बेरोजगारी के मुखिया Lakshmi Narayan Panna द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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बेरोजगारी के मुखिया

बेरोजगारी के मुखिया

( यह पुस्तक हमारे समाज में फैले हुए इस भ्र्म पर व्यंग है कि आज कल बेरोजगारी बहुत बढ़ गयी है । मेरे विचार से इसका मुख्य कारण हम सब अधिक हैं, हम नही सोचते कि हमारी योग्यता क्या है, नही सोचते कि हम अपने काम के प्रति कितने जिम्मेदार हैं । बस एक काम पत्थर पूजना नही भूलते, अपने अंदर की योग्यता को देखने का वक्त ही नही है किसी के पास । वैसे तो इस व्यंग में जो भी प्रश्न या विचार हैं ओ सब मेरे व्यक्तिगत विचार हैं । मेरा किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के किसी व्यक्ति को ठेस पहुंचाने का कोई उद्देश्य नही है । ध्यान से पढ़िए और आनंद लीजिये ।।। )

आज कल की बात करें या बहुत समय पहले की मानव समाज में बेरोजगारी एक ऐसी बीमारी रही है और अब भी मुंह बाए खड़ी है, जिसने मानव का साथ कभी नही छोड़ा । पूरी वफ़ा के साथ, बेवफाओं से भी वफ़ा करती है ।

हाल तो जनाब ऐसे हैं कि बच्चे के पैदा होते ही उसकी दो माताएं हो जाती हैं एक तो जन्म देने वाली और दूसरी उसके पिता की बेरोजगारी । मेरी बात पर भले ही आपको हंसी आ रही हो लेकिन सच्चाई को छुपाने से कोई फायदा नही है । जनाब इतना तो सभी जानते हैं कि आदमी के जवान होने से पहले ही बेरोजगारी एक प्रेमिका के समान डोरे डालने लगती है ।

बेरोजगारी केवल भारत देश की समस्या नही है, यह तो समूचे विश्व की समस्या है । हाँ इतना जरूर कहूँगा कि भारत देश में बुद्धिजीवियों की कमी नही है । इस देश में ना ना प्रकार के बुद्धिजीवी हैं, कुछ ऐसे हैं जो अपनी बेरोजगारी से पीछा छुड़ाने के लिए रोजगार की दुकान खोल कर बैठे हैं दूसरे वे बुद्धिमान जो स्वंय तो रोजगार पा नही सके परंतु न जाने कब भगवान के असिस्टेंट बन गए ।

अब बचे वे बेचारे जिनके पास रोजगार पाने के कोई विषेस तरीके न थे । उनके आगे यह स्थिति होती है कि “मरता क्या न करता,” इनमें से कुछ दृढ़ निश्चय के साथ मेहनत और लगन से पढ़ कर कोई न कोई रोजगार पा ही लेते हैं । लेकिन इनकी संख्या बहुत कम होती है क्योंकि आज कल, तो हवा उडी हुई है कि बिना जोर-जुगाड़ और रिश्वत (घूस ) के रोजगार नही मिलने वाला । अब आदमी को जानते ही हो सबसे ज्यादा फट्टू जानवर है । अगर इसको विश्वास हो जाये की फला आदमी या जानवर व् स्थान बहुत चमत्कारी है , तो उसके आगे लेट जायेगा और खड़ा होने का प्रयास भी नही करेगा । अपने इस व्यवहार के चलते इनमें से कुछ बेरोजगार, जिनके पास धन का अभाव नही है, वे तो रोजगार की दुकान से जोर-जुगाड़ खरीदने चले जाते हैं । इन दुकानों का पहले इतना क्रेज ( प्रचलन ) नही था, तब लोगों को जोर जुगाड़ आसानी से मिल जाता था । पर अब इतना आसान नही रह गया इन दुकानों पर भीड़ बढ़ गई है, जिसके चलते लोग बेईमानी के इस व्यापार में भी बेईमानी करने लगे हैं ।

कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इतने गरीब हैं कि रोजगार खरीदने में असमर्थ हैं । इनके पास बस एक ही जुगाड़ है वह है भगवान ये तो सही पर भगवान को ढूंढें कहाँ ? अब काम आते हैं भगवान के असिस्टेंट, ये लोग बहुत सस्ते में रोजगार दिलाते हैं क्योंकि भगवान तो कुछ लेता नही । भगवान के असिस्टेंट बस अपनी सैलरी चढ़ावे से लेते हैं । लेकिन अब यहाँ भी रोजगार इतनी आसानी से नही मिलता । शायद यहाँ भी भीड़ बहुत बढ़ जाने के कारण भगवान तक फ़रियाद पहुँच नही पाती इसलिए बार-बार सालों – साल जाना पड़ता है । कभी कभी तो रोजगार मिलने से पहले आदमी भगवान से मिलने चला जाता है । वहाँ जाकर न जाने कोई वापस क्यों नही आता ? इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर तो मेरे पास है नही, शायद वहां पहुँचने पर भगवान वहीं कोई रोजगार दे देते हों ! अधिक जानकारी के लिए भगवान के मुख्यालय में सम्पर्क किया जा सकता है । सच्चाई तो भगवान के असिस्टेंट ही बता सकते हैं ।

