शिक्षा एवं संस्कार का गिरता स्तर डॉ. ऋषि अग्रवाल द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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शिक्षा एवं संस्कार का गिरता स्तर

शिक्षा एवं संस्कार का गिरता स्तर

शिक्षा एवं संस्कार ये वो दो अनमोल रत्न हैं जिससे एक अच्छे समाज का निर्माण होता हैं। एक शिक्षित मनुष्य अच्छे परिवार का निर्माण तभी कर सकता हैं जब उसमें अच्छे संस्कार हो। बिना संस्कारों के बड़े से बड़ा विद्वान भी अच्छे परिवार और अच्छे समाज का निर्माण नहीं कर सकता है। इसलिए शिक्षा से पहले संस्कार की शिक्षा बहुत जरूरी हैं।

जब बच्चों की आयु शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाती हैं तब उसका विद्यारंभ संस्कार होना बहुत जरूरी होता है। सभी माता-पिता का कर्तव्य होता हैं कि बच्चे की मुलभुत आवश्यकताओं का भी भरण-पोषण करें। भोजन, वस्त्र, रहन-सहन के साथ-साथ उसकी शिक्षा-दीक्षा का भी प्रबन्ध करे। जो अभिभावक अपने बच्चों को शिक्षा-दीक्षा से वंचित रखे, उसका मानसिक विकास करने और ज्ञान-सम्पति का अधिकार देने से वंचित रखे तो वो अभिभावक एक अपराधी के रूप में पहचाना जाता हैं। इसलिए हर माता-पिता का कर्तव्य है कि अपने बच्चे को शिक्षा एवं संस्कार देने चाहिए। चाहे वो लड़का हो या लड़की।

जिस तरह से मानव के जीवन में रोटी, कपड़ा, मकान का महत्व हैं उससे कहीं गुना महत्व शिक्षा एवं संस्कार का भी हैं। जब तक मानव शिक्षित नहीं होगा तब तक एक सभ्य समाज की कल्पना करना बहुत मुश्किल हैं। शिक्षित मनुष्य कितना भी शिक्षित हो जाएँ लेकिन जब तक उसे संस्कार की शिक्षा नहीं मिलेगी तब तक वो मनुष्य कभी सभ्य नहीं बन पायेगा।

मानव को शिक्षा कहीं से भी मिले पर शिक्षा बहुत जरुरी हैं। मानव की पहली शिक्षक उसकी माँ होती हैं फिर परिवार, विद्यालय का प्रांगण, गुरु, समाज, सत्संग इत्यादि जगह से मानव शिक्षा प्राप्त करता हैं और संस्कार की उत्पत्ति भी यही से होती हैं। शिक्षा में उसे जीवन के उचित मूल्य का पाठ पढ़ाया जाता हैं तो वहीं संस्कारों में आदर्श, प्रेम, करुणा, दया, त्याग, सहयोग, विश्वास और इंसानियत का पाठ पढ़ाया जाता हैं। केवल अच्छा जीवन व्यक्तित करना ही शिक्षा का ध्येय नहीं हैं।

