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अधूरी मौहब्बत..... एक दरिया है खारा सा, एक नदिया है प्यासी सी, एक जंगल है वीरान सा, एक दिल है खाली सा, सभी को कुछ तो आश है, सभी के दिल में एक प्यास है, आश है मिलन की , और प्यास है मौहब्बत की, लेकिन कहाँ पूरी होतीं हैं ख्वाहिशें सभी की, किसी का मिलन अधूरा तो किसी की मौहब्बत अधूरी.. Saroj verma.....❤️
आत्मदर्शन..!! आत्मा ना कभी वृद्ध होती है और ना कभी मर सकती है, अतः इसे अजर और अमर कहा जाता है, उसमे अपरिमित ज्ञान,अपरिमित शक्ति तथा अपरिमित आनन्द विद्ममान है, आत्मा ज्ञान का अक्षय भण्डार है, ज्ञान तथा शक्ति के संग आनन्द भी विद्ममान रहता है।। वास्तव में ज्ञानस्वरुप होने पर भी आत्मा अविद्या के प्रभाव से अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने में असमर्थ रहती है, इसी कारण वह स्वयं को अल्पज्ञ समझती है, इसी अल्पज्ञता के कारण वह स्वयं में शक्ति का अभाव मानती है और ज्ञान तथा शक्ति की कमी के कारण वह आनन्द का अनुभव ना करके दुःख का अनुभव करती है।। और ये तो सबको पता है कि संसार में दुःख का मूल कारण अज्ञानता ही होता है, पूर्ण ज्ञान तथा शक्ति के अभाव में आत्मा केवल यही अनुभव करती है कि कोई ऐसी वस्तु है, जिसे वो अभी तक प्राप्त नहीं कर पाई है, लेकिन वह क्या है ?यह वह नहीं जान पाती ,वह उस खोई हुई वस्तु को जानने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहती है, आत्मा उसको खोजने के लिए उचित मार्ग का ज्ञान ना होने के कारण कभी किसी ओर तो कभी किसी ओर दौड़ती रहती है, परन्तु वास्तविक वस्तु क़े प्राप्त ना कर सकने के कारण हमेशा असंतुष्ट रहती है, क्योंकि उसे किसी विषय में अपने स्वरूप की प्राप्ति नही होती,इस प्रकार जब आत्मा को अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं होता तो वह स्वयं को अपूर्ण समझती रहती है और सदैव ही आनन्द को खोजने का प्रयास करती रहती है।। अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने के लिए चित्त की चंचलता को दूर करके उसे एकाग्र रखना परमावश्यक है, अतः चित्त की एकाग्रता को आत्मदर्शन का प्रधान साधन माना जाता है, चित्त की एकाग्रता से ही आत्मदर्शन होता है और यही मनुष्य का सबसे बड़ा पुरूषार्थ है।। "मैत्री करूणामुदितोपेक्षाणाम् भावना तस्य चित्त प्रसादम् ॥" सरोज वर्मा__
बरसो राम धड़ाके से...!! (साहिर लुधियानवी) बरसो राम धड़के से बुढ़िया मर गई फाँके से कलजुग में भी मरती है सतजुग मे भी मरती थी ये बुढ़िया इस दुनिया में सदा ही फाँके करती थी जीना उसको रास ना था पैसा उसके पास ना था उसके घर को देख के लक्ष्मी मुड़ जाती थी नाके से बरसो राम धड़ाके से झूठे टुकड़े खाके बुढ़िया तपता पानी पीती थी मरती है तो मर जाने दो पहले भी कब जीती थी जय हो पैसे वालों की गेहूँ के दल्लालों की उन का हद से बढ़ा मुनाफ़े कुछ ही कम है डाके से बरसो राम धड़ाके से रचनाकार--साहिर लुधियानवी