ऐसा नही है कि हमारे देश के लोग बेरोजगारी जैसी डायन से निबटने का कोई प्रयास नही कर रहे । देश के कुछ धनाढ् बेरोजगार बुद्धजीबियों और कुछ दीमकों ( भृष्ट नेता ) ने मिलकर साझे का व्यापार कर रखा है । इन लोगों ने अपने आपको इतना हाईटेक बना रखा है कि बेरोजगार इनकी ओर आकर्षित हो ही जाते हैं । ये बेरोजगारों को विशेष कौशल प्रशिक्षण दिलाकर, रोजगार परक बनाने और रोजगार दिलाने के नाम पर सरकारी धन ( जनता का धन ) की बंदर-बाँट करते हैं । इनका एक मात्र उद्देश्य होता है, अधिक से अधिक प्रवेश लेना और सरकारी खाते से धन निकालकर आपस में बाँट लेना । अब नेताओं की क्या कहें बीएस इतना समझ लीजिए कि “उन्हें फ़ुर्सत कहाँ है मुल्क से दहसत मिटने की, बने हैं भेड़िये नेता जिन्हें आदत चबाने की ” ।

यहाँ देखने को तो बड़ी बड़ी इमारतें खड़ी हैं चारों ओर से काँच की खिड़कियां जब चमकती दिखाई देती हैं, तो इसे देखकर बेरोजगार प्रवेश ले ही लेता है ।

प्रवेश लेने के बाद जब उसे पता चलता है कि प्रयोगशाला और कार्यशाला का बस नाम ही दीवारों पर लिखा है वास्तव में उसके अंदर इस नाम की कोई चीज नही होती । तब वह किसी से कह भी नही पाता और लोग उसको एक प्रशिक्षित व्यक्ति समझने लगते हैं । परंतु वास्तव में वह एक अधूरा बेरोजगार बन चूका होता है । हालात कुछ ऐसे हो चले है के “ अब पछताये होत का जब चिड़िया चुग गई खेत ” ।

इस प्रकार बेरोजगार को न तो सही प्रशिक्षण मिल पाता है और न ही सन्तुष्टि । उसका अधूरापन उसे चैन से जीने भी नही देता । बेरोजगार जस का तस ही रह जाता है । अगर किसी को लाभ मिला तो वो हैं शिक्षा के व्यापारी ।

बेरोजगार जीवन भर अपने भाग्य को कोसता रहता है, कुछ कर नही पाता , अब तो छोटी छोटी परीक्षाओं में भी असफल होने लगता है, क्योंकि उसका मनोबल ही गिर जाता है । जब उसे कोई रास्ता नही दिखता तो वह भगवान की शरण में आता है, जहाँ भगवान के असिस्टेंट उसके मर्म को भगवान तक पहुंचाते हैं । लेकिन शायद भगवान तक बात पहुँचती नही या भगवान उसे रोजगार देना नही चाहते । अब प्रश्न यह उठता है जिन बेरोजगारों ने सोते जागते उठते बैठते, हर परीक्षा से पहले और बाद में भगवान का नाम नही भुलाया, उनको भगवान ने रोजगार क्यों नही दिलाया ?

जहाँ तक मुझे लगता है कि इसमें भगवान की कोई गलती नही बेरोजगारों के नित नए विचारों, प्रश्नों और वचनों से भगवान भर्मित हो जाते हैं ।

वास्तव में बेरोजगारी की जड़ तक हम नही पहुँच पाते। मैं कोई बहुत समझदार या बुद्धिमान व्यक्ति तो नही हूँ परन्तु अपना विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

मेरे विचार से बेरोजगारी का मुखिया कोई और नही, स्वयं बेरोजगार ही हैं । इसके अतिरिक्त इसका पालन पोषण करने वाले दीमक (भृष्ट नेता) जिन्होंने बेरोजगारी की ठेकेदारी ले रखी है ।