जीवन में शिक्षा का महत्व जाने तो हमारे लिए

शिक्षा तो हैं एक अनमोल रत्न

आओ मिलकर लगाये ये नारा

होता इससे चरित्र का निर्माण

मिटा देती नफरत का अंगारा

शिक्षा से ही मिलता शिष्टाचार

हैं जीवन का ये अनमोल तारा

बिन शिक्षा के पशु है मानव

हर गली गली में लगाओ नारा

शिक्षा ही जीवन समृद्ध बनाती

भरती जीवन में अमृत की धारा

जले शिक्षा से ज्ञान का दीपक

मिटता हैं जीवन का अँधियारा

शिक्षा से होता रिश्तों का ज्ञान

भाग जाता इससे अज्ञान सारा

बना देती हमें दानव से इंसान

देती वेद पुराणों का ज्ञान सारा

शिक्षा से होता राष्ट्र का निर्माण

सिखाती हमें एकता, भाईचारा

करती मानव में हिंसा का पतन

देती हमें उन्मुक्त आकाश सारा

शिक्षा सिखाती हमें जीवन सार

खोलती राज तिलिस्म का सारा

दिखाती हैं राह विकास पथ की

होता ‘ऋषि’ शिक्षा से उजियारा

ये बिल्कुल सत्य है कि शिक्षा हमारे जीवन से अंधकार मिटाती है। शिक्षा का उद्देश्य आतंरिक सृजनात्मक शक्तियों का प्रस्फुटन एवं अंकुरण करना है। शिक्षा से चरित्र, व्यक्तित्व, राष्ट्र का निर्माण होता है। शिक्षा माँ सरस्वती का रूप है। अच्छी शिक्षा का जीवन में अत्यधिक महत्व होता है। शिक्षा हमें जीवन का सार, आध्यातमिक ज्ञान, रिश्तों की पहचान बताती है। शिक्षा सर्वगुणों की खान है।

पर आज के युग में शिक्षा का स्तर जितना गिर चूका हैं उससे कहीं अधिक संस्कारों का पतन हो चूका हैं। शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की बातें अक्सर सुनने मंे आती है। किन्तु सुधार कहीं नजर नहीं आता है। बच्चों पर शिक्षा का बोझ लाद दिया हैं। बच्चे शिक्षा में इस तरह लिप्त हो गयें कि उन्हें मानवीय मूल्यों की पहचान भी नहीं रही हैं। माता-पिता बच्चों की शिक्षा के लिए इतने चिंतित हो चुके हैं कि बच्चों को संस्कारों का पाठ पढ़ाया जाएँ उसके लिए सोचने का उनके पास वक्त नहीं रहा हैं।

आज शिक्षा बाजारीकरण का दंश झेल रही है। सरकारी विद्यालयों में शिक्षा देने के लिए शिक्षिक अपनी जिम्मेदारियों से नदारद मिलते हैं। सरकारी विद्यालयों में सिर्फ गरीब बच्चें ही अपनी शिक्षा लेने जा रहे हैं जहाँ उन्हें शिक्षा के नाम पर शोषित किया जाता हैं। उन्हें एक अच्छी शिक्षा से वंचित रखा जाता हैं इसकी कुछ हद तक जिम्मेदार प्रशाशन हैं तो कुछ हद तक जिम्मेदार आम जनता। जो अपनी जिम्मेदारीयों के नाम पर अपना पला झाड़ लेते हैं। शिक्षकों की बेहतरी के मामले में प्रशाशन का नजरिया सकारात्मक नहीं होना ही इस गिरते स्तर का प्रमुख कारण है।

शासकीय व्यवस्था को देख कर लोगों का मोह भंग हो रहा है। जिससे पैसे वालों के बच्चें निजी विद्यालयों मे पढ़ाई करते है और गरीब बच्चे सरकारी शिक्षा का अभिशाप झेलने के लिए विवश है। गौर करने वाली बात है कि जब हमारे देश में शिक्षा के बीच खाईं बनी हुई है तो उससे शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रश्र खड़ा हो चूका हैं। आज की शिक्षा ने याचक बनाने का ही काम किया है। बड़ा से बड़ा पैकेज शिक्षा की नियति बन गई है। माँगना और अधिक माँगना याचक का यथार्थ है तथा देना और अधिक देना शिक्षा का फलितार्थ है। अत्यधिक आकाँक्षाओं ने समाज की व्यवस्था को डस लिया है। राष्ट्रहित सर्वोपरि की पुस्तक पढ़ना-पढ़ाना अब बोझ लगने लगा है।

आज बच्चें शिक्षा तो प्राप्त कर रहे हैं पर जिस तरह की शिक्षा वो प्राप्त कर रहे हैं उसमें उनका बचपन छीन चुका हैं। भारी भरकम बैग ने उनकों इस तरह कोल्हू का बैल बना दिया हैं कि वो उसी बोझ के निचे दब कर रह गए हैं। कुछ समय पहले पुस्तकों की संख्या इतनी कम थी कि बच्चों का बचपन पढ़ाई के साथ खेल-कूद में व्यतीत होता था पर आज के समय बच्चों को बहुत सारी किताबों से लाद दिया हैं जिस कारण बच्चों का बचपन किताबों के बोझ तले दब कर बीत रहा है।