साहित्य और समाज...!! (सहितस्य भावः साहित्यः)--'साहित्य' शब्द 'सहित' से बना है(स+हित=हितसहित) (समाज)--एक ऐसा मानव समुदाय ,जो किसी निश्चित भू-भाग पर रहता हो और जो परम्पराओं, धर्म एवं संस्कृति से आपस में जुड़ा हो तथा भाषाओं का प्रयोग करता हो समाज कहलाता है।। साहित्य और समाज का पारस्परिक समम्बन्ध है, क्योंकि साहित्य ही समाज का दर्पण होता है,समाज और साहित्य परस्पर घनिष्ठ रूप से आबद्ध हैं, साहित्य का जन्म समाज से ही होता है, साहित्यकार किसी समाज विशेष का ही घटक होता है, वह अपने समाज की परम्पराओं ,इतिहास, धर्म एवं संस्कृति आदि से ही प्रेरित होकर कोई रचना रचता है और उसी रचना में उसके समाज का भी चित्रण होता है।। इस प्रकार साहित्यकार अपनी रचना की सामग्री किसी समाज विशेष से ही चुनता है तथा समाज में घटित घटनाओं का लेखा जोखा प्रस्तुत करता है, इस प्रकार किसी भी साहित्य को जब भी पढ़ा जाता है तो मानसपटल पर एक चित्र अंकित हो जाता है।। साहित्य समाज से ही जन्म लेता है क्योंकि साहित्यकार समाज विशेष का ही अंग होता है, इस प्रकार इतिहास में ना जाने कितने साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से ना जाने व्यापक सामाजिक क्रान्ति द्वारा अनिष्टकर रूढ़ियों ,सड़ी गली भ्रष्ट परम्पराओं एवं ब्यवस्थाओं तथा समाज की जड़ को खोखला बनाने मूढ़तापूर्ण अन्धविश्वासों का उन्मूलन कराकर स्वस्थ परम्पराओं की नींव डलवाई,,इस प्रकार सम्पूर्ण मानवता साहित्यकारों के अनन्त उपकार से दबी है, जिसका ऋण समाज कभी नहीं चुका सकता।। यही कारण है कि महान साहित्यकार किसी विशेष देश,जाति,धर्म एवं भाषाशैली समुदाय में जन्म लेकर भी सारे विश्व का प्रिय बन जाता है,किन्तु साहित्यकार की महत्वता इसमे है कि वह अपने युग की उपज पर बँधकर नहीं रह पाता बल्कि अपनी रचनाओं से समाज को नई ऊर्जा एवं प्रेरणा देकर स्पन्दित करता रहता है।। क्योंकि संसार का सारा ज्ञान विज्ञान मानवता के शरीर का पोषण करता है, एकमात्र साहित्य ही समाज की आत्मा का पोषक है।। जल उठा स्नेह दीपक-सा नवनीत हृदय था मेरा, अब शेष धूमरेखा से चित्रित कर रहा अँधेरा । सरोज वर्मा___
संस्कृति..!! संस्कृति को राष्ट्र का मस्तिष्क कहा गया है, युगों युगों से मानव ने दीर्घकालीन विचार मन्थन के बाद जिस सभ्यता का निर्माण किया है, वही संस्कृति कहलाती है, संस्कृति मानव जीवन का अभिन्न अंग है, उसके बिना मानव का जीवन उसी प्रकार निष्प्राण है, जैसे शरीर में मस्तिष्क के बिना धड़ निष्प्राण और व्यर्थ रहता है, शरीर मे जैसे मस्तिष्क का महत्वपूर्ण स्थान होता है, उसी प्रकार संस्कृति हमें चिन्तन का अवसर देती है, संस्कृति के बिना मानव की कल्पना नहीं की जा सकती।। राष्ट्र का स्वरूप निर्धारण करने वाले तत्वों मे से एक तत्व संस्कृति भी है, इसमे ज्ञान और कर्म का समन्वित प्रकाश होता है, भूमि पर बसने वाले मनुष्य ने ज्ञान के क्षेत्र में जो सोचा और कर्म के क्षेत्र में