उपनिषदों की कथाएँ
सं. वर्षा जयरथ
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अनुक्रमणिका
१.नचिकेता की कथा
२.महर्षि पिह्रश्वलाद की कथा
३.महर्षि याज्ञवल्कय की कथा
४.उद्दादल की कथा
५.अंगिरा की कथा
६.नारद की कथा
७.शुकदेव की कथा
८.उपकोसल की कथा
९.विदग्ध के प्रश्न
१०.मैत्रेयी की कथा
११.अष्टावक्र की कथा
१२.उपमन्यु की कथा
१३.शिलक की कथा
१४.सुजाता की कथा
१५.वरुण की कथा
१६.महर्षि याज्ञवल्कय का ज्ञान
१७.प्रवाहण के पाँच प्रश्न
कठोपनिषद से
नचिकेता की कथा
गौतम वंश में उत्पन्न हुई एक महात्मा बाजश्रवा बहुत दानीव्यक्ति थे। उन्होंने दान करके बहुत यश प्राह्रश्वत किया था, इसलिए उनकानाम बाजश्रवा पड़ गया था। बाज का अर्थ होता है - अन्न और श्रवका अर्थ है, उसके दान से प्राह्रश्वत यश। बाजश्रवा के पुत्र हुए महर्षिअरुणि और महर्षि अरुणि के पुत्र हुए उद्दालक ऋषि। जब उद्दालकवृद्धावस्था में पहुँचे तो उनके मन में यह विचार पैदा हुआ कि क्योंन आगामी जीवन सुधारने के लिए किसी यज्ञ का आयोजन कियाजाए। ऐसा विचारकर उन्होंने ‘विश्वजित’ नामक यज्ञ करने का निश्चयकिया। इस यज्ञ में अपना सर्वस्व दान करना पड़ता है।
उन दिनों गोधन ही प्रधान था। उद्दालक के घर में गोधनकी ही अधिकता थी। उन्होंने यज्ञ के उपरांत अपना सारा धन यज्ञ केप्रमुख कर्ताओं और सदस्यों को दान कर दिया।
उद्दालक ऋषि के पुत्र का नाम था नचिकेता। नियमानुसारदक्षिणा में दान करने के लिए जब गाएँ लाई जा रही थीं तो बालकनचिकेता ने उन्हें देखा। गाएँ बहुत ही दुर्बल और दयनीय दशा में थीं।
बालक नचिकेता का हृदय बहुत ही कोमल और भावुक था। गायों कीदयनीय दशा देखकर वह आकुल हो उठा। वह विचार करने लगा,“पिताश्री ये कैसी गाय दक्षिणा में दे रहे हैं? अब इनमें न तो झुककरजल पीने की शक्ति रही है, न ही इनके मुख में घास चबाने के लिएदाँत रह गए हैं। इनके थनों में तनिक-सा दूध भी शेष नहीं बचा, औरतो और ये गाएँ गर्भधारण के योग्य भी नहीं रहीं हैं?
भला ऐसी बेकारऔर मृत्यु के निकट पहुँची गाएँ जिन ब्राह्मणों के घर जाएगी, उनकोदुःख के सिवाय और क्या देगी? दान तो उसी वस्तु का करना चाहिए,जो अपने को सुख देने वाली हो, प्रिय हो, उपयोगी हो तथा वहजिसको दी जाए, उसे भी सुख और लाभ पहुँचाने वाली हो। दुःखदेने वाली बेकार वस्तुओं को दान के नाम पर देना तो दान के बहानेअपनी मुसीबत टालना है, साथ ही यह दान लेने वालों के प्रति एकप्रकार का धोखा ही है। इस प्रकार के दान से पिताश्री को क्या सुखऔर क्या फल मिलेगा?
पिताश्री ने तो सर्वस्व दान करने वाला यज्ञकिया है, फिर मेरे नाम पर उपयोगी गाएँ क्यों रख ली हैं? क्या सर्वस्वमें वे गाएँ नहीं हैं? और मैं भी तो सर्वस्व में ही हूँ, मुझको तो इन्होंनेदान में दिया ही नहीं। यह कैसा सर्वस्व दान है? मैं अपने पिता काह्रश्वयारा पुत्र हूँ, इसलिए मैं अपने पिता को इस अन्यायपूर्ण काम से औरइसके बुरे परिणाम से बचाने के लिए अपना बलिदान दूँगा। यही मेराधर्म है।” ऐसा निश्चय करके नचिकेता ने अपने पिता से कहा,
“पिताश्री! मैं भी तो आपका धन हूँ, आप मुझे किसको देंगे?”
नचिकेता के इस प्रश्न की उद्दालक ने उपेक्षा कर दी, उन्होंनेकोई उ्रूद्गार नहीं दिया। पुत्र का कर्तव्य जानने वाले नचिकेता से रहानहीं गया, उसने दूसरी बार फिर अपने पिता से यही प्रश्न किया। जबदूसरी बार भी उसके पिता ने कोई उ्रूद्गार नहीं दिया तो नचिकेता नेतीसरी बार फिर से यही प्रश्न कर दिया। बार-बार के प्रश्न करने सेउद्दालक ऋषि को क्रोध आ गया। उन्होंने आवेश में आकर कहा, “मैंतुझे यम को दूँगा।”
पिता के ये वचन सुनकर नचिकेता मन-ही-मन विचार करनेलगा, ‘आखिर पिताश्री ने इतनी कठोर बात कैसे कह दी? जितनाआज तक मैं जान पाया हूँ, उसके अनुसार शिष्यों और पुत्रों की तीनश्रेणियाँ होती हैं - उ्रूद्गाम, मध्यम और अधम। जो गुरु अथवा पिताकी इच्छा को समझकर उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा किए बिना ही उनकीरुचि के अनुसार कार्य करने लगतेहैं, वे उ्रूद्गाम हैं। जो आज्ञा पाने परकार्य करते हैं, वे मध्यम हैं और जो इच्छा जान लेने एवं स्पष्ट आदेशसुन लेने के पश्चात् भी उसके अनुसार कार्य नहीं करते, वे अधमहैं। मैं बहुत से शिष्यों में तो प्रथम श्रेणी का हूँ और कुछ में मध्यम
श्रेणी का, किंतु अधम श्रेणी का तो किसी भी दशा में नहीं हूँ। आज्ञामिले और सेवा न करूँ, ऐसा तो मैंने कभी किया ही नहीं, फिर पतानहीं पिताजी ने मेरे लिए ऐसी बात कैसे कह दी। यमराज का भी ऐसाकौन-सा काम अटका होगा, जिसे पिताश्री आज मुजे उन्हें देकर पूराकराना चाहते हैं? हो सकता है पिताजी ने यह बात क्रोध में आकरवैसे ही कह दी हो। जो कुछ भी हो, पिताश्री का वचन तो सत्य करनाही चाहिए।’
इधर तो नचिकेता इस प्रकार से सोच रहा था, उधर उसकेपिता एकांत में बैठे शांतिपूर्वक चिंतन में लीन थे। नचिकेता को पिताका एकांत में बैठना अच्छा न लगा। उसने विचार किया कि शायदपिताश्री अपने वचनों पर पश्चाताप कर रहे हैं। वह उठा और पिताके पास जाकर उन्हें धैर्य दिलाता हुआ कहने लगा, “पिताश्री! अपनेपूर्वजों के आचरण की ओर देखिए और वर्तमान दूसरे श्रेष्ठ पुरुषों केआचरण को देखिए। उनके चरित्र में न पहले कभी असत्य था औरन अब है। जो साधु पुरुष नहीं है, वे ही असत्य आचरण करते हैं,
परंतु उस असत्य से कोई अजर-अमर नहीं हो जाता। मनुष्य तो एकदिन मरता ही है। वह अंत की भांति जराजीर्ण होकर मर जाता है औरअंत की भांति ही पुनः समय पाकर जन्म ले लेता है। ऐसी दशा मेंइस नश्वर जीवन के लिए मनुष्य को कभी कर्तव्य का त्याग करकेमिथ्या आचरण नहीं करना चाहिए। आप चिंता का त्याग कर दें औरअपने वचनों को सत्य करने के लिए मुझे यमराज के पास जाने कीआज्ञा दें।”
पुत्र के अनुसार उद्दालक महर्षि कोहर्ष भी हुआ और शोकभी। अंत में नचिकेता की सत्य पालन के प्रति दृढ़ता देखकर उन्होंनेउसे यमराज के पास भेज दिया।
यमलोक जाकर नचिकेता को पता चला कि यमराज कहीं बाहरगए हुए हैं और तीन दिन बाद लौटेंगे। नचिकेता तीन दिन तक अन्न-जल ग्रहण किए बिना ही उनकी प्रतीक्षा करता रहा। तीन दिन बादजब यमराज लौटे तो उनकी पत्नी ने उनसे कहा, “हे सूर्यपुत्र! हमाराकोई पुण्य उदय हुआ है जो साधु-हृदय अतिथि हम गृहस्थ के घरपधारे हैं। ऋषि-पुत्र बालक नचिकेता तीन दिन से बिना अन्न-जलग्रहण किए आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। आप तुरंत उसके पैर धोनेके लिए जल ले आइए और अतिथि की सेवा कर उसे प्रसन्न तथासंतुष्ट कर दीजिए। अतिथि का घर पर भूखे लेटे रहना हमारे लिएआपि्रूद्गा का कारण हो सकता है।”
पत्नी के वचन सुनकर यमराज तुरंत नचिकेता के पास गए औरउनके चरण धोकर उसे प्रणाम करते हुए बोले, “हे बालक! तुम मेरेमाननीय अतिथि हो। मेरा कर्तव्य था कि मैं यथायोग्य तुम्हारा पूजन आदिकरके तुम्हें संतुष्ट करता, किंतु मेरे प्रमाद के कारण तुम तीन दिन से बिनाकुछ ग्रहण किए भूखे बैठे मेरी प्रतीक्षा करते रहे हो। मुझसे यह बड़ाअपराध हो गया है, मुझे क्षमा कर दो और मेरे कल्याण के लिए उनतीन रात्रियों के लिए अपनी इच्छानुसार मुझसे तीन वर माँग लो।”
यमराज के ऐसा कहने पर नचिकेता ने उनसे कहा, “हे मृत्युदेवता! तीन वरों में से मैं पहला वह यह माँगता हूँ कि मेरे पिता,जो क्रोध के आवेश में आकर मुझे आपके पास भेजकर अब अशांतऔर दुखी हो रहे हैं, मेरे प्रति क्रोधरहित, शांत-चि्रूद्गा और संतुष्ट होजाएँ और आपसे आज्ञा लेकर जब मैं घर जाऊँ तब वे मुझे अपनेपुत्र नचिकेता के रूप में पहचानकर पहले की तरह ही बड़े स्नेह सेबातचीत करें।”
यमराज ने प्रसन्न होकर कहा, “जैसा तुम चाहते हो, वैसा हीहोगा। तुमको मृत्यु के मुख से छूटकर घर लौटा देखखर मेरी प्रेरणासे तुम्हारे पिता बड़े प्रसन्न होंगे। तुमको अपने पुत्र रूप में पहचानकरवे तुमसे वैसा ही प्रेम करेंगे, जैसा पहले करते थे। उनका दुःख औरक्रोध भी शांत हो जाएगा। तुम्हें पाकर अब वे जीवन-भर सुख कीनींद सोएँगे।”
नचिकेता ने दूसरा वरदान पाने के लिए यमराज की ओरजिज्ञासा भरी दृष्टि से देखा और कहा, “मैं स्वर्ग के सुख और निर्भयताके बारे में जानता हूँ, यह भी जानता हूँ कि स्वर्ग में न तो किसी कोबुढ़ापा सताता है न ही मृत्युलोक की तरह वहाँ किसी की मृत्यु होतीहै। भूख-ह्रश्वयास आदि भी वहाँ नहीं सताती। स्वर्ग में किसी प्रकार काभी शोक नहीं है, लेकिन यह स्वर्ग अग्नि-विज्ञान को जाने बिना प्राह्रश्वतनहीं होता। आप अग्नि-विज्ञान के ज्ञाता हैं और मेरी आपमें तथाअग्नि-विज्ञान में श्रद्धा है। दूसरे वरदान में आप मुझे अग्नि-विद्या काउपदेश दीजिए।”
यमराज कहने लगे, “नचिकेता! अग्नि विद्या बहुत ही गुह्रश्वत है।
यह विद्वानों की हृदय-रूपी गुफा में छिपी रहती है। इसे इसके अधिकारी को ही बताना चाहिए। तुम इसके अधिकारी हो, अतः ध्यानलगाकर समझ लो।”
यह कहकर यमराज ने नचिकेता को अग्नि-विद्या का रहस्यसमझाया। यह भी भली-भाँति समझायाकि अग्नि के लिए कुंड निर्माणआदि में किस आकार की, कैसी और कितनी इर्ंटें चाहिए तथा अग्निका चुनाव किस प्रकार किया जाना चाहिए।
इसके पश्चात् नचिकेता की बुद्धि परीक्षा के लिए यमराज नेउससे पूछा, “तुमने जो कुछ समझा है, वह मुझे सुनाओ।” नचिकेताने सब ज्यों-का-त्यों सुना दिया। यमराज नचिकेता की प्रतिभा औरस्मरण शक्ति देखकर बहुत प्रसन्न हुए और बोले, “तुम्हारी अद्भुतयोग्यता देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है, इससे मैं एक और वरतुम्हारे माँगे बिना ही तुम्हें दे रहा हूँ। वह यह है कि यह अग्नि, जिसकागुह्रश्वत रहस्य मैंने तुम्हें बताया है, तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगी औरसाथ ही यह लो, मैं तुम्हें तुम्हारे देवत्व की सिद्धि के लिए यह अनेकरूपों वाली विधि यज्ञ विज्ञान रूपी रत्नों की माला भी देता हूँ, इसीस्वीकार करो।”
माला को सहर्ष स्वीकार करके निचेकता ने तीसरा वर माँगा,“भगवन्! कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु केबाद भी आत्मा का अस्तित्वरहता है और कुछ लोग कहते हैं कि नहीं रहता, इस बारे में आपकाजो अनुभव हो, मुझे बताइए।”
नचिकेता का महत्वपूर्ण प्रश्न सुनकर यमराज ने मन-ही-मनउसकी सराहना की, सोचा कि वह ऋषि-कुमार बालक होने पर भी बड़ाप्रतिभाशाली है, कैसे गोपनीय विषय को जानना चाहता है, परंतुआत्मत्रूद्गव उपयुक्त अधिकारी को ही बताना चाहिए, इसलिए क्यों नपहले इसकी परीक्षा कर ली जाए। ऐसा सोचकर यमराज ने आत्मत्रूद्गवकी कठिनता को बताकर उसे टालना चाहा और कहा, “नचिकेता! यहआत्मत्रूद्गव बहुत ही सूक्ष्म विषय है। इसे समझना आसान नहीं है। पहलेदेवताओं को भी इसके विषय में संदेह हुआ था, उनमें भी इसे लेकरबहुत विचार-विमर्श हुआ था, परंतु वे भी आत्मत्रूद्गव को नहीं जानजाए, इसलिए तुम इस वर के बदले कोई दूसरा वर माँग लो।”
नचिकेता आत्मत्रूद्गव की कठिनता की बात सुनकर तनिक भीनहीं घबराया, उसका उत्साह भी मंद नहीं पड़ा, वह और भी दृढ़ताके साथ बोला, “हे मृत्युदेव! पूर्वकाल के देवता भी इस विषय परवाद-विवाद कर इसे नहीं जान पाए और आप कहते हैं कि यह विषयआसा नहीं है, बड़ा सूक्ष्म है। दोनों बातों से यह सिद्ध है कि आत्मत्रूद्गवबड़े ही मह्रूद्गव का विषय है और ऐसे मह्रूद्गवपूर्ण विषय को समझनेवाला आपके समान अनुभवी वक्ता मुझे खोजने पर भी नहीं मिलसकता। आप कहते हैं कि इसके बदले मैं कोई दूसरा वर माँग लूँ,
लेकिन देव, मेरे विचार से तो इसकी तुलना का कोई दूसरा वह हैही नहीं। इसलिए कृपा करके मुझे इसी का उपदेश दीजिए।”
विषय की कठिनता से नचिकाते नहीं घबराया, वह अपनेनिश्चय पर अडिग रहा। इस परीक्षा में भी वह सफल हो गया।
अब यमराज ने दूसरी परीक्षा के रूप में उसके सामने तरह-तरह के प्रलोभन रखने की बात सोची और कहा, “नचिकेता! तुम बड़ेभोले हो, क्या करोगे इस वर को लेकर? इसके बदले में मैं तुम्हें अपारसुख कीस सामग्री दे देता हूँ। सौ-सौ वर्षों तक जीने वाले पुत्र-पौत्रआदि, बड़े परिवार को माँग लो। गौ आदि बहुत से पशु, हाथी, घोड़े,बेशुमार सोना, विशाल भूमंडल का महान् साम्राज्य, जो चाहे माँग लो,मैं तुम्हें दूँगा।
इन सबको भोगने के लिए जितने वर्षों तक जीने कीइच्छा हो, उतने वर्षों तक जीते रहो। यदि तुम अपार धन-संपि्रूद्गा, लंबेजीवन के लिए उपयोगी सुख-सामग्रियाँ अथवा और भी जितने भोगमनुष्य भोग सकता है, उन सबको मिलाकर उस आत्मत्रूद्गव विषयक वरके समान समझते हो तो इन सबको माँग लो। तुम इस विशाल भूमिके सम्राट बन जाओ। मैं तुम्हें सारे भोगों को इच्छानुसार भोगने वालाबनाए देता हूँ।”
यमराज अपनी चतुराई से जितना भी आत्मत्रूद्गव के मह्रूद्गव कोबढ़ा सकते थे, बढ़ाते ही जा रहे थे। नचिकेता भी अपने निश्चय परदृढ़ बना वही वर माँगता रहा। यमराज ने स्वर्ग के अनूठे भोगों कालालच देते हुए कहा, “नचिकेता! जो-जो भोग मृत्युलोक में दुर्लभ हैं,उन सबको तुम अपनी इच्छानुसार माँग लो। ये रथों और तरह-तरहके संगीत से पूर्ण जो स्वर्ग की सुंदरियाँ हैं, ऐसी सुंदरियाँ मनुष्यों कोकहीं नहीं मिल सकतीं। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि इनके लिए ललचाते रहतेहैं। मैं तुम्हें ये सब बड़ी आसानी से दे रहा हूँ। तुम इन्हें ले जाओऔर अपनी सेवा कराओ, लेकिन नचिकेता, आत्मा के संबंध में प्रश्नमत पूछो।”
नचिकेता प्रतिभा वाला तथा वैराग्य की भावना से पूर्ण हृदयवाला था। वह जानता था कि इस लोक और परलोक के बड़े-सेबड़े भोग-सुख की आत्मज्ञान के सुख के किसी छोटे-से-छोटे अंश केसाथ भी तुलना नहीं की जा सकती, इसलिए उसने अपने निश्चय काबड़ी युक्ति से समर्थन करते हुए कहा, “हे सबका अंत करने वालेयमराज!
आपने जिन भोग करने वाली वस्तुओं की महिमा के पुल बाँधेहैं, वे सभी शीघ्र नष्ट हो जाने वाली हैं, कल तक ये वस्तुएँ रहेंगीभी या नहीं, इसमें भी संदेह है। इनसे मिलने वाला सुख वास्तव मेंसुख नहीं है, वह तो दुःख ही है। भोगी जाने वाली ये वस्तुएँ कोईलाभ तो देती ही नहीं, बल्कि मनुष्य की इंद्रियों के तेज और धर्म कोभी हर लेती हैं।
आपने जो दीर्घ जीवन देना चाहा है, वह भीअनंतकाल की तुलना में बहुत ही कम है। जब ब्राह्म आदि देवताओंका जीवन भी थोड़े समय का है, एक दिन उन्हें भी तो मरना पड़ताहै, तब औरों की तो बात ही क्या है। इसलिए मैं यह सब नहीं चाहता।
ये अपने हाथी-घोड़े, रथ और सुंदरियाँ और इनके नाच-गान आपअपने पास ही रखें।”
नचिकेता ने आगे कहा, “हे यमराज! आप जानते ही हैं, धनसे मनुष्य की कभी तृह्रिश्वत नहीं होगी। आग में घी डालने से जैसे आगजोरों से भड़कती है, उसी प्रकार धन तथा भोगों की प्राह्रिश्वत से भोगकी इच्छा और भी प्रबल होती है। तृह्रिश्वत का वहाँ क्या काम? वहाँतो दिन-रात अधूरेपन और अभाव की आग में ही जलना पड़ता है।
ऐसे दुःखमय धन और भोगों को कोई भी विद्वान पुरुष नहीं माँगसकता। मुझे अपने जीवन निर्वाह के लिए जितने धन की आवश्यकताहोगी, उतना तो आपके दर्शन से ही मिल जाएगा। रही बात दीर्घ जीवनकी, तो जब तक मृत्यु आपके हाथ में है, तब तक मुझे मरने का जराभी भय नहीं है। यह सब जानकर मुझे दूसरा कोई वर माँगने वालीबात उचित नहीं मालूम होती।
मेरी तो यही प्रार्थना है कि आप मुझेआत्मत्रूद्गव के ज्ञान का ही वर दें। हे यमराज! आप ही बताइए, भलाआप जैसे अजर-अमर महात्मा देवता-स्वरूप का दुर्लभ संग पाकरमृत्युलोक का ऐसा कौन बुद्धिमान मनुष्य हबोगा, जो स्त्रियों के सौंदर्य,क्रीड़ा और आमोद-प्रमोद में आसक्त होकर उनकी ओर देखेगा औरइस लोक में लंबे समय तक जीते रहने में सुख मानेगा? हे महात्मन्!
