आग में तपा हुआ सोना
अपनी ढलती उम्र की विवशताओं को संभाले सुमित्रा देवी ने रिक्शा से उतर कर किराया चुकाया और सामने के मकान की ओर बढ़ गई। इस मकान के तीसरे माले पर उसकी बेटी रमा अपनी छः साल की बेटी के साथ किराये पर रहती है। वह रेलिंग का सहारा लेकर धीरे-धीरे सीढि़यां चढ़ गई और ऊपर पहुंचकर अपनी बेटी के घर के बंद दरवाजे के बाहर खड़ी होकर जोर-जोर से हांफने लगी। उसके बूढ़े अखरोटी चेहरे पर घुटने का दर्द भी उभर आया था।
सुमित्रा देवी ने दरवाजा खटखटाया। खुलने पर रमा सामने थी। सुमित्रा के होठों पर दर्द में डूबी जबरन मुस्कान उभर आई। रुचि तो नानी मां को देखते ही बिस्तर से उतरकर दौ़ड़ी आई और उससे लिपट गई। रमा ने कमरे में लौट कर बिस्तर पर फैली पुस्तकों और कापियों को समेटा और उन्हें रुचि के स्कूल बैग में डालते हुए कहा, ‘जा बेटा, अपना बस्ता टेबल पर रख आ।’
जूते उतारकर सुमित्रा देवी ने कराहते हुए बिस्तर पर पांव फैला दिए। रमा जाकर रसोईघर से एक गिलास पानी ले आई। तब तक रुचि भी आकर नानी से चिपक कर बैठ चुकी थी।
पानी का गिलास अपनी मां को थमाते हुए रमा ने कुशलक्षेम पूछा, ‘भाई-भाभी सब कैसे हैं ?’
‘सब ठीक है।’ सुमित्रा देवी ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया और बेटी के चेहरे का भाव पढ़ने का असफल प्रयास करने लगी। उसके भावहीन चेहरे पर कहीं कोई तब्दीली दिखाई नहीं दी। न किसी सुख के चिन्ह और न किसी दुख की परछाईं। सुमित्रा देवी को वह दिन याद हो आया, जब इन्हीं भाइयों और भाभियों की उपेक्षा का शिकार होकर रमा अपनी फूल-सी बच्ची को लेकर पीहर से चली आई थी और वह विवश होकर डबडबाई आंखों से बेटी को जाते देखती रह गई थी। हालांकि घर छोड़ने से पहले रमा ने अपनी मां को सांत्वना देते हुए कहा था, ‘मां, यहां रहकर मेरा आत्म-विश्वास मरता जा रहा है। न मैं जीवन की बाधाओं से लड़ने में स्वयं को समर्थ पा रही हूं और न ही मुझे अपनी बेटी का सुखद भविष्य इस वीराने में कहीं दिख रहा है।’
कम उम्र में विधवा हुई अपनी बेटी की व्यथा को सुमित्रा देवी भलीभांति समझ रही थी। अपनेे सगे भाइयों के लिए वह फिर से बोझ बन गई थी। ऐसा बोझ जिसे भाई सदा कि लिए थोपा हुआ महसूस करने लगे थे। उनकी पत्नियों की आंखों में तो वह कांटे की तरह चुभने लगी थी। रोज कोई-न-कोई बहाना, बेवजह का ताना जबकि वह अपनी तनख्वाह का अधिक हिस्सा घर के खर्चे पर वहन कर रही थी।
रमा पढ़ी-लिखी थी और उसके पास बैंक की अदद नौकरी थी। सो, अंततः विवश होकर अपने माता-पिता के उस घर से फिर एक बार परायी हो गई, जहां उसका बचपन, खेल और प्रेम की दुनिया थी। गिनती के कुछ जरूरी सामानों के साथ इसी शहर में अपनी बच्ची को छाती से लगाए वह इस छोटे-से फ्लैट में आ गई। दिन में बच्ची पड़ोस में ही एक गरीब महिला के पास रहती जो कुछ पैसे लेकर एक अन्य कार्यरत दम्पत्ति के बच्चे की भी देखभाल करती थी। इस तरह बच्ची उस महिला के देखरेख में पल गई। सुमित्रा देवी भी बीच--बीच में आकर अपनी बेटी और दोहती को देख जाती।
दो बेटों के बाद पैदा हुई रमा सुमित्रा देवी की छोटी बेटी थी। पति ने जीवित रहते दोनों बेटे तो ब्याह दिए पर जब रमा की बारी आई तो उसका भार उस पर डाल संसार छोड़ गए। जैसे-तैसे सुमित्रा देवी ने यह दायित्व भी बखूबी निभाया। एक सुन्दर, सुशील लड़के से रमा का विवाह किया पर दुर्भाग्य से उसकी मृत्यु अपने घर में ही मकान की मरम्मत करते समय बिजली की नंगी तार छू जाने से हो गई और विवाह के एक वर्ष के अंदर ही रमा विधवा हो गई। उस समय वह मां बनने वाली थी पर ससुराल ने उसे नहीं अपनाया और कई बार जैसा कि होता आया है, दकियानूसी सास-ससुर ने उसे घर से बाहर निकलने को विवश कर दिया।
अतः वह अपनी मां के पास उसी घर में लौट आई जहां से उसकी डोली उठी थी। यहीं रुचि का जन्म हुआ पर भाइयों और उनकी पत्नियों ने भी उसे मन से कहां स्वीकारा?