नब्बें के दशक में बच्चों को शिक्षा के साथ संस्कार की भी शिक्षा विद्यालयों में प्राप्त हो जाती थी। जिसकें कारण बड़े-बुजर्गों का आदर करना, माता-पिता के प्रति सकारात्मक व्यवहार, नारी के प्रति आदर्श के भाव, जीव-जन्तु के प्रति प्रेम, मानवता के प्रति करुणा व स्नेह के भाव उनमें व्याप्त रहते थे। पर आज की शिक्षा ने शिक्षित तो किया हैं पर संस्कारों को डस लिया हैं जिसकें कारण आदर्श, प्रेम, स्नेह, करुणा, दया, विश्वास, आदर-सत्कार सब पुराने जमाने की बात लगने लगी हैं। भारत में आज भी कुछ सरकारी व निजी विद्यालय हैं जहां शिक्षा, संस्कार, नैतिक मूल्यों का पाठ पढ़ाया जाता है पर ऐसी विद्यालयों कि संख्या आज नामात्र के बराबर हो गई है।

उस समय बच्चे कम से कम पांच से छः साल का होने के उपरान्त विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के लिए दाखिल होता था तब तक वो अपना अनमोल बचपन माता-पिता के साथ गुजरता था पर आज के युग में माता-पिता बच्चों को तब विद्यालयों में दाखिल करवा देते हैं जब वो ठीक तरह से बोलना-चलना भी नहीं सीख पाता हैं मतलब साफ जाहिर हैं कि अभिभावक ही उनका बचपन बोझ से लाद रहे हैं। क्योंकि वो अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहते हैं। लेकिन उनकी ऐसी गलतीयों के कारण बच्चा बड़ा होकर माता-पिता के प्रति स्नेह का भाव भूल रहा हैं।

अभिभावक इतने व्यस्त हो चुके हैं कि उनके पास अपने बच्चों के साथ समय गुजारने करने का भी वक्त नहीं हैं इससे बच्चों का बचपन अंधकारमय और संस्कारों से वंचित हो रहा हैं। माता-पिता बच्चों को शिक्षित तो कर रहे हैं पर उनकी अनदेखी के कारण बच्चें खुद को अंदर ही अंदर गलत दिशा में ले जा रहे हैं। इसलिए शिक्षा के साथ संस्कार जरूरी हैं क्यूंकि सुसंस्कारित मन जीवन को कहीं भी भटकने नहीं देता हैं। बच्चों का मन सुसंस्कारित करना माता-पिता का, बडों का, गुरु का एवं समाज का कर्तव्य है। इसलिए कर्तव्य निभाना होगा और बच्चों को सुसंस्कारित करना होगा। तभी एक सुन्दर समाज का निर्माण हो सकता हैं।

आज आजादी के इतने साल होने को हैं पर वर्तमान हालात को देखते हुए आजादी अप्रासंगिक सी प्रतीत हो रही है। क्योंकि तथाकथित आधुनिकता के इस दौर में चरित्र निर्माण के बजाए जोर उच्छृंखलता पर है। मतलब साफ जाहिर हैं कि शिक्षा को दंश लग चूका हैं। शिक्षा का स्तर बढ़ने कि बजाए गिर चूका हैं। मौजूदा दुर्दशा को देखते हुए कहा जा सकता है कि गिरावट का आधा सफर तय किया जा चुका है।

एक दौर ऐसा था जब हिन्दुस्तान के विद्यालयों में सिखाया जाता था कि सुबह उठते ही माता-पिता व बड़ो के चरण स्पर्श करों। ईश्वर को प्रणाम करों। वहीं अब हाय-हेलो के पश्चिमी संस्कृति से सरोबार इंडिया के स्कूलों में यौन शिक्षा के नाम पर कच्ची उम्र के बच्चों को यह सिखाया जाने लगा हैं कि सुरक्षित ढंग से योन सम्बन्ध बनाने के क्या-क्या उपाय हैं। वाकई शिक्षा के मामले में इन कुछ सालों में देश ने काफी लंबा सफर तय किया है। जहाँ एक तरफ हम संस्कारों की दुहाई देते हैं तो एक तरफ आज के बच्चों को माता-पिता को प्रणाम करने में लज्जा आने लगी हैं।