मुझे तो आप अपना अनुभव सिद्ध आत्मत्रूद्गव गी समझाएँ। वह चाहेजितना ही गूढ़ हो, पर आपके इस शिष्य को तो उसके सिवाय औरकुछ चाहिए ही नहीं।”
इस प्रकार परीक्षा अतः जब यमराज ने समझ लिया किनचिकेता पक्के इरादे वाला, परम वैराग्यवान और निर्भय है, इसलिएब्रह्मविद्या का अधिकारी है तब ब्रह्मविद्या का आरम्भ करने से पहलेउसका महत्व बताते हुए वे बोले, “नचिकेता! मनुष्य शरीर दूसरीयोनियों की भांति केवल कर्मों का फल भोगने के लिए नहीं मिला है।
इस शरीर को पाकर मनुष्य भविष्य में सुख देने वाले साधन कीसाधना भी कर सकता है। सुख के दो साधन हैं - श्रेय और प्रेय।
सदा के लिए सब प्रकार के दुःखों से भली-भाँति छूटकर नित्यप्रतिआनंदरूप परब्रह्म पुरुषो्रूद्गाम को पाने का उपाय ही ‘श्रेय’ कहलाता है।
स्त्री, पुत्र, धन, मकान, सम्मान, यश आदि इस लोक का और स्वर्गलोककी जितनी भी भोग-सामग्रियाँ हैं, उनकी प्राह्रिश्वत का उपाय ‘प्रेय’
कहलाता है। सच्चा सुख चाहने वाले मनुष्य श्रेय की साधना करते हैं।
श्रेय विद्यारूप साधन है और प्रेय अविद्यारूप। जिसकी भोगों मेंआसक्ति है, वह प्रेय (अविद्या) को अपनाता है, वह कल्याण-साधनमें आगे नहीं बढ़ सकता और जो कल्याण के रास्ते पर चलना चाहताहै, वह विद्यारूप श्रेय की साधना करता है। वह भोगों की ओर दृष्टिनहीं डालता। इस प्रकार के भोगों को दुःख रूप मानकर उनको पूरीतरह छोड़ देता है।”
यमराज ने कहा, “हे नचिकेता! तुम निश्चय ही विद्याकेअभिलाषी हो। तुम्हारी परीक्षा करके मैंने अच्छी तरह देख लिया कितुम बड़े बुद्धिमान, विवेकी एवं वैराग्यवान हो। जो लोग अपने को बहुतचतुर, विवेकी और तर्क देने वाले समझते हैं, वे भी चमक-दमक वालीसंपि्रूद्गा के मोह-जाल में फँस जाया करते हैं, किंतु तुमने उसे भीस्वीकार नहीं किया। तुम सचमुच परमात्म-त्रूद्गव को जानने के अधिकारीहो।”
इसके पश्चात् यमराज ने नचिकेता को आत्म तथा परमात्म-त्रूद्गव समझाया। उसका सारांश इस प्रकार है -“कर्मों के फलस्वरूप इस लोक तथा परलोक के भोग समूहही जो निधि मिलती है, वह चाहे कितनी ही महान् क्यों न हो, एकदिन उसका नाश निश्चित है, इसलिए वह अनित्य है।
इसके विपरीतपरमात्मा नित्य है। अनित्य से नित्य की प्राह्रिश्वत नहीं हो सकती, अतःसब प्रकार की कामना और आसक्ति छोड़कर कर्तव्य बुद्धि से हीपरमात्मा को जाना जा सकता है। परमात्मा नामरहित होते हुए भी अनेकनामों से पुकारा जाता है। इन नामों में सबसे श्रेष्ठ ‘ओऽम्’ है। ब्रह्मको चाहे परब्रह्म कहो, सब ‘ओऽम’ रूप हैं।
आत्मत्रूद्गव को पहचानकर ‘ओऽम्’ के माध्यम से परमात्म-त्रूद्गवतक पहुँचा जा सकता है। आत्मत्रूद्गव अविनाशी है। न वह मरता हैऔर न किसी को मारता है। यह आत्मत्रूद्गव ही परमात्म-त्रूद्गव को प्राह्रश्वतहोता है।
परमेश्वर न तो उसको मिलता है, जो शास्त्रों को पढ़-पढ़करलच्छेदार भाषा में परमात्म-त्रूद्गव का भली-भाँति वर्णन करता है, न उनतर्कशील बुद्धिवादियो को मिलता है, जो बुद्धि का घमंड करते हुए तर्कद्वारा विवेचन करके उसे समझने की चेष्टा करते हैं, न वह उसको हीमिलता है, जो परमात्मा के बारे में बहुत कुछ सुनते रहते हैं।
वह (परमात्मा) तो उसी को प्राह्रश्वत होता है, जिसको वह स्वयंस्वीकार कर लेता है और वह उसी को स्वीकार करता है, जो उसकेबिना रह नहीं सकता और उसको पाने की उत्कट इच्छा रखता है तथाजो उसकी कृपा पर निर्भर करता है।
स्मरण रहे, जो मनुष्य बुरे आचरणों से घृणा करके उनका त्यागनहीं कर देता, जिसका मन परमात्मा को छोड़कर दिन-रात सांसारिकभोगों में भटकता रहता है, परमात्मा पर विश्वास न होने के कारण जोसदा अशांत रहता है, जिसने मन, बुद्धि और इंद्रियों को वश में नहींकर रखा है, वह व्यक्ति परमात्म-त्रूद्गव को प्राह्रश्वत नहीं कर सकता।
परमात्म-त्रूद्गव की प्राह्रिश्वत के लिए एकाग्रता, श्रद्धा और प्रीतिकी आवश्यकता होती है। परमात्मा लोक-परलोक अर्थात् समस्त ब्रह्मांडमें व्याह्रश्वत है। वह अपनी अचिंत्य शक्ति से नाना रूपों में प्रकट होताहै।
यह सारा जगत बाहर-भीत उस एक परमात्मा से ही व्याह्रश्वत होनेके कारण उसी का स्वरूप है। जगत में परमात्मा से भिन्न कुछ भीनहीं है। जो व्यक्ति भिन्नता की झलक देखता है, वही बार-बारजन्मता-मरता रहता है।”
यमराज के मुख से ऐसी सारगर्भित बातें सुनकर नचिकेता कीजिज्ञासा शांत हो गई। आत्मत्रूद्गव का रस्य उसके आगे प्रकट हो गया।
हृदय की गाँठ खुल गई, संशय दूर हो गया। उसे वह सब कुछ मिलगया जिसके लिए तड़प रहा था। उसने समझ लिया कि आत्मा न तोकभी जन्म लेती है और न कभी मरती है। वह सनातन है, नित्य है,मृत्यु ने नचिकेता को ब्रह्मयुक्त बना दिया, मलविहीन कर दिया।
महर्षि पिह्रश्वलाद की कथा
पुरातन काल में धर्म के विषय में अधिकाधिक जानने केजिज्ञासु लोग आश्रमों में जाकर ऋषि-मुनियों से प्रश्नो्रूद्गार करके अपनीजिज्ञासाओं एवं शंकाओं का समाधान करते थे। एक बार भारद्वाज केपुत्र सत्यकाम, गर्ग गोत्र में उत्पन्न सौर्यायणी, कोसल देश केआश्वलायन, विदर्भ देश के भार्गव और कात्यायन गोत्रीय कबंधी नामकछह ऋषियों ने आपस में मिलकर यह विचार किया कि हमें परमब्रह्मपरमेश्वर के विषय में अधिकाधिक जानना चाहिए। इन ऋषियों ने सुनरखा था कि महर्षि पिह्रश्वलाद परमब्रह्म परमेश्वर के बारे में सब कुछजानते हैं, अतः यह सोचकर कि वे हमारी जिज्ञासा शांत कर देंगे, छहोंऋषि हाथों में समिधा लेकर महर्षि पिह्रश्वलाद करी सेवा में उपस्थित हुए।
ये सभी धर्म और दर्शन के बारे में अनेक शंकाएँ लेकर आए थे।
महर्षि पिह्रश्वलाद ने उनसे कहा, “तुम लोग तपस्वी हो, तुमनेब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वेद के समस्त अंगों (शिक्षा, छंद,व्याकरण, निसक्त, कत्य और ज्योतिष) का अध्ययन किया है, फिरभी मेरे आश्रम में रहकर पुनः एक वर्ष तक श्रद्धापूर्वक ब्रह्मचर्य कापालन करते हुए तप करो। उसके पश्चात् तुम लोग जो चाहो, मुझसेप्रश्न करना। यदि तुम्हारे पूछे हुए विषय का मुझे ज्ञान होगा तो मैंनिश्चय ही तुम्हें सब कुछ अच्छी तरह से सुझा दूँगा।”
जब तपस्या और ब्रह्मचर्य-व्रत का एक वर्ष पूरा हो गया तोसबसे पहले प्रश्न पूछने की बारी आई कबंधी की। उनका सवाल था,“संसार में जो प्राणिरूप प्रजाएँ निवास करती हैं, उनका उत्पि्रूद्गाकर्ताकौन है?”
उ्रूद्गार में महर्षि पिह्रश्वलाद ने कहा, “संसार की प्रजाओं को उत्पन्नकरने वाला तो परमात्मा ही है, जो प्रजापति कहलाता है। संसार मेंदो शक्तियाँ हैं, जिन्हें शास्त्रों में ‘रयि’ और ‘प्राण’ कहा गया है।
समझने के लिए इन्हें पुरुष और नारी भी कह सकते हैं। यही संसारके प्राणिोयं की उत्पि्रूद्गा का कारण बनते हैं। इन्हीं से ही सृष्टि कानिर्माण होता है।”
दूसरा प्रश्न किया भार्गव ऋषि ने। उन्होंने पूछा, “मनुष्य केशरीर को धारण करने वाले देव कितने हैं और उनमें कौन श्रेष्ठ है?’
इसका उ्रूद्गार बहुत सरल और सीधा था, वही उ्रूद्गार महर्षिपिह्रश्वलाद ने दे दिया। उन्होंने कहा, “शरीर की पाँच इंद्रियाँ ही देव हैं,जो इसे धारण किए हुए हैं। ये इन्द्रियाँ हैं - आँख, कान, नाक, त्वचाऔर वाणी। इनसे ही शरीर की गतिविधियों का संचालन होता है, किंतुइन सभी इंद्रियों से श्रेष्ठ तो ‘प्राण’ नाम का त्रूद्गव है। जब तक शरीरमें प्राण रहते हैं, इंद्रियाँ भी अपना कार्य ठीक प्रकार से करती हैं औरजब प्राण शरीर से निकलने लगते हैं तो इंद्रियों की व्याकुलता बढ़जाती है। इसलिए शरीर में प्राण-त्रूद्गव और उसके संचालक परमात्माकी श्रेष्ठता में किसी प्रकार का संशय नहीं करना चाहिए।”
तीसरा प्रश्न था आश्वलायन ने किया। उसने अपने से पहलेप्रश्न करने वाले की बात को ही आगे बढ़ाते हुए पूछा, “महर्षि! आपमुझे प्राण की उत्पि्रूद्गायाँ, शरीर में उसके प्रवेश, उसके पुनः बाहर आनेके विषय में बताइए। यह सब किस प्रकार घटित होता है?”
महर्षि पिह्रश्वलाद ने कहा, “प्राण की उत्पि्रूद्गा आत्मा से ही होतीहै। जब बालक के भ्रूण रूपी शरीर में जीवात्मा प्रवेश करती है तोउसमें प्राण-शक्ति का संचार हो जाता है। यही प्राण आगे ‘प्राण’,‘आपान’, ‘व्यान’, ‘समान’ और ‘उदान’ इन पाँच रूपों से शरीर कासंचालन करता है। शरीर का रक्त-शोधन भी प्राणों से ही होता है।”
अब गर्ग-गोत्रीय सौर्यायणी ने प्रश्न किया, “महर्षि! जब हमसोते हैं तो यह सोने वाला व्यक्ति कौन है? स्वह्रश्वन देखने वाली स्रूद्गााकिसकी है? स्वह्रश्वन की अवस्था में जो सुख या दुःख की अनुभूतिहोती है, वह किसे होती है?” यह प्रश्न मनोविज्ञान से संबंधित था,जिसका महर्षि पिह्रश्वलाद ने इस प्रकार उ्रूद्गार दिया, “सोते समय मनुष्यकी इंद्रियों की क्रियाएँ बंद रहती हैं, किंतु उसकी प्राण-शक्ति जागृतरहती है अर्थात् सोते समय न तो हम किसी वस्तु को देखते हैं, नकिसी शब्द को सुनते हैं, न कुछ बोलते हैं और न किसी वस्तु कास्पर्श ही करते हैं तथापि प्राणों के जागृत रहने के कारण हमारा शरीरयथावत् जीवित रहता है।
स्वह्रश्वनों को देखने वाला तो मन ही है, क्योंकिअनुभव से आई हुई अथवा सुनी-सुनाई बातों को भी वह अपनीकल्पना-शक्ति के बल पर सपने में पुनः अनुभव करता है। जबस्वह्रश्वनावस्था से भी आगे हम सुषुह्रिश्वत (प्रगाढ़ निद्रा) की अवस्था में चलेजाते हैं तो हमारी मानसिक अनुभूतियाँ भी समाह्रश्वत हो जाती हैं। उससमय तो हम जैसे परमात्मा की शांत गोद में ही सोते हैं और हमेंसुख की अनुभूति होती है। इसलिए सांख्यदर्शन के रचयिता कपिलमुनि ने समाध, सुषुह्रिश्वत और मोख में ब्रह्मरूपता मानी है। इन तीनोंमें ब्रह्म के सुख का अनुभव होता है।”
पाँचवें प्रश्नकर्ता थे शिबि के पुत्र सत्यकाम। उन्होंने ओंकार कीउपासना के बारे में प्रश्न किया, “महर्षि! जो मनुष्य आजीवन ओंकारकी भली-भाँति उपासना करता है, उसे उसका क्या फल मिलता है?”
महर्षि पिह्रश्वलाद ने बताया, “ओ३म् तथा परमब्रह्म परमेश्वर मेंभिन्नता नहीं है। यही ओंकार परमब्रह्म है और यही उनसे प्रकट हुआउनका विराट स्वरूप अपर ब्रह्म भी है। ओंकार की तीन मात्राएँ याअंग माने गए हैं - भू, स्वः और स्वः। जो इन तीनों रूपों सहितओंकार की उपासना करता है, उसका जप, स्मरण और चिंतन करताहै वह परब्रह्म को पा लेता है।
भूः का पृथ्वीलोक से संबंध है, जोमनुष्य ओं भूः का जप करता है, वह पुनः मनुष्य का जन्म लेता हैऔर तप, ब्रह्मचर्य तथा श्रद्धा-संपन्न होकर भूलोक के ऐश्वरोयं को भोगकरता है। जो साधक भूः और स्वः दो मात्राओं वाले ओंकार कीउपासना करता है, वह मनोमन चंद्रलोक को प्राह्रश्वत करता है। जब वहाँउसके पुण्यों का क्षय हो जाता है, तब वह पुनः मृत्युलोक में आ जाताहै, फिर उसे पूर्व कर्मानुसार मनुष्य शरीर या कोई अन्य योनि मिलजाती है। जो तीनों मात्रा वाले ओंकार का जप करता है, वह ज्ञानेंद्रियोंको भी दुर्लभ ब्रह्मलोक को ले जाता है।
कहने का तात्पर्य यह है किसंपूर्ण रहस्य को जानने वाले बुद्धिमान मनुष्य बाहरी जगत में आसक्तन होकर ओंकार की उपासना द्वारा समस्त जगत के आत्मरूप परब्रह्मपरमात्मा को पा लेते हैं। परब्रह्म परमात्मा परम शांत है और सब प्रकारके विकारों से रहित है, वे अजर, अमर, निर्भय, सर्वश्रेष्ठ और परमपुरुषो्रूद्गाम हैं।”
पाँचों ऋषियों के प्रश्नों का उ्रूद्गार देने के पश्चात् महर्षि पिह्रश्वलादने भारद्वाज के पुत्र सुकेश की ओर देखा। उन्होंने कहा, “सुकेश, तुम्हारेमन में जो प्रश्न हो, तुम भी पूछ लो।”
सुकेश ने कहा, “महर्षि! मैं तो बहुत ही मामूली व्यक्ति हूँ।
मेरे पास अपना कोई प्रश्न नहीं है। प्रश्न किसी और का है, वह प्रश्नसोलह कलाओं वाले पुरुष के बारे में है।”
महर्षि ने उत्सुक होकर पूछा, “बात क्या है? साफ-साफकहो।”
सुकेश ने कहा, “भगवन्! एक बार कोसल देश का राजकुमारहिरण्यनाभ मेरे पास आया था। उसने मुझसे पूछा था कि क्या तुमसोलह कलाओं वाले पुरुष के बारे में जानते हो? मैंने उससे साफ कहदिया कि भाई, मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता। जानता होता तो तुम्हेंअवश्य बता देता। तुम अपने मन में यह मत सोचना कि मैंने बहानाबनाकर तुम्हारे प्रश्न को टाल दिया। मैं झूठ कभी नहीं बोलता, क्योंकिझूठ बोलने वाले का मूल सहित नाश हो जाता है। उसे लोक-परलोकमें कहीं भी प्रतिष्ठा नहीं मिलती। मेरी बात सुनकर राजकुमार चुपचापअपने रथ पर सवार होकर जैसे आया था, वैसे ही लौट गया।
राजकुमार का प्रश्न मेरे पास रह गया। वही प्रश्न मैं आपके सामनेनिवेदन कर रहा हूँ। कृपा करके आप मुझे बताएँ कि सोलह कलाओंवाले पुरुष का त्रूद्गव क्या है, वह कहाँ है और उसका स्वरूप क्या है?”
महर्षि पिह्रश्वलाद सुकेश के सत्य भाषण से बहुत प्रसन्न हुए।
उन्होंने कहा, “सुकेश! तुम्हारी सत्यनिष्ठा और त्रूद्गव के प्रति सच्चीजिज्ञासा से मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हें उस सोलह कलाओं वाले पुरुषके बारे में बताता हूँ। ध्यान से सुनो -
“जगत् की रचना करने वाले परमब्रह्म परमेश्वर ने सृष्टि केआरंभ में सबसे पहले प्राणस्वरूप परमात्मा हिरण्यगर्भ को बनाया,जिसकी चर्चा मैं पहले भी कर चुका हूँ। उसके बाद आस्तिक बुद्धिअर्थात् श्रद्धा को प्रकट किया जिससे कि मनुष्य शुभ कर्मों में लगे।
फिर आकाश, वायु, जल, तेज और पृथ्वी पंचमहाभूत रचे। दिखाई देनेवाला यह संपूर्ण ब्रह्मांड इन पाँच महाभूतों का कार्य है। इनकी रचनाके बाद परमेश्वर ने मन, बुद्धि, चि्रूद्गा और अहंकार के समग्र रूप औरअंतःकरण की रचना की। फिर विषयों के ज्ञान और कर्म के लिएपाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँच कर्मेंद्रियाँ बनाई। फिर प्राणियों के शरीर कोबनाए रखने के लिए अन्न की उत्पि्रूद्गा की और अन्य प्राणियों के शरीरको बनाए रखने के लिए उनके अनुसार वनस्पति आदि की रचना की।
तत्पश्चात् अन्न के परिपाक् के द्वारा बल की रचना की, फिर तप कीउत्पि्रूद्गा की, जिससे अंतःकरण और इंद्रियों को संयम किया जा सके।
उपासना के लिए भिन्न-भिन्न मंत्रों की रचना की। अंतःकरण के संयोगसे इंद्रियों द्वारा किए जाने वाले कर्मों का निर्माण किया। कर्मों केभिन्न-भिन्न फलस्वरूप लोगों की रचना की और उन सबके नामरूपोंकी रचना की। इस प्रकार प्राण, अंतःकरण, ज्ञानेंद्रिय, कर्मेंद्रिय, अन्न,बल, तप, मंत्र, कर्म और लोक कुल मिलाकर सोलह कहाएँ हो गइर्ं।
इन सोलह कलाओं से युक्त ब्रह्मांड की रचना करके जीवात्मा सहितपरमेश्वर स्वयं इसमें प्रविष्ट हो गए। इसलिए परमेश्वर सोलह कलाओंवाले पुरुष कहलाते हैं। हमारा यह मनुष्य शरीर भी ब्रह्मांड का ही एकछोटा-सा नमूना है, इसलिए परमेश्वर जिस प्रकार सारे ब्रह्मांड में है,उसी प्रकार हमारे शरीर में भी है और इस शरीर में भी वे सोलहकलाएँ मौजूद हैं। अपने हृदय में रहने वाले परम पुरुषो्रूद्गाम को जानलेना ही उन सोलह कलाओं वाले पुरुष को जान लेना है।”
महर्षि पिह्रश्वलाद ने आगे कहा, “सुकेश! ध्यान रखो, जिस प्रकारअलग-अलग नाम और रूप वाली अनेक नदियाँ अपने उद्गम स्थानसे समुद्र की ओर दौड़ती हुई समुद्र में पहुँचकर उसी में विलीन होजाती हैं, समुद्र से अलग उनका कोई नाम-रूप नहीं रह जाता, वे समुद्रबन जाती हैं, उसी प्रकार परमात्मा से उत्पन्न हुई ये सोलह कलाएँप्रलय के समय परमपुरुष परमेश्वर में जाकर उसी में विलीन हो जातीहैं।”
सुकेश के प्रश्न का उ्रूद्गार देने के बाद महर्षि पिह्रश्वलाद ने सभीऋषियों को संबोधित करते हुए कहा, “ऋषियों! अभी सुकेश ने रथकी चर्चा की थी, अतः तुम परमात्मा के बारे में रथ के रूपक सेही सारी बात समझो। जिस प्रकार रथ के पहिए में लगे रहने वालेसब ‘अरे’ उस पहिए के बीच में स्थित नाभि या धुरे में प्रविष्ट रहतेहैं, क्योंकि उन सबका आधार नाभि है, नाभि के बिना वे टिक नहींसकते, उसी प्रकार प्राण आदि सोलह कलाओं के जो आधार हैं, येसब कलाएँ जिसकी आश्रित हैं, जिससे उत्पन्न होती हैं और जिसमेंविलीन हो जाती हैं, वे ही जानने योग्य परब्रह्म परमेश्वर हैं। सबके
आधार उर परमात्मा को ही जानना चाहिए। उनको जान लेने पर मृत्युका भय जाता रहेगा और जन्म-मरण से छुटकारा पाकर मुक्त होजाओगे। बस, उनके बारे में तुमसे जो कुछ कहना था, कह दिया। मेरेविचार से परमेश्वर से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है।”
आचार्यप्रवर पिह्रश्वलाद का ब्रह्म-संबंधी उपदेश सुनकर सभीऋषियों की जिज्ञासा शांत हो गई और वे पिह्रश्वलाद का आशीर्वाद लेकरसहर्ष अपने-अपने स्थान को लौट गए।महर्षि पिह्रश्वलाद द्वारा ऋषियों को दिए इस उपदेश से हमें यहीशिक्षा मिलती है कि ज्ञान-रूप सच्चा गुरु ही वास्तविक पिता होता है।
गुरु से ज्ञान प्राह्रश्वत करने के लिए शिष्य में धैर्य, तप, ब्रह्मचर्य आदिगुणों के साथ लगन और सत्य का बल भी होना चाहिए। परमेश्वरसे बढ़कर जानने योग्य और कुछ भी नहीं है। गुरु की महिमा अपारहै। तभी तो शास्त्रों में गुरु की महिमा इस प्रकार वर्णित की गई है,‘हे गुरुदेव! आप ही मेरा माता हैं, आप ही मेरे पिताहैं, आप ही बंधुहैं और मेरे सखा भी आप ही हैं। आप ही मेरी विद्या एवं धन हैं।
हे गुरुदेव! आप तो मेरे लिए सर्वस्व हैं।’
बृहदारण्योपनिषद से
महर्षि याज्ञवल्कय का संवाद
एक बार महर्षि याज्ञवल्कय राजा जनक से मिलने के लिएमिथिला पहुँचे। राजा जनक उस समय अपनी सभा में बैठे हुए थे।
उन्होंने ऋषि याज्ञवल्कय का यथोचित आदर-सत्कार किया, फिर उनसेआने का कारण पूछा।
याज्ञवल्कय बोले, “राजन्! आप तो जानते ही हैं कि ब्रह्म-चर्चा में मेरी सदैव से ही रुचि रही है। आज भी मैं आपके साथ ब्रह्म-चर्चा करने के लिए यहाँ आया हूँ।”
रात को निर्धारित स्थान पर दोनों के बीच ब्रह्मचर्चा हुई।
याज्ञवल्कय ने कहा, “राजन्! अपने जीवन में मैं अनेकविद्वानों से मिला हूँ। आप भी ब्रह्मदेवता हैं, आप भी अनेक विद्वानोंसे मिले होंगे। उनमें से पहले किस विद्वान ने आपको ब्रह्म केबारे मेंक्या कुछ बताया, पहले यह बताएँ तो आगे की चर्चा होगी।”
राजा जनक बोले, “ऋषिवर! बहुत पहले एक विद्वान ने मुझेबताया था कि वाणी (बोलने की शक्ति) ही ब्रह्म (महान्) है। क्याउसका यह कहना सही था?”
