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नाम ; डॉ. प्रणव भारती शैक्षणिक योग्यता ; एम. ए (अंग्रेज़ी,हिंदी) पी. एचडी (हिंदी) लेखन का प्रारंभ ; लगभग बारह वर्ष की उम्र से छुटपुट पत्र-पतिकाओं में लेखन जिसके बीच में 1968 से लगभग 15 वर्ष पठन-पाठन से कुछ कट सी गई हिंदी में एम.ए ,पी. एचडी विवाहोपरांत गुजरात विद्यापीठ से किया शिक्षा के साथ लेखन पुन:आरंभ उपन्यास; ----------- -टच मी नॉट -चक्र -अपंग -अंततोगत्वा -महायोग ( धारावाहिक रूप से ,सत्रह अध्यायों में दिल्ली प्रेस से प्रकाशित ) -नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि -गवाक्ष -मायामृग -शी डार
सुभोर स्नेही मित्रो चंचल मन ------------ चंचल मन बिगड़ैल पवन है बार-बार ये रो जाता है दुपहरी , साँझ कभी फिर घनी रात सा सो जाता है कभी पलस्तर मन के उखड़ें,कभी लगें पैबंद वहीं पर , कभी स्मृतियों के गलियारे में भटकता और खो जाता है । जाने कितनी-कितनी पीड़ा ढोता रहता है जीवन भर , जाने कितने -कितने आँसू पोंछा करता है जीवन भर । फिर भी मुस्कानों को दिल मे चादर सा फैला देता है , आँख मींचकर चादर ताने सबसे छिप सोता रहता है । कितने कितने किये जतन पर व्यर्थ रहा सबको बहलाना , एक बात ही शाश्वत समझी और वही है 'आना-जाना'। किसने यूँ दुत्कार दिया है और है 'इसने मिसरी घोली', फर्क पड़ा क्या मनुआ तुझको बार-बार कहता रहता है । तू तो चल अपनी राहों पर,कोई साथ न आये तो क्या? तू फैला स्नेह की छाया कोई पास न आये तो क्या ? शिकवे और शिकायत से क्या जीवन में खुशियां आती हैं ? कोशिश कर ,समझा सकता तो ,जीवन तो बहता रहता है ॥ डॉ.प्रणव भारती
गीत दर्द के आँखों में क्यों भरे हुए प्रीत -रीत के लम्हे क्यों हैं डरे हुए कौन -कहाँ से आए हैं वहशत के स्वर अँगनाई के पुष्प सभी बैठे डरकर !! डॉ प्रणव भारती
संबंधों की महानगरी में एक नन्हा सा पौधा रोप लें आओ सबमें ढाई आखर बाँट लें ! सस्नेह डॉ . प्रणव भारती
आज के दिन ----------------- पता नहीं पापा कैसे याद किया जाए आपको? कुछ रक्त के रिश्ते ऐसे जो भुलाए कहाँ जा सकते हैं? सिमटे रहते हैं हमारे भीतर वे हर पल पकड़े रहते हैं विचारों की ऊँगलियाँ जिनके सहारे सोचते हैं हम बहुत कुछ, ला पाते हैं उसे व्यवहार में व्यक्तित्व चमकता है... गाँधी जी की चिता के दर्शन करने माँ-पापा भयंकर भीड़ में चले दिल्ली छह माह की अपनी बची ख़ुशी को एक सफ़ेद तौलिए में लपेटे भीड़ के साथ घिसटते हुए.... हो गई रात, बिछड़ गए सभी सोचा, आज गई ये बची खुची भी लेकिन आश्चर्य बच गई ! भूखी,प्यासी उछलकर... पापा ! आपने बताया जीवन के अंतिम क्षण तक बने रहना है छात्र ! हम कभी नहीं होते 'परफेक्ट' कितनी भी शिक्षा क्यों न हो.. एक और बात मस्त रहे ज़िंदगी भर घूमते देश-विदेश वेदों का करते प्रचार... अंतिम समय में क्यों रहे उदास? 'जो जीवन जी रहे हो बैस्ट है ' बताया मुझे... क्यों? प्रश्न छोड़ गए...। योग करने जाते हुए टकराकर गाड़ी से हो गए शांत सदा के लिए 'पोस्ट मार्टम' के लिए आपको ले जाते हुए देख मैं रो नहीं सकी... सोच रही थी 'आप हर समय 'शतं जीवेत्' की भावना भरते रहे लेकिन.... आज प्रश्न बने,श्वेत वस्त्र में लिपटे आप मेरे सामने थे मेरे होठों पर जाने क्यों व्यंग्य पसर गया था.... डॉ. प्रणव भारती