अक्सर हमने सुना है कि

मातृदेवोभव । पितृदेवो भव ।

अर्थात माता-पिता देवता समान हैं

माता-पिता एवं घर के सभी बडे व्यक्तियों को झुककर अर्थात उनके चरण छूकर प्रणाम करना चाहिए । माता-पिता तथा गुरू की सेवा करना, सबसे उत्तम तपस्या है। पर आज की शिक्षा के गिरते स्तर की वजह से बच्चें अपने माता-पिता का आदर-सत्कार करना भी भूल गयें हैं।

बच्चों का अधिकतर समय शिक्षा में बीत तो रहा हैं पर अधिकांश बच्चें शारीरिक रूप से कमजोर होने लगे हैं। आज छोटे-छोटे बच्चों की आँखों पर चश्मा नजर आने लगा हैं। भारी भरकम बैग, किताबों के बोझ की वजह से बच्चों के विकास स्तर को गिरा रहा हैं। आजकल बच्चों को पढ़ने के लिए दी जाने वाली पुस्तकों का स्तर गिरा हुआ होता हैं क्यूंकि आजकल निजी विद्यालयों में बच्चों की पुस्तकों में भी कमिशन प्राप्त करने की लालसा व्याप्त हो चुकी हैं। जिस पुस्तक विक्रेता ने ज्यादा कमिशन दिया उसी पुस्तक को विद्यालयों में पढ़ाया जाता हैं। चाहे पुस्तक का स्तर कैसा भी हो।

सरकारी विद्यालयों में मुफ्त किताब तो मिल जाती हैं पर वहां शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यार्थी नदारद हो चुके हैं। छोटें-छोटें गांवों की सरकारी स्कूलों के शिक्षिक खुद ही ठीक से ए बी सी डी नहीं जानते और बच्चों को गलत शिक्षा देते हैं हैं। प्रायः देखने को मिलता हैं कि गणित, हिन्दी और समाजिकज्ञान पढ़ाने के लिये एक ही शिक्षक होता हैं और विज्ञान के नाम पर सिर्फ सवाल-जवाब रटायें जाते हैं।

सवाल उस व्यवस्था पर भी उठता है जो चैदह साल तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का दावा तो करती है पर असल में कई जगहों पर तो ब्लैक बोर्ड तक नहीं होता हैं। कुर्सी-टेबल और किताबें तो दूर कि बात है खुद शिक्षकों को पूर्ण जानकारी नहीं होती हैं। सरकारी विद्यालय के शिक्षिक सिर्फ नाम के शिक्षक बन चुके हैं। ये उनकी गलती नहीं हैं गलती हमारी हैं जो हम सही निर्णय नहीं ले सकते हैं। सरकारी शिक्षक भारी भरकम फीस तो सरकार से लेते हैं पर उस फीस के बदले बच्चों को शिक्षा देने के लिए पिछड़ चुके हैं। प्रायः हमने देखा है कि सरकारी स्कूलों में महिला शिक्षिक विद्यालय में अपने घरेलू कार्य करती हुई नजर आती हैं।

निजी विद्यालय भी दूध के धुले नहीं हैं। कई महंगे निजी विद्यालयों में अच्छी शिक्षा के नाम पर बच्चों को हिन्दी पढ़ाना तक बन्द कर दिया गया हैं। कई विद्यालयों में हिन्दी में बात करने पर भी फाइन लिया जा रहा हैं। निजी विद्यालय शिक्षा के नाम पर भारी भरकम फीस वसूल कर रहे हैं। फिर भी विद्यालय में पढ़ाई नहीं हो रही हैं और बच्चों को ट्यूशन का सहारा लेना पड़ रहा हैं। निजी विद्यालय में शिक्षिक पढ़ाते तो हैं पर बच्चों पे शिक्षा के नाम पर किताबों का इतना बोझ लाद दिया हैं कि उन्हें पूर्णतः शिक्षा नहीं दे पाते हैं। मतलब साफ हैं कि अब बच्चें कहीं भी पढ़े उनका हनन होना स्वभाविक हो चुका हैं। संस्कार के नाम पर तो हर विद्यालय ने पल्ला झाड़ लिया हैं। बच्चों के कपड़े धुले होने जरूरी हैं पर उनका मन साफ और पवित्र बने ये इस बात पर कोई भी विद्यालय ध्यान नहीं देता हैं।

