवलेखन पुरस्कार। 1991 में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा युवा पीढ़ी प्रकाशन योजना के तहत सर्वश्रेष्ठ चयन के आधार पर उपन्यास ‘श्रम एव जयते’ का चयन और प्रकाशन। कृष्ण प्रताप स्मृति कहानी प्रतियोगिता (वर्तमान साहित्य), कथा भाषा प्रतियोगिता तथा कादम्बिनी अ. भा. कहानी प्रतियोगिता में कई बार कई कहानियां पुरस्कृत। 1993 में सिंहभूम जिला हिन्दी साहित्य सम्मेलन सम्मान। 1995 में जगतबंधु सेवा सदन पुस्तकालय सम्मान। 2001 में पूर्णिया पाठक मंच सम्मान। 2002 में 21वां राधाकृष्ण पुरस्कार। (रांची एक्सप्रेस द्वारा)। 2005 का विजय वर्मा कथा सम्मान (मुंबई)। 2009 में बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान (आरा) 2010 में झारखंड साहित्य सेवी सम्मान (झारखंड सरकार, राँची) 2010 स्वदेश स्मृति सम्मान (तुलसी भवन, जमशेदपुर) 2013 आनंद सागर स्मृति कथाक्रम सम्मान (लखनऊ) संप्रति : टाटा स्टील से ( 20 वर्षों तक गृह पत्रिकाओं का संपादन करते हुए) अवकाश प्राप्त। अब पूर्णकालीन लेखन। गाँव बचे रहें, किसान बचे रहें, गाँव की समरसता, सौहार्द्र, भाईचारा आदि बचे रहें, यह चिन्ता गाँव से जुड़े लेखकों ने अपनी रचनाओं में प्रमुखता से उजागर किया है। कथाकार जयनंदन ऐसे ही गाँव के माटी, पानी और दुख-सुख से जुड़े चंद लेखकों में शामिल रहे हैं। उन्होंने गाँव के बहुत जीवंत, बेधक और अनछुए प्रसंगों पर कहानियां लिखी हैं। चार दशकों तक कारखाने में काम करते हुए लेखक जयनंदन का यूनियन एवं प्रबंधन की अनेक बदकारियों व नाइंसाफियों से अक्सर पाला पड़ता रहा। इसी देखे-भोगे को लेखक ने औपन्यासिक कलेवर में ढालकर कई जीवंत व बेधक सृजन-कर्म की बानगी पेश की है। जयनंदन के सृजनकर्म का फलक बहुत विस्तृत है। राजनीतिक परिदृश्य से लेकर आदिवासी समाज के दुख-दर्द तक। हिन्दू मुस्लिम संबंधों से लेकर अवर्ण और सवर्ण जातियों की रस्साकसी और तनाव तक तथा खेतिहर मजदूर से लेकर कारखाने के श्रमिक की बेबसी तक। इनकी रचनाएँ यह स्थापना देती हैं कि गाँव में शोषक अनिवार्यतः सवर्ण हो और शोषित अवर्ण ऐसा कतई जरूरी नहीं है। इस प्रकार वे फार्मूलाबद्ध लेखकों की पंक्ति से बाहर खड़े दिखते हैं।