यह सुनकर याज्ञवल्कय ने कहा, “राजन्! एक सीमा तक तोयह बात ठीक ही है, क्योंकि वाणी से ही हम अपने मन की बातदूसरों से कहते हैं। साथ ही यह भी जानना चाहिए कि वाणि तो ब्रह्मकी मात्र एक कला (उसके द्वारा प्रद्रूद्गा एक शक्ति) है। उसकी प्रतिष्ठातो आकाश में है, अर्थात् आकाश (शून्य या पोल) के कारण ही एककी कही बात दूसरे को सुनाई देती है। हम वाणी के मह्रूद्गव से इनकारनहीं करते, किंतु वाणी का प्रयोग भी बुद्धि (प्रज्ञा) पूर्वक ही करनाचाहिए। जो व्यक्ति बिना विचार किए ही बोलता है, वह अपना हीनुकसान करता है।”
याज्ञवल्कय से वाणी का मह्रूद्गव सुनकर राजा जनक को बहुतप्रसन्नता हुई। उन्होंने भेंट-स्नरूप ऋषि याज्ञवल्कय को सौ गाय प्रदानकी।
प्रसंग और आगे बढ़ा तो राजा ने कहा, “ऋषिवर! एक औरमहात्मा मेरे पास आए थे। उन्होंने प्राण को ही ब्रह्म (बड़ा) बताया था।
क्या उनका कथन ठीक था?”
याज्ञवल्कय ने उ्रूद्गार दिया, “उस व्यक्ति का यह कहना किप्राण ही ब्रह्म है, किसी सीमा तक ठीक ही था, क्योंकि प्राणों का संयमकरके, अर्थात् प्राणायाम के द्वारा ही हम अपनी इंद्रियों तथा मन कानिग्रह करते हैं, जो हमें आगे धारण और समाधि के द्वारा परमात्मा केनिकट ले जाता है, किंतु यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि प्राणायाम कीयह साधना भी आकाश (शरीर के भीतर का खाली स्थान) की अपेक्षारखती है।”
याज्ञवल्कय के इस कथन से राजा जनक प्रसन्न हुए औरउन्होंने ऋषि को पुनः भेंट, पुरस्कार आदि देकर सम्मानित किया।
जब प्रसंग कुछ और आगे बढ़ा तो राजा ने किसी औरमहापुरुष द्वारा बताई गई इस बात को कहा, “ऋषिवर! उसने तो चक्षु(नेत्रशक्ति) को ब्रह्म बताया था। क्या उसका कहना सही था?”
याज्ञवल्कय ने इसे भी स्वीकार किया। वे बोले, “किन्हीं अर्थोंमें उसका चक्षु को ब्रह्म मानना उचित ही था राजन्। क्योंकि शास्त्रोंके अध्ययन के लिए तो नेत्र ज्योति जरूरी है ही, किंतु यह भी द्यानरहे कि हमारे नेत्र जिन गोलकों में स्थित हैं, वे भी आकाश का हीएक रूप हैं। नेत्रों का संयम आवश्यक है।”
इसी प्रकार आगे की चर्चा में जो बातें सामने आई उनसे श्रोत्र(श्रवण-शक्ति), मन तथा हृदय के ब्रह्म होने का तथ्य उजागर हुआ।
याज्ञवल्कय ने इसका समर्थन करते हुए स्पष्ट किया, “राजन्! कान भीअपने गोलक में स्थित होते हैं। वे भी आकाश का ही रूप हैं। मनकी मह्रूद्गाा तो सर्वविदित ही है। मन से ही हमारे अन्य लोगों से रिश्तेजुड़े रहते हैं। इसी प्रकार हृदय में ईश्वर के प्रति श्रद्धा, विश्वास औरभक्ति-भाव जगाया जाता है। परमात्मा को हृदय-देश में स्थित कहा गयाहै।”
याज्ञवल्कय से अपने संशयों का समाधान पाकर जनक कोपरम संतुष्टि हुई और उन्हें भेंट-स्वरूप बहुत-सा द्रव्य देकर विदाकिया।
इस कथा का सार यही है कि हमारे जीवन में वाणी, नेत्र,कान, मन तथा हृदय ये सभी हमें ब्रह्म का ज्ञान कराने में सहायक होतेहैं, परंतु हैं ये साधन-मात्र। साध्य तो अकेला परमात्मा ही है।
बृहदारण्योपनिषद से
उद्दालक की कथा
गर्ग वंश में उत्पन्न हुए महात्मा चित्र अपने परदादा महर्षि गर्गकी तरह ही ब्रह्मवे्रूद्गाा थे। एक बार उन्होंने यज्ञ करने का विचार किया।
इसके लिए ऋत्विक के रूप में उन्होंने ऋषि आरुणि के पुत्र उद्दालकका चयन किया और उनके पास संदेश भेज दिया कि यज्ञ को पूराकरने के लिए वे अवश्य आएँ, किंतु व्यस्तता के कारण उद्दालक वहाँस्वयं नहीं गए, बल्कि अपने स्थान पर उन्होंने अपने पुत्र श्वेतकेतु कोभेज दिया।
श्वेतकेतु वहाँ पहुँचा और यज्ञशाला में आकर एक ऊँचे आसनपर विराजमान हो गया। उसे इस प्रकार ऊँचे आसन पर बैठे देखमहात्मा चित्र उसके समीप पहुँचे और उससे (श्वेतकेतु से) पूछा,“भद्र! क्या इस लोक में कोई ऐसा आवरणयुक्त, हर प्रकार से ढंकाहुआ स्थान है, जिसमें मुझे ले जाकर रख सको अथवा उससे भिन्नकोई ऐसा शून्य पद है, जिसे जानकर तुम उसी लोक में मुझे रखसको?”
श्वेतकेतु चित्र की ओर देखकर बोला, “महात्मन्! मैं यह सबकुछ नहीं जानता, किंतु आपका प्रश्न सुनकर मुझे प्रसन्नता हुई है। मेरेपिता आचार्य हैं। वे शास्त्रों के गूढ़ अर्थों का ज्ञान रखते हैं, दूसरे लोगोंको शास्त्रों के अनुसार आचार-विचार रखने की प्रेरणा देते हैं तथा स्वयंभी शास्त्रों के अनुकूल आचरण करते हैं, अतः उन्हीं से आपके प्रश्नका उ्रूद्गार ज्ञात करूँगा।” ऐसा कहकर श्वेतकेतु वहाँ से चला गया।
जब श्वेतकेतु अपने पिता के पास पहुँचा तो उन्हें बड़ा आश्चर्यहुआ। वे कहने लगे, “श्वेतकेतु! मैंने तो तुम्हें ऋत्विक (यज्ञ को पूराकराने वाला) बनाकर महात्मा चित्र का यज्ञ पूरा कराने के लिए भेजाथा, फिर तुम इतनी जल्दी लौट क्यों आए?
श्वेतकेतु ने कहा, “भगवन्! महात्मा चित्र ने एक प्रश्न करदिया जिसका उ्रूद्गार मुझे मालूम ही नहीं था। इसी कारण मुझे वहाँ सेवापिस लौटना पड़ा।”
“अच्छा बताओ तो क्या पूछा था महात्मा चित्र ने?” उद्दालकबोले।
“उन्होंने पूछा था कि इस लोक में कोई ऐसा आवरणयुक्तअथवा आवरणशून्य लोक है, जहाँ जाकर व्यक्ति रह सके। पिताजी,अब आप ही बताइए कि मैं इस प्रश्न का क्या उ्रूद्गार दूँ?”
उद्दालक बोले, “पुत्र! इस प्रश्न का उ्रूद्गार तो मुझे भी मालूमनहीं है। चलो हम दोनों महात्मा चित्र के पास चलते हैं। उन्हीं से उसत्रूद्गव का अध्ययन करके इस विद्या को प्राह्रश्वत करेंगे। जब दूसरे लोगहमें विद्या और धन देते हैं तो चित्र भी देंगे ही।”
तब वे दोनों पिता-पुत्र हाथ में समिधाएँ लेकर जिज्ञासु के वेशमें महात्मा चित्र के पास पहुँचे। चित्र के समीप पहुँचकर उद्दालक नेविनयपूर्वक कहा, “महात्मन्! मैं विद्या ग्रहण करने के लिए आपकेपास आया हूँ।”
चित्र ने सम्मानपूर्वक उद्दालक को बिठाया और कहा, “हेगौतम! तुम ब्राह्मणों में पूजनीय और ब्रह्मविद्या के अधिकारी हो। तुममेरे जैसे लघु व्यक्ति के पास आते समय भी अपने बड़ह्रश्वपन केअभिमान से ग्रस्त नहीं हो, अतः तुम धन्य हो। आओ, मैं तुम्हें निश्चयही अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस विषय का ज्ञान कराने का यत्नकरूँगा।”
उद्दालक और श्वेतकेतु को अपने-अपने आसनों पर बिठानेके बाद महात्मा चित्र ने कहना आरम्भ किया, “ब्राह्मन्! जो कोई भीअग्निहोत्र आदि सत्कर्मों का अनुष्ठान करने वाले लोग हैं, वे सब जबइस देह को त्यागकर चले जाते हैं तो क्रमशः धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष औरदक्षिणायन आदि को पार करके चंद्रलोक अर्थात् स्वर्ग में ही जाते हैं।
उनके प्राणों और इंद्रियों से चंद्रमा शुक्ल पक्ष में पुष्टि को प्राह्रश्वत करतेहैं, किंतु कृष्णपक्ष में उन स्वर्गवासी जीवों की तृह्रिश्वत नहीं कर पाते।
जो व्यक्ति इस चंद्रलोक में रहना नहीं चाहता, उसका त्याग कर देताहै, उस पुरुष को उसका यह शुभ संकल्प चंद्रलोक से भी ऊपर नित्यब्रह्मलोक में पहुँचा देता है, लेकिन जो स्वर्ग के सुख में आसक्त होतेहैं और वहीं रहना चाहते हैं, उस काम भाव से कर्म करने वाले को,उसके पुण्यभोग की समाह्रिश्वत होने पर फिर इसी लोक में भेज दियाजाता है। फिर वह जीव अपनी वासना के अनुसार इस लोक में मनुष्यअथवा अन्य कोई जीव होकर अपने कर्म और विद्या के अनुसार यहींकहीं उत्पन्न होता है।”
महात्मा चित्र ने आगे बताया, “हे उद्दालक! जो व्यक्तिअनासक्त है, निष्काम है, वह अन्य लोकों में होता हुआ परलोक मेंजाता है। सच तो यह है कि जो ब्रह्मवे्रूद्गाा है, वही ब्रह्म को प्राह्रश्वत होताहै।”
“रथ से यात्रा करने वाला पुरुष रथ को दौड़ाता हुआ रथ केदोनों पहियों को देखता है, उस समय रथ-चक्रों का जो भूमि से संयोगवियोग होता है, वह उस दृष्टा को प्राह्रश्वत नहीं होता। इसी प्रकार जोब्रह्मवे्रूद्गाा है, वह रात और दिन को देखता है, पुणअय व पाप कोदेखता है तथा अन्य सभी द्वंद्वों को देखता है। दृष्टा होने के कारणउसका इनसे कोई संबंध नहीं होता, इसीलिए वह पाप व पुण्य से रहितहोता है। फलतः वह ब्रह्मवे्रूद्गाा ब्रह्म को ही प्राह्रश्वत होता है। यही शून्यपद है।”
महात्मा चित्र का यह उपदेश सुनकर उद्दालक और श्वेतकेतुसहित वहाँ उपस्थित सभी व्यक्तियों को परम प्रसन्नता हुई और वेप्रसन्नचि्रूद्गा से अपने-अपने स्थानों को लौट गए।
मुण्डकोपनिषद से
अंगिरा की कथा
सर्वशक्तिमान परब्रह्म ने सर्वप्रथम देवताओं में ब्रह्माजी को इसधरा पर प्रकट किया। फिर ब्रह्मा जी ने सब देवताओं, ऋषियों औरमरीच आदि प्रजापतियों को उत्पन्न किया। साथ ही इन्होंने समस्त लोकोंकी रचना भी की और उन सबकी सुरक्षा के सुदृढ़ नियम आदि भीबनाए।
ब्रह्मा के सबसे बड़े पुत्र अथर्वा थे। उन्हीं को सबसे पहले ब्रह्माने ब्रह्म-विद्या का उपदेश दिया था। तत्पश्चात् ऋषि परंपरा के अनुसारयह ज्ञान निरंतर आगे की पीढ़ियों को मिलता रहा।
उस युग में एक महान् ऋषि हुए जिनका नाम था शौनक।शौनक बहुत विद्वान थे। वे एक गुरुकुल चलाते थे। उनका गुरुकुलबहुत बड़ा था। कहते हैं कि उस समय उनके गुरुकुल में लगभगअट्ठासी हजार शिक्षणार्थी रहकर विद्याध्ययन करते थे। इतनी बड़ीशाला या विद्यालय चलाने के कारण उन्हें महाशाला भी कहा जाता था।
एक बार अंगिरा नाम के एक जिज्ञासु ऋषि शौनक के पास गए औरउनसे त्रूद्गव ज्ञान जानने की जिज्ञासा प्रकट की। शौनक ने जो त्रूद्गव-ज्ञान अंगिरा को दिया, उसे मुण्डकोपनिषद् में इस प्रकार संकलित कियागया है -
महर्षि शौनक ने अंगिरा को बताया, “अंगिरा! इस संसार मेंदो विद्याएँ हैं। एक है अपरा विद्या। इसमें संसार के स्थूल रूप कासारा ज्ञान समाविष्ट होता है। इस ज्ञान को जानने के लिए हमें ऋग्वेदादिचारों वेद, उनके छऋ अंग एवं उनसे संबंधित सभी शास्त्रों का अध्ययनकरना चाहिए।”
“दूसरी है परा विद्या, जो ब्रह्म-विद्या कहलाती है। संसार मेंमनुष्य के लिए कर्म मार्ग और ज्ञान मार्ग, दो प्रकार के साधन बताएगए हैं। वेदों में इन दोनों ही साधना का उल्लेख है। ज्ञान की सीढ़ीपर चढ़ने से पहले साधक को चाहिए कि परोपकार के लिए किए जानेवाले यज्ञों को करे।
उस यज्ञ-रूपी कर्म से जहाँ लोकहित होता है, वहाँअंतःकरण की भी शुद्धि होती है। विधि के अनुसार सामग्री तथासमिधाओं को मंत्रोच्चारपूर्वक अग्नि में आहुत करने से सुख की प्राह्रिश्वतहोती है।”
महर्षि शौनक ने आगे बताया, “हे ऋषि अंगिरा! अभी मैंनेजिन यज्ञों का उल्लेख किया, ये यज्ञ अनेक प्रकार के हैं, जो भिन्नभिन्न पर्वों, अवसरों तथा ऋतुओं में किए जाते हैं, किंतु यह नहींसमझना चाहिए कि केवल यज्ञ-रूपी कर्म करने से मनुष्य को मोक्षमिल जाएगा।
सच पूछो तो यज्ञ तो एक ऐसी नौका के समान है, जोबहुत मजबूत, भी नहीं है। कमजोर नौका तो मनुष्य को जल में डुबोभी देती है, इसलिए यज्ञ-रूपी कर्मों पर अधिक भरोसा न करके हमेंज्ञान-मार्ग की ओर बढ़ना चाहिए।”
महर्षि ने आगे बताया, “ज्ञान-मार्ग पर चलना यद्यपि कठिन है,किंतु उसी से मनुष्य का कल्याण होता है। इसके लिए हमें ब्रह्मवे्रूद्गााऋषियों के पास जाना होगा। वे ही हमें परमात्मा का साक्षात्कारकराएंगे। अपने मन को शांत कर, शाम-दाम आदि गुणों को धारणकर यदि हम अध्यात्म शास्त्र के ज्ञाता गुरु के समीप जाएँ तो वह हमेंब्रह्म-विद्या का उपदेश करेगा। वह गुरु हमें बताएगा कि परमात्मा दिव्य,निराकार, सर्वत्र मौजूद है, साथ ही यह भी बताएगा कि वह अजन्माहै, अविनाशी है और प्राण तथा मन से रहित है।
उसी परमात्मा नेहमें ऋग्वेदादि चारों वेदों का ज्ञान प्रदान कराया है। वही ईश्वर अणुसे भी सूक्ष्म, समस्त लोकों में विद्यमान तथा सबके जीवन का आधारहै। सच पूछो तो उसे प्राह्रश्वत करने के लिए हमें एक धनुर्धारी के दृष्टांतको अपनाना चाहिए। उस स्थिति में परमात्मा का नाम ओउम ही धनुषहोगा, हमारी आत्मा बाण होगी, जिसे ब्रह्म-रूपी लक्ष्य तक पहुँचना है।
यदि हम आलस्य और प्रमाद को छोड़कर ओंकार की जापरूपी उपासनामें मन लगाएं तो निश्चय ही अपने लक्ष्य अर्थात् परमात्मा की प्राह्रिश्वततक पहुँच जाएँगे।”
“और भी सुनो अंगिरा।” महर्षि शौनक ने कहा, “जब हमउस परम त्रूद्गव को जान लेंगे, तब हमारे हृदय की गाँठें खुल जाएँगी।
हमारे सारे भ्रम तथा शंकाएँ दूर हो जाएँगी। हमारे किए हुए कर्मों केबंधन भी क्षीण हो जाएँगे और हम जीवन-मरण के चक्र से छूटकरपरमधाम मोक्ष को प्राह्रश्वत कर लेंगे। वास्तव में इस संसार में तीन हीअनादि त्रूद्गव हैं। ये हैं - ‘प्रकृति, जीव एवं परमात्मा। प्रकृति-रूपीवृक्ष पर दो पक्षी-रूपी जीव एवं परमात्मा बैठे हैं।
उन दोनों की प्रकृतिअर्थात् स्वभाव भिन्न-भिन्न है। जीव जहाँ संसार के कड़वे-मीठे फलोंको खाता है, वहीं परमात्मा तटस्थ दृष्टा की भाँति इसे क्रीड़ा-मात्रसमझता है। इस ब्रह्म-विद्या का प्रवचन सुपात्र को ही करना चाहिए,जो अच्छे कर्म करने वाला, वेदों का अध्ययन करने वाला, सच्चाश्रद्धालु है, वही इस दान का पात्र है। जो नियमों और व्रतों का पालननहीं करता, उसे यह उच्च ज्ञान देना उचित नहीं।”
महर्षि शौनक से इस प्रकार का त्रूद्गव-ज्ञान जानकर अंगिरासंतुष्ट हो गए और प्रसन्नतापूर्वक अपने आश्रम को लौट गए। बाद मेंगुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार उन्होंने यह ज्ञान अपने दूसरे शिष्यों कोदिया।
छान्दोग्य उपनिषद से
नारद की कथा
भूमंडल में भ्रमण करते हुए एक दिन देवर्षि नारद् ब्रह्मलोकपहुँचे और ब्रह्माजी के पुत्र सनत् कुमार से कहा, “भगवान! मैं आपसेउपदेश लेने यहाँ आया हूँ।”
सनत् कुमार ने नारद से पूछा, “नारद! पहले तो तुम मुझे यहबताओ कि तुमने किन-किन विषयों का ज्ञान प्राह्रश्वत कर लिया है,तत्पश्चात् ही मैं तुम्हें उसके आगे जो कुछ संभव होगा, उसका ज्ञानकराऊँगा।”
नारदजी बोले, “भगवान्! मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद औरअथर्ववेद का अध्ययन कर चुका हूँ। इसके अतिरिक्त इतिहास-पुराण,व्याकरण, श्राद्धकल्प, गणित, उत्पात ज्ञान, निधि-सास्त्र, तर्क-शास्त्र,नीति, देव-विद्या, ब्रह्म-विद्या, भूत-विद्या, क्षत्र-विद्या, नक्षत्र-विद्या, सर्पविद्या, नृत्य-संगीत आदि सब जानता हूँ। आप भी यह सब जानते हीहैं।
सनत् कुमार बोले, “तुम तो बहुत कुछ जानतो हो नारद! फिरऔर क्या-क्या जानना चाहते हो?”