सही मायने में देखा जाएँ तो संस्कार ना तो सरकारी विद्यालयों में पढ़ने से आता हैं और ना ही निजी विद्यालयों में परोसे जाते हैं। संस्कार मिलते हैं घर से, समाज से, किताबों से और अच्छी सोहबत से। माता-पिता, गुरू का कर्तव्य है कि बच्चों को संस्कार दें, उनके सदगुणों को बढ़ाएं एवं दोषों का घटाएं । उनमें अच्छी आदतों का परिवेश करें और बुरी आदतों को निकाल फेंके। तभी आप एक बच्चे को शिक्षित के साथ सुसंस्कारित कर सकते हैं। बच्चे का मन कोरे कागज की भांति हैं आप जैसे शब्द लिखेंगे बच्चा वैसा ही उसका आचरण करेगा। जिस दिशा में उसे आप ले जाना चाहोगे वो उसी दिशा की ओर प्रगतिशील होगा।

बच्चों का हृदय कोमल होता हैं। आप उसे जैसा परोसेंगे वैसा ही वो ग्रहण करेंगे। इसलिए इन्हें लापरवाही कि नहीं, इन्हें बहुत ज्यादा परवाह की जरूरत होती है। उनका मन बिल्कुल कांच की परत जैसा हैं उनके मन को बहुत ही संभाल कर रखना, बिल्कुल संभाल कर उठाने की जरूरत हैं। अगर हमारी एक बार गलती से भी चटक पड़ गई तो फिर वो बच्चा पूर्ण रूप से भटक जायेगा। बालक को बचपन से लेकर हर पल अच्छी शिक्षा, संस्कार और सार सम्भाल की पूर्ण रूप से जरूरत होती हैं जिसके लिए अभिवावकों को पूर्ण सहयोग करना होता हैं। दुत्कार से भरा हुआ, झिड़क से भरा हुआ, संस्कारों से वंचित बचपन उम्र भर की टीस देता है।

एक बच्चे का मानसिक विकास और निडर होकर हंसना-खेलना, गलतियां करना उतना ही जरूरी है जितना वक्त पर पढ़ना-लिखना, खाना-पीना और सोना। अफसोस हम अपनी आने वाली पीढ़ी के खान-पान, रहन-सहन की अहमियत तो समझते हैं पर सबसे अहम उसके बचपन की कद्र नहीं कर पाते हैं। बालक अपराध की डगर पे तभी चलता हैं जब उसकों बचपन में शिक्षा, संस्कार और सुविचारों से वंचित रखा जाता हैं। ये नहीं हैं कि शिक्षित व्यक्ति अपराधी नहीं बन सकता। शिक्षित व्यक्ति भी अपराधी बन सकता हैं जब उसे शिक्षा तो मिलती हैं पर संस्कार और सुविचार से वंचित रखा जाता हैं। कुछ अभिभावक तो ऐसे भी हैं, जो बच्चों की शिक्षा और आत्मनिर्भरता के लिए उदासीन रहते हैं। बच्चों से अधिक लाड़ प्यार करने से वो अपने जीवन मूल्य से भटक रहे हैं। ऐसी स्थिति में प्रत्येक समझदार अभिभावक का यही दायित्व बनता है कि वह अपने बच्चों की परवरिश के साथ-साथ संस्कार का निर्माण करना न भूलें।

आधुनिक युग में माता-पिता भी बच्चों को स्कूलों के भरोसे छोडकर अपने कर्तव्य पूर्ण समझ लेते हैं पर देखा जाए तो हमारा ये व्यवहार उनके साथ कहीं ना कहीं अन्याय कर रहा हैं। क्योंकि वर्तमान शिक्षा प्रणाली का ये सबसे बडा दोष है कि इसमें सिर्फ बौद्धिक विकास को ही महत्व दिया गया है। संस्कृति एवं संस्कार पक्ष को तो पूरी तरह से त्याग दिया गया है। शारीरिक और मानसिक तौर पे उन्हें अनदेखा किया जा रहा हैं। ऐसे में हम लोग किस प्रकार ये अपेक्षा कर सकते हैं कि बच्चों का समग्र विकास हो पाएगा।