हमारे देश के अधिकांश नेता अनपढ़ हैं या फिर अधिकतम मैट्रिक ही किये हैं । जब नेता ही अनपढ़ है तो ओ देश की शिक्षा व्यवस्था कैसे सुधार पायेगा ? बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हम जानते हैं फिर भी इनको अपना मुखिया बना कर चुनाव जिताते हैं । फिर यही नेता नई नई नीतियां बनाकर, अपने हित को देखते हुए पाठ्यक्रम में बदलाव कर देते हैं और ऐस-ऐसे कोर्स आरम्भ करते हैं जो सामान्यतः प्राइवेट संस्थाओं में ही चलाये जाते हैं तथा इनकी फ़ीस इतनी अधिक होती है कि इनमें सामान्य परिवार का बच्चा नही पढ़ पाता ।

और तो और अधिकतर विभागों में अनिवार्य कर दिया गया है कि फला पद के लिये फला कोर्स होना चाहिए ।

उदाहरण के लिए मैं अगर स्नातक जीव विज्ञान कोर्स की बात करूँ तो आप जानते होंगे ,इसके पाठ्यक्रम में सूक्ष्मजीव विज्ञान (माइक्रोबायोलॉजी) और जैवरसायन (बायोकेमिस्ट्री) , शारीरिकी (फिजियोलॉजी), आकारिकी (मोरफोलॉजी), आंतिरिकी (एनाटॉमी) आदि सब पढ़ाया जाता है सभी की प्रयोगशाला होती है । अब सोचिये क्या वह व्यक्ति हस्पताल में मईक्रोबयोलॉजिस्ट, फार्मासिस्ट, लेबोरेटरी तकनीशियन आदि पदों पर कार्य नही कर सकता ? मेरे विचार से कर सकता है, अगर एक से डेढ़ साल का डिप्लोमा करने वाला कर सकता है, तो तीन साल तक जूलॉजी, बॉटनी, केमिस्ट्री पढ़ कर सभी प्रयोग करने वाले क्यों नही ?

डिप्लोमा और स्नातक में फर्क इतना है कि डिप्लोमा को पढ़ाया कम जाता है, सिर्फ उसको प्रशिक्षित किया जाता है परंतु स्नातक को पढ़ा तो खूब दिया जाता है लेकिन उसको प्रशिक्षित नही होने दिया जाता है । यह तो एक विषय की चर्चा मैंने की ऐसे बहुत से पाठ्यक्रम हैं जो अपनी पहचान को मोहताज हो चुके हैं । उनका मान व्यापारियों द्वारा प्रारम्भ किया गये कमाऊ कोर्सों के कारण घट गया है । इन कोर्सों को करने वाले अगर उच्च शिक्षा नही ग्रहण कर पाते तो समझ लीजिये, ये समाज में पढ़े लिखे मूर्ख कहलायेंगे ।

ऐसा नही है कि पाठ्यक्रम निर्धारित करने वालों को इसका ज्ञान नही है । वो बखूबी जानते हैं कि पुराने पाठ्यक्रम से पढ़े लोगों को छह से सात महीने का प्रशिक्षण देकर उन्हें एक अच्छा कर्मचारी बनाया जा सकता है । फिर भी उनके कान पर जूं नही रेंगती, क्योंकि अगर वो ऐसा करते हैं तो दुकानें बंद हो जायेंगीं । भविष्य में और दुकाने नही खोली जा पायेंगी ।

बेरोजगार तो कुछ जानता ही नही है, बस सपने देखता रहता है कि फला डिग्री या सर्टिफिकेट मिल जाए तो रोजगार पक्का । अब भी जब रोजगार नही मिलता तो दूसरा कोर्स, फिर तीसरा कोर्स, इसी प्रकार से उम्र की दोपहर हो जाती है । बेरोजगार थक कर चूर हो जाता है, उसके पास अगर कुछ रहता है तो, आँखों में निराशा चेहरे पर बेइज्जती का एहसास ।

इस राजनीति और अपने दगाबाज साथियों ने अपनों के सपनों के साथ खेलने में कोई कोर कसर नही छोड़ी है ।

अब बेरोजगार की गलती यह है कि उसने अपने कोर्स को महत्व न देकर, दुकानों की चकचौन्ध में भर्मित हो गया ।

जो भी कोर्स हम करते हैं या अपने बच्चों को करने की सलाह देते हैं । उसको प्रारम्भ करने से पहले दृढ निश्चय कर लें कि पूरी ईमानदार से उसका अध्ययन करेंगें । ऐसा करने से आपका मन भी लगेगा और सफलता निश्चित ही मिलेगी ।

स्वयं को समझें अपनी क्षमता के अनुसार अध्ययन की सीमा निर्धारित करें, क्षमता से अधिक फैलने का प्रयास करने वालों के साथ कुछ ऐसा होता है …

“जो पन्ना दिल बनें दरिया, तो मुश्किल भी बड़ी होगी।।

मछलियां खूब पनपेंगी और भैंसें भी नहायेंगीं।।”

लक्ष्मी नारायण पन्ना

( प्रवक्ता रसायन शास्त्र एवं कलमकार)