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उदासियों का वसंत - 3 - अंतिम भाग

by Hrishikesh Sulabh
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उदासियों का वसंत हृषीकेश सुलभ (3) दिन सिमट रहा था। अब साँझ का झिटपुटा घिरने लगा था। रोज़ तीसरे ...

उदासियों का वसंत - 2

by Hrishikesh Sulabh
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उदासियों का वसंत हृषीकेश सुलभ (2) .......पाँच बरस बीत गए टुशी को देखे। गई, तब से एक बार भी ...

उदासियों का वसंत - 1

by Hrishikesh Sulabh
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उदासियों का वसंत हृषीकेश सुलभ (1) वे चले जा रहे थे। श्लथ पाँव। छोटी-सी मूठवाली काले रंग की ...

हाँ मेरी बिट्टु

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हाँ मेरी बिट्टु हृषीकेश सुलभ उसके आते ही मेरा कमरा उजास से भर गया। ‘‘भाई साहब! नमस्ते!......मैं अन्नी ...

हलंत

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हलंत हृषीकेश सुलभ बात बहुत पुरानी नहीं है। कुछ ही महीनों पहले की बात है। वह हादसों का मौसम ...

स्वप्न जैसे पाँव

by Hrishikesh Sulabh
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स्वप्न जैसे पाँव हृषीकेश सुलभ यह एक हरा-भरा क़स्बाई शहर था, जिसे कोशी नदी की ...

रक्तवन्या

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रक्तवन्या हृषीकेश सुलभ अजीब होती जा रही है केया दास। उसे अब अपने-आप से भय लगने लगा है। जंगल ...

भुजाएँ

by Hrishikesh Sulabh
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भुजाएँ हृषीकेश सुलभ अष्टभुजा लाल को अपने बीते हुए दिनों के बारे में सोचना अच्छा नहीं लगता. बीते हुए ...

डाइन

by Hrishikesh Sulabh
  • (3.4/5)
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डाइन हृषीकेश सुलभ वह आधी रात के बाद अचानक प्रकट हुई थी. उसके आने की दूर–दूर तक कोई ...