आज की बात करें तो आधुनिक शिक्षा प्रणाली पहले की शिक्षा से बहुत आगे है। परन्तु साथ ही ये भी सत्य है और जिससे हम मुख नहीं फेर सकते कि ये आधुनिक शिक्षा चरित्र निर्माण करने में असमर्थ है। पुस्तकों की संख्या तो बढ़ गई हैं। बच्चों को बचपन से कंप्यूटर जैसी आधुनिक शिक्षा भी प्राप्त होने लगी हैं पर बच्चों को वंचित कर दिया नैतिक शिक्षा, हिंदी भाषा एवं संस्कृत भाषा से। जिन पुस्तकों से संस्कार मिल सकते थें वो ही पुस्तकें आज बच्चों के भारी भरकम बैग से गायब हैं।

निजी विद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों से गिटर-पिटर अंग्रेजी तो सिख रहे है पर हमारे देश का इतिहास, महान पूर्वजों का योगदान और उनकी जीवनियाँ जो आजकल की पुस्तकों से नदारद हो चुकी हैं। आजकल के बच्चें देशी और विदेशी फिल्मों के अभिनेता और अभिनेत्रियों के विषय में तो सम्पूर्ण जानकारी रखते है और उन्हीं का काफी हद तक अनुसरण भी कर रहे हैं। लेकिन अगर उनसे हमारें इतिहास और हिन्दुस्तान के सच्चे और हकीकत के हीरो रहे किसी भी व्यक्तित्व के विषय में पूछा जाय तो शायद ही ठीक जानकारी दे पाए और जो जानकारी रखते भी है उनकी संख्या बहुत कम होगी।

निजी विद्यालयों के बच्चों से कबीर जी, तुलसीदास जी, सूरदास जी, मुंशी प्रेमचन्द जी, जयशंकर प्रसाद जी, मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा जी इत्यादि के बारे में पूछ लिया जाय तो वो एक दुसरे की बगलें झांकने लगेंगे पर उन्हें हनी सिंह, मल्लिका शेरावत, पुनम पांडे, सनी लियोन के बारे में पूछेंगे तो वो शर्तिया उनके जीवन सचरित्र वर्णन कर देगा। हमारे देश के राष्ट्रगीत वंदेमातरम् की भले ही उन्हें एक या दो लाइन आती होंगी। हां पर वो आपको हनी सिंह और आजकल के भड़काऊ गानें, ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार, हम्टी डम्टी पूरा सुना देगा।

मतलब साफ जाहिर हैं बच्चों के अंदर सही तरह की शिक्षा ना भरकर उन्हें किताबी कीड़ा बनाया जा रहा हैं जिससे वो ना तो खुद का सही रूप से विकास कर पाते हैं ना ही आने वाले समाज का विकास कर पायेंगे। नैतिकता का हनन जारी हो चूका हैं। बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा हैं। अभिभावक अपनी जिम्मेदारियों से भाग रहे हैं। संस्कार नाम का पाठयक्रम सिर्फ शास्त्रों तक सिमित हो चूका हैं। शिक्षा का जिस तरह से बाजारीकरण हुआ हैं उसे यही ज्ञात होता हैं की आने वाला भविष्य बहुत अंधकारमय होगा। शिक्षा के नाम पर सिर्फ किताबों का बोझ मिलेगा। बच्चों को व्यवहारिक ज्ञान से वंचित रखा जाएगा। महंगी शिक्षा से बच्चों का समाजिक विकास तो हो जाता हैं पर बच्चें मानसिक विकास में पिछड़ रहे हैं।

आज हमें बदलाव की बहुत सख्त जरूरत है। बच्चों को शिक्षा के साथ संस्कार, आदर-सत्कार, व्यवाहरिक ज्ञान की शिक्षा बहुत जरूरी है। इसलिए हमें अभिभावक, शिक्षण संस्थान, सरकार और प्रशासन को बताना होगा कि

