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नाम:-डॉ जयशंकर शुक्ल. माता-पिता:-श्रीमती राजकली शुक्ला एवं श्री सूर्य प्रताप शुक्ल. जन्म-तिथि:दो जुलाई सन् उन्नीस सौ सत्तर जन्म-स्थान:-गाँव पोस्ट-सैदाबाद, जिला-इलाहाबाद,उ.प्र.-221508. वर्तमान पता:-भवन सं-49,पथ सं.-06,बैंक कॉलोनी,मण्डोली दिल्ली-110093 शिक्षा:-एम.ए.(हिन्दी,प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति),एम.एड.,पी-एच.डी., नेट/जे.आर.एफ, साहित्यरत्न, बृत्ति: शिक्षक,राजकीय प्रतिभा विकास विद्यालय, राजनिवास मार्ग , दिल्ली-110054
"लुंगी और गमछा में जिस व्यक्ति को आप दिख रहे हैं उनका नाम पतायत साहू है।। पतायत जी को इस बार पद्मश्री पुरस्कार मिला है। पतायत जी ओडिशा के कालाहांडी जिले के रहने वाले हैं। इनके गांव का नाम नान्दोल है। पतायत जी अपने घर के पीछे 1.5 एकर के ज़मीन में 3000 से भी ज्यादा medicinal प्लांट उगाए हैं। यह काम वो पिछले 40 साल से कर रहे हैं। पतायत जी आर्गेनिक खेती पर जोर देते हैं। अपने प्लांट में कभी भी केमिकल फ़र्टिलाइज़र का इस्तेमाल नहीं करते हैं।पतायत जी दिन में खेती करते हैं और रात को वैद्य बन जाते हैं। लोगों से पैसे की मांग नहीं करते हैं। पतायत जी के खेत में जो 3000 प्लांट है उस मे से 500 तो वो भारत के अलग अलग जगह से संग्रह किये हैं बाकी सब कालाहांडी के जंगल से संग्रह किये हैं।।उनके बगीचे में ऐसा कई सारे मेडिसिनल प्लांट हैं जो किस और जगह नहीं मिलती है। पतायत जी को बहुत सारे बधाई। जाते जाते एक बात जरूर कहूंगा आप लोग नेशनल मीडिया में कभी भी पतायत जी के बारे में नहीं सुने होंगे न उन्हें प्लांट के बारे में।
संकल्पना एवं सूत्रधार - लक्ष्मी पाण्डेय निर्देशन - राहुल पान्डेय प्रस्तुति - फिल्मेनिया लाइट कैमरा एक्शन निर्माता - श्री सरस्वती पुस्तकालय एवं वाचनालय ट्रस्ट, सागर, मध्यप्रदेश Like, Share, Comment and Subscrbe https://youtu.be/szeNUfLbEOc
2️⃣8️⃣1️⃣1️⃣2️⃣2️⃣अट्ठाइस नवम्बर दो हज़ार बाइस । सोमवार । शुभ समय । हेमंत ऋतु । (१) उम्र का मोड़ चाहे कोई भी हो बस धड़कनों में नशा ज़िंदगी जीने का होना चाहिए । (२) सीखना कभी बंद न करें क्योंकि जीवन कभी भी सिखाना बंद नहीं करता । (३) प्रशंसा चाहे कितनी भी करो किंतु अपमान सोच समझ कर करना क्योंकि अपमान वो उधार है जो अवसर मिलने पर ब्याज सहित चुकाता है । (४) मन की स्थिरता, दिमाग की शांति और मुस्कराहट, जीवन में सबसे अनमोल हैं । (५) अपनी उपलब्धियों और प्राप्तियों पर प्रसन्न रहो और किसी के साथ अकारण अपनी तुलना करके अपने जीवन के आनंद को कम मत करो । (६) खुशी, थोड़े समय के लिए सब्र देती है लेकिन सब्र हमेशा के लिए खुशी देता है । (७) जिंदगी में कभी उदास मत होना, कभी किसी बात पर निराश न होना; ज़िंदगी संघर्ष है चलती रहेगी कभी अपने जीने का अंदाज़ न खोना । मतदान अवश्य करें । 2️⃣8️⃣1️⃣1️⃣2️⃣2️⃣
ऋषियों ने इसलिए दिया था 'हिन्दुस्थान' नाम *********************************************** भारत जिसे हम हिंदुस्तान, इंडिया, सोने की चिड़िया, भारतवर्ष ऐसे ही अनेकानेक नामों से जानते हैं। आदिकाल में विदेशी लोग भारत को उसके उत्तर-पश्चिम में बहने वाले महानदी सिंधु के नाम से जानते थे, जिसे ईरानियो ने हिंदू और यूनानियो ने शब्दों का लोप करके 'इण्डस' कहा। भारतवर्ष को प्राचीन ऋषियों ने 'हिन्दुस्थान' नाम दिया था जिसका अपभ्रंश 'हिन्दुस्तान' है। ^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^ 