जो रचा है, वही राष्ट्रीय संस्कृति होती है और उसका आधार आपसी सहिष्णुता और समन्वय की भावना है।। संस्कृति जीवनरूपी वृक्ष का फूल है, जिस प्रकार वृक्ष का सौन्दर्य पुष्प के रूप मे प्रकट होता है, उसी प्रकार जन का चरम उत्कर्ष एवं उसके जीवन का सौन्दर्य संस्कृति के रूप में प्रकट होता है, जैसे पुष्प की सुन्दरता और महक से वृक्ष का सौन्दर्य निखरता है, उसी प्रकार संस्कृति के कारण ही जन का जीवन सुन्दर ,सुगन्धमय और सद्भावनापूर्ण बनता है, जिस राष्ट्र की संस्कृति जितनी श्रेष्ठ होगी ,उस राष्ट्र के जन का जीवन भी उतना ही श्रेष्ठ और उत्तम होगा।। मनुष्य अपने सतत कर्म करता हुआ सदैव ज्ञान की खोज में लगा रहता है, मनुष्य ज्ञान द्वारा जो सोचता है और कर्म द्वारा जो प्राप्त करता है, वह उसकी संस्कृति में दिखाई पड़ता है,इस प्रकार संस्कृति जीवन के विकास की प्रक्रिया है, हर जाति के जीवन जीने का एक अलग रंग-ढ़ंग होता है, अतः विविध जनों की विविध भावनाओं के अनुसार राष्ट्र में अनेक संस्कृतियाँ फलती-फूलती रहतीं हैं, परन्तु सब संस्कृतियाँ अलग अलग होतीं हुईं भी वास्तव में सहनशीलता और आपसी मेल-जोल की एक मूल भावना पर आधारित होतीं हैं।। इस प्रकार सभी संस्कृतियाँ एकसूत्र में बँधकर सम्पूर्ण राष्ट्र की सम्मिलित संस्कृति को व्यक्त करती हैं,किसी राष्ट्र के सबल अस्तित्व के लिए इस प्रकार की एकसूत्रता आवश्यक हैं।। समाप्त___ सरोज वर्मा__
प्रजेन्टेशन..!! रेनू! सलोनी कहाँ है?उससे कहो कि लड़के वालों के आने का टाइम हो गया है, जरा तैयार हो जाएँ,मधु ने अपनी छोटी बेटी रेनू से पूछा।। शायद छत पर होगीं, रेनू ने जवाब दिया।। उसे तैयार कर दे उसे और देख तू ज्यादा तैयार मत होना, पता चला फिर से पिछली बार की तरह लड़के वाले तुझे ही पसंद कर लें,मधु बोली।। ठीक है मां,अभी दीदी से तैयार होने को कहतीं हूं, रेनू बोली।। और उधर सलोनी के पापा सुधीर ने भी पूरे घर में उथल-पुथल मचा रखी है,ना जाने कितने बार तो वो बाजार दौड़े,सारी चीज़ें अपने तरीके से की,बैठक की सफाई उन्होंने खुद की और साज सज्जा का ख़ासतौर से ख्याल रखा,जो भी नाश्ता बनाया गया है मेहमानों के लिए पहले उन्होंने ही चख कर देखा कि अच्छा बना है या नहीं।। सुधीर ने अपने तरीके से सारी जांच कर लेने के बाद मधु से पूछा, सलोनी तैयार हुई या नहीं,इस बार थोड़ा कायदे से तैयार करना उसे।। हां, मैंने अभी रेनू से कहा है कि उसे तैयार कर दे,मधु बोली। तभी रेनू ने छत पर जाकर देखा कि सलोनी उदास खड़ी है।। चलो दीदी! तैयार हो जाओ,रेनू बोली।। नहीं रेनू!