युवा पीढ़ी को अच्छी शिक्षा एवं संस्कार चाहिए

नैतिकता का ना हो पतन, ऐसा आधार चाहिए

गूंज उठे घर - घर में, वंदेमातरम् का शंखनाद

बच्चों की पुस्तकों में, देशभक्ति का सार चाहिए

मिले शिक्षा हमें भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता में

पाश्चात्य संस्कृति का हनन एवं तिरस्कार चाहिए

जात -पात, धर्म के नाम पे, ना हो कोई भेदभाव

बच्चों की शिक्षा में, अपनापन और प्यार चाहिए

मानवीय मूल्यों, आदर्शों व नारी का ना हो पतन

मातृभूमि की रक्षा के लिए अब तारणहार चाहिए

युवा पीढ़ी को ना लगे माता - पिता, बुजुर्ग बोझ

‘ऋषि’ शिक्षा में संस्कार व आदर सत्कार चाहिए

हमारें देश में जिस तरह से अपराध और भ्रष्टाचार बढे़ है और जिस तरह से भारतीय संस्कृति, सभ्यता, नैतिकता, संस्कार, मानवीय मूल्य, एवं नारी का पतन हो रहा है उसे देखते हूवे हमारी ये मांगे गलत नहीं है। अगर बच्चें को सुसंस्कारित बनाना है तो हमें अच्छी शिक्षा, अच्छे संस्कार एवं मानसिक विकास की बहुत आवश्यकता है। तभी हम एक सभ्य समाज और सुन्दर देश का निर्माण कर सकते है।

प्रायः अक्सर देखने को मिलता हैं कि अभिभावक अपने बच्चें की भौतिक सुख-सुविधाओं के साधन, शिक्षा एवं चिकित्सा के साधन तो उपलप्ध करा देते हैं पर उनके लिए सर्वांगीण विकास के अवसर नहीं खोज पाते और ना ही उनको संस्कार देते हैं वो समझते हैं कि विद्यालयों में पढ़कर बच्चे आधुनिक रूप से विकसित हो जायेंगे और रहन-सहन, समाज में जीने के तौर-तरीके बहुत अच्छे ढंग से सीख सकते हैं। कुछ हद तक उनकी सोच सही भी हो सकती हैं परन्तु सिर्फ सामाजिक तौर तरीके ही जीवन नहीं है।

सत्य तो यह है कि जिस शिक्षा प्रणाली में संस्कृति के मूल पर ही कुठारघात हो, उससे संस्कार निर्माण की अपेक्षा करना तो एक प्रकार से मूर्खता है। आज आवश्यकता इस बात कि है कि बच्चों को निरंतर ऐसा वातावरण मिले और उनके शिक्षा प्रणाली में कुछ ऐसी चीजें जुडें, जो उन्हे बौद्धिक विकास के साथ-साथ भावनात्मक और नैतिक विकास के शिखर तक पहुंचा सके और जिससे वो सुसंस्कारित बन सके।

वास्तविक शिक्षा वह है जिससे व्यक्ति के चरित्र का निर्माण हो, व्यवहारिक ज्ञान हो। आजादी के बाद वाले सालों में देश के शैक्षणिक परिदृश्य में व्यापक बदलाव हुए हैं। पर कहा जाए तो शिक्षा का उद्देश्य ही बदल गया है। पूंजीवाद के मौजूदा दौर में शिक्षा का उद्देश्य भी अधिक से अधिक धन अर्जित करना हो गया है। अगर प्रगति का पैमाना इसे ही माना जाए तो सचमुच देश ने काफी तरक्की की है।

भारत में शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर तो बन रहे हैं पर शिक्षा प्राप्त कर वो विदेशों की तरफ रुख कर लेते हैं। जिससे हमारा देश का बड़ा वर्ग प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम रहता है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाली इस तगड़ी फौज से देश को कोई लाभ हो या न हो पर दूसरे देशों को फायदा ही फायदा जरुर हो रहा है। और ये फायदा विदेशों को हो भी क्यों नहीं, आज हमारी शिक्षा पद्धति जो पाश्चात्य संस्कृति के में रंग चुकी है शिक्षिक बच्चों को विदेश में अधिक पैसा होने की शिक्षा दे रहे है। उन्हें वहीं के तौर तरीके शिक्षा में सीखाएं व समझायें जा रहे है अब भला बच्चों का मोह विदेश की ओर अग्रसर क्यों नहीं होगा। इसी वजह से आज हमारे देश के अधिकांश बच्चों की पहली पसन्द विदेशी मुल्क हो गया हैं। बच्चों को वहां अपना भविष्य उज्जवल और हमारे देश में अंधकारमय लगने लगा है। मतलब फौज हमनें खड़ी की ओर फायदा कोई दुसरा मुल्क उठा रहा है।