चंचल मन बिगड़ैल पवन है बार-बार ये रो जाता है कभी दुपहरी , साँझ कभी फिर घनी रात सा सो जाता है कभी पलस्तर मन के उखड़ें,कभी लगें पैबंद वहीं पर , कभी स्मृतियों के गलियारे में रहे भटकता खो जाता है । जाने कितनी-कितनी पीड़ा ढोता रहता है जीवन भर , जाने कितने -कितने आंसू पोछा करता है जीवन भर । फिर भी मुस्कानों को दिल मे चादर सा फैला देता है , आँख मींचकर चादर ताने सबसे छिप सोता रहता है । कितने कितने किये जतन पर व्यर्थ रहा सबको बहलाना , एक बात ही शाश्वत समझी और वही है 'आना-जाना'। किसने यूँ दुत्कार दिया है और है 'इसने मिसरी घोली', फर्क पड़ा क्या मनुआ तुझको बार-बार कहता रहता है । तू तो चल अपनी राहों पर,कोई साथ न आये तो क्या? तू फैला स्नेह की छाया कोई पास न आये तो क्या ? शिकवे और शिकायत से क्या जीवन में खुशियां आती हैं ? कोशिश कर ,समझा सकता तो ,जीवन तो बहता रहता है ॥ डॉ प्रणव भारती
आँखों में बातों में भीड़ में , अकेले में साँसों संग,दुकेले में पूरब में ,पश्चिम में सब जगह ,सब ओर झाँक-झाँक देखा मैंने कहीं न मिला -- हाथों से फिसला सा आँखों में पिघला सा साँसों में बंद कहीं फिर भी स्वछंद कहीं घरवाले ,बेघर सा जीवन या मरघट सा -- सब जगह ,सब ओर ताक-ताक देखा मैंने कहीं न मिला --- गलियों की ख़ाकों में दीन -हीन फाँकों में बंसी की तानों में भँवरे के गानों में खिलती सी कलियों में निर्मम सी गलियों में उत्तर में ,दक्खिन में सब जगह ,सब छोर -- पात-पात देखा मैंने -- कहीं न मिला --- मेरा मैं ---!! डॉ.प्रणव भारती
सुभोर स्नेहियों --------------- निर्वाक,मौन,स्तब्ध फुदकती सी ,किलकती सी वह ताज़ी सुगन्धित किशोरी पवन ले जाती है मुझे जाने कहाँ-कहाँ बिठाकर सपनों के उड़न -खटोले में सदियों से आस से,प्यास से तरसता भ्रमित मन डोलने लगता है ---- और ---जैसे सारा संसार डोलने लगता है | डॉ. प्रणव भारती
मन ----- लौटते मधुमास की बारात है मन क्षीण साँसों तले एक आस है मन हम कहाँ से इन घटओं में सिमटते गत विभा जी आखिरी साँस है मन पल कई जब धूप में से हैं गुज़रते छांह का कोमल -मधुर आभास है मन लौटते बेघर घरों को जब सभी हैं बीतते पल की उदासी ,दास है मन मन की परिभाषा करें कि कैसे खुद ही अपनी परिभाषा का एक एहसास है मन !! शुभ रात्रि मित्रों डॉ.प्रणव भारती
सुभोर मित्रो मन ! तू केवल बाँट स्नेह , शेष किसी चीज़ की नहीं रहेगी आवश्यकता !! सस्नेह प्रणव भारती
इतने बड़े जहान में कोई मिला नहीं , मैं कौन हूँ ? क्या हूँ ? मुझे इसका सिला नहीं ---- पाया है सभी चेहरे तो बदरंग हैं यहाँ , अपने -पराए हैं कहाँ ,कोई मिला नहीं ---- धोबी के घाट से चला ,घर से बिछ्ड़ गया , जाऊँ कहाँ के कोई भी अपना पता नहीं ---- छ्पवा दिया किसीने मुझे 'न्यूज़ 'बना के , धुंधले हैं सब हर्फ़ सब ,कोई दिखा नहीं ---- लटके हुए देखे हैं मैंने जिस्म हज़ारों , अब क्या कहूँ किसकी खता ,किसकी खता नहीं ---- डॉ . प्रणव भारती
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