मेरा मन नहीं कर रहा है,तीन बार ऐसा हो चुका है ,लड़के वाले आते हैं,मेरा सांवला रंग देखकर मना करते हैं या तो दहेज की रकम बढ़ा देते हैं, नहीं दीदी ऐसा मत सोचो,चलो तैयार हो जाओ शायद इस बार सब ठीक हो,रेनू बोली।। सलोनी तैयार होकर लड़के वाले के सामने पहुंची, उससे सवाल पूछे गए।। फिर चाय नाश्ता हुआ उसके बाद लंच, फिर और भी बातें हुई और बात फिर से दान दहेज पर आ कर अटक गई।। लड़के वाले बोले,आपकी बेटी भी तो सांवली है।। इस बार रेनू चुप नहीं रह पाई और बोल पड़ी__ आप लोगों को पता है,मेरी दीदी आॅलराउण्डर रही हैं और काॅलेज में गैल्डमैडलिस्ट लेकिन हमारे देश की सबसे बड़ी बिडम्बना है कि मां बाप बेटी के दहेज के लिए तो खर्चा करते हैं लेकिन उसकी पढ़ाई में खर्चा नहीं करना चाहते और इस तरह दहेज के नाम पर उसके हिस्से की जमा-पूंजी बेटी को भी नहीं मिलती,ले जाता है कोई और।। लड़के वाले उनकी बेटी को देखने आते हैं और मां बाप उसे एक प्रोडक्ट की तरह उसकी नुमाइश करते हैं,और घर को ही प्रेजेन्टेशन का माहौल बना दिया जाता है कि हमारा प्रोडक्ट पसंद कर लिया जाए, लेकिन ये कभी नहीं देखा जाता कि लड़की में भी काबिलियत है,क्या पता लड़की को भी मौका मिले और वो उस लड़के से भी आगे निकल जाए लेकिन नहीं लड़की की काबिलियत हमेशा लड़कों से कम आंकी जाती है।। आखिर कब तक बेटी के मां को इस तरह की प्रेजेन्टेशन देनी पड़ेगी और आप लोग क्या मेरी दीदी को रेजेक्ट करेंगे,हम लोगों को आपका लड़का पसंद नहीं है और इतना कहकर रेनू , सलोनी से बोली__ चलो दीदी! तुम अपने इंटरव्यू की तैयारी करो, नौकरी मिल जाएगी तो तुम्हें किसी के सहारे की जरूरत नहीं है और रेनू, सलोनी को अंदर ले गई। सब चुप होकर देखते रह गए। समाप्त__ सरोज वर्मा__
अंज़ाम..!! वो महफ़िल में आए कुछ इस तरह जैसे अंधेरे में जल उठे हों चिराग़ कई देखीं जो झुकती हुई निगाहें उनकी यूं धड़का जोर से नादां दिल ये मेरा दोनों में भ्रम कायम है बस यही काफ़ी है हमने उनसे कहा नहीं, उन्होंने हमसे पूछा नहीं मन तो किया कि उनकी बंदगी कर लूं लेकिन होंठों का बंधन खुल ना सका इज़हार-ए-इश़्क हो ना सका, नतीजा ये हुआ कि अब ये आंखें दिन रात बरसतीं हैं उसके बाद तो ये आलम रहा कि जिन्दा रहते हुए ,ना वो जिन्दा रहें और हम जिन्दा हैं...!! SAROJ VERMA__
विकास...!! मानव शरीर में तीन अंग महत्वपूर्ण और प्रमुख हैं__ मस्तिष्क, हृदय और पेट इसमें सबसे ऊंचा और प्रथम स्थान मस्तिष्क का है,उसके बाद हृदय और पेट का, पशुओं का हृदय और पेट समानांतर रहता है परन्तु मानव का नहीं।। मानव शरीर में पेट का स्थान सबसे नीचे और मस्तिष्क का सबसे ऊपर होता है,पेट और मस्तिष्क समानांतर रेखा में होने के कारण पशु का पेट भरने से ही सम्पूर्ण संतुष्टि मिल जाती है किन्तु मानव को सिर्फ पेट की ही भूख नहीं होती,उसे तो और भी कुछ चाहिए। सम्भवतः इसीलिए मनुष्य के मस्तिष्क और हृदय ने उसके पेट पर विजय प्राप्त कर ली अर्थात् पशु अभी भी पेट को पाल रहा है और मनुष्य कितना आगे निकल गया है?