सुमित्रा देवी अपनी सत्ताइस वर्ष की बेटी की अकेली कटती पहाड़-सी जिंदगी पर एक निगाह डालती तो उसका कलेजा मुंह को आता। शुरू में तो उसने उसे दूसरे विवाह के लिए मनाना चाहा पर रमा ने साफ इंकार कर दिया । इसकी वजह रुचि थी। पर अब वह उसकी ओर से निश्चिंत थी, इसलिए सुमित्रा देवी आज फिर एक बार विवाह का प्रस्ताव लेकर हाजिर हुई थी।
‘बेटी, लड़का भलामानस है। एक काॅलेज में पढ़ाता है और वह भी तुम्हारी तरह दुखी है। उसे भी एक जीवन-साथी की तलाश है, जो उसकी तीन वर्ष की बेटी और एक वर्ष से कम उम्र के बेटे को संभाल ले। बेटे के जन्म के समय ही उसकी पत्नी गुजर गई थी। घर में मां-बाप के अलावा और कोई नहीं।’
रमा नजरें झुकाए चुपचाप अपनी मां की बातें सुनती रही। एक अर्से से वह भी मानसिक रूप से दूसरे विवाह के लिए तैयार होने लगी थी। कोई ऐसा सुहृदय व्यक्ति मिले जो उसकी बेटी के पिता का प्यार दे सके। रुचि कई बार उससे पिता के बारे में पूछ चुकी थी। उसे भी कई बार जीवन बड़ा एकाकी लगता।
रमा को काॅलेज में पढ़ानेवाला यह बुद्धिजीवी प्रोफेसर जंच गया। वह भी उसकी तरह दुखी है। अतः उसका दुख भी समझेगा। उसे पूरा विश्वास था कि यह व्यक्ति उसकी रुचि को पिता का भरपूर प्यार देगा। उसने कुछ झेंपते हुए कहा, ‘मां, तुम ठीक समझी हो तो...।’
सुनकर सुमित्रा देवी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उसने बात आगे चलाई और विधवा रमा फिर से दुल्हन बनकर अपनी बेटी रुचि के साथ नये घर में आ गई। रुचि को भी साथ खेलने के लिए दो छोटे भाई-बहन मिल गए और बच्चों को एक ममतामयी मां। इस घर में आते ही रमा ने दोनों बच्चों की सारी जिम्मेवारी संभाल ली। बैंक जाने से पहले ही घर का का सारा काम-काज निपटा जाती।
धीरे-धीरे समय गुजरने लगा, पर कुछ ही दिनों में रमा को अहसास होने लगा कि वह जैसा सोचकर इस विवाह के लिए तैयार हुई थी, वह सपना पूरा नहीं पा रहा था। उसकी बेटी अपने इस नये पापा के घर में उपेक्षित होकर रह गई थी। अन्य दो छोटे बच्चों की तरह उसे भी यहां प्यार मिलना चाहिए था, पर मिल रहा था तिरस्कार । जहां रमा ने अपने पति के दोनों बच्चों को मां का ममतामयी भरपूर प्यार दिया और रुचि से उन्हें बिल्कुल अलग नहीं समझा, वहीं प्रोफेसर साहब की नजर में रुचि उनकी बेटी नहीं बन पाई। अपने बच्चों पर तो वह खुले हृदय से प्यार उड़ेलता और उनके लिए बाजार से कुछ-न-कुछ लेता आता पर रुचि के प्रति वह स्नेह नहीं उभरा। यहां तक कि वह उस बच्ची के लिए कभी कुछ लेकर नहीं आया। रमा के पूछने पर सफाई देता कि वह अब बड़ी हो गई है। उसके सास-ससुर की नजरों में भी रुचि का इस घर में कोई स्थान नहीं था। यह दादी तो उसे हमेशा ‘यह कर-वह कर’ कहकर घर के कामों में उलझाए रखती। रमा ने महसूस किया कि उसकी बेटी का बचपन उससे छिनता जा रहा है। चेहरे की मासूमियत और आंखों की चमक किसी अंधेरी गुफा में विलीन होती जा रही है। एक-दो बार उसने आपे पति को भी इस बारे में आगाह किया पर रुचि के लिए उसे हृदय में कोई स्थान नहीं बन पाया। वह अपनी पूर्व पत्नी के बेटी-बेटे की खुशियों में रमा रहता।
शाम को बैंक से लौटकर रमा जब अपने तीनों बच्चों को देखती तो उसे रुचि की आंखों में रहस्यमयी प्रश्न नजर आते। ‘मां क्या तुमने इसीलिए दूसरी शादी की ?’
और अंत में एक दिन रमा अपनी बेटी की अंगुली थामे अपनी मर्जी और खुशी से फिर से ससुराल को विदा कह गई पर इस बार उसके हृदय में कहीं अधिक उत्साह और आत्मविश्वास था।
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