बालक दीन दयाल और गुरुजी का दंड
यह प्रसंग उस समय का है जब दीनदयाल उपाध्याय जी तीसरी कक्षा मे पढ रहे थे, उस समय उनकी आयु सिर्फ आठ वर्ष की थी। अपनी कक्षा के मेधावी छात्र होने के नाते अध्यापक का उनसे बहुत लगाव था, वो भी अपने गुरु का पूरा आदर करते एवं प्रत्येक आज्ञा का पालन करते थे साथ ही अपने साथ पड़ने वाले बच्चो से भी उन्हे बड़ा स्नेह था। उन दिनों गाँव के स्कूल मे अध्यापको के लिए चाय, नाश्ता, दूध या खाना गाँव से ही आ जाया करता था और गाँव वाले इसे अपना सौभाग्य समझते थे अगर किसी दिन उन्हे अध्यापक के लिए खाना खिलाने या दूध पिलाने का अवसर मिल जाता था। परंतु अध्यापक इस तरह का निमंत्रण बहुत सोच समझ कर स्वीकार करते थे। बालक दीनदयाल जी के अध्यापक नरेंद्र उस दिन बड़े ही परेशान थे अतः उन्होने स्कूल मे काम करने वाली महिला मन्नों से थोड़ी चाय बनाने के लिए कहा। मन्नों ने कहा की मास्टर जी चाय तो में बना दूँगी परन्तु दूध नहीं है। उन दिनो दूध गाँव मे मोल नहीं मिलता था, जो दूध दूधिया सुबह देकर जाता था वो दूध खत्म हो गया था। अध्यापक नरेंद्र कुच्छ सोचने लगे और फिर उन्होने बालक दीनदयाल को अपने पास बुलाकर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा जाओ बेटा घर से एक गिलास दूध लेकर आओ। बालक दीनदयाल को अपने ऊपर बड़ा गर्व महसूस हुआ की गुरु जी ने आज मुझे यह सुअवसर दिया है एवं खुशी खुशी अपने घर की तरफ दौड़ लगा दी, उनका घर गाँव के दूसरे छोर पर था। बड़े प्रसन्न मन से वो अपने घर की तरफ दौड़ते हुए जा रहा था, थोड़ी दूर ही गया था कि उसे कुच्छ और लोगों के साथ सामने से ताऊजी आते हुए दिखे। जब ताऊजी ने बालक दीनदयाल को इस तरह स्कूल से आते हुए देखा तो उन्होने उसको रोक कर स्कूल से भागने का कारण पूछा। बालक दीनदयाल ने बता दिया की गुरु जी ने दूध मंगाया है, अब ताऊजी उसको एक किनारे ले गए एवं कहने लगे कि बेटा ये मेहमान आज हमारे घर आए थे सारा दूध इनको पिला दिया है, अब घर मे दूध नहीं बचा है, तू यही से वापस चला जा और गुरु जी को सब बताकर हमारी तरफ से क्षमा मांग लेना। उन दिनो घर आए मेहमान का सत्कार दूध पिला कर करते थे।
बालक दीनदयाल ताऊजी की बात सुनकर बहुत निराश हुआ एवं कुच्छ क्षण के लिए वही खड़े होकर सोचने लगा, लेकिन इसका और कोई उपाय भी नहीं था। अतः वह वापस स्कूल की तरफ़ चल पड़ा, उसका मन बहुत भारी था और सोच रहा था कि कैसे मना करूंगा गुरु जी को, यही सोचते सोचते स्कूल पहुँच गया। गुरु जी पहले से ही प्रतीक्षा मे बैठे थे, मगर उसको खाली हाथ देखकर परेशान हो गए क्योंकि उन्हे चाय की बहुत ज्यादा इच्छा हो रही थी। गुरु जी ने पूछा की दूध क्यो नहीं लाये तो उसने कह दिया कि गुरु जी आज घर पर बहुत सारे मेहमान आए थे सारा दूध तो उन्हे पिला दिया और दूध बचा ही नहीं। अब गुरु जी कहने लगे अच्छा दीनदयाल तुम्हारा घर तो दूसरे किनारे