मानव पेट से भूख , हृदय से भाव और मस्तिष्क से विचार का जन्म होता है पशु पेट और हृदय समानांतर होने से उसमें भूख और भाव समान हैं किन्तु मानव जब सजग होकर खड़ा हुआ तो उसके पेट का स्थान सबसे नीचे आ गया,हृदय का उसके ऊपर और मस्तिष्क का सबसे ऊपर, परिणाम यह हुआ कि भूख पर भाव ने विजय प्राप्त कर ली,इसी विजय भाव के ही कारण मनुष्य में सौन्दर्यानुभूति का विकास हुआ।। भौतिकता की उन्नति से मनुष्य में स्वार्थ,लाभ, घृणा,द्वेष आदि की वृद्धि होती है और उसमें दया, करूणा,प्रेम, सहानुभूति आदि मानवीय भावनाओं का अभाव हो जाता है ।। सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विकास के द्वारा ही मानव में दया, करूणा,प्रेम, सहानुभूति आदि मानवीय भावनाओं का विकास होता है और इस प्रकार सांस्कृतिक तथा अध्यात्मिक विकास मानव को सच्चे अर्थों में मानव बना देता है। पशु और मनुष्य की शरीर रचना तुलना करने पर ज्ञात होता है कि पशु के पेट,मन और मस्तिष्क एक सीध में हैं, किन्तु मनुष्य के शरीर में पेट सबसे नीचे है, हृदय उससे ऊपर हैं और मस्तिष्क सबसे ऊपर है।। भाव यह है कि पशु भोजन,भाव -विभोरता और बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में समान रूप में व्यवहार करता है और इसके कारण उसकी स्थिति में कोई अन्तर नहीं आता किन्तु मानव जीवन में भोजनादि दैनिक आवश्यकताओं की अपेक्षा दया, करूणा,प्रेम,आदि हार्दिक भावों की श्रेष्ठता हैं और उससे अधिक श्रेष्ठ बुद्धि है।। संस्कृत साहित्य में पशु और मनुष्य के अंतर को निम्न रूप से कहा गया है_____ आहार निद्रा भय मैथुनम् च, सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्। ज्ञानम् हि तेषामिधिकम् विशेषम्, ज्ञानेन हीन: पशुभि: समाना:।। उपरोक्त पंक्तियों में मानव शरीर को मानव समाज का प्रतीक कहा गया है।। saroj verma....
संतुलन..!! अगर जीवन के किसी मोड़ पर चलते चलते आपको ठोकर लग जाए और थोड़ी देर के लिए आप अपना संतुलन खो दे तो इसका ये मतलब नहीं कि आप हतोत्साहित होकर रोने बैठ जाए अपने मन को स्थिर रखकर एकाग्रता से सोचे कि आप गिरे किस वजह से आपके अंदर ऐसी क्या कमी थी फिर थोड़ा विश्राम करें और फिर अपने गंतव्य की ओर बढ़ चले क्योंकि अभी आपके लिए विराम लेने का समय नहीं आया है ये तो आपके लिए अल्पविराम था ताकि आप फिर से अपने अंदर एक नवशक्ति और प्रबल इच्छाशक्ति का संचार कर सके जो कि आपको अपने एक नए उज्जवल भविष्य की ओर ले जाएगी।।
बावरा मन..!! तुम कोई पाइनेप्पल केक तो नहीं या फिर कोई वनीला आइसक्रीम जिसे देखते ही मन खुशी से भर जाए तुम कोई रेड चेरी लिपस्टिक तो नहीं या के कोई बनारसी साड़ी जिसे पाने को मन लालायित हो उठे..... तुम तो मेरे लिए हो मटके का ठंडा जल हो या फिर बांस का बना हुआ पंखा जिसे झलने पर चेहरे का पसीना सूख जाता है... तुम्हें देखकर सांसें नहीं रूकती वो तो चलने लगती है ये देखकर कि तुम हो मेरे पास हो, मेरी जिन्दगी में हो.... तुम पास होते हो तो लगता हैं कि मैं कितनी अमीर हूं, तुम हो तो मैं तृप्त हूं, संतुष्ट हूं,पूर्ण हूं,खुश हूं... तुम मेरे साथ दिन रात तो नहीं रह सकते लेकिन मैं तुम्हारे बिन जीने का सोच भी नहीं सकती,क्या करूं बावरा मन है मेरा..!! SAROJ VERMA...
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