नारद ने कहा, “भगवान्! मैं केवल मंत्र का ज्ञान ही जानताहूँ। आत्मज्ञान मुझे नहीं है। मैंने आप जैसे विद्वानों से सुना है कि जोआत्मज्ञानी है, वह शोक को पार कर लेता है। मैं तो शोक करता हूँ,
इसलिए आप मुझे आत्मज्ञान की शिक्षा देकर मुझे शोक से पार करदीजिए। आप मुझे वही ज्ञान दीजिए, जिससे मैं सांसारिक क्लेशों सेमुक्त होकर परमानंद को प्राह्रश्वत कर सकूँ।”
नारद के कथन को सुनकर सनत् कुमार समझ गए कि मेरेइस जिज्ञासु शिष्य ने जो विद्याएँ पढ़ी हैं, वे सभी अपरा विद्या केही अंतर्गत आती हैं। यहसब तो पुस्तकीय ज्ञान है जिससे संसार केभौतिक सुख भले ही प्राह्रश्वत हो जाएँ, किंतु आत्मिक सुख तो परमात्माको जानने से ही प्राह्रश्वत होता है। वे नारद से बोले, “नारद!
तुमने अबतक केवल नाम को ही जाना है, किंतु जानने योग्य तो परमात्मा है,जिसे ‘भूमा’ (बहुत बड़ा) कहा जाता है। वास्तविक सुख तो उस भूमाको जानने में ही है। अन्य वस्तुएँ तो अल्पजीवी हैं, नष्ट हो जाने वालीहै। यह भूमा परमात्मा अपनी ही महिमा से प्रतिष्ठित है। इसके लिएकिसी अन्य आधार की आवश्यकता नहीं है। सच बात तो यह है कियदि हमने इस परम त्रूद्गव को जान लिया, तो मानो सब कुछ जानलिया।”
नारद बोले, “भगवान्! उसी परमात्मा के त्रूद्गव को जानने केलिए तो मैं आपके पास आया हूँ। कृपा कर मुझे यह समझाइए किपरमात्मा तक आखिर पहुँचा किस प्रकार जाए?”
सनत् कुमार ने कहा, “नारद! उस परब्रह्म तक पहुँचने के लिएमनुष्य को एक-एक सीढ़ी को पार करना होता है। यह ठीक उसीप्रकार है जैसे किसी महल या भवन की सर्वोच्च मंजिल पर पहुंचनेके लिए क्रमशः एक-एक सीढ़ी पर चढ़ना होता है। उसी प्रकार पहलेहम शब्द ज्ञान के भंडार शास्त्रों का अध्ययन करें, परंतु यहीं तक नहींरहें। आगे की सीढ़ी है हमारी वामी, जिससे हम अपने ज्ञान को अन्यलोगों तक पहुँचाते हैं। वाणी के आगे चलें तो हमें मन को समझानाहोगा, क्योंकि वाणी को जुछ कहती है, वह मन के अनुसार ही होताहै।”
इतना कहकर सनत् कुमार ने कुछ क्षण विराम लिया, फिरनारद से पूछा, “इतने तक तो तुम समझ गए न नारद?”
“हाँ, भगवन्।” नारद बोले, “इतना तक तो मैंने सब कुछसमझ लिया, अब आगे के बारे में बताइए।”
“वह भी सुनो।” कहते हुए सनत् कुमार ने आगे उपदेश दिया,“नारद! मन से बढ़कर होता है - संकल्प। क्योंकि जो कुछ हमसंकल्प करते हैं, हमारे वचन और कर्म भी उसी के अनुसार होते हैं।
संकल्प से बढ़कर हमें चि्रूद्गा को मानना होगा। चि्रूद्गा हमारे संकल्पों काशासक होता है। चि्रूद्गा की चिंतन शक्ति ही संकल्प रूप में प्रकट होतीहै, किंतु ध्यान इससे भी मह्रूद्गवपूर्ण है। आत्मा को एकाग्र करना हीध्यान है। इससे ही हमें समाधि लगाने में सहायता मिलती है।”
“नारद! सनत् कुमार ने आगे बताया, “ध्यान से उच्चतर स्थानविज्ञान का है। विशिष्ट ज्ञान ही विज्ञान है। एक तिनके से लेकरब्रह्मांड-पर्यंत पदार्थों का ज्ञान ही विज्ञान है, किंतु बल विज्ञान से भीश्रेष्ठ है। बलहीन व्यक्ति को आत्मा का ज्ञान नहीं होता। यहाँ मेरे कहनेका यह अर्थ नहीं है कि शरीर को हट्टा-कट्टा, तंदुरस्त होना चाहिए।
मेरे कहने का अर्थ है आत्मिक बल से। शरीर बेशक कृषकाय हो, किंतुउसे आत्मिक रूप से बलवान होना चाहिए।”
“अब आगे भी सुनो नारद!” कुछ क्षण वाणी को विराम देकरसनत् कुमार ने पुनः कहना आरंभ किया, “प्राणी को बल मिलता हैअन्न से। इसलिए अन्न को हमारे यहाँ अत्यधिक मह्रूद्गव मिला है, किंतुअन्न से भी ज्यादा वरिष्ठता प्राह्रश्वत है, जल को। बात सीधी है। यदिजल-वृष्टि नहीं होगी तो अन्न उत्पन्न होगा ही नहीं। सभी प्राणियों कीतृह्रिश्वत जल से ही तो होती है और यह जल बनता है, तेज से। ग्रीवामें जब आग्नेय (तेज) त्रूद्गव की प्रबलता होती है तो धरती का जलबाष्प बनकर आकाश में मेघ का रूप ले लेता है। तेज से बड़ा है,आकाश। क्योंकि आकाश ही सब लोक-लोकांतरों का आधार है। वहीशब्द शक्ति का आधार (आश्रय) भी है।”
“और भी सुनो नारद!” सनत् कुमार कहते गए, “स्मृति कोआकाश से भी उत्कृष्ट मानना चाहिए। यदि हमारी स्मृति नष्ट हो जाएतो हम अपने परिचितों को भी नहीं पहचान पाएँगे। स्मृति से भी श्रेष्ठहै, आशा, क्योंकि अप्राह्रश्वत वस्तु की आकांक्षा ही आशा है। आशा परही संसार की स्थिति रहती है। निराश व्यक्ति तो संसार में असफलही रहता है।”
“प्राणों को आशा से भी श्रेष्ठ मानना चाहिए, क्योंकि प्राण सेही मनुष्य का जीवन संचालित होता है। जिस प्रकार रथ के पहियोंमें ‘अरे’ लगे रहते हैं और उनसे ही रथ को गति मिलती है, उसीप्रकार प्राणों से शरीर को गति मिलती है। जब हम प्राणों के मह्रूद्गवको जान लेते हैं, तब प्राणों के आधारभूत आत्मत्रूद्गव को जानना सुगमहो जाता है। यह सत्य ही परमात्मा है। सत्य को जानकर ही मनुष्यको परम सुख की प्राह्रिश्वत होती है। मनुष्य के जीवन का लक्ष्य तो सुखप्राह्रश्वत करना ही है। जिस सुख को हम प्राह्रश्वत करना चाहते हैं, वह सुखही परमात्मा है, उसे ही भूमा कहा गया है। यदि आप भूमा को जानलेते हैं तो समझ लो आपने उस परमात्मा को जान लिया है, जो अमृततथा अविनाशी है।”
“भूमा क्या है?” थोड़ा समझाकर कहिे भगवान्!” नारद नेकहा।
सनत् कुमार बोले, “भूमा आत्मा है, वह सर्वज्ञ है। ऊपर-नीचे,आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ सब जगह आत्मा है। आत्मा से ही सबका संबंधहै। सब कुछ उसी से जुड़ा है और उससे ही सबकी ुत्पि्रूद्गा हुई है।”
“पर भगवन्!” नारद ने आग्रह किया, “यह तो बताइए कियह भूमा किसमें प्रतिष्ठित है, इसका आधार क्या है?”
“नारद! भूमा को किसी अन्य आधार की आवश्यकता ही नहींहै। वह तो अपनी महिमा में ही प्रतिष्ठित है। इसको जानने वालाआत्मानंद और आत्माराम हो जाता है। हाँ, इसे प्राह्रश्वत करने के लिएतुम्हें अपनी आहार-शुद्धि करने पड़ेगी, क्योंकि शुद्ध आहार करने सेही मन (स्रूद्गव) की शुद्धि होती है। मन के शुद्ध रहते हमें अविचलस्मृति मिलती है। यह दिव्य स्मृति ही हमें सब प्रकार के बंधनों सेमुक्त करके, मोक्ष प्राह्रश्वत कराने में सहायक होती है।”
सनत् कुमार के मुख में ऐसा सारगर्भित उपदेश सुनकर नारदजी संतुष्ट हो गए। उनके मन में छिपा अज्ञानरूपी अंधकार जाता रहा।
महोपनिषद से
शुकदेव की कथा
शुकदेव नाम के एक महान् तेजस्वी मुनि हुए हैं। इनके विषय में कहा जाता है कि उन्होंने जन्म लेते ही समस्त ब्रह्म-विद्याओं को जान लिया था। वे आत्मा के स्वरूप को पहचान गए थे। आश्चर्य की बात तो यह है कि उन्होंने ब्रह्म-विद्या किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं सीखी थी। अपने ही विवेक से उन्होंने मनन-चिंतन द्वारा ब्रह्म-विद्या को सीख लिया था। शुकदेव सदैव ही कुछ-न कुछ नया ज्ञान प्राह्रश्वत करने के प्रयास में लगे रहते थे। ऐसी ही ज्ञान-पिपासा की तृह्रिश्वत के लिए वे एक बार अपने पिता श्रीकृष्ण द्वैपान (महर्षि वेदव्यास) के पास मेरु पर्वत पर जा पहुँचे। महर्षि वेदव्यास उस समय स्थिर चि्रूद्गा होकर ध्यान में निर्मग्न थे।
शुकदेव ने उनके समीप जाकर भक्तिपूर्वक प्रश्न किया, “भगवन्! मैं आपसे यह जानने के लिए आपके पास आया हूँ कि यह जगत प्रपंच कैसे उत्पन्न हुआ? फिर किस प्रकार यह विलीन हो जाता है। यह क्या है, जिसका है, कब हुआ? सब कुछ समझाइए।”
पिता व्यास ने शुकदेव को, जो कुछ वे जानते थे, सब कुछ समझा दिया। शुकदेव ने सोचा, “ये बातें तो मुझे पहले से ही मालूम थी, इन्होंने कौन-सी नई बात बता दी।” यही सोचकर शुकदेव ने पिता की बातों का विशेष सम्मान नहीं किया।
व्यास शुकदेव के मनोभाव से उनके विचार जान गए, एतः उनसे बोले, “पुत्र! सच तो यह है कि मैं त्रूद्गव रूप से इन बातों को नहीं जानता, इसीलिए तुम्हें ठीक से नहीं समझा पाया। तुम ऐसा करो, मिथिलापुरी चले जाओ। वहाँ के राजा जनक हैं, जो एक श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी हैं। राजा जनक से तुम्हें तुम्हारे सभी प्रश्नों का सही उ्रूद्गार मिल जाएगा।”
व्यास की अनुमति लेकर शुकदेव विदेह नगरी (मिथालापुरी का एक नाम) पहुँचे। लोगों से पूछते हुए वे राजा के द्वारपालों तक पहुँचे और उनके द्वारा राजा जनक को अपने आने का संदेश पहुँचाया।
द्वारपालों ने जाकर जनक से निवेदन किया, “राजन्! राजमहल के द्वार पर महर्षि व्यास के पुत्र शुकदेव मुनि उपस्थित हैं और आपके दर्शन करना चाहते हैं। क्या आज्ञा है?”
शुकदेव की परीक्षा लेने के लिए राजा जनक ने बड़ी लापरवाही से केवल इतना ही कहा, “उनसे कहो कि अभी वहाँ प्रतीक्षा करें।”
द्वारपालों ने जाकर शुकदेव से वहीं प्रतीक्षा करने के लिए कह दिया। शुकदेव वहीं बैठकर प्रतीक्षा करने लगे।
राजा ने सात दिन तक शुकदेव की उपेक्षा की। जनक ने शुकदेव को अपने पास बातचीत करने के लिए न बुलाया। आठवें दिन राजा ने शुकदेव को अपने पास बुलाया, किंतु वहाँ भी उनकी भेंट राजा से न हुई।
राजा जनक राजकीय व्यस्तता का नाटक करते रहे। तदंतर उन्हें अंतःपुर में बुलाया गया। वहाँ राजा तो शुकदेव के सामने नहीं आए, किन्तु बहुत-सी सुंदर युवतियाँ नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन तथा भोग-विलास के द्वारा शुकदेव जी का आदर-सत्कार करती रहीं, किंतु शुकदेव जी का मन तनिक भी विचलित नहीं हुआ।
वे किसी में भी आसक्त नहीं हुए। वे सबमें समभाव से निरासक्ति, निर्विकार, मौन और प्रसन्नचि्रूद्गा होकर निर्मल पूर्णचंद्र के समान स्थिर रहे। राजा जनक समझ गए कि शुकदेव सिद्ध पुरुष हैं। उनके समभाव की परीक्षा कर लेने के बाद राजा जनक ने शुकदेव मुनि को अपने पास बुलाया।
उनको प्रणाम कर स्वागत-सत्कारपूर्वक आसन पर बिठाया।
राजा जनक ने शांत-चि्रूद्गा बैठे हुए शुकदेव मुनि से कहा, “मुनिवर! आपने अपने सांसारिक कार्यों को समाह्रश्वत कर दिया है, आपको सारे मनोरथ प्राह्रश्वत हैं, ऐसी स्थिति में आपकी क्या अभिलाषा है? आप किस उद्देश्य से यहाँ आए हैं?”
शुकदेव बोले, “राजन्! मैं आपको गुरु मानकर यह जानने के लिए आया हूँ कि यह सारा जगत प्रपंच कैसे उत्पन्न होता है और फिर किस प्रकार विलीन हो जाता है।”
राजा जनक ने शुकदेव को वही बातें बता हीं, जो व्यास जी ने बताई थीं।
शुकदेव ने जनक से निवेदन किया, “हे राजन! आप ज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं, किंतु जो बातें आपने मुझे बताई हैं, उन्हें तो मैं बहुत पहले से जानता था। मेरे पिता ने भी लगभग ऐसी ही बाते बताई थीं, जो आप बता रहे हैं। शास्त्रों में भी ऐसा ही लिखा मिलता है। मैं जानता हूँ कि मन के विकल्प से प्रपंच उत्पन्न होता है और इस विकल्प के नाश होने पर इसका भी नाश हो जाता है। यहसंसार निश्चय ही प्रशंसा के योग्य नहीं है और पूरी तरह सारहीन है। तब हे महाभाग, यह है क्या वस्तु? मुझे सत्य बताइए। जगत के विषय में मेरा चि्रूद्गा भ्रांति में फँसा हुआ है। आप मेरी भ्रांति को दूर कर मेरे चि्रूद्गा को शांत कीजिए।”
यह सुनकर राजा जनक बोले, “शुकदेव जी! मैं सारी बातें विस्तार से बताने का प्रयास करता हूँ, आप ध्यान से सुनें। वास्तव में तो दृश्य-जगत है ही नहीं। यह बात जान लेने पर मन दृश्य-वस्तु से विरक्त हो जाएगा। यह ज्ञान तब भली-भाँति परिपक्व हो जाएगा, जब उससे निर्वाणरूपी परम शांति प्राह्रश्वत होगी। वासनाओं का संपूर्णतया त्याग ही श्रेष्ठ त्याग है, वही विशुद्ध अवस्था है और वही मोक्ष है।
जो इस त्रूद्गव को जान लेते हैं, जीवनमुक्त कहलाते हैं। पदार्थ भावना की दृढ़ता ही बंधन है और पदार्थों के प्रति वासनाओं का नाश हो जाना ही मोक्ष है। तप-साधन आदि के बिना समभाव से ही जिसे जगत के भोग अच्छे नहीं लगते, वह जीवन-मुक्त कहलाता है।
जो व्यक्ति यथासमय होने वाले सुखों और दुःखों से अनासक्त ह, जो न प्रसन्न होता है, न शोक करता है, वह जीवन-मुक्त हो। हर्ष, उद्वेग, भय, क्रोध, काम, शोक की दृष्टि से जिसका अंतःकरण अछूता रहता है, वह जीवन-मुक्त कहलाता है।
जो अहंकारी वासना का सहज रूप से त्याग करके आत्मा में स्थित रहता है, चि्रूद्गा के अवलंबन का त्याग करने वाला व्यक्ति जीवन-मुक्त कहलाता है। जिसकी दृष्टि सदा अंतर्मुखी रहती है, जिसको न किसी पदार्थ की आकांक्षा रहती है और न जो अपेक्षा करता है, जो सभी स्थितियों में साते के समान विचरण करता है, वह जीवन-मुक्त कहलाता है।”
इस प्रकार का उपदेश देकर जनक ने कुछ देर के लिए विराम लिया, तत्पश्चात् आगे इस प्रकार से कहा, “हे व्यास-नंदन! जो व्यक्ति सदा आत्मा में लीन रहता है, जिसका मन पूर्ण और पवित्र है।
परमश्रेष्ठ शांत अवस्था को प्राह्रश्वत कर जो संसार में किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता, जो किसी के प्रति आसक्ति न रखता हुआ, उदासीन होकर विचरता है वह जीवन मुक्त कहलाता है। राग, द्वेष, सुख, दुःख, धर्म-अधर्म, फल-अफल की अपेक्षा न करके जो काम करता है, वह जीवन-मुक्त कहलाता है। जो अहं-भाव को छोड़कर, मान-अभिमान त्यागकर, उद्वेग और संकल्पहीन होकर कार्य करता है, वह जीवन-मुक्त कहलाता है।
जो सर्वत्र स्नेहरहित होकर साक्षी के समान स्थित रहता है तथा बिना किसी इच्छा के कर्तव्य में लगा रहता है, वह जीवन-मुक्त कहलाता है।
“हे शुकदेव! यह भी सुनो, जिसने धर्म और अधर्म को, जगत के चिंतन को तथा सारी इच्छाओं को अंतःकरण से त्याग दिया है, वह जीवन-मुक्त कहलाता है। जो किसी भी प्रकार स्वाद का आनंद न लेता हुआ खाद्य पदार्थों को समान भाव से खाता है, बुढ़ापा, मृत्यु, राज्य, दरिद्रता आदि में जो समान भाव से रहता है, जो धर्म-अधर्म, सुख-दुःख, जन्म-मरण की तनिक भी भावना हृदय में नहीं लाता, वह जीवन-मुक्त है।
सारी इच्छाओं, सारी कामनाओं और सारे निश्चयों का जिसने मन से त्याग कर दिया है, जनम, स्थिति, विनाश, उन्नति और अवनति में जिसका मन सदा एक समान रहता है, जो आत्मा में ही पूर्णता को अनुभव करता है, वह जीवन-मुक्त कहलाता है। शरीर का नाश हो जाने पर ैसा व्यक्ति जीवन-मुक्त अवस्था को छोड़कर गतिहीन वायु के समान विदेहमुक्त अवस्था को प्राह्रश्वत होता है। विदेहमुक्त अवस्था में जीव की न तो उन्नति होती है और न अवनति और न उसका क्षय होता है। यह अवस्था न सत् है न असत्।
उसमें न तो टैं का भाव है, न ही डराया’ भाव। विदेहमुक्त वास्तव में गंभीर तथा स्तब्ध अवस्था है। उसमें न तेज व्याह्रश्वत है, न दर्शना। उसमें भूत और पदार्थों के समूह नहीं होते, केवल अनंत रूप में सत् ही स्थित होता है।
वह ऐसा अद्भुत त्रूद्गव है, जिसे किसी भी प्रकार के शब्दों द्वारा नहीं बताया जा सकता। वह पूर्ण से पूरणतर और पूर्णतर से पूर्णतम है। वह अनंत और चेतना मात्र होता है। दृष्टा, दृश्य और दर्शन वही है। इसके अतिरिक्त और कुछ जानने के लिए नहीं है।”
कहकर जनक ने शुकदेव की ओर देखा और फिर मुसकराते हुए कहने लगे, “हे व्यास-नंदन! तुमने इस त्रूद्गव को स्वयं भी जान लिया है और अपने पिता से भी सुना है कि जीव अपने संकल्प से ही बंधन में पड़ता ह और संकल्पहीन होने पर मुक्त हो जाता है। तुमने स्वयं उस त्रूद्गव को जान लिया है, जिसे जान लेने पर इस संसार में महात्माओं को समस्त दृश्यों से अथवा भोगों से विरक्ति हो जाती है।
तुम मुक्त हो, अतः भ्रांति को छोड़ दो। तुम बाहर, बाहर के बाहर और अंतःकरण में तथा उसके भी भीतर देखते हुए नहीं देखते, तुम पूर्ण मुक्तावस्था में साक्षी-भर रहते हो।”
राजा जनक के दिए गए इस लंबे उपदेश को सुनकर शुकदेव जी की भ्रांति मिट गई और वे परम शांति का अनुभव करते हुए सुमेरु पर्वत की ओर चल पड़े, जहाँ उन्हें अब अखंड समाधि लगानी थी।
छान्दोग्य उपनिषद से
उपकोसल की कथा
ऋषि जाबाल के आश्रम में बहुत से ब्रह्मचारी उनसे ब्रह्म विद्या का पाठ पढ़ते थे। एक बार कमल का पुत्र उपकोसल भी उनसे ज्ञान प्राह्रश्वत करने के लिए उनके आश्रम में आया। उसने बारह वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए ऋषि द्वारा दी गई शिक्षा ग्रहण की। वह अग्निहोत्र करता तथा सभी प्रकार के तप करता हुआ शिक्षा ग्रहण करता रहा, किंतु निर्धारित अवधि बीत जाने पर भी गृहस्थ आश्रम में प्रवेश की आज्ञा ऋषि ने उसे नहीं दी।
उस समय यह प्रथा थी कि जब ब्रह्मचर्य काल में छात्र काअध्ययन पूरा हो जाता था तो आचार्य उसका समावर्तन-संस्कार कर देताथा और उसे विवाह कर गृहस्थ आश्रम में जाने की आज्ञा दे देता था।
बहरहाल, जब उपकोसल ने देखा कि उसके सभी साथी ब्रह्मचारी तोअपना अध्ययन समाह्रश्वत कर गुरुकुल से विदा ले रहे हैं, किंतु उसकीबारी अभी तक नहीं आई तो इससे उसके मन पर बड़ी ठेस लगी।
आचार्य-पत्नी भी उसकी पीड़ा को समझ गई। उन्होंने अपनेपति सत्यकाम से कहा, “आर्य! उपकोसल ने सब प्रका से सत्यनिष्ठरहकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए आपसे शिक्षा ग्रहण की है। अपनेअन्य शिष्यों की भाँति अब इसे भी ब्रह्म-विद्या का उपदेश देकर आश्रमसे विदा कर दीजिए।” किंतु आचार्य सत्यकाम ने अपनी पत्नी केआग्रह पर कोई कोई विचार नहीं किया वे बिना कोई उ्रूद्गार दिए यात्रापर निकल गए।
गुरु के ऐसे व्यवहार से आहत होकर उपकोसल ने अनशन व्रतकरने की ठान ली। उसने निश्चय कर लिया कि वह भोजन नहींकरेगा। जब तक ब्रह्मज्ञान को प्राह्रश्वत कर लेने का उसका लक्ष्य पूरा नहो जाए, वह भोजन से कोई वास्ता नहीं रखेगा। गुरु की पत्नी केसमझाने पर भी उसने अपना व्रत नहीं छोड़ा। वह मनन, चिंतन औरध्यान में मग्न हो गया। तब उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे ब्रह्मकाल मेंउसने जिन अग्नियों की सेवा की थी, वे ही गुरु बनकर उसके सामनेउपस्थित होकर उसे ब्रह्म-विद्या का उपदेश दे रही हैं। कभी-कभी ऐसाहोता है कि किसी बात को जानने का पक्का निश्चय जब हम करलेते हैं, तब वह सत्य स्वतः ही हमारे समक्ष उद्घाटित हो जाता है।
इस प्रसंग से भी हमें यही समझना चाहिए। उपकोसल को ऐसा लगामानो साक्षात् अग्निदेव उसके सामने हैं और उसे समझा रहे हैं। उनकेकहने का सार यही था, “जल, दिशाएँ, नक्षत्र और चंद्रमा में भी हमेंअपने ह्रश्वयारे प्रभु की स्रूद्गाा को ही देखना चाहिए। वेदों में जहाँ ‘आपः’का प्रयोग जल के लिए हुआ है वहाँ यही शब्द परमात्मा के लिए भीमिलता है।
जिस प्रकार जल से शांति मिलती है, उसी प्रकार परमात्माके चिंतन से भी हमारा मन निर्मल और पवित्र होता है। दिशाओं कोतो वेदों में परमात्मा की भुजाएँ ही बताया गया है। नक्षत्र और चंद्रमाआदि आकाश में स्थइत पदार्थों में जो प्रकाश है, वह भी प्रभु का हीदिया हुआ है। अग्निदेव ने उपकोसल को बताया, “सुनो उपकोसल!
वैसे तो परमात्मा सब जगह मौजूद है, किंतु प्राम, आकाश, द्युलोक तथाविद्युत में उसकी शक्ति को देखा और परखा जा सकता है। वही हमेंप्राण शक्ति देता है। आकाश की भाँति वह सर्वत्र मौजूद है।
द्युलोक में जो प्रकाश है, वह उसी का दिया हुआ है। विद्युतकी जो प्रकाशित करने की शक्ति मिली है, उसका स्रोत भी परमात्माही है।” इस प्रकार उपकोसल ने ध्यानावस्थाओं में बैठकर अपने चिंतनद्वारा जो ज्ञान प्राह्रश्वत किया, उसको आचार्य सत्यकाम ने प्रवास सेलौटकर पूरा कर दिया। जब ब्रह्मचारी उपकोसल को ब्रह्मज्ञान का बोधहो गया तो आचार्य ने उसे गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने की आज्ञाप्रदान कर दी।
उपकोसल ब्रह्मज्ञान जानकर प्रसन्नतापूर्वक अपने घर कोलौट गया। वहाँ उसने गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार अपना यह ज्ञानदासरे लोगों को बाँटा। इस तरह ज्ञान बाँटने की परंपरा अनंत कालतक चलती ही रही।
विदग्ध के प्रश्न
राजा जनक को ब्रह्मचर्य सुनने की बहुत जिज्ञासा थी। उनकेयहाँ मनीषी, ऋषि एवं त्रूद्गवज्ञानियों का आना-जाना प्रायः होता ही रहताथा। ऐसी ही धर्म-चरचा के लिे अनेक विद्वान एक बार राजा जनककी सभा में पहुँचे और वहाँ धर्म-चरचा आरंभ की।
शकल के पुत्र मुनि विदग्ध ने वहाँ उपस्थित महर्षित याज्ञवल्क्यसे पूछा, “याज्ञवल्क्य! आप यह बताएँ कि देवता कितने हैं? वैदिकशास्त्रों में देवताओं का विचार अनेक प्रकार से हुआ है। जो हमें कुछदेता है, वह देवता कहलाता है। ‘देव’ शब्द की व्याख्या करते हुएइसके अनेक अर्थ बताई गए हैं। स्वयं प्रकाशमान, अन्यों को प्रकाशितकरने वाले सूर्य, चंद्र, नक्षत्र आदि भी देवता हैं। दिव्य शक्ति संपन्नजड़ व चेतन भी देवता कहे गए हैं। माता, पिता, गुरु, आचार्य औरअतिथि को भी हमारी संस्कृति में देवता माना गया है।”
विदग्ध के प्रश्न के उ्रूद्गार में महर्षि याज्ञवल्क्य ने प्रथण तोदेवताों का उल्लेख किया, जो इस प्रकार है -
“आठ वसु, बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र, इंद्र एवं प्रजापति।”
जब विदग्ध ने इनकी विस्तृत जानकारी चाही तो ऋषि ने कहा,“अग्नि, पृथ्वी, वायु, अंतरिक्ष, सूर्य, द्युलोक, चंद्रमा और नक्षत्र सेआठ वसु कहलाते हैं।”
“रुद्र कौन से हैं?” इसके उ्रूद्गार में ऋषि ने बताया “दस प्राणऔर ग्यारहवीं आत्मा, ये एकादश रुद्र हैं। इनके शरीर को छोड़ने परप्राणी के बंधु-बाँधव रोने लगते हैं, इसीलिए इन्हें रुद्र कहा जाता है।”
विदग्ध ने अगला प्रश्न किया, “याज्ञवल्क्य! अब यह बताओकि बारह आदित्य कौन-से हैं?
महर्षि याज्ञवल्क्य ने बताया, “एक वर्ष के १२ महीने ही बारहआदित्य हैं। ये मास ही मनुष्य की आयु की क्षीण करते हैं, इसीलिएइन्हें आदित्य कहा जाता है।”
इंद्र के बारे में पूछने पर ऋषि ने बताया, “गर्जना करने वालेबादल ही इंद्र है। इसीलिए परवर्ती काल में इंद्र को वर्षा का देवताकहा जाने लगा।”
“और प्रजापति! प्रजापति के विषय में आपका क्या कहना है?
विदग्ध ने पूछा।
ऋषि बोले, “यज्ञ को प्रजापति कहना उचित है।”
देवताओं की संख्या अन्य प्रकार से बताई गई है। अग्नि, वायु,अंतरिक्ष, सूर्य एवं द्युलोक को ‘षटदेव’ कहा गया है। अन्यत्र तीन देवभी कहे गए हैं। वे हैं - पृथ्वी, अंतरिक्ष और द्यौ।
विदग्ध ने पूछा, “दो देव कौन-से हैं?”
उ्रूद्गार में महर्षि ने ‘अन्न’ और ‘प्राण’ को दो देवता बताया।
अंत में जब उनसे पूछा गया कि ‘एक देव कौन है?’ तो उ्रूद्गार मेंमहर्षि ने प्राण रूपी परमात्मा को ही एकमात्र देव या परमदेव कहा।
महर्षि यास्क ने निरुक्त में सिी बात की पुष्टि करते हुए कहाहै, “महाभाग्यशाली देवता तो एक ही है। उपासकगण उसी को अनेकरूपों में कल्पित करते हैं तथा नाना प्रकार से उसकी स्तुति करते हैं।
ऋग्वेद में भी इसी तथ्य को ‘एक सद्प्रियाः बहुधा वदंति’ कहकरव्यक्त किया गया है।”
महर्षि याज्ञवल्क्य की इस विवेचना से जनक की सभा में बैठेसभी श्रोता, मनीषी, चिंतक, त्रूद्गवदर्शी एवं ऋषि, मुनि, संत आदि संतुष्टहो गए और उन्होंने याज्ञवल्क्य का इस बात के लिए आभार माना किउन्होंने इतने सरल और सहज ही ग्राह्य उपदेश से श्रोताओं का ज्ञानवर्धनकिया।
बृहदारण्यक उपनिषद से
मैत्रेयी की कथा
महर्षि याज्ञवल्क्य की दो पत्नियाँ थीं मैत्रेयी और कात्यायनी।
इनमें से मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी जबकि कात्यायनी की बुद्धि साधारणस्त्रियों जैसी ही थी। मैत्रेयी बड़ी पत्नी थी और कात्यायनी छोटी। एकदिन याज्ञवल्क्य ने अपनी दोनों पत्नियं को अपने पास बुलाया औरमैत्रेयी को संबोधित करके कहा,
“मेरा विचार अब संन्यास लेने काहै, अतः अब मैं इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र चला जाउँगा। इसकेलिए तुम दोनों की अनुमति लेना आवश्यक है, साथ ही मैं यह भीचाहता हूँ कि घर में जो कुछ धन-दौलत है, उसे तुम दोनों में बराबरबाँट दूँ, जिससे मेरे चले जाने के बाद तुममें परस्पर विवाद न हो।”
यह सुनकर कात्यायनी तो चुप रही, किंतु मैत्रेयी ने पूछा,“भगवान्! यदि धन्य-धन्य से परिपूर्ण सारी पृथ्वी केवल मेरे हीअधिकार में आ जाए तो क्या मैं उससे किसी प्रकार अमर हो सकतीहूँ?”
याज्ञवल्क्य बोले, “नहीं। भोग-सामग्रियों से संपन्न मनुष्यों काजैसा जीवन होता है, ये लौकिक दृष्टि से जितनी सुख-सुविधा में रहतेहैं, वैसा ही तुम्हारा जीवन हो जाएगा, किंतु धन से कोई अमर हो जाए,उसे अमृत त्रूद्गव की प्राह्रिश्वत हो जाए, इसकी आशा कदापि नहीं है।”
तब मैत्रेयी बोली, “भगवन्! जिससे मैं अमर नहीं हो सकती,उसे लेकर क्या करूंगी। यदि धन से ही वास्तविक सुख मिलता तोआप इसे छोड़कर क्यों जाते? आप ऐसी कोई वस्तु अवश्य जानतेहैं जिसके सामने यह धन, यह गृहस्थी का सारा सुख तुच्छ प्रतीत होताहै। अतः मैं भी उसी को जानना चाहती हूँ। केवल जिस वस्तु कोश्रीमान अमृत त्रूद्गव का साधन जानते हैं, उसी का मुझे उपदेश करें।”
मैत्रैयी की यह जिज्ञासापूर्ण बात सुनकर याज्ञवल्क्य को बड़ीप्रसन्नता हुई। उन्होंने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, “तुम धन्य होमैत्रेयी। तुम मुजे पहले भी बहुत प्रिय थी और इस समय भी तुम्हारेमुख से प्रिय वचन ही निकला है, अतः आओ, मेरे समीप बैठो, मैंतुम्हें उपदेश करता हूँ। तुम सुनकर मनन और चिंतन करो। मैं जो कुछकहूँ, उस पर स्वयं भी विचार करेक उसे हृदय में धारण करो।”
सौकहकर याज्ञवल्क्य ने उपदेश आरंभ किया, “मैत्रेयी! तुम जानती होकि स्त्री को पति और पति को स्त्री क्यों प्रिय है? इस रहस्य परकभी विचार किया है तुमने? पति इसलिए प्रिय नहीं है कि वह पतिहै, बल्कि इसलिए प्रिय है कि वह पत्नी को संतोष देता है, उसकेकाम आता है। इसी प्रकार पति को भी स्त्री इसलिए प्रिय नहीं होतीकि वह स्त्री है, अपितु इसलिए प्रिय होती है कि उससे उसे आत्मिकसुख प्राह्रश्वत होता है।
इसी क्रम के अनुसार पुत्र, धन, ब्राह्मण, क्षत्रिय,लोक, देवता, समस्त प्राणी अथवा संसार के संपूर्ण पदार्थ भी आत्माके प्रिय होने से ही प्रिय जान पड़ते हैं, अतः सबसे बढ़कर प्रियतमवस्तु है, अपनी आत्मा। इसलिए मैत्रेयी! तुम्हें आत्मा का ही दर्शन,श्रवण, मनन और योग करना चाहिए। उसी के दर्शन, श्रवम, मनन औरयथार्थ ज्ञान से सब कुछ ज्ञात हो जाता है।”
तदंतर महर्षि याज्ञवल्क्य ने भिन्न-भिन्न अनेक दृष्टांतो औरयुक्तियों से ब्रह्मज्ञान का यतार्थ उपदेश देकर कहा, “मैत्रेयी! तुमनिश्चयपूर्वक समझ लो कि इतना ही अमृत त्रूद्गव है। तुम्हारी प्रराथनाके अनुसार मैंने ज्ञातव्य त्रूद्गव का उपदेश कर दिया।”
मैत्रेयी को इस प्रकार का उपदेश देकर याज्ञल्क्य जी संन्यासीहो गए। मैत्रेयी यह उपदश पाकर कृतार्थ हो गई। यही यथार्थ संपि्रूद्गाहै, जिसे मैत्रेयी ने प्राह्रश्वत किया।
मुण्डकोपनिषद से
अष्टावक्र की कथा
मुनि अष्टावक्र एक बार राजा जनक की राजसभा में पहुँचे।
राजा ने उनका उचित स्वागत-सत्कार किया और एक ऊँचे आसन परउन्हें स्थान दिया। अष्टावक्र के स्वभाव में तब तक बहुत रूखापन आचुका था। उन्हें यह अभिमान भी हो गया था कि मैं तो बहुत बड़ाप्रह्मवे्रूद्गाा हूँ। अहंकारवश उन्होंने राजा जनक से प्रश्न कर दिया, “राजाजनक! तुम तो अपने आपको विदेह कहते ही, यह तुम्हारा झूठाअभिमान है। अरे, तुम किस प्रकार के विदेह हो, जबकि ठाटदार महलोंमें रहते हो, सुंदर स्त्रियों और दास-दासियों से सेवा कराते हो, छह्रश्वपनप्रकार के उ्रूद्गाम भोजन करते हो, कोमल व गुदगुदे गद्दों पर सोते हो।
इशारे पर दास-दासियाँ हाथ बाँधे खड़े रहते हैं। दुनिया भर के राजातुम्हारे नाम से काँपते है। संसार की कोई वस्तु तुम्हारे लिए दुर्लभ नहींहै। इन समस्त भोगों और ऐश्वर्य के बीच रहते हुए, इन्हें भोगते हुएतुम विदेह होने का पाखंड किस प्रकार करते हो? विदेह तो हम हैं।
हमने अपनी तमाम इंद्रियों को वश में कर लिया है। हम महीनों औरवर्षों तक वृक्ष के प्रूद्गो खाकर अथवा केवल वायु का भक्षण करके,समाधिस्थ होकर ब्रह्म का चिंतन करते हैं, सारी वासनाओं को हमनेबलपूर्वक नष्ट कर डाला है और अपने शरीर को सुखाकर हमने काँटेके समन कर लिया है। हमने इतने कष्ट सहे हैं विदेह हम हैं या तुमहो?”
राजा जनक यह सुनकर हँस पड़े। उन्होंने आदरपूर्वक ऋषि कीअभ्यर्थना की और कहा, “मुनिवर! सब बातों का उ्रूद्गार उतावलेपन मेंनहीं दिया जा सकता। आप आए हैं तो कुछ दिन अपने इस सेवकके पास ठहरिए, इसका आतिथ्य स्वीकार कीजिए। तब आपको अपनेप्रश्नों के उ्रूद्गार भी मिल जाएँगे।”
अष्टावक्र शांत हुए और राजमहल में ठहर गए। राजा जनकने उनसी सेवा-सुश्रूषा और आराम की भली-भाँति व्यवस्था कर दी।वह बड़े सुख और आनंद के साथ राजमहल में रहने लगे। इसी प्रकारकुछ दिन बीत गए। एक दिन राजा जनक ने अपने अनुचर को आज्ञादी, “जाओ। नगर से किसी ऐसे दीन-दुखी मनुष्य की खोज करकेलाओ, जो अपने जीवन से निराश हो चुका हो, आत्मघात तक करनेको तैयार हो, जिसका दुनिया में कोई सहारा न हो, जो सब प्रकारसे पतति, कलंकित और अयोग्य हो।”
राजा की आज्ञा का पालन किया गया। अनुचर ने एक ऐसेही व्यक्ति को ढूंढकर राजा के सामने प्रस्तुत कर दिया। राजा ने आज्ञादी, “इस व्यक्ति को आज से हमारे समन ही साधन-संपन्न समझाजाए। जिस प्रकार हमारी आज्ञा का पालन होता है, ठीस उसी प्रकारइसकी आज्ञा का भी पालन किया जाए। जिस प्रकार का ऐश्वर्य औरसुख-भोग हमारे लिए उपस्थित है, वैसा ही इस व्यक्ति के लिए भीउपस्थित किया जाए तथा इसकी प्रत्येक उचित और अनुचित आज्ञा कापालन किया जाए। जो कोई भी इस काम में चूक करेगा, उसे प्राणदंड दिया जाएगा।”
यह सारी बातें ऋषि अष्टावक्र के सामने हुइर्ं। वे राजा जनककी इस अद्भुत आज्ञा को सुनकर आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने अपनेमन में कहा कि राजा लोग भी सनकी हुआ करते हैं, जो उनके मनमें तरंग आई, वही कर बैठते हैं। परंतु उस व्यक्ति के प्रति अष्टावक्रका कौतुहल जरूर बढ़ गया। वे बड़े ध्यान से उसकी दिनचर्या देखनेलगे। दर्जनों दास-दासियाँ उसकी सेवा में उपस्थित हो गए और एकबढ़यिा सा महल उसे रहने को दे दिया गया। उस व्यक्ति को संपूर्णराजसी ठाट-बाट से सुसज्जित कर दिया गया। वह भूल गया अपनेउन दिनों को, जब वह निरीह भिखारी था, द्वार-द्वार जाकर रोटी केटुकड़े की भीख माँगता था। अब वह राजा के सामने सेवकों पर हुक्मचला रहा था। अनेक प्रकार के स्वादिष्ट भोजन करता था, उ्रूद्गाम शय्यापर सोता था। उसकी प्रत्येक इच्छा और आज्ञा का पालन किया जाताथा। देखते-ही-देखते उसका रंग-ढंग बदल गया। वह खूब हृष्ट-पुष्टऔर सुखी हो गया। अष्टावक्र उसके अंदर यह परिवर्तन देखते औरराजा जनक की मूर्खता पर हँसते थे।
इस प्रकार कुछ दिन और व्यतीत हो गए। इस बीच अष्टावक्रने राजा से कई बार अपने प्रश्न का उ्रूद्गार माँगा, किंतु राजा ने हरबार हँसकर उनके प्रश्न टाल दिया।
फिर एक दिन राजा जनक ने अपने विश्वसनीय सेवक से उसव्यक्ति का हाल-चाल पूछा। अनुचार ने विनीत भाव से बताया किमहाराज की आज्ञा का यथावत् पालन हो रहा है और वह आदमी बहुतसुखी और संतुष्ट है। तब राजा ने एक नया आदेश दिया। उन्होंने अनुचरसे कहा, “सारे नगर में ढिंढोरा पिटवा दो कि कल सायंकाल सूर्यास्तसे पहले उस व्यक्ति को राजमहल के प्रांगण में सूली पर चढ़ा दियाजाएगा, जो कोई भी उस दृश्य को देखना चाहे, वह उस समय राजमहलमें आकर देख सकता है।”
राजकर्मचारी राजा की इस विचित्र आज्ञा को सुनकरआश्चर्यचकित रह गए। अष्टावक्र ने सुना तो उन्होंने भी कुटिल हास्यके साथ यही कहा कि निश्चय ही राजा पागल हो गया है, जो इसप्रकार भयानक निर्णय कर रहा है। ऐसे राजा के प्रमाद और क्रोध काक्या ठिकाना। इससे तो दूर रहना ही अच्छा है।
अब अकारण ही उसबेचारे भिखारी की जान चली जाएगी। परंतु राजाज्ञा का पालन कियागया। ढिंढोरा पीटने वाला जब राजमहल की खिड़की के नीचे खड़ाहोकर राजाज्ञा सुनाकर ढोल पीटने लगा, तो उसक अएभागे ने भी अपनेभाग्य के उस फैसले को सुन लिया। सुनते ही वह बौखला उठा औरघबराकर कहने लगा, “यह क्या बात है? किसलिए मुझ बेकसूर कोसूली पर चढ़या जा रहा है? किसलिए मेरे साथ यह अनर्थ किया जारहा है? यह तो घोर अन्याय है। दुहाई है महाराज की।
दुहाई है सबनागरिकों की। मुझ गरीब को बिना कोई कारण पंडित किया जा रहाहै। मेरी रक्षा होनी चाहिए। यह राजभोग, सुख और ऐश्वर्य मुझे कुछनहीं चाहिए। मुझे भीख माँगकर खाना मंजूर है। मुझे छोड़ दो, मुझेजाने दो।”
लेकिन उसकी यह करुण पुकार व्यर्थ साबित हुई। उस परकड़ा पहरा लगा दिया गया, परंतु सब प्रकार के सुख और ऐश्वर्य कोभोगने की उसकी छुट पहले की भाँति बरकरार रही। अनेक प्रकार केस्वादिष्ट पकवानों से भरे हुए थाल उसके सामने लाए गए। उसने पागलोंकी तरह उन्हें उठाकर फेंक दिया। स्वच्छ और आरामदायक गद्दे उसेकाटने लगे और आपे से बाहर होकर उसने उन्हें फाड़ डाला। दासएवं दासियाँ जब उसकी सेवा के लिए हाजिर हुए तो उसने इन्हेंडाँटकर भगा दिया।
उसकी दशा उस मछली के समान हो रही थी, जो जीवित हीतवे पर भूनी जा रही हो। वह छटपटा रहा था, चीख और चिल्ला रहाथा, दुहाई दे रहा था, किंतु उसकी चीख-पुकार नक्कारखाने में तूतीकी आवाज ही प्रतीत हो रही थी। यह सब देखकर अष्टावक्र ने राजासे कहा, “राजन्! यह आप किस प्रकार का खेल, खेल रहे हैं इसगरीब के साथ? एक निरपराध व्यक्ति को सूली पर चढ़ा देने जैसाकाम क्या आपके लिए शोभा देता है?”