भारत में जहां शिक्षा का प्रतिशत बढ़ा है वहीं आज बहुत से बच्चें शिक्षा के अभाव में जिन्दगी बसर कर रहें है। तुलनात्मक दृष्टि से देखे तो हमारे देश में साक्षरता दर में वृद्धि जरुर हुई हैं। 1951 में साक्षरता दर महज 18.33 फीसदी थी जो 2007 तक 67.6 हो चुकी थी। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 70 प्रतिशत व्यस्क निरक्षर नौ देशों में रहते हैं। जिसमें सर्वाधिक 24.74 प्रतिशत निरक्षर भारत में है।

भारत में तकरीबन 65 लाख शिक्षक हैं। अब एक रोचक बात यह कि प्राथमिक विद्यालयों में पच्चीस प्रतिशत शिक्षक डयूटी से अक्सर गायब रहते हैं। देश के ग्रामीण इलाकों में कई स्कूल तो ऐसे भी हैं जहां सरकारी अध्यापकों ने आवाजाही से निजात पाने के उद्देश्य से किसी ग्रामीण को ही सरकारी विद्यालय में नियुक्त कर दिया है। बेरोजगारी की जबर्दस्त मार झेल रहे इस देश में युवा हजार से दो हजार रुपए प्रतिमाह पर शिक्षक बनने के लिए तैयार रहना उनकी मजबूरी बन गया है।

तात्पर्य यही हैं कि यह व्यवस्था पूरी तरह से अनैतिक और गैरकानूनी है। गौरतलब है कि देश के उन्नीस प्रतिशत प्राथमिक विद्यालय सिर्फ एक शिक्षक के सहारे चल रहे हैं। सरकार इन विद्यालयों में शिक्षकों की संख्या बढ़ाने की बजाय तमाम निरर्थक योजनाओं पर पानी की तरह पैसा बहा रही है। स्कूल में बैठने की जगह नहीं और शिक्षकों को कम्प्यूटर का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। देश के ढेरों शिक्षण संस्थान संसाधनों के अभाव से दो-चार हो रहे हैं। बहुत सी विद्यालयों में तो ब्लेक बोर्ड, पुस्तकों का अभाव देखने को मिल रहा हैं।

सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की कमी के कारण निजी विद्यालय मनमानी करने लगी हैं। हर साल फीस में वृद्धि। किताबे व नोट बुक भी उनसे लेनी पड़ रही हैं जो बजार भाव से महंगी मिलती हैं। रोज नये-नये प्रोजेक्ट बनवाते हैं। अब बच्चे पढ़ाई करें या फिर प्रोजेक्ट पूरा करें। प्रोजेक्ट का खर्च भी माता-पिता को वहन करना पड़ता हैं। एक तरफ विद्यालय कि भारी भरकम फीस, पुस्तकों का बड़ा खर्च और ऊपर से प्रतिदिन प्रोजेक्ट के खर्च का भार। सबसे बड़ी बात छोटे-छोटे बच्चे जिनकों सही से बोलना व लिखना भी नहीं आता हैं उन्हें भी प्रोजेक्ट बनाने को दे दिया जाता हैं। बच्चें अगर प्रोजेक्ट पूरा ना करें तो उनके मार्क्स काट लिए जाते हैं। एक तो महंगाई और ऊपर से शिक्षक की मार व डांट का भय रहता हैं। अब उन छोटे-छोटे बच्चों का प्रोजेक्ट अभिवकों को ही पूरा करके देना पड़ता हैं।

उन प्रोजक्टों की मार भी बच्चें इसलिए झेल रहे है क्योंकि निजी विद्यालय के शिक्षक बाहरी दुकानदारों से मिलकर कमीशन प्राप्त करने की जुगाड़ में रहते है। अगर अभिवावक शिक्षकों से बात भी करें तो उन्हें बच्चों के भविष्य का तंज देकर उन्हें चुप करवा देते हैं। अभिवावक भी इस महंगाई के दौर में इस तरफ फंस गया हैं कि वो बच्चे के भविष्य की सोचकर उसे अच्छे से अच्छे स्कुल में दाखिला करवाने का प्रयत्न करता हैं। और प्रायः देखा जाए तो शिक्षा फैशन बन चुकी हैं। आज जