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ओएनजीसी में कार्य किया। कुमायूँ विश्वविद्यालय नैनीताल(डीएसबी,महाविद्यालय नैनीताल) से शिक्षा प्राप्त की(बी.एसी. और एम. एसी.(रसायन विज्ञान)।विद्यालय शिक्षा-खजुरानी,जालली,जौरासी और राजकीय इण्टर कालेज अल्मोड़ा में।"दिनमान","कादम्बिनी" गुजरात वैभव,राष्ट्र वीणा(गुजरात) तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित। 7 काव्य संग्रह प्रकाशित। बचपन में गाँव का जीवन जिया और खूब उल्लास से। धनबाद,कलकत्ता,शिवसागर,अहमदाबाद,जोरहट में कार्य किया।
दिखी थी तरुणाई तुमको काँटे पाँव के नहीं दिखे, दिखा था आँखों का आँचल दुख का सपना नहीं दिखा। दिखा था यौवन तुमको संघर्ष उसका नहीं दिखा, दिखी थी ऊँचाई सुन्दर गिरता पसीना नहीं दिखा। दिखे थे प्यार के लम्हे उसके रोड़े नहीं दिखे, दिखे थे मंजिल पर यात्री उनकी यात्रा नहीं दिखी। ***महेश रौतेला
हम मर जायेंगे, ऐसा जानकर भी महाभारत लड़ा जा रहा है, पेड़ों के वक्ष को निर्ममता से चीरा जा रहा है।
जब रंगा जाऊँ तो हरा हो जाऊँ, जब कहा जाऊँ तो मधुर बन जाऊँ। जब ढूंढा जाऊँ तो व्यक्त हो जाऊँ, जब काटा जाऊँ तो मुलायम हो जाऊँ। जब देखा जाऊँ तो नजर आ जाऊँ, जब सुना जाऊँ तो गहन हो जाऊँ। जब चला जाऊँ तो स्मृति बन जाऊँ, जब रंगा जाऊँ तो हरा हो जाऊँ। ** महेश रौतेला
सुख नदी बन बह गया दुख पहाड़ बन ठहर गया, जो कट कर गिरा इधर वृक्ष नहीं जीवन था।
मैंने खड़ा किया था प्यार झूले में झुलाया था प्यार, पीठ में लादा था प्यार कन्धों में रखा था प्यार। मैंने हाथों से छुआ था प्यार आँखों से देखा था प्यार, नटखट होने दिया था प्यार शब्दों में सुना था प्यार। मैंने रोटी में जमाया था प्यार पैरों से कुरेदा था प्यार, हर उम्र का देखा था प्यार जागते-सोते सुना था प्यार। ** महेश रौतेला
कुछ ऐसा ही है हमारा सत्य शरमाता, सिसकता फूट-फूट कर रोता हुआ। कुछ ऐसा ही है हमारा सत्य हमारे आँसुओं में घुलता,मिलता, बहता हुआ। **महेश रौतेला
हाँ, यहीं से निकलती है गंगा यहीं पर हिमालय पिघलता है, यहीं बने हैं नदियों पर तीर्थ यहीं छूटे हैं गुलामी के घोंसले। हाँ, यहीं रचा गया है रामायण यहीं लिखा गया है महाभारत, यहीं कहा गया है चरैवेति, चरैवेति यहीं खड़ा है गुलामी का वट वृक्ष। हाँ ,यहीं आती है सुनहरी धूप यहीं बनती है मीठी भूख, यहीं है "सर्वे सुखिनः सन्तु" की पिपासा यहीं काटता है गुलामी का कीट। हाँ, यहीं गंगा बहती है यहीं दीपक जलते हैं, यहीं रावण मरता है यहीं गुलामी गायी जाती है। हाँ, यहीं झंडे उठते हैं यहीं नेता बनते हैं, यहीं सत्यनारायण सुनते हैं यहीं गुलामी अटकी है। हाँ, यहीं भारत रहता है यहीं पुण्य हम पाते हैं, यहीं शिव को मानते हैं यहीं गुलाम जटायें झूलती हैं। * महेश रौतेला
एक पहरा मेरे अन्दर एक पहरा मेरे बाहर , सत्ता के पहरेदार इधर राष्ट्र के पहरेदार उधर। * महेश रौतेला