सुनकर राजा ने मुसकराकर अष्टावक्र से कहा, “हे ऋषिवर!
आप जाकर उसे समझाइए कि वह खाना खाए और आराम से सोए।
सूली तो उसे कल संध्या में दी जाएगी, फिर अभी से उसे इतनीबेचैनी क्यों है?”
परंतु अष्टावक्र के वहाँ जाने और उस व्यक्ति को समझाने काकोई लाभ नहीं हुआ। अंत में राजा ने उसे अपने सामने ले आने कीआज्ञा दी और उससे कहा कि उसे जो कुछ कहना है, वह कह दे।
उस भिखारी ने हाथ जोड़कर सिर झुकाकर कहा, “हहाराज!
मैं यह जानना चाहता हूँ कि मुझ निरपराध को सूली पर चढ़ाने काआदेश क्यों दिया है? आखिर मेरा अपराध क्या है?”
राजा ने कहा, “तुम्हारा कोई अपराध नहीं है। तुम्हें सूली हमअपनी इच्छा से दे रहे हैं।”
“यह तो अन्याय है, महाराज! मैं तमाम राजसभा की दुहाई देताहूँ कि मुझे इस अन्याय से बचाया जाएग।”
राजा ने कहा, “इसमें अन्याय क्या है? जब तुमको भीख माँगतेहुए राजमहल में बुलाकर समस्त राज-ऐश्वर्य सौंप दिया गया तब तोतुमने नहीं पूछा कि मैंने ऐसे कौन-से सत्कर्म किए हैं कि मुझे भिखारीसे राजा बनाया जा रहा है। तुम बड़ी मौज से, मौज बहार में मग्नहो गए और अपने को राजा ही समझने लगे। तुम्हें स्वह्रश्वन में भी यहख्याल नहीं आया कि किस पुण्य के बदले में तुमको ऐश्वर्य मिला।
अब जब तुमको सूली पर चढ़ाया जाने वाला है, तो तुम कारण पूछतेहो। इसका कोई कारण नहीं है। मेरी इच्छा थी, इसीलिे मैंने तुम्हेंभिखारी से राजा बनाया। अब मेरी इच्छा है कि तुम्हें सूली पर चढ़ाकरमार दूँ। चले जाओ, तुम्हारी कोई बात नहीं सुनी जाएगी। कल सूर्यास्तके समय तुम्हें सूली पर चढ़ा दिया जाएगा, परंतु याद रखो कि आजका दिन, बीच की रात और कल का पूरा दिन तुम्हारे लिए है। इससेपहले तुम्हें मारा नहीं जा सकता। इस समय के अंतराल में खूब आनंदका उपभोग करो, खूब मौज करो, खाओ-पीओ और दुनिया का सुखलूटो। कल सायंकाल जब तुम्हारा अंत समय आ पहुँचे तो सूली परचढ़ जाना।”
राजा ने फिर अष्टावक्र से कहा, “ऋषिवर! अब आप ही इसबदनसीब को समझाइए कि यह अभी से क्यों इतना कष्ट उठा रहा है।
इससे कहिए कि इस बीच यह खूब ठाट से भरपेट स्वादिष्ट भोजन करेऔर सुख की नींद सोए।”
यह सुनकर अष्टावक्र बोले, “राजन्! यह तुम कैसी बातें कररहे हो? अरे जिसके सिर पर मौत मँडरा रही हो, और जो कल मरनेवाला हो, वह कैसे खाए-पीए और कैसे किसी सुख का भोग करे?
इसको मैं क्या समझा सकता हूँ?”
राजा ने कहा, “ऋषि श्रेष्ठ! मौत तो इसकी कल आने वालीहै, अभी तो नहीं आ रही?” अष्टावक्र ने उ्रूद्गार दिया, “राजन्! जिसकीमृत्यु निश्चित है, वह कैसे सुख और ऐश्वर्य का भोग कर सकता है?”
सुनकर राजा ने हँसकर कहा, “बैठ जाइए ऋषिवर! मैं आपको आपकेप्रश्न का उ्रूद्गार देता हूँ। जिसकी मृत्यु निश्चित है, वह योग्यता से हीभोगों को उस प्रकार भोग सकता है जैसे कि मैं भोगता हूँ, जिसने जानलिया है कि मृत्यु तो ध्रुव सत्य है। इस भाग्यहीन को इतना भरोसातो है कि इसकी मृत्यु में अभी दो दिन शेष हैं, किंतु मुझे तो इतनाभी पता नहीं कि किस क्षण मेंरी मृत्यु आ जाएगी। फिर भी मैं किसीभी पल मृत्यु को गले लगाने के लिए तैयार हूँ। आप देख ही रहेहैं कि मैं कितना शांत हूँ। यद धन-संपदा, राजमहल, टाट-बाट, ऐश्वर्य,दास-दासियाँ, उ्रूद्गाम-से उ्रूद्गाम भोजन, उ्रूद्गाम-से-उस्सम वस्त्र, ये सबछोटे-बड़े मेरी सेवा में संलग्न हैं। मैं इनका अधिपति हूँ, दास नहीं।
मृत्यु के पश्चात् ये सब मुझसे छूट जाएँगे, इसका मुझे तनिक भी ऐसामोह नहीं है, जैसा कि इस भाग्यहीन को है, क्योंकि उसे ज्योंही पताचला कि कल जब वह मर जाएगा तो ये सारी वस्तुएँ इससे छूटजाएँगी, तो यह अशांत हो गया। यह उन वस्तुओं का दास है। यहउन वस्तुओं का भूखा है। यह मृत्यु को सहन नहीं कर सकता। इनसब वस्तुओं का बोझ इसके सिर पर लदा हुआ है, किंतु मैं शांत हूँ,निश्चित हूँ। हे ऋषिवर! यही कारण है कि लोग मुझे विदेह कहते हैं।
आपने अपना उदाहरण दिया कि आप वृक्ष के प्रूद्गो खाकर अपनी तृह्रिश्वतकरते हैं। आपने ये भी कहा कि आपने अपनी इंद्रियों पर पूरी तरहनियंत्रण कर लिया है, क्या यही आपकी तपस्या है? यही आपकावेदेहत्व है? आपने अपनी इंद्रियों परनियंत्रण क्यों किया? इसलिए किआप इसके स्वामी नहीं हैं। इन पर आपका कोई अधिकार नहीं है।
कहीं वे आपके साथ कोई घात न कर जाएँ, इसीलिे आपने इन्हेंबाँधकर रख छोड़ा है। इन्हें इनके विषयों से वंचित कर दिया है। आपजीते जी मृतकवत, हृदय होते हुए भी हृदयहीन, जीवन होते हुए भीजवानीहीत हैं। आपने इस जीवन में अपने आपको नष्ट कर दिया। अबआगे के लिे आपके लिए कौन-सा मार्ग हो सकता है?”
जनक केमुख से ऐसा सारगर्भित उपदेश सुनकर अष्टावक्र कुछ भी उ्रूद्गार न देसके। वे मौन रहकर सिर्फ सोचते ही रह गए। राजा जनक ने उनकेमर्मस्थल को छू लिया था। वे जान गए कि राजा जनक सचमुच हीसच्चे ब्रह्मवे्रूद्गाा हैं।
ऋषि अष्टावक्र को इस प्रकार गंभीर मुद्रा में देखकर जनक भीसमझ गए कि अष्टावक्र को मेरी कही बातों का मर्म समझ में आ गयाहै। अगले दिन उन्होंने उस भिखारी को छोड़ देने का ऐलान कर दिया।
सर्वसार उपनिषद से
उपमन्यु की कथा
महर्षि आयोदधौम्य अपनी विद्या, तपस्या और उदारता के लिएबहुत प्रसिद्ध थे। वे ऊपर से तो अपने शिष्यों के साथ बहुत कठोरताकरते प्रतीत होते थे, किंतु भीतर से अपने शिष्यों पर उनका अपारस्नेह था। वे अपने शिष्यों को अत्यंत सुयोग्य बनाना चाहते थे।
इसलिए जो ज्ञान के सच्चे जिज्ञासु थे, वे महर्षि के पास बड़ी श्रद्धासे रहते थे। महर्षि के शिष्यों में से एक बालक का नाम था उपमन्यु।
गुरुदेव ने उपमन्यु को गाय चराने का काम दे रखा था। उपमन्यु दिनभर वन में गायों को चराता और सायंकल होने पर आश्रम में लौटआता था। एक दिन गुरुदेव ने उससे पूछा, “बेटा उपमन्यु! तुमआजकल भोजन क्या करते हो?”
उपमन्यु ने नम्रता से कहा, “भगवान्! में भिक्षा माँगकर अपनाकाम चला लेता हूँ।”
महर्षि बोले, “वत्स! ब्रह्मचारी को इस प्रकार भिक्षा का अन्न नहींखाना चाहिए। भिक्षा में जो कुछ मिले, पहले उसे गुरु के सामने रखनाचाहिए। उसमें से गुरु यदि कुछ दे दें तो उसे ही ग्रहण करना चाहिए।”
उपमन्यु ने महर्षि की आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वह भिक्षामाँगकर जो कुछ मिलता, उसे गुरुदेव के सामने लाकर रख देता।
गुरुदेव को तो शिष्य की श्रद्धा को दृढ़ करना था, अतः वह सब-का सब भिक्षा अन्न अपने पास रख लेते, उसमें से उपमन्यु को कुछन देते। थोड़े दिन के बाद गुरुदेव ने उपमन्यु से फिर पूछा, “उपमन्यु!
तुम आजकल क्या खाते हो?”
उपमन्यु ने उ्रूद्गार दिया, “गुरुदेव! मैं एक बार की भिक्षा काअन्न आपको देकर दुबारा अपने लिए भिक्षा माँग लाता हूँ।”
महर्षि ने कहा, “दुबारा भिक्षा माँगना तो धर्म विरुद्ध है। इससेगृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा और दूसरे भिक्षा माँगने वालों को भीसंकोच होगा। अब तुम दूसरी बार भिक्षा माँगने मत जाया करो।”
उपमन्यु ने कहा, “जो आज्ञा।” उसने दूसरी बार भिक्षा माँगनाबंद कर दिया। जब कुछ दिन बाद महर्षि ने उससे फिर पूछा, तबउसने बताया, “मैं गायों का दूष पी लेता हूँ।”
महर्षि बोले, “यह तो ठीक नहीं है। गाएँ जिसकी होती हैं,उनका दूध भी उसी का होता है। मुझसे पूछे बिना गायों का दूध तुम्हेंपीना चाहिए।”
उपमन्यु ने दूध पीना भी छोड़ दिया। थोड़े दिन बीतने परगुरुदेवने फिर उससे पूछा, “उपमन्यु! तुम दुबारा भिक्षा भी नहीं लातेऔर गायों का दूध भी नहीं पीते, तो खाते क्या हो? तुम्हारा शरीरतो उपवास करने वाले जैसा दुर्बल दिखाई नहीं पड़ता।”
उपमन्यु ने कहा, “भगवन्! बछड़ों के दूध पीते समय उनकेमुख से जो फेन टपकता है, अब मैं उसे पीकर ही अपना काम चलालेता हूँ।”
महर्षि बोले, “बछड़े बहुत दयालु होते हैं। वे स्वयं भूखे रहकरतुम्हारे लिए अधिक फेन गिरा देते होंगे। तुम्हारी यह वृि्रूद्गा भी उचितनहीं है।”
अब उपमन्यु उपवास करने लगा। दिन-भर बिना कुछ खाए गायोंको चराते हुए उसे वन-वन में भटकना पड़ता था। अंत में जब भूखअसह्य हो गई, तब उसने आक के प्रूद्गो खा लिए। उन विषैले प्रूद्गाों काविष शरीर में फैलने से वह अँधा हो गया। उसे कुछ भी दिखाई नहींपड़ता था।
गायों के चलने का शब्द सुनकर ही वह उनके पीछे चल रहाथा। मार्ग में एक जलरहित कुआँ पड़ा तो वह उसमें गिर पड़ा। जब अँधेराहोने पर सब गाय लौट आई और उपमन्यु नहीं लौटा तो महर्षि को चिंताहुई। वे सोचने लगे, “मैंने उस भोले बालक का भोजन सब प्रकार सेबंद कर दिया। कष्ट पाते-पाते दुखी होकर वह भाग तो नहीं गया।” वेउसे ढूँढने के लिए जंगल में निकले और बार-बार उसका नाम लेकरपुकारने लगे, “बेटा उपमन्यु! तुम कहाँ हो?”
उपमन्यु ने कुएँ में से उ्रूद्गार दिया, “भगवन्! मैं कुएँ में गिरपड़ा हूँ।” महर्षि समीप आए और सब बातें सुनकर ऋग्वेद के मंत्रोंसे उन्होंने अश्विनी कुमार की स्तुति करने को कहा। स्वर के साथश्रद्धापूर्वक जब उपमन्यु ने स्तुति की, तब देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमार वहाँ कुएँ में प्रकट हो गए।
उन्होंने उपमन्यु के नेत्र अच्छे करकेएक पुआ उसे देकर उसे खाने के लिए कहा, किंतु उपमन्यु ने गुरुदेवको अर्पित किए बिना वह पुआ खाना स्वीकार नहीं किया।
अश्विनी कुमार ने कहा, “तुम संकोच मत करो वत्स। तुम्हारेगुरु ने भी अपने गुरु को अर्पित किए बिना पहले हमारे द्वारा दियागया पुआ प्रसाद मनकर खा लिया था।”
उपमन्यु बोला, “वे मेरे गुरु हैं। उन्होंने कुछ भी किया हो, परमैं उनकी आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करूँगा।”
उपमन्यु की इस गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर अश्विनी कुमार नेउसे समस्त विद्याएँ बिना पढ़े ही आ जाने का आशीर्वाद दिया। जबउपमन्यु कुएँ से बाहर निकला तो महर्षि आयोदधौम्य ने उसे हृदय सेलगा लिया।
छान्दोग्य उपनिषद से
शिलक की कथा
परमात्मा अनेक गुणों, दिव्यकर्मों तथा शक्तियों से युक्त है,इसलिए उसे पुकारने के नाम भी अनेक हैं। उसे उद्गीथ (ओउम्) नामसे पुकारा जाता है, क्योंकि ओउम नाम का गायन किया जाता है।प्राचीन काल में तीन ऋषि उद्गीथ गायन में बहुत निपुण थे।उन्होंने उद्गीथ का त्रूद्गव समझ लिया था। वे ऋषि थे शालवानके पुत्र शिलक, चिकितायन के पुत्र दालभ्य और जीवन के पुत्रप्रवाहण। एक बार ये तीनों ऋषि एक जगह एकत्रित हुए और विचार
किया कि हमें उद्गीथ के विषय में चरचा करनी चाहिए, क्योंकि यहविषय अत्यंत रोचक एवं ज्ञानवर्धक है।
सबसे पहले राजर्षि जीवल के पुत्र प्रवाहण ने अपने दोनोंसाथियों से कहा, “पहले आप दोनों पूज्यजन बातचीत आरंभ करें। जबआप दोनों विद्वान उपदेश दे रहे होंगे तो मैं आपके वचनों को ध्यानलगाकर सुनूँगा।”
प्रवाहण के चुप हो जाने पर शालवान के पुत्र शिलक नेचिकितायन के पुत्र दालभ्य से कहा, “कहिए तो मैं ही आपसे कुछप्रश्न करूँ?”
“अवश्य। आप ही प्रश्न कीजिए। मैं यथासंभव उसका उ्रूद्गारदेने की चेष्टा करूँगा।”
इसके पश्चात् दोनों में इस प्रकार का प्रश्नो्रूद्गार आरंभ हुआ।
शिलक ने पूछा, “साम का आश्रय कौन है?”
“स्वर ही साम का आश्रय है।” दालभ्य ने उ्रूद्गार दिया।
“स्वर का आश्रय कौन है?”
“प्राम ही स्वर का आश्रय है।”
“प्राम का आश्रय कौन है?”
“अन्न ही प्राण का आश्रय है।”
“अन्न का आश्चर कौन है?”
“जल ही अन्न का आश्रय है।”
“जल का आश्रय कौन है?”
“स्वर्गलोक ही जल का आश्रय है।”
“स्वर्गलोक का आश्रय कौन है?”
प्रश्नं की बौछार से दालभ्य ऊब उठे थे, अतः बोले,
“स्वर्गलोक से आगे नहीं जाना चाहिए। उससे परे की बात नहीं पूछनीचाहिए।”
शिलक ने कहा, “क्यों नहीं पूछनी चाहिए? इसलिए कि तुम्हेंउसका ज्ञान नहीं है?”
दालभ्य बोले, “हम लोग स्वर्ग में ही साम की पूर्णतया स्थितिमानते हैं, क्योंकि साम को स्वर्गलोक कहकर ही उसकी स्तुति की जातीहै।”
शिलक कहने लगे, “दालभ्य! तुम्हारा बताया हुआ सामनिश्चय ही प्रतिष्ठाहीन है। तुमने जो साम का अंतिम आश्रय स्वर्ग बतायाहै, वह भी ठीक नहीं है। स्वर्ग का भी कोई और आश्रय अवश्य होनाचाहिए।
यदि कोई साम के त्रूद्गव को जानने वाला विद्वान तुम्हारे इसअधूरे उ्रूद्गार पर झुँझलाकर तुम्हें यह कहे कि तुम्हारा सिर धड़ से अलगहो जाए, तो निश्चय ही उसके ऐसा कहते ही तुम्हारा सिर तुम्हारे धड़से अलग हो जाएगा।”
खीझकर दालभ्य ने कहा, “तब क्या मैं श्रीमान से साम कात्रूद्गव जान सकता हूँ?”
शिलक बोले, “हाँ-हाँ, अवश्य जानो।”
“अच्छा तो बताइए कि स्वर्गलोक का आश्रय (आधार) कौनहै?” दालभ्यने पूछा। “यह मनुष्यलोक ही स्वर्ग का आधार है।”
शिलक का उ्रूद्गार स्पष्ट था।
अएब दालभ्य की बारी थी शिलक को चिढ़ाने की। उन्होंने
भी प्रश्न कर दिया, “अच्छा यह बताओ कि मनुष्यलोक का आधार
कौन है?”
शिलक ने कहा, “जो सबकी प्रतिष्ठा है, उस लोक से आगेका प्रश्न नहीं करना चाहिए। सबकी प्रतिष्ठा रूप मनुष्यलोक में ही हमसाम की भली-भाँति स्थिति मानते हैं, क्योंकि साम को सबकी प्रतिष्ठारूप पृथ्वी कहकर ही उसकी स्तुति की जाती है।”
जीवलपुत्र प्रवाहण दोनों के प्रश्नो्रूद्गार ध्यान से सुन रहे थे।
उन्होंने शिलक से कहा, “मित्र शिलक! तुम्हारा समझा हुआ साम भीनिस्संदेह अंत वालाही है। यदि ऐसी स्थिति में साम के त्रूद्गव को जाननेवाला कोई विद्वान तुम्हें शाप दे दे कि तुम्हारा सिर गिर जाए, तो उसकेइस प्रकार कहते ही तुम्हारा सिर गिर सकता है।”
शिलक ने ब्राह्मण से पूछा, “क्या मैं श्रीमान से इस रहस्य कोजान सकता हूँ?”
“अवश्य जान सकेत हो।” प्रवाहण ने कहा।
“तब यह बताो कि इस मनुष्यलोक का आश्रय कौन है?”
शिलक ने पूछा।
“आकाश ही इसका आश्रय है।” उ्रूद्गार मिला।
“आकाश से ही तुम्हारा क्या तात्पर्य है?”
“आकाश अर्थात् सर्वत्र प्रकाशित परमात्मा। निस्संदेह ये सभीजीव परमात्मा रूप आकाश में ही उत्पन्न होते हैं और आकाश में हीविलीन हो जाते हैं, क्योंकि आकाश ही इन सबसे बड़ा है और आकाशही सबका चरम आश्रय है, लेकिन यह आकाश वह नहीं, जो तुम्हेंआँखों से दिखाी देता है। वास्तव में यह आकाश तो अवकाश (पोल)ही है। मैं उस आकाश की बात कर रहा हूँ, जिसे परमधार कहा गयाहै। वह आकाश परमात्मा से भिन्न और कुछ भी नहीं है।”
प्रवाहण के इस कथन से उनके दोनों साथियों की जिज्ञासा शांतहो गई और उन्होंने ब्रह्म का रहस्य जान लिया।
मुण्डकोपनिषद से
सुजाता की कथा
महर्षि उद्दालक एक महान ब्रह्मवे्रूद्गाा थे। उन्होंने अपनी पुत्रीका विवाह अपने ही एक शिष्य कहोड़ के साथ किया था। बाद मेंकहोड़ भी उन्हीं के आश्रम में रहकर अध्यापन का कार्य करने लगे।
कहा जाता है कि कहोड़ की पत्नी जब गर्भवती हुई तो उनके पेट मेंपल रहे शिशु ने अपने पिता द्वारा दी गई शिक्षा गर्भावस्था के दौरानही कंठस्थ कर ली थी।
एक बार जब कहोड़ अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे, तो उनकेशिशु ने कहाड़ द्वारा किसी मंत्र के अशुद्ध उच्चारण करने पर अपनेपिता को माता के पेट में रहकर ही उनका दोष बता दिया था। कहोड़ने इसे अपना अपमान समझा और उसे शाप दे दिया कि जब वहपेट से बाहर आएगा तो उसका शरीर आठ जगह से विकृत हो जाएगाऔर फिर ठीक वैसा ही हुआ। बालक जब पैदा हुआ तो उसका शरीरआठ स्थानों से टेढ़ा था। महर्षि उद्दालक ने उसका नाम ‘अष्टावक्र’रखा। यही अष्टावक्र आगे चलकर एक महान् ब्रह्मवे्रूद्गाा बने। प्रस्तुत कथाउस समय की है जब अष्टावक्र का जन्म नहीं हुआ था।
उन दिनों राजा जनक एक बहुत बड़ा यज्ञ करा रहे थे। यज्ञमें भाग लेने के लिए अनेक विद्वान मिथिला नगरी में पहुँच चुके थे।कहोड़ ने सुना तो वे भी राजा जनक के यहाँ पहुँचे। राजा जनक नेउनका उचित आदर-सत्कार किया और उनसे पूछा, “मुनिवर! यहाँसिर्फ धर्म-लाभ करने की इच्छा से आए हो या शास्त्रार्थ में भी भागलेने का इरादा है?”
“राजन्! मैं दोनों उद्देश्य से ही यहाँ आया हूँ। बड़े-बड़ेविद्वानों के विचार सुनूँगा तो धर्म-लाभ तो होगा ही, साथ ही यदि किसीविद्वान से शास्त्रार्थ हो जाए तो बहुत ही उ्रूद्गाम बात होगी।” कहोड़ नेकहा। “सोच लो मनिवर!” राजा जनक बोले, “आजकल मिथिला मेंबंदी नाम के एक परम विद्वान आए हुए हैं। उन्हें शास्त्रार्थ में कोईपरास्त नहीं कर सकता। उनके साथ शास्त्रार्थ करना चाहोगे?”
“अवश्य। ऐसा करके मुझे बहुत प्रसन्ता होगी।” कहोड़ नेउ्रूद्गार दिया। “एक बार फिर से विचार कर लो मुनिवर!” जनक बोले,
“यदि आप विजयी हुए तो मालामाल कर दूँगा, लेकिन यदि पराजितहुए, तो नदी में डुबो दिया जाएगा। बहुत से ऐसे विद्वान, जिन्होंने बंदीके साथ शास्तार्थ किया और पराजित हो गए, अब तक नदी के जलमें समा चुके हैं।”
“लेकिन मैं पराजित नहीं होऊँगा।” कहोड़ ने दृढ़तापूर्वक कहा,“मुझे बंदी मुनि की चुनौती स्वीकार है।”
शास्तार्थ प्रारंभ हुआ, किंतु अधिक देर तक न चल सका।
कहोड़ बंदी के समक्ष ठहर ही न सके। नियमानुसार उन्हें भी नदी केजल में डुबो दिया गया। इस बात से राजा जनक के मन को बड़ीठेस पहुँची। वे सोचने लगे, ‘हे प्रभु! यज्ञ में भाग लेने के लिए आनेवाले एक और मुनि की भी वही दशा हुई। अब यह यज्ञ कैसे पूराहोगा?”
जब सुजाता को अपने पति को जल में डुबोए जाने कासमाचार मिला तो वह फूट-फूटकर रो पड़ी। वह रोते हुए अपने पिताउद्दालक से कहने लगी, “हाय पिताजी! यह क्या हो गया? मैंने धनकी इच्छा करके अपने पति को यज्ञ में भाग लेने के लिए भेजा था,किंतु पति से हाथ धो बैठी। मेरा बेटा अनाथ हो गया।”
“दुखी मत हो सुजाता!” उद्दालक ने सांत्वना दी, “मैं तुम्हारेबच्चे को पिता के ह्रश्वयार की कमी महसूस नहीं होने दूँगा।”
पिता के बार-बार समझाने पर सुजाता ने धैर्य दारण करलिया। कुछ दिन बाद उसने एक पुत्र को जन्म दिया। पिता के शापसे बालक आठ जगह से वक्र (टेढ़ा) था। उसे देखकर सुजाता व्याकुलहो उठी। वह कहने लगी, “पिताश्री! कितने दुःख की बात है, यहबालक तो आठ जगह से टेढ़ा है। इससे तो इसमें हीन भावना पैदाहो जाएगी।”
“ऐसा कुछ भी नहीं होगा सुजाता। मैं इसके मन से सारी हीनभवना निकाल दूँगा। चूँकि यह आठ जगह से टेढ़ा है, अतः मैं इसकानाम अष्टावक्र रखता हूँ और हाँ, एक और खुशखबरी सुन लो। तुम्हारीमाता ने भी आज एक पुत्र को जन्म दिया है। उसका नाम हमनेश्वेतकेतु रखा है।”
ऋषि उद्दालक की ममतामयी देख-रेख में अष्टावक्र कालालन-पालन होने लगा। धीरे-धीरे अष्टावक्र उन्हें ही अपना पिता माननेलगा। समय बीतता गया। उद्दालक अष्टावक्र और श्वेतकेतु को समानभाव से शिक्षा प्रदान करते रहे। दोनों बालक जब बारह वर्ष के होगए तो एक दिन महर्षि ने कहा, “मेरे होनहार पुत्रों! तिने अल्पकालमें ही तुम्हें वेदों का संपूर्ण ज्ञान प्राह्रश्वत हो गया है, मुझे तुम पर गर्वहै।”
समय बीतता रहा। एक दिन न जाने कैसे श्वेतकेतु को इसबात का पता चल गया कि अष्टावक्र उनके पिता की संतान नहीं है,इस बात पर वह अष्टावक्र से झगड़ा कर बैठा। उसने उसे बुरा-भलाकहा और उसकी खूब खिल्ली उड़ाई। मर्माहत होकर अष्टावक्र अपनीमाँ के पास पहुँचा और उससे पूछा, “माँ! मेरे पिता कहाँ हैं? क्यानाम है उनका? मुझे सब बातें सच-सच बताओ।”
तब उसकी माता ने रोते हुए उसके पिता के मरने के विषयमें सारी बातें बता दीं। पिता को जल में डुबोकर मारने की बात सुनकरअष्टावक्र को क्रोध आ गया। उसने उसी क्षण सबके सम्मुख संकल्पलिया, “माँ! सोगंध है मुझे अपने पिता की। अब मैं बंदी को शास्तार्थमें पराजित करूँगा। मैं अपने पिता की भाँति उसे भी नदी में अवश्यही डुबोऊँगा।”
उस रात अष्टावक्र ने श्वेतकेतु से विचार-विमर्श किया,
“श्वेतकेतु! कल मैं मिथिला जा रहा हूँ। तुम साथ चलना चाहो तोचल सकते हो। हमें अच्छा अनुभव मिलेगा। सुना है बारह वर्ष हो गएहैं, राजा जनक अब भी अपना यज्ञ पूरा नहीं कर सके हैं।”
श्वेतकेतु की नगर में घूमने की प्रबल इच्छा थी। वह सहर्षतैयार हो गया। अगली सुबह दोनों मिथिला के लिए चल पड़े। जबवे राजा जनक के महल के द्वार पर पहुँचे तो द्रावला ने उन्हें रोकलिया। उसने पूछा, “बालकों! कौन हो तुम! क्या चाहते हो?”
“हमें राजा जनक से मिलना है। कृपया हमें उनके पास लेचलिए।” अष्टावक्र ने उ्रूद्गार दिया।
“राजा तो यज्ञ में व्यस्त हैं। उनसे केवल वृद्ध विद्वान ब्राह्मणही मिल सकते हैं।” द्वारपाल ने कहा।
“ज्ञानी होने के लिए सफेद बालों या घुटी हुई खोपड़ी कीआवश्यकता नहीं होती।” निर्भीक स्वर में अष्टावक्र ने कहा, “मनुष्यकी मेधा (बुद्धि) को उसकी आयु के हिसाब से परखना गलत है।
मैं अभी छोटा ही हूँ, किंतु संपूर्ण वेदों का ज्ञाता हूँ। मैंने अनेक यज्ञोंमें भाग लिया है।”
द्वारपाल की फिर हिम्मत न हुई श्वेतकेतु और अष्टावक्र कोरोकने की। उसने दोनों ऋषि-कुमारों को राजा जनक के पास पहुँचादिया। वहाँ पहुँचकर अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा, “राजन्! मैंनेबंदी की चुनौती तथा उन सभी के भाग्य के बारे में सुना है, जिन्हेंउसने पराजित किया था। अब मैं बंदी को चुनौती देने और उसेमटियामेट करने आया हूँ।”
एक बारह वर्षीय ऋषिकुमार के मुख से ये बातें सुनकर राजाजनक अवाक् रह गए। उन्होंने मन में विचार किया कि यह अभी बच्चाहै। इसे समझाना चाहिए। इसी उद्देश्य के लिए उन्होंने अष्टावक्र सेकहा, “बालक! तुम्हें बंदी के प्रचंड ज्ञान का अनुमान नहीं है, इसीलिएतुम ऐसा कहने का दुस्साहस कर रहे हो। उन्हें अभी तक कोई परास्तनहीं कर सका है।”
अष्टावक्र बोला, “वह इसलिए कि आज तक बंदी को मेरे जैसेकिसी मेधावी व्यक्ति से शास्तार्थ करने का पाला नहीं पड़ा। मैं उसेशास्त्रार्थ में अवश्य पराजित करूँगा और उसे नदी में डुबोए बिना घरवापस नहीं लौटूँगा।” जब जनक ने देखा कि अष्टावक्र अपनी जिदपर अड़ा हुआ है, तो उन्होंने सोचा, ‘इस बालक में तो गजब काआत्मविश्वास है। जरा इसकी परीक्षा तो कर लूँ।”
ऐसा विचारकर उन्होंने अष्टावक्र से कहा, “सुनो बालक! तुम्हेंबंदी के साथ शास्त्रार्थ करने का मौका तभी मिलेगा जब तुम मेरे कुछप्रश्नों का सही उ्रूद्गार दे दोगे।”
“पूछिए, क्या पूछना चाहते हैं आप?”
रकाजा जनक ने पूछा, “ऐसी कौन-सी चीज है, जो जन्म केसमय हिलती-डुलती नहीं है?”
अष्टावक्र ने उ्रूद्गार दिया, “ऐसी चीज होती है अंडा!”
सही जवाब सुनकर जनक प्रसन्न हो गए। उन्होंने अगला प्रश्नकिया, “अच्छा, यह बताओ कि सोते समय कौन-सा जीव अपनी आँखेंबंद नहीं करता?”
अष्टावक्र का जवाब था, “मछली!”
इसके पश्चात् तो राजा जनक ने जैसे प्रश्नों की झड़ी गा दी।
उन्होंने अष्टावक्र से कई कठिन प्रश्न पूछे जिनका अष्टावक्र ने चटपटसही उ्रूद्गार दे दिआ। तब राजा ने अपने मंत्रियों से कहा, “इस बालकको बंदी से मिलने दिया जाए। बंदी को यहाँ पधारने का निमंत्रण भीभेजो। हम स्वयं अपनी आँखों से इस शास्त्रार्थ को देखना चाहते हैं।”
शास्त्रार्थ आरंभ हुआ। बंदी ने प्रश्न पूछने आरंभ किए।
अष्टावक्र ने उन प्रश्नों के तुरंत और बिल्कुल सही उ्रूद्गार दिए। बंदीने कठिन-से-कठिन प्रश्न पूछे, किंतु उन्हें अष्टावक्र द्वारा सटीक उ्रूद्गारमिले। अब बारी आई अष्टावक्र के प्रश्न पूछने की। उसने ‘ब्रह्म’ जैसेविषय में बंदी से प्रश्न पूछने आरंभ किए तो बंदी की बोलती बंदहोने लगी। अंत में बंदी ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली।
नियमानुसार राजा जनक ने घोषणा की, “बंदी परास्त हुए। उनके भाग्यका निर्मय अब ऋषि कुमार अष्टावक्र करेगा।”
सभा में उपस्थित विद्वान चिल्लाए, “बंदी ने जिन्हें परास्त कियाथा, उन्हें नदी में डुबो दिया गया था, अब बंदी के साथ भी वही होनाचाहिए।”
“हाँ-हाँ, पकड़ो उन्हें और डुबो दो नदी में।” अन्य लोग भीचीखने लगे।
बंदी आगे बढ़े। उन्होंने राजा जनक से कहा, “राजन्! मैं वरुणदेवता का पूत्र हूँ। मेरे पिता एक यज्ञ कर रहे थे, जिसके लिए उन्हेंपृथ्वी से विद्वान ब्राह्मण बुलाने थे। मेरी चुनौती और शास्त्रार्थ तो उन्हेंसमुद्र-तल में भेजने का बहाना था। वे सभी मरे नहीं हैं, जीवित हैं।”
यह सुनकर यज्ञस्थल पर सन्नाटा छा गया। सभी को आश्चर्यहुआ कि बंदी कैसी अनहोनी बातें कर रहे हैं। उन्हें आश्चर्यचकित देखबंदी ने आगे कहा, “मेरे पिता का यज्ञ समाह्रश्वत हो गया है। अष्टावक्रकी कृपा से अब मैं भी अपने पिता के पास जा सकूँगा। चलिए अबनदी तट पर चलें।” नदी तट पर पहुँचकर बंदी ने अष्टावक्र से कहा,“अष्टावक्र! तुम धन्य हो! तुम धन्य हो। तुम महान् हो। मैं अब अपनेपिता के पास जा रहा हूँ। तुम भी अपने बिछुड़े हुए अपने पिता केमिल सकोगे।”
तभी एक चमत्कार हुआ। एक-एक करके नदी में डुबोए गएब्राह्मण नदी के जल से बाहर निकलने लगे। कहोड़ भी बाहर आए।
अष्टावक्र ने दौड़कर अपने पिता के चरण छुए। पिता कहोड़ ने उसेहृदय से लगा लिया। दोनों के नेत्रों से प्रेमाश्रु बह निकले।
राजा जनक ने कहोड़ से कहा, “मुनिवर कहोड़! हम सब केबीच में सबसे बड़ा शास्त्रज्ञ अष्टावक्र ही है।”
“ठीक कहते हो राजा जनक!” कहोड़ बोले, “पिता जो कुछन कर सका, उसे बेटे ने कर दिखाया। मैं धन्य हुआ।”
बंदी कहने लगे, “अच्छा राजन्! अब मुझे भी आज्ञा दीजिए।
पिता-पुत्र के इस मिलन को देखकर मेरी भी अपने पिता से मिलनेकी इच्छा प्रबल हो उठी है।”
यह कहकर बंदी ने नदी में छलाँग लगा दी।
कहोड़, अष्टावक्र और श्वेतकेतु आश्रम वापस आ गए। वहाँआते ही सुजाता और अष्टावक्र को कहोड़ नदी तट पर ले आए औरअष्टावक्र से कहा, “अष्टावक्र! झटपट नदी में एक गोता लगाकर बाहरनिकल आओ।” अष्टावक्र ने पिता की आज्ञा का पालन किया।
फिरजैसे ही गोता लगाकर बाहर निकला, प्रसन्नता से चीख पड़ा, “माँ,पिताजी! देखिए मेरे सारे शरीर के वक्र-स्थल सीधे हो गए, मैं बिल्कुलसही हो गया हूँ।” तत्पश्चात् वे तीनों महर्षि उद्दालक के पास पहुँचे।
सुजाता ने महर्षि को अष्टावक्र की ओर संकेत करके बताया, “पिताजी!