पर है तो तुम इतनी जल्दी घर से पता कर के कैसे आ गए, तब एक बच्चा बोल पड़ा कि गुरु जी ये बहुत तेज दौड़ता है। गुरुजी को बहुत गुस्सा आया, वह बच्चों पर अकारण गुस्सा नहीं उतार सकते थे। अब गुरु जी कारण ढूंढने लगे और उन्हे एक गणित का प्रश्न मिल गया जो उन्होने पढ़ाया भी नहीं था और बच्चों को हल करने के लिए दे दिया, निशाने पर तो बालक दीनदयाल ही था। प्रश्न बहुत कठिन था फिर भी बालक दीनदायल ने उसको हल कर दिया एवं स्लेट मास्टर जी को दे दी, बाकी बच्चे उसको हल नहीं कर सके। गुरु जी के निशाने पर तो बालक दीनदयाल ही था लेकिन वह बच गया, परंतु बाकी बच्चों को अध्यापक नरेंद्र ने सजा देने के लिए मुर्गा बना दिया एवं हाथ मे एक मोटा डंडा ले लिया। यह सब देखकर बालक दीनदयाल को अपने ऊपर ग्लानि होने लगी की मेरे कारण आज सब बच्चे मार खाएँगे। एक बच्चे ने धीरे से कहा कि हमारे घर से ही ले आता दूध कम से कम मार तो न खानी पड़ती। गुरु जी ने एक बच्चे को मारने के लिए डंडा उठाया तो बालक दीनदयाल ने अपना हाथ बीच मे कर लिया और डंडा बड़े ज़ोर से बालक दीनदायल के हाथ पर पड़ा, वह दर्द के कारण बेचैन हो गया। यह सब देखकर गुरु जी का क्रोध शांत हो गया और बालक दीनदायल का हाथ अपने दोनों हाथो के बीच मे रख कर सहलाने लगे। गुरु जी ने पूछा कि तुमने अपना हाथ बीच मे क्यो किया तो बालक दीनदायल कहने लगे की यह सब मेरे छोटे से झूठ के कारण हुआ, मुझे पहले ही बता देना चाहिए था की रास्ते मे ताऊजी कुच्छ मेहमानो के साथ मिले थे और उन्होने ही मुझे रोक कर बताया था कि दूध तो मेहमानो को पिला दिया है और घर मे अब दूध नहीं बचा है, अतः मैं वही से वापस आ गया। परंतु गुरु जी जब आपने कहा की तुम्हारा घर तो दूर है इतनी जल्दी कैसे आ गए और एक बच्चे ने कह दिया की ये बहुत तेज दौड़ता है तब मैं चुप रहा और आपने उसे मेरी मौन सहमति समझ लिया जिसके कारण आपको गलत फहमी हो गयी, उस गलत फहमी के कारण आपको क्रोध आया जिसकी सजा आप मुझे देना चाहते थे।
आपने क्रोधवश वह प्रश्न निकाला जो आपने हमे आज तक पड़ाया भी नहीं और हल करने के लिए दे दिया, जिसे मैंने तो हल कर दिया, परंतु मेरे दूसरे साथी हल नहीं कर सके, क्योंकि उन्होने वह प्रश्न पढ़ा ही नहीं था। मेरी छोटी सी भूल और मौन सहमति के कारण उपजी गलत फहमी और क्रोध से मेरे साथी दंडित हो यह मुझे स्वीकार्य नहीं था। इसीलिए मैंने आपके डंडे के बीच मे अपना हाथ देकर मार खाई जिससे आपका क्रोध शांत हुआ और मेरे साथी मार खाने से बच गए।
आज से मैं दीनदयाल प्रण लेता हूँ कि कभी भी असत्य का पक्ष नहीं लूँगा। सत्य को प्रकट करने के लिए मौन नहीं रहूँगा एवं सभी कमजोरों का सहारा बनूँगा। बड़े होकर उन्होने जीवन पर्यंत अपना प्रण निभाया।
ऐसे थे हमारे बालक रूप मे पंडित दीनदायल उपाध्याय जी।
वेद प्रकाश त्यागी
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