यक्ष प्रश्न की तरह: महाभारत के "वन पर्व" में युधिष्ठिर से यक्ष कहते हैं कि यदि वे सभी प्रश्नों का उत्तर सही दे देंगे तो उनके भाईयों को ठीक कर देंगे जो सरोवर का पानी पीने से अचेत हो गये थे। सहदेव, नकुल,अर्जुन और भीम ने बिना यक्ष के प्रश्नों का उत्तर दिये सरोवर का जल पिया था और अचेत हो गये थे। प्रश्न थे- यक्ष: पृथ्वी से भी भारी क्या है? आकाश से भी ऊँचा क्या है? युधिष्ठिर: माता पृथ्वी से भी भारी है।पिता स्थान आकाश से भी ऊँचा है। यक्ष: हवा से भी तेज क्या है? युधिष्ठिर: मन। यक्ष: संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर: मनुष्य मरता है लेकिन जीवन ऐसे जीता है जैसे वह अमर है। आदि आदि। युधिष्ठिर ने यक्ष सभी प्रश्नों का उत्तर सही दिया था और उनके भाईयों की चेतना लौट आयी थी। सत्य में अचेतन को चेतन करने की क्षमता होती है। पुराने समय में विवाह से पहले सामान्यतः पिता लड़की देखने जाते थे। समय बदला और बेटा, लड़की देखने की परंपरा का अभिन्न अंग हो गया। प्रश्न जो लड़की से पूछे जाते वे यक्ष प्रश्न तो नहीं होते पर दुविधा और जिज्ञासा लिये अवश्य होते हैं। मुझे एम. एसी. करने के चार साल बाद एक लड़की देखने जाना था। लड़की डिग्री कालेज में पढ़ती थी। मैंने एक पत्र भेजा कि मैं १३ मई को नैनीताल आऊँगा। मैं रेल से गया,बनारस, लखनऊ होता हुआ काठगोदाम पहुँचा। फिर पहाड़ की यात्रा पूरी की। शाम को नैनीताल पहुँचा। और रात को अपने एक परिचित के यहाँ रूका। मन में प्रश्न घुमड़ते थे लेकिन स्थायी नहीं बन पा रहे थे। मन में हलचल थी। सुबह लगभग १० बजे में लड़कियों के छात्रावास में पहुँच चुका था। तब मैं विचारों में खोया हुआ था न मुझे पहाड़ दिख रहे थे और न नैनीताल की सुन्दर झील। मैंने वहाँ पर खड़ी एक लड़की से पूछा," छाया है क्या?" उसने कहा अभी बुलाती हूँ। छाया आयी। और अतिथि स्थल पर हम बैठ गये। २-३ मिनट ऐसे ही बीत गये। वह आँखें नीचे किये थी। फिर मैंने पूछा," कैसी हो?" उत्तर आया ठीक हूँ। फिर एक प्रश्न आया," किसी काम से आये हो?" मैंने कहा," तुम्हें देखने आया हूँ।" उसने आँखें उठा कर मुझे देखा और फिर आँखें झुका ली। तब तक मेरे सारे प्रश्न सब गायब हो चुके थे। उसने कहा," आजकल मेरे प्रैक्टिकल चल रहे हैं।पता नहीं परीक्षाएं कैसी होंगी?" मैंने सत्यवादी की तरह कहा," अच्छी होंगी।" कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। फिर मैंने पूछा," चलूँ!" उसने गर्दन हिलायी। हम उठे और वह छात्रावास के छोर पर स्थित तिराहे तक छोड़ने आयी। तभी मेरे मुँह से निकला," फिर कब मिलेंगे?" उसने कहा," मुझे क्या पता?" चढ़ाई चढ़ते हुये, मैं कालेज में अपने शिक्षकों से मिलने आ गया।उनके साथ चाय पी।पुराने दिन उछल-कूद करते इधर-उधर होते रहे। मन बीच -बीच में छात्रावास में जा, वहीं ठहर जा रहा था। समय बीतता गया। एक साल बाद लखनऊ से मेरे दोस्त का पत्र आया। लिखा था," छाया मिली थी। तुम्हारे बारे में पूछ रही थी।" * महेश रौतेला
यही प्यार तो मुझे अनन्त तक ले गया, यही स्नेह तो मुझे अनन्त से मिला गया। इसी प्यार की स्तुति में श्री कृष्ण भी खो गये, इसी स्नेह को देख धर्मराज भी रूक गये। इसी स्नेह में पुष्प भी खिल गये, इसी प्यार में फल भी आ गये। इसी प्यार में धरा हरी हो गयी, इसी स्नेह में सर्वत्र लाली छा गयी। यही प्यार तो मुझे पगडण्डियां दिखा गया, यही स्नेह तो मुझे मधुर स्वर दे गया। ** महेश रौतेला
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