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Hey, I am on Matrubharti!
आरम्भ मेरा..... जीवों का आरम्भ हुए इस धरती पर ना जाने कितनी सदियाँ हो गई लेकिन मेरा आरम्भ जब हुआ तो, लोगों की आँखों में नमी थी, कुछ भी हो लोगों को अखरी थी बेटी, और दिलों में बेटे की कमी थी, मेरे मन को तोड़कर,एहसासों को मरोड़कर, मेरे भावों पर लगाकर ताला,कर्तव्यों का पाठ पढ़ा,जीना मुझे सिखाया संस्कारों की घूटी देकर,मेरी हर उमंग हर तरंग को कैद किया, क्या यही आरम्भ था मेरा? फिर हुआ आरम्भ दूसरा जीवन मेरा , किसी की जीवन संगिनी बन,लिया उसके संग फेरा, उसका जीवन महकाया,माँ बनने का दर्जा पाया, खुश बहुत थी मैं लेकिन मन बहुत बुझा मेरा, अंश मेरा,लहू मेरा लेकिन नाम पिता का, क्या यही आरम्भ था मेरा? सदैव रही मैं त्याग की देवी,ममता का सागर, समर्पण की मिसाल,संस्कारों की गागर, मैं दया थी,मैं थी जननी,मैं थी अर्धांगिनी मैं पीड़ित थी भीतर से,तब भी मूक थी, मैं गंगा सी गहरी और सागर सी विशाल थीं क्योंकि अक्सर ये सोचा करती थी... क्या यही आरम्भ था मेरा? फिर मुझे एहसास हुआ कि इस संसार को तो कभी मैनें अपनी दृष्टि से देखा ही नहीं, मैनें तो वही देखा जो मुझे दिखाया गया, ये जीवन मेरा था लेकिन इसे तो मैं दूसरों के अनुसार जी रही थी,आखिर क्यों? क्या यही आरम्भ था मेरा? अब मैं भी जाग चुकी हूँ,आँखों पर पड़े परदे हटाकर,देखूँगी इस संसार को, झूमूँगी,नाचूँगी,काटूँगी दास्ताँ की बेड़ियाँ, हर उस दहलीज को लाघूँगी,जिसे लाँघने की मनाही थी अब तक मुझे,फिर से जन्मूँगी, बताऊँगी सबको कि ये अब है आरम्भ मेरा.... सरोज वर्मा....
बेहिसाब मौहब्बत.... मेरी मौहब्बत का हिसाब ना पूछ ए जालिम, बेहिसाब मौहब्बत की कोई कीमत नहीं होती, रोया था मजनू भी लैला की मौहब्बत में, मरता ना राझाँ जो उसे हीर से मौहब्बत ना होती, मैं तो लिख देता मौहब्बत की किताबें तेरे लिए, अगर तेरी मेरी मौहब्बत की कहानी अधूरी ना होती, तूने मेरी आँखों को पढ़कर कभी जाना ही नहीं, अगर मौहब्बत जान जाती तू,तो बेवफा ना होती, मेरे मरने तक मैं तेरा इन्तजार करूँगा,देख लेना एक दिन मैं तुझसे अपनी बेपनाह मौहब्बत का हिसाब करूँगा...... सरोज वर्मा....🌹
बेटी के अन्तर्मन की आवाज़.. क्या मैं आपको याद हूँ पिताजी?क्या मुझे कभी याद करते हैं आप,क्योंकि मेरे ससुराल में तो मुझे आपको क्षण क्षण याद कराया जाता है कि यही सीखा है बाप के घर में,कुछ नहीं लाई बाप के घर से,बाप के यहाँ भी कभी ऐसा पहना और खाया है,काश ये सब भी बताकर भेजा होता आपने.... लेकिन मैं आपके लिए केवल एक प्रवासी चिड़िया थी जिसे आपके घर केवल कुछ दिन ही रहना था या थी आपके खेतों की खरपतवार जिसे तो एक दिन कटना ही था,क्या मैं सच में याद हूँ आपको शायद नहीं!क्योंकि जीवनपर्यन्त मेरे साथ यही वाक्य चलता रहा....तुम त्रिपाठी जी की बेटी हो ना!इधर उधर मुहल्ले पड़ोस में सबको याद रहा कि मैं आपकी बेटी हूँ तो आप कैसें भूल गए... माँ को शायद थोड़ी बहुत याद रही हो मेरी लेकिन आपको शायद बिल्कुल नहीं,जब कभी मैं आपके घर आती तो माँ कहती जा पिता बरामदे में बैठें हैं अपने दोस्तों के साथ,तुझे पूछ रहे थे कि कब आई,मैनें उसे देखा नहीं,तब माँ के कहने पर मैं भतीजी के संग गैर मन से आपसे मिलने आती,तब आप अपने दोस्तों से गर्व से कहते....मेरी बेटी है,ससुराल में कुछ भी दुख तकलीफ़ हो हमसे कभी नहीं कहती,सब सहती रहती है,बड़ी अच्छी बेटी है हमारी ,बड़ा मान बनाकर रखा है हमारा अपने ससुराल में... तब आपके दोस्त कहते... बेटी!धूप में क्यों खड़ी हो?पैरों में चप्पल भी नहीं,पैर जल जाएंगे... तब आप गर्व से कहते.... हमारी बेटी है इसे तो सहने की आदत है, मैं संकोचवश सिर झुकाएं यूँ ही खड़ी रहती तब आप पूछते.... समधी जी ठींक हैं,दमाद जी की मास्टरी कैसी चल रही है और नाती क्यों नहीं आया इस बार.... आपके प्रश्नों से मन आहत होता था क्योकिं उन प्रश्नों में मैं कहीं भी शामिल नहीं होती थी कि बेटी तुम कैसी हो,अच्छा हुआ जो तुम आईँ... फिर आप सुनाने लगते,अब की बार बारिश नहीं हुई तो गेहूँ की लागत अच्छी ना निकली,ओले पड़े तो सरसों का फूल खेत में ही मर गया,बैल मर गया था.....इत्यादि....इत्यादि.... लेकिन मेरी समस्याओं का क्या? ये सुनकर मेरी आँखें डबडबा जातीं और मैं आसमान की ओर देखने लगती ,तब भतीजी कहती है बुआ!धूप है भीतर चलो और मैं भीतर चली जाती ...... लेकिन तब मेरा मन चीखकर आपसे पूछना चाहता था कि क्या आपकी सभी समस्याओं की भाँति मैं भी आपके लिए केवल एक समस्या मात्र थी....लेकिन कोई फायदा नहीं क्योंकि अगर मैनें ये पूछा तो उस पल मैं आपकी भद्र बेटी से अभद्र बेटी हो जाऊँगी... क्योंकि बुआ कहा करती थी कि कब तक बैठाकर रखोगे इसे अपने घर में, भाइयों के लिए कुछ छोड़ेगी या नहीं कि सब चर जाएगी,भाइयों को हाय लगती है ,सो पिता लो सब छोड़ दिया अपने भाइयों के लिए अब हाय नहीं लगेगी,सब उन्हीं का तो है.....बेटी का तो ना उस घर में कुछ है और ना इस घर में कुछ है,कभी तो पढ़ा होता मेरा अन्तर्मन...... समाप्त.... सरोज वर्मा.....
जिन्दगी की पहेली..... कितनी उलझी उलझी सी है ये जिन्दगी की पहेली, तड़प,कितने आँसू कितना दर्द और जान अकेली, कभी तो बाबुल से बिछड़ने का ग़म तो कभी पिया मिलन की जल्दी जैसे दुल्हन हो नयी नवेली, खुशी के आँसू तो कभी ग़म के आँसुओं की झड़ी, विरहा की तड़पती रातें तो कभी मिलन की रुत अलबेली, कितना इन्तजार किया,रसिया मनबसिया नहीं आया, सालों से सूनी पड़ी है मेरे दिल की हवेली... कभी रो रो के रातें काटीं तो कभी हँस के अलविदा कहा, कितनी बार लोंगो की नफरत भरी निगाहें हैं झेलीं, ये जिन्दगी है ऐसी किसी पल हँसे तो कभी रोएं, जिन्दगी ने दिखाएं हैं कितने कितने रंग सहेली, फाग तो हरदम दिल तोड़ने वालों ने है खेली, हमने तो दिल के लहू से हैं खेली हरदम यहाँ होली.... याह....खुदा ना तो अब मरहम की जरूरत है, ना ही दुआओं की,दिल तोड़ने वालों ने मेरी जान ही ले ली.... समाप्त.... सरोज वर्मा....
बहुत अलग है हम दोनों, तू खारा समुन्दर, मैं मीठी नदी सी, तू आग मैं पानी सी, तू जलता सूरज मैं फसल धानी सी, तू ज्ञानी ध्यानी , तू चतुर सयाना,मुझे में है नादानी सी, तू काली रात का रौशन जुगनू,मैं रंगबिरंगी तितली सी, इतने हैं विपरीत हम दोनों फिर भी नहीं कोई बात हमारे बीच अन्जानी सी, समाप्त... सरोज वर्मा.....
नफरत... बड़ी नफ़रत से करता है ये ज़माना, जमाने की बातें, खुद के भीतर झाँकता नहीं, बस दिखलाता है अपनी जातेँ, फैलती जा रही है नफ़रत की आग इस जमाने में, उस नफ़रत की आग को बुझाने के लिए बेहतर है कि इश़्क करो, जिन्दा ना जलाओ लोगों को ना ही किसी का कत्ल करों, नफ़रत है जहाँ में तो यहाँ मौहब्बत भी कम नहीं, तू कोशिश तो कर नफ़रत मिटाने की, मौहब्बत से बड़ी कोई क़ौम नहीं, वही नफ़रत है,वही दहशत है,इस बात का क्या मतलब, इन्सान इन्सान रटता रहता है लेकिन तू इन्सान बनेगा कब, जख्मी है इन्सानियत,जख्मी हो रहे हैं मुल्क, इस नफ़रत को समेटने कोई तो आएं अब, देखते हैं दिन बदलते हैं कब,हाथों में हाथ, मिलते हैं कब, इन्तज़ार हैं सभी को उस वक्त का,गुलिस्ताँ सँवारने कोई मसीहा आएं तो अब, समाप्त..... सरोज वर्मा....
ये बादल, ये घटा ,ये बिजलियाँ,ये सावन की बूँदें, मैं तो हरदम तरसा हूँ तेरे इन्तज़ार में आँखें मूँदें, शामें फीकीं मेरी ,रातें तो हैं अभागन जैसी, अब के मेरी आँखों में रूत आई है सावन जैसी, तेरी धानी चुनर दिखती है आज भी सावन की तरह, हसरत थी मेरी,मैं माँग सजाता तेरी सुहागन की तरह, तू रूठी है तो अब धूल धूल है सावन मेरे लिए, कल तक फूल था अब बबूल है सावन मेरे लिए, तू अपनी सखियों संग झूला झूलना इस सावन, मेरा क्या है मैं तो फाँसी पर झूल जाऊँगा इस सावन, तेरा सोलहवाँ सावन मुबारक हो मेरी बहारा तुझको, अब ये सावन मौंत की नींद सुला रहा है मुझको, Saroj verma....
आदर्श... आदर्श एक वाणी सम्बन्धी कलाबाजी है,जो कि मुझे नहीं आती, मैं तो हूं एक सीधा सादा सा आदमी इस कलाबाज़ जमाने का, आदर्श का ढकोसला ओढ़ना मेरे बस की बात नहीं, मैं कपटी नहीं, बेईमान नहीं,बहती ही भावों की प्रबलता मेरे भीतर, मैं खड़ा हूं यथार्थ के जीवित शरीर पर, क्योंकि मेरा मन मृत नहीं, मैं हंँस नहीं सकता बहुरूपियों की भांँति,झूठे आंँसू बहा सकता नहीं किसी के शोक पर, मैं अगर बना आदर्शवादी तो खो दूंँगा वजूद अपना,आत्मा धिक्कारेगी मेरी मुझ पर और करेगी प्रहार मेरे कोमल मन पर सदैव ,दम सा घोटने लगें हैं अब ये आदर्श मेरे, क्योंकि मेरी आदर्शवादिता ने छला है सदैव मुझको, शायद खो चुका हूंँ स्वयं को मैं कर्तव्य निभाते निभाते,तब भी अकेला था अब भी अकेला ही हूँ मैं, आदर्श एक ऐसा भ्रम है, जो केवल देता है विफलता, क्योंकि आपके कांधे पर चढ़कर सफल हो जाता है और कोई, आदर्श एक ऐसा टैग है जिसे लोगों ने चिपका दिया है आप पर, केवल आपको बेवकूफ बनाने के लिए,ऐसे लोंग जो करते हैं केवल आपसे ही अपेक्षाएं, आदर्श बनने का नियम वें लागू नहीं कर सकते स्वयं पर, क्योंकि आप हैं ना उन की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए... इसलिए आदर्श बनने की इच्छा ने अब दम घोंट लिया है मेरे अन्तर्मन में, मैं जैसा हूंँ बढ़िया हूंँ, अच्छा हूंँ नहीं बनना मुझे अब आदर्श किसी का.... समाप्त.... सरोज वर्मा....