'बृहस्पति आगम' के अनुसार हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥ यानि हिमालय से प्रारम्भ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है। भारत में रहने वाले जिसे आज लोग हिंदू नाम से ही जानते आए हैं। भारतीय समाज, संस्कृति, जाति और राष्ट्र की पहचान के लिये हिंदू शब्द लाखों वर्षों से संसार में प्रयोग किया जा रहा है विदेशियों नेअपनी उच्चारण सुविधा के लिये 'सिंधु' का हिंदू या 'इण्डस' से इण्डोस बनाया था, किन्तु इतने मात्र से हमारे पूर्वजों ने इसको नहीं माना। 'अद्भुत कोष', 'हेमंतकविकोष', 'शमकोष','शब्द-कल्पद्रुम', 'पारिजात हरण नाटक'. काली का पुराण आदि अनेक संस्कृत ग्रंथो में हिंदू शब्द का प्रयोग पाया गया है। ईसा की सातवीं शताब्दी में भारत में आने वाले चीनी यात्री ह्वेंनसांग ने कहा था कि यहां के लोगो को 'हिंदू' नाम से पुकारा जाता था। चंदबरदाई के पृथ्वीराज रासो में 'हिंदू' शब्द का प्रयोग हुआ है। पृथ्वीराज चौहान को 'हिंदू अधिपति' संबोधित किया गया है। समर्थ गुरु रामदास ने बड़े अभिमान पूर्वक हिंदू और हिन्दुस्थान शब्दों का प्रयोग किया। शिवाजी ने हिंदुत्व की रक्षा की प्रेरणा दी और गुरु तेग बहादुर और गुरु गोविन्द सिंह तो हिंदुत्व के लिए अपनी ज़िंदगी समर्पित कर दी। स्वामी विवेकानंद ने स्वयं को गर्व पूर्वक हिंदू कहा था। हमारे देश के इतिहास में हिंदू कहलाना और हिंदुत्व की रक्षा करना बड़े गर्व और अभिमान की बात समझी जातो थी।
7–कालिदास – ऐसा माना जाता है कि कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के प्राणप्रिय कवि थे। उन्होंने भी अपने ग्रंथों में विक्रम के व्यक्तित्व का उज्जवल स्वरूप निरूपित किया है कालिदास की कथा विचित्र है। कहा जाता है कि उनको देवी ‘काली’ की कृपा से विद्या प्राप्त हुई थी। इसीलिए इनका नाम ‘कालिदास’ पड़ गया। संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से यह कालीदास होना चाहिए था। किंतु अपवाद रूप में कालिदास की प्रतिभा को देखकर इसमें उसी प्रकार परिवर्तन नहीं किया गया जिस प्रकार कि ‘विश्वामित्र’ को उसी रूप में रखा गया। जो हो, कालिदास की विद्वता और काव्य प्रतिभा के विषय में अब दो मत नहीं है। वे न केवल अपने समय के अप्रितम साहित्यकार थे अपितु आज तक भी कोई उन जैसा अप्रितम साहित्यकार उत्पन्न नहीं हुआ है। उनके चार काव्य और 3 नाटक प्रसिद्ध है शकुंतला उनकी अन्यतम कृति मानी जाती है। 8–वराहमिहिर – भारतीय ज्योतिष-शास्त्र इनसे गौरवास्पद हो गया है। इन्होंने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनमें ‘ बृहज्जात’ ,‘सूर्यसिद्धांत’ , ‘बृहस्पति संहिता’ ‘पंच सिद्धांति’ मुख्य है।‘गणक तरंगिणी’, ‘लघु जातक’, ‘समाज संहिता’ , ‘विवाह पटल’ योग ‘योग यात्रा’, आदि-आदि का भी इनके नाम से उल्लेख पाया जाता है। 9–वररुचि- कालिदास की भांति ही वररुचि भी अन्यतम काव्यकर्ताओं में गिने जाते हैं। ‘सदुक्तिकर्णामृत’, ‘सुभाषितावलि’ तथा ‘शार्ङ्धर संहिता’, इनकी रचनाओं में गिनी जाती हैं।