इधर देखिए, अष्टावक्र का शरीर सीधा हो गया।”
अपने पोते का सुगठित स्वस्थ शरीर देखकर उद्दालक बहुतप्रसन्न हुए। आश्रम में फिर से खुशियाँ लौट आयी थी।
तैि्रूद्गारियोपनिषद से
वरुण की कथा
एक बार ऋषि भृगु के मन में परमात्मा को जानने की तीव्रउत्कंठा पैदा हुई। इसी उत्कंठा को लेकर वे अपने पिता वरुण के पासपहुँचे। वरुण वेदों को जानने वाले ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष थे, अतः भृगु कीपरमात्मा को जानने की उत्कंठा का समाधान करने के लिए उन्हें किसीअन्य आचार्य के पास जाने की आवश्यकता नहीं थी। अपने पिता केपास पहुँचकर भृगु ने उनसे प्रार्थना की, “भगवन्! मैं ब्रह्म को इसप्रकार चाहता हूँ। कृपा कर आप मुझे ब्रह्म का त्रूद्गव समझाइए।”
पुत्र का यह आग्रह सुनकर पिता वरुण ने तब भृगु को इसप्रकार समझाया, “भृगु! अन्न, प्राण, नेत्र, कर्णेद्रिय, मन और वाणी,ये सभी ब्रह्म की प्राह्रिश्वत के द्वार हैं। इन सबमें ब्रह्म की स्रूद्गाा दिखाईदे रही है। ये प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले सब प्राणी जिनके द्वारा उत्पन्नहोते हैं, उत्पन्न होकर जिनके सहयोग से, जिनका बल पाकर ये सबजाते हैं और महाप्रलय के समय जिनमें जाकर सब विलीन हो जातेहैं, उनको जानने की इच्छा करो, वे ही ब्रह्म हैं। तुम तप के द्वारा उन्हेंजानने का प्रयास करो।”
अपने पिता वरुण का उपदेश पाकर भृगु ऋषि ब्रह्मचर्य, साम-दाम आदि नियमों का पालन करते हुए, समस्त भोगों का त्याग करकेसंयम से रहते हुए पिता के उपदेश पर विचार करने लगे। यहीउनकातप था। तप करके भृगु ने विचार किया कि अन्न ही ब्रह्म है,क्योंक पिताजी ने ब्रह्म के जो लक्षण बताए थे, वे सब अन्न में पाएजाते हैं। सभी प्राणी अन्न के फलस्वरूप वीर्य से ही उत्पन्न होते हैं।
अन्न से ही उनका जीवन सुरक्षित रहता है और मरने के बाद अन्नरूप इस पृथ्वी में ही मिल जाते हैं।
अपना विचार लेकर भृगु अपने पिता के पास पहुँचे और उन्हेंअपना विचार सुनाया। सुनकर वरुण कुछ नहीं बोले। उन्होंने सोचा,‘भृगु ने अभी ब्रह्म के स्थूल शरीर को भी नहीं पहचाना है,
वास्तविकरूप तक उसकी बुद्धइ नहीं गई, इसलिे इसे तप करके अभी औरविचार करने की आवश्यकता है। लेकिन जो कुछ भी इसने समझा है,उसे तुच्छ बताकर इसमें अश्रद्धा पैदा करने से इसका भला होने वालानहीं है, अतः इसकी बात का उ्रूद्गार न देना ही ठीक रहेगा।”
जब पिता से अपनी बात का समर्थन नहीं मिला तो भृगु नेउनसे कहा, “भगवन्! यदि मैंने ठीक नहीं समझा हो, तो आप ही मुझेब्रह्म का सही त्रूद्गव समझाइए।”
वरुण ने कहा, “पुत्र! तुम तप के द्वारा ब्रह्म के त्रूद्गव कोसमझने की चेष्टा करो। यह तप ब्रह्म का ही दूसरा रूप है, अतः यहउनका बोध कराने में हर प्रकार से समर्थ है।”
पिता की आज्ञा पाकर भृगु ने पहले की भाँति ही पुनः तपोमयजीवन बिताते हुए ब्रह्म के विषय में विचार करना आरंभ किया। भृगुने सोचा, ‘अन्न के बाद पिताश्री ने प्राण की बात कही थी, तब प्राणही ब्रह्म है।’ भृगु ने पुनः सोचा, ‘पिताश्री द्वारा बताए गए ब्रह्म केलक्षण प्राण में परी तरह पाए जाते हैं। सभी प्राणी प्राण से ही उत्पन्नहोते हैं। एक जीवित प्राणी से उसी के समान दूसरा प्राणी उत्पन्न होताहै और वे सब प्राणी सिर्फ प्राण के कारण ही जीवित रहते हैं। यदिसाँस का आना-जाना बंद हो जाए, यदि प्राण द्वारा अन्न ग्रहण न कियाजाए तथा रस सारे शरीर में न पहुँचाया जाए, तो कोई भी प्राणी जीवितनहीं रह सकता। मरने के बाद मृत शरीर में प्राण नहीं रहते, वे ब्रह्मसे जा मिलते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि प्राण ही ब्रह्म है।
ऐसा निश्चय कर भृगु पुनः वरुण के पास गए। भृगु ने अपनाअनुभव उन्हें बताया। सुनकर वरुण ने कोई उ्रूद्गार न दिया। उन्होंनेसोचा, भृगु पहले की अपेक्षा कुछ तो सूक्ष्मता की ओर झुका है, परंतुअभी इसे बहुत कुछ समझना बाकी है। ऐसी दशा में अभी चुप हीरहूँ तो अच्छा है। चुप रहूँगा तो इसकी जिज्ञासा और भी बढ़ेगी औरयह और भी गहराई से सोच सकेगा।
अपने पिता से समर्थन न पाकर भृगु ने निवेदन किया, “तात!यदि अब भी मैंने ठीक से न समझा हो, तो कृपा कर आप ही मुझेब्रह्म-त्रूद्गव का बोध कराइए।”
वरुण ने एक बार फिर पहले की ही भाँति भृगु को पुनः तपकरने के लिए कहा।
भृगु पुनः तपस्या करने लगे, साथ ही साथ यह भी विचारकरने लगे, ‘पिताश्री ने ‘मन’ के विषय में भी कहा था। अतः मेरविचार में मन ही ब्रह्म है, क्योंकि मन के कारण ही सब प्राणी उत्पन्नहोते हैं। देखा जाता है कि स्त्री और पुरुष के मानसिक प्रेमपूर्ण संबंधसे हर प्राणी बीज रूप में माता के गर्भ में आते और जन्म लेते हैं।
उत्पन्न होकर मन से ही इंद्रियों द्वारा जीवन के लिए उपयोगी सभीवस्तुओं का उपयोग कर जीवित रहते हैं। मरने के पश्चात् प्राण औरइंद्रियाँ नहीं रहतीं।’
भृगु यह विचार करके पुनः अपने पिता वरुण के पास गएऔर उन्हें अपने निर्णय से अवगत कराया। इस बार भी वरुण ने कोईउ्रूद्गार नहीं दिया और तप करने की ही बात पुनः दोहराई। भृगु नेलौटकर तप करना आरंभ किया और पिता के उपदेश पर विचार करनेलगे।
इस बार विचार करते हुए वे इस परिणाम पर पहुँचे कि यहविज्ञान स्वरूप चेतन जीवात्मा ही ब्रह्म है, क्योंकि ये सभी प्राणीजीवात्मा से ही उत्पन्न होते हैं। सजीव चेतन प्राणियों से ही प्राणियोंकी उत्पि्रूद्गा देखी जाती है।
उत्पन्न होकर इस विज्ञान-स्वरूप जीवात्मासे ही जीते हैं, यदि जीवात्मा न रहे, तो ये मन, इंद्रियाँ, प्राण आदिकोई भी अपना-अपना काम नहीं कर सकते। मरने के पश्चात् ये सबशरीर में देखने नहीं आते। अतः विज्ञान-स्वरूप जीवात्मा ही ब्रह्म है।
भृगु अपना यह विचार बताने के लिए पुनः अपने पिता वरुणके पास गए और अपने अनुभव के बारे में उन्हें बताया। वरुण ने पहलेकी भाँति इस बार भी कोई उ्रूद्गार नहीं दिया, किंतु उन्हें यह सोचकरबहुत संतोष हुआ कि उनका पुत्र काफी कुछ ब्रह्म के निकट पहुँच चुकाहै। यह ब्रह्म के स्थूल शरीर से लेकर सूक्ष्म शरीर और त्रूद्गवों से ऊपरउठकर चेतन जीवात्मा तक तो पहुँच गया है। अभी यह और तपस्याकरेगा तो स्वतः ही ब्रह्म के स्वरूप को समझ जाएगा। यही सोचकरवरुण चुप रहे।
पिता को शांत देखकर भी भृगु निराश और उत्साहहीन नहींहुए। वे पिता का आदेश पाकर पुनः लौटे और गहन चिंतन, मनन मेंरत रहकर ब्रह्म के निकट पहुंचने का प्रयास करने लगे। अंततः वेइस निर्णय पर पहुँचे कि ‘आनंद’ ही प्रह्म है। ये आनंदमय परमात्माही अन्नमय आदि सबकी अंतरात्मा है। ये सभी भी इन्हीं के स्थूलरूप हैं। इसी कारनउनमें ब्रह्म-बुद्धि होती है और ब्रह्म के आंशिकलक्षण पाए जाते हैं। ब्रह्म के पूरे लक्षण तो आनंद में ही घटते हैं।
देखा जाता है कि कोई भी प्राणी दुःख के साथ जीवित नहीं रहनाचाहता, सभी आनंदपूर्ण जीवन चाहते हैं। इतना ही नहीं, उस आनंदमयसर्व अंतर्यामी परमात्मा की अचित्य शक्ति की प्रेरणा से ही इस जगतके समस्त प्राणियों की सारी चेष्टाएँ हो रही हैं। सबके जीवनाधार आनंदस्वरूप परमात्मा ही हैं।
इस प्रकार का अनुभव होते ही भृगु तो परब्रह्म का वास्तविकज्ञान हो गया। अब उन्हें किसी प्रकार की जिज्ञासा नहीं रही। वेपरमात्मा में स्थित हो गए।
छन्दोग्य उपनिषद से
महर्षी याज्ञवल्क्य का ज्ञान
मिथिला नरेशजनक ने अपने यहाँ एक यज्ञ का आयोजन कियाजिसमें महर्षि याज्ञवल्क्य भी पधारे। वहाँ जनक और याज्ञवल्क्य में जोसंवाद हुआ, उसी का संक्षेप में हम यहाँ विवरण दे रहे हैं।
जनक ने पूछा, “महर्षि! आप मुझे यह बताएँ कि इस शरीरमें जिस जीवात्मा (पुरुष) का निवास है, वह किस ज्योति (प्रकाश)की सहायता से अपनी शारीरिक क्रियाएँ करता है।”
महर्षि ने उ्रूद्गार दिया, “देखो मिथिला नरेश! यहग पुत्रआदित्य-ज्योति वाला है। जब तक आकाश में सूर्य चमकता रहता है,तब तक उसे बाहरी कर्म करने में कोई कठिनाई नहीं होती। वह अपनीइच्छानुसार इधर-उधर जाता है और पुनः अपने स्थान पर लौट आताहै। सूर्य हमारे सभी कर्मों का सहायक है।”
जनक ने आगे शंका करते हुए कहा, “महर्षि! आप कृपया यहभी बताएँ कि जब सूर्य अस्त हो जाता है, तब किस ज्योति से हमअपना काम संपन्न करते हैं?”
उ्रूद्गार में महर्षि ने कहा, “रात्रि को हमें चंद्रमा का प्रकाशउपलब्ध रहता है। हम चंद्रमा की रोशनी में सब काम कर लेते हैं।”
राजा जनक याज्ञवल्क्य के इस उ्रूद्गार से संतुष्ट नहीं हुए। वेबोले, “महर्षि! कृष्ण पक्ष में तो चंद्रमा भी दिखाई नहीं देता, तब हमेंप्रकाश कहाँ से प्राह्रश्वत हो?”
इसका उ्रूद्गार भी याज्ञवल्क्य के पास था। वे बोले, “अग्निजलाकर प्रकाश पैदा किया जा सकता है। प्रायः जंगल के लोग तोअग्नि की सहायता लेते ही हैं। अग्नि भी हमें राह दिखाती है।”
जनक ने पूछा, “यदि उपर्युक्त तीनों ज्योतियाँ (सूर्य, चंद्र तथाअग्नि) हमें न मिलें तो काम कैसे चलेगा?”
महर्षि का उ्रूद्गार था, “तब वाणी हमारी सहायक होगी। अँधेरेमें कोई दूरवर्ती व्यक्ति हमें नाम लेकर पुकारे तो उसकी आवाज काअनुसरण करते हुए हम उसके पास पहुँच जाएँगे, किंतु कोई ऐसीस्थिति भी आ सकती है जब वाणी भी न रहे, तब हमारी आत्मा हीहमारी मार्गदर्शक बनती है। हमारे भीतरी और बाह्य कर्मों की संचालक,शरीर में सर्वत्र चैतन्य का कारण यह आत्मा ही है। यह आत्मा जबशरीर छोड़ती है, तो दो गतियों को प्राह्रश्वत होती है। यदि व्यक्ति नेकेवल संसार जीवन ही जिया है तथा सांसारिक क्रियाकलापों में हीरूचि दिखाकर शरीर त्याग किया है, तब तो स्वकर्मानुसार उसे अन्ययोनियों में जाना पड़ता है, किंतु यदि वह अपने सांसारिक बंधनों कोतोड़कर प्रभु-उपासना में स्वयं को लगाता रहा है, तब उसको मोक्ष कीप्राह्रिश्वत होती है।”
महर्षि याज्ञवल्क्य ने आगे बताया, “जैसा कि उपनिषद्-ग्रंथों मेंकहा गया है - मोक्षकारी पुरुष के हृदय की गाँठें छिन्न-भिन्न हो जातीहैं, उसके सभी संशय समाह्रश्वत हो जाते हैं, कर्मों के बंधन भी क्षीण होजाते हैं तथा वह सर्वोकृष्ट ब्रह्म को जान लेता है। मुक्तावस्था में वह संकल्पमात्र से ही इच्छित पदार्थों को प्राह्रश्वत करता है। उस तेजोमय पुरुष को ‘हंस’कहकर पुकारा गया है। जैसे कोई पक्षी नियत काल तक अपने घोंसलेमें रहता है, उसी प्रकार यह जीवात्मा भी कुछ काल तक शरीररूपी नीड़में निवासकर अपनी अनंत यात्रा के लिए निकल पड़ती है।”
राजा जनक शांत भाव से याज्ञवल्क्य की बातें सुनते रहे। उन्हेंसच्चा जिज्ञासु जानकर महर्षि आगे बोले, “जनक! जीव को इस शरीरमें रहते हुए तीन प्रकार की अवस्थाओं से गुजरना पडता है। प्रथम अवस्थाहै, जाग्रत अवस्था। इस समय वह सावधान रहकर सब प्रकार के लौकिककृत्य करता है। स्वह्रश्वनावस्था में शरीर एवं इंद्रियों के निष्क्रिय रहने परवह संकल्प मात्र से नाना प्रकार के अनुभव करता है। उसे हर्ष, शोकआदि का जो अनुभव होता है, वह भी मानसिक ही है यथार्थ में तो वहअपनी शय्या पर ही सोया है।
स्वह्रश्वन की अवस्था भी एक प्रकार कीजाग्रत-अवस्था ही है, यद्यपि इसमें जो अनुभव हमें होते हैं, वे सभीकाल्पनिक होते हैं। वह स्वह्रश्वन में उन्हीं वस्तुओं को देखता है, जिन्हें वहजागते हुए देख चुका था। शरीर की एक अन्य स्थिति ‘सुषुह्रिश्वत’ कहलातीहै। इसके अंतर्गत आत्मा विषयातीत होती है। उसे कोई संकल्प याअनुभूति बाँधे नहीं रखती। वह वस्तुतः उस समय ब्रह्म के सामीह्रश्वय मेंरहता है, इसलिए सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल ने समाधि, सुषुह्रिश्वतऔर मोक्ष में ब्रह्म का स्वरूप होना माना है। यह ब्रह्मानुभूति चाहे छोड़ेही समय के लिए क्यों न हो, होती अएवश्य है। कारण स्पष्ट है। प्रगाढ़निद्रा (सुषुह्रिश्वत) से उठकर मनुष्य कहता है,
“आज मुझे अच्छी नींद नहींआई। मैं सुखपूर्वक सोया, मुझे प्रगाढ़ तृह्रिश्वत मिली। सत्य तो यह है किमनुष्य इन्हीं तीन अवस्थाओं में क्रमशः आता-जाता रहता है। जैसे किसीनदी में रहने वाली मछली कभी इस किनारे तो कभी उस किनारे तकआती-जाती रहती है, उसी प्रकार जीवात्मा भी इन तीन स्थितियों में रहतीहै। जिस प्रकार कोई गरूड़ पक्षी विस्तृत आकाश में उड़ता हुआ थककर,अपने पंखों को सिकोड़कर, अपने विश्राम-स्थल में आकर विश्राम करताहै, उसी प्रकार कर्म में लिह्रश्वत रहने के पश्चात् यह आत्मा भी विश्राम केपरम स्थल परमात्मा के निकट जाकर अनंत परमानंद का अनुभव करतीहै।”
महर्षि याज्ञवल्क्य से यह उपदेश सुनकर राजा जनक कृतकृत्यहो गए। उन्होंने ऐसा सारगर्भित उपदेश देने के लिए याज्ञवल्क्य काआभार माना और भेंट-स्वरूप गाएँ एवं द्रव्यादि देकर उन्हें विदा किया।
छान्दोग्य उपनिषद से
प्रवाहण के पाँच प्रश्न
एक बार आरुणि ऋषि का पुत्र श्वेतकेतु देशाटन करता हुआ पाँचाल देश के क्षत्रियों की एक सभा में पहुँच गया। वहाँ के राजा थे प्रवाहण, जो यशस्वी राजा जीवल के पुत्र थे। राजा प्रवाहण स्वयं भी परम विद्वान थे। जिस समय श्वेतकेतु उसकी सभा में पहुँचा, तो राजा प्रवाहण वहाँ उपस्थित अन्य क्षत्रियों से धर्म-चरचा कर रहे थे।
श्वेतकेतु जब वहाँ पहुँचा तो राजा ने पूछा, “कहो कुमार! क्या तुमने अपनी शिक्षा पूरी कर ली?”
“हाँ राजन्! मैंने अपनी शिक्षा पूरी कर ली है।” श्वेतकेतु ने उ्रूद्गार दिया।
“क्या तुम्हारे पिता ने तुम्हें संपूर्ण ब्रह्म-विद्या का ज्ञान करा दिया है?” प्रवाहण ने पूछा।
“जी हाँ।” श्वेतकेतु ने उ्रूद्गार दिया, “मेरे पिता ने मुझे ब्रह्म का ज्ञान अच्छी तरह से समझा दिया है।”
“मुझे तो विश्वास नहीं होता।” राजा प्रवाहण बोले, “मेरे कुछ प्रश्नों के उ्रूद्गार दो तो समझूं के वास्तव में तुम्हें ब्रह्म-विद्या का ज्ञान हो गया है।”
“आप प्रश्न कीजिए। मैं उसका उ्रूद्गार अवश्य दूँगा।” श्वेतकेतु ने गर्व से कहा।
“मेरा पहला प्रश्न है।” प्रवाहण बोले, “इस लोक से जाने के बाद प्रजा कहाँ जाती है?”
“दूसरा प्रश्न है वह प्रजा फिर इस लोक में कैसे आती है?”
“तीसरा प्रश्न देवयान और पितृयान इन दोनों मार्गों का पारस्परिक वियोग-स्थन कहाँ है?”
“चौथा प्रश्न - यह पितृलोक भरता क्यों नहीं है?”
“पाँचवाँ प्रश्न - आहुति के हवन कर दिए जाने पर आप सोम-धृतादि रस (पुरुष) संज्ञा को कैसे प्राह्रश्वत होते हैं?”
श्वेतकेतु इन प्रश्नों में से किसी भी प्रश्न का उ्रूद्गार नहीं दे सका। अतः वह खामोश ही रहा।
राजा प्रवाहण ने पूछा, “क्यों कुमार! तुम तो कह रहे थे कि मैंने समस्त ब्रह्म-विद्या पढ़ ली है, फिर क्या बात है कि तुम मेरे एक भी प्रश्न का उ्रूद्गार नहीं दे सके?”
श्वेतकेतु शर्मिंदगी-सी महसूस करते हुे बोला, “राजन्! सच्ची बात तो यह है कि इन विषयों में से मैंने कोई भी विषय नहीं पढ़ा और जो विषय पढ़ा ही नहीं है, उसका उ्रूद्गार कैसे देता?”
“तब तो तुमने कुछ भी नहीं पढ़ा।” प्रवाहण बोले, “जाओ, पहले ब्रह्म-विद्या की पूरी जानकारी लेकर आओ। अन्यथा आधा-अधूरा ज्ञान व्यक्ति को सदैव हँसी का पात्र ही बनाता है।”
लज्जा-सी महसूस करता श्वेतकेतु अपने पिता के पास लौट पड़ा। वह अपने पिता के आश्रम में पहुँचा और अपने पिता से बोला, “पिताश्री! आपने मुझे जो कुछ भी सिखाया, बताया है, वह पर्याह्रश्वत नहीं है। मुझसे पाँचाल नरेश प्रवाहण ने पाँच प्रश्न पूछे थे, किंतु मैं उनमें से एक का भी उ्रूद्गार नहीं दे सका। सच कहता हूँ मैंने उस समय स्वयं को बहुत लज्जित महसूस किया था।”
“अच्छा ये बताओ।” आरुणि बोले, “राजा प्रवाहण ने तुमसे कौन-से पाँच प्रश्न पूछे थे?”
श्वेतकेतु ने अपने पिता को पाँचों प्रश्न बताए। सुनकर आरुणि भी सोच में पड़ गए। बोले, “पुत्र! सचमुच में प्रश्न तो बहुत ही गूढ़ हैं। इनके उ्रूद्गार तो मुझे भी मालूम नहीं हैं।”
यह सुनकर श्वेतकेतु हैरानी से अपने पिता का मुँह ताकने लगा।
कुछ क्षण बा आरुणि स्वयं ही बोले, “पुत्र! राजा प्रवाहण तो बहुत बड़ा ब्रह्मवे्रूद्गाा मालूम होता है चलो हम दोनों ही उसके पास चलकर इन प्रश्नों के उ्रूद्गार पूछते हैं।”
तब पिता-पुत्र दोनों चलकर राजा प्रवाहण के पास पहुँचे और उन प्रश्नों के उ्रूद्गार उसी से जानने चाहे।
राजा ने पहले तो आगंतुक अतिथियों को धन देकर संतुष्ट करना चाहा, किंतु श्वेतकेतु के पिता आरुणि ने कहा, “राजन्! मुझे धन की इच्छा नहीं है। आप तो उन प्रश्नों का ही उ्रूद्गार देने की कृपा करें, जो आपने मेरे पुत्र से पूछे थे।”
राजा प्रवाहण को यह जानकर खेद हुआ कि स्वयं को ब्रह्म कहने और मानने वाले ये व्यक्ति भी अध्यात्म-विद्या से शून्य हैं।
तथापि, उन्होंने आरुणि को आश्वस्त किया कि वह उसे ब्रह्म-विद्या से संबंधित उन सवालों का जवाब अवश्य देंगे।
तदुपरांत राजा प्रवाहण ने उन प्रश्नों के उ्रूद्गार दिए, वे इस प्रकार हैं।
प्रश्नः ‘प्रजाएँ मरकर जहाँ जाती हैं, वह लोक कौन-सा है?’
उ्रूद्गारः ‘मृत्यु के पश्चात् जीव स्व-कर्मों तथा ईश्वरीय व्यवस्था के अनुसार नया जन्म लेता है। यह सब उसके शुभ-अेशुभ कर्मों पर निर्भर है।’
प्रश्नः ‘मृत प्रजाएँ लौटकर फिर इहलोक में कैसे आती हैं?’
उ्रूद्गारः ‘शरीर छोड़कर जाने वाले जीवों के लिए दो मार्ग हैं।
प्रथम देवयान, जो मोक्ष तक ले जाने वाला मार्ग है। जो साधक अध्यात्म-विद्या से संपन्न होकर, साधनायुक्त जीवन जीकर देहत्याग करते हैं, वे स्वयं प्रकाश-रूप ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं, किंतु जो लोग लौकिक हित के कार्य करते हैं, जन-साधारण की सेवा में लगे रहते हैं, वे पितृयान-मार्ग पर जाते हैं। ये लोग सकाम कर्म वाले हैं, अतः निश्चित अवधि में सांसारिक सुखों को भोगने वाली योनियों में जन्म लेते हैं। सृष्टि चक्र का छूटना तो देवयान-मार्ग के द्वारा ही संभव है।’
प्रश्नः ‘देवयान और पितृयान, इन दोनों मार्गों का पारस्परिक वियोग-स्थल कहाँ हैं?’
उ्रूद्गारः ‘इस प्रश्न का उ्रूद्गार दूसरे प्रश्न के उ्रूद्गार में ही समाहित है।’
प्रश्नः ‘यह पितृलोक भरता क्यों नहीं है?’
उ्रूद्गारः ‘देवयान और पितृयान की व्यवस्था तो स्पष्ट ही है।
देवयान पर जाने वाले मोक्षमार्गी हैं। लोकहित-मात्र की साधना करने वाले उ्रूद्गाम योनियों में जाकर सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं। अन्य सामान्य प्राणियों के लिए तो जीना और मरना, बस यही बचा रहता है। वे तो ‘पुनरपि जनन’ और ‘पुनरपि मरणं’ के चक्र में ही पड़े रहते हैं। इसलिए परलोक के भर जाने का तो प्रश्न ही निरर्थक है।’
प्रश्नः ‘आहुति के हवन कर देने पर साम-धृतादि (पुरुष) संज्ञा को कैसे प्राह्रश्वत होते हैं?’
उ्रूद्गारः ‘संसार में यज्ञ एक शाश्वत क्रिया है। विद्वान और ज्ञानी पुरुष श्रद्धा की अग्नि जलाकर उसमें सत्य की आहुति देते हैं। ब्रह्म यज्ञ तो प्रतीक मात्र है।
अपने कथन को समाह्रश्वत करते हुए राजा प्रवाहण ने बताया, “पाँच प्रकार के पापों से हमें बचना चाहिए। ये पाप हैं -
१. स्वर्ण की चोरी, साधारण चोरी भी पाप है।
२. मदिरापान।
३. गुरुपत्नी से दुराचार, सभी प्रकार का व्यभिचार भी पाप है।
४. विद्वान ब्राह्मण की हत्या, प्राणिमात्र की हत्या भी पाप है।
५. उपर्युक्त पापों का आचरण करने वाले लोगों का संसर्ग भी पाप है।”
यह उपनिषद्-विद्या प्राचीन काल में क्षत्रियों में भी प्रचलित रही है। ब्राहमण जिज्ञासुओं ने इन क्षत्रियों को अपना गुरु बनाकर उनसे यह त्रूद्गव ज्ञान प्राह्रश्वत किया था।