मैं स्त्री हूंँ..... मैं स्त्री हूँ और मुझे स्त्री ही रहने दो कृपया मुझे देवी का स्थान मत दो,क्योंकि देवी का स्थान देकर ये संसार मुझे शताब्दियों से केवल ठगता ही आया है,मैं भी सभी की भाँति अस्थियों एवं लहू से बनी हूँ,मेरे भीतर भी वैसे भी भाव आते हैं जैसे कि सबके भीतर आते हैं,मुझे भी अत्यधिक नहीं किन्तु कुछ सम्मान की आशा रहती है,मेरा भी एक मन हैं जो कभी कभी स्वतन्त्रता एवं स्वमान चाहता है, ये सत्य है कि विधाता ने स्त्री को पुरुष की तुलना में कोमल एवं संवेदनशील बनाया है परन्तु ये तो नहीं कहा जा सकता कि उसका क्षेत्र पुरूषों से पृथक है तो क्या इसलिए उसे जीवनपर्यन्त पुरूष के संरक्षण में रहना होगा।। सामाजिक जीवन में कभी भी स्त्री पुरूष के समकक्ष सम्मान की अधिकारिणी नहीं बन पाई,स्त्री की वास्तविक स्थिति पर विचार करें तो आदर्श एवं यथार्थ में बड़ा अन्तर दृष्टिगत होता है।। सच तो ये है कि समाज का पुरूष ,स्त्री की भूमिका को विस्तारित नहीं करना चाहता,उसे भय है कि कहीं स्त्री के अभ्युदय से उसका महत्व एवं एकाधिकार ना समाप्त हो जाए,किन्तु ये पुरूष समाज ये क्यों नहीं समझता कि जब स्त्री प्रसन्न होगी तभी तो वो सभी को प्रसन्न रख पाएगी, मैं अधिक तो नहीं ,कुछ ही धरती माँगती हूँ स्वयं के लिए कि जब भी मेरा मन खिलखिलाने का करें तो खिलखिला सकूँ,बस आकाश का कुछ अंश चाहिए कभी कभी मुझे भी अपने सिकुड़े हुए पंखों को फैलाने का मन करता है,एक ऊँची उड़ान भरने का मन करता है,मै भी कभी कभी रंग बिरंगी तितलियों के पीछे भागना चाहती हूँ,रातों को खुले आसमान में तारों को निहारना चाहती हूँ,कभी कभी जुगुनुओं को मुट्ठी में भरना चाहती हूँ,बस इतना ही चाहती हूँ।। मैं जीवनभर अपने परिवार के प्रति समर्पित रहती हूँ तो क्या मुझे इतना अधिकार नहीं मिलना चाहिए कि कुछ क्षण केवल मेरे हों और उन क्षणों में मैं अपने स्त्रीत्व को खोज सकूँ,अपनी कल्पनाओं को उडा़न दे सकूँ,मैं केवल कुछ क्षणों का सूकून चाहती हूँ.....केवल....सूकून..... मैं स्वयं को पाना चाहती हूँ,वर्षों से खोज रही हूँ स्वयं को अब तो खोज लेने दो स्वयं को , समाप्त..... सरोज वर्मा....
अधूरी मौहब्बत..... एक दरिया है खारा सा, एक नदिया है प्यासी सी, एक जंगल है वीरान सा, एक दिल है खाली सा, सभी को कुछ तो आश है, सभी के दिल में एक प्यास है, आश है मिलन की , और प्यास है मौहब्बत की, लेकिन कहाँ पूरी होतीं हैं ख्वाहिशें सभी की, किसी का मिलन अधूरा तो किसी की मौहब्बत अधूरी.. Saroj verma.....❤️
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