राजा विक्रमादित्य के दरबार में मौजूद नवरत्नों में उच्च कोटि के कवि, विद्वान, गायक और गणित के प्रकांड पंडित शामिल थे, जिनकी योग्यता का डंका देश-विदेश में बजता था। चलिए जानते हैं कौन थे👇 1–धन्वन्तरि- नवरत्नों में इनका स्थान गिनाया गया है। इनके रचित नौ ग्रंथ पाये जाते हैं। वे सभी आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र से सम्बन्धित हैं। चिकित्सा में ये बड़े सिद्धहस्त थे। आज भी किसी वैद्य की प्रशंसा करनी हो तो उसकी ‘धन्वन्तरि’ से उपमा दी जाती है। 2–क्षपणक- जैसा कि इनके नाम से प्रतीत होता है, ये बौद्ध संन्यासी थे। इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि प्राचीन काल में मन्त्रित्व आजीविका का साधन नहीं था अपितु जनकल्याण की भावना से मन्त्रिपरिषद का गठन किया जाता था। यही कारण है कि संन्यासी भी मंत्रिमंडल के सदस्य होते थे। इन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें ‘भिक्षाटन’ और ‘नानार्थकोश’ ही उपलब्ध बताये जाते हैं। 3–अमरसिंह- ये प्रकाण्ड विद्वान थे। बोध-गया के वर्तमान बुद्ध-मन्दिर से प्राप्य एक शिलालेख के आधार पर इनको उस मन्दिर का निर्माता कहा जाता है। उनके अनेक ग्रंथों में एक मात्र ‘अमरकोश’ ग्रन्थ ऐसा है कि उसके आधार पर उनका यश अखण्ड है। संस्कृतज्ञों में एक उक्ति चरितार्थ है जिसका अर्थ है ‘अष्टाध्यायी’ पण्डितों की माता है और ‘अमरकोश’ पण्डितों का पिता। अर्थात् यदि कोई इन दोनों ग्रंथों को पढ़ ले तो वह महान् पण्डित बन जाता है। 4 - शंकु - इनका पूरा नाम ‘शङ्कुक’ है। इनका एक ही काव्य-ग्रन्थ ‘भुवनाभ्युदयम्’ बहुत प्रसिद्ध रहा है। किन्तु आज वह भी पुरातत्व का विषय बना हुआ है। इनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् माना गया है। 5–वेतालभट्ट – विक्रम और वेताल की कहानी जगतप्रसिद्ध है। ‘वेताल पंचविंशति’ के रचयिता यही थे, किन्तु कहीं भी इनका नाम देखने सुनने को अब नहीं मिलता। ‘वेताल-पच्चीसी’ से ही यह सिद्ध होता है कि सम्राट विक्रम के वर्चस्व से वेतालभट्ट कितने प्रभावित थे। यही इनकी एक मात्र रचना उपलब्ध है। 6–घटखर्पर – जो संस्कृत जानते हैं वे समझ सकते हैं कि ‘घटखर्पर’ किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता। इनका भी वास्तविक नाम यह नहीं है। मान्यता है कि इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो कवि अनुप्रास और यमक में इनको पराजित कर देगा उनके यहां वे फूटे घड़े से पानी भरेंगे। बस तब से ही इनका नाम ‘घटखर्पर’ प्रसिद्ध हो गया और वास्तविक नाम लुप्त हो गया। इनकी रचना का नाम भी "घटखर्पर काव्यम" ही है। यमक और अनुप्रास का वह अनुपमेय ग्रन्थ है। इनका एक अन्य ग्रन्थ ‘नीतिसार’ के नाम से भी प्राप्त होता है।
*सरस्वती पूजा का वैदिक पक्ष* *सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में सरस्वती की परिभाषा करते हुए स्वामी दयानंद लिखते है कि जिसमें अखंड रूप से विज्ञान विद्यमान है उस परमेश्वर का नाम सरस्वती है। जिसमें विविध विज्ञान अर्थात शब्द, अर्थ, सम्बन्ध, प्रयोग का ज्ञान यथावत होने से उस परमेश्वर का नाम सरस्वती हैं।* *चारों वेदों में सौ से अधिक मन्त्रों में सरस्वती का वर्णन है। वेदों में सरस्वती का चार अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। पहला विद्या, वाणी, विज्ञानदाता परमेश्वर। दूसरा विदुषी विज्ञानवती नारी, तीसरा सरस्वती नदी, चौथा वाणी।* *वेदों में सरस्वती के लिए मुख्य रूप से पावका अर्थात पवित्र करने वाली, वाजिनीवति अर्थात विद्या संपन्न, चोदयित्री अर्थात शुभ गुणों को ग्रहण करने वाली, भारती अर्थात श्रेष्ठ बुद्धि से युक्त, केतुना अर्थात ईश्वर विषयणी बुद्धि से युक्त, मधुमतिम अर्थात बड़ी मधुर आदि विशेषण प्रयुक्त हुए हैं।* *निघण्टु में वाणी के 57 नाम हैं, उनमें से एक सरस्वती भी है। अर्थात् सरस्वती का अर्थ वेदवाणी है। ब्राह्मण ग्रंथ वेद व्याख्या के प्राचीनतम ग्रंथ है। वहाँ सरस्वती के अनेक अर्थ बताए गए हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-* *1- वाक् सरस्वती।। वाणी सरस्वती है। (शतपथ 7/5/1/31)* *2- वाग् वै सरस्वती पावीरवी।। ( 7/3/39) पावीरवी वाग् सरस्वती है।* *3- जिह्वा सरस्वती।। (शतपथ 12/9/1/14) जिह्ना को सरस्वती कहते हैं।* *4- सरस्वती हि गौः।। वृषा पूषा। (2/5/1/11) गौ सरस्वती है अर्थात् वाणी, रश्मि, पृथिवी, इन्द्रिय आदि। अमावस्या सरस्वती है। स्त्री, आदित्य आदि का नाम सरस्वती है।* *5- अथ यत् अक्ष्योः कृष्णं तत् सारस्वतम्।। (12/9/1/12) आंखों का काला अंश सरस्वती का रूप है।* *6- अथ यत् स्फूर्जयन् वाचमिव वदन् दहति। ऐतरेय 3/4, अग्नि जब जलता हुआ आवाज करता है, वह अग्नि का सारस्वत रूप है।* *7- सरस्वती पुष्टिः, पुष्टिपत्नी। (तै0 2/5/7/4) सरस्वती पुष्टि है और पुष्टि को बढ़ाने वाली है।* *8-एषां वै अपां पृष्ठं यत् सरस्वती। (तै0 1/7/5/5) जल का पृष्ठ सरस्वती है।* *9-ऋक्सामे वै सारस्वतौ उत्सौ। ऋक् और साम सरस्वती के स्रोत हैं।* *10-सरस्वतीति तद् द्वितीयं वज्ररूपम्। (कौ0 12/2) सरस्वती वज्र का दूसरा रूप है।* *ऋग्वेद के 6/61 का देवता सरस्वती है। स्वामी दयानन्द ने यहाँ सरस्वती के अर्थ विदुषी, वेगवती नदी, विद्यायुक्त स्त्री, विज्ञानयुक्त वाणी, विज्ञानयुक्ता भार्या आदि किये हैं।* *ऋग्वेद 10/17/4 ईश्वर को सरस्वती नाम से पुकारा गया है। दिव्य ज्ञान प्राप्ति की इच्छा वाले अखंड ज्ञान के भण्डार "सरस्वती" भगवान से ही ज्ञान की याचना करते है, उन्हीं को पुकारते है। तथा प्रत्येक शुभ कर्म में उनका स्मरण करते हैं। ईश्वर भी प्रार्थना करने की इच्छा पूर्ण करते हैं। सभी मिलकर ज्ञान के सागर ईश्वर के महान विज्ञान रूपी गुण अर्थात "सरस्वती" का पूजन करे। वर्ष में एक दिन ही क्यों सम्पूर्ण जीवन करें।*
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्। प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्म: सनातन:।। (मनु-4/138) सदा प्रिय बोलना चाहिए, सत्य बोलना चाहिए, दूसरों के लिए हितकारी बोलना चाहिए। कभी अप्रिय न बोलें, सत्य होते हुए भी अप्रिय बोलने से बचें, किसी की झूठी प्रशंसा भी कभी न करें।
जब लेखक के जीते जी उसके लेखन का कोई प्रभाव नहीं है तो यह कैसे मान लिया जाए कि बरसों बाद उसका लिखा समाज के लिए विद्युत वाहक का कार्य करेगा। ऐसा आत्मविश्वास आश्चर्यजनक है जो यह मानता है कि आज भले धूर्त प्रकाशकों, कुटिल संपादकों का बोलबाला और गंभीर पाठकों का टोटा हो परंतु भविष्य में कभी उसके लेखन का मूल्यांकन होगा। अकेले किसी एकांत कोने को तलाश कर पुस्तक पढ़ने वाला निश्चल हृदय पाठक भले विलुप्त नहीं हुआ है परंतु संकटग्रस्त प्रजाति अवश्य हो गया है। धंधा बस धर्म के नाम पर ही नहीं होता है, साहित्य के नाम पर भी कारोबार चलता है। गुटबाजी न केवल प्रचलित है बल्कि सम्मानपूर्वक स्वीकार्य भी है। तथाकथित साहित्यिक बैठकों, मठों आदि से दूर एकांत सृजन करने वाले हाशिये पर हैं। केवल लेखन के बल पर साहित्य में पहचान बनाने के प्रयास पर हँसने वालों की कमी नहीं है। ज्यादातर लोगों के पास हर काम के लिए वक्त निकल जाता है पर पढ़ने के लिए समय नहीं निकल पाता। हर साहित्यिक रचना उस गुमनाम, अज्ञात और निर्मल हृदय पाठक को समर्पित हो जिसने पढ़ने के शौक को बड़े जतन से सहेज कर रखा है। बाकी लोग तो बस साहित्य के नाम पर कोई जुगत लगाने या एजेंडा चलाने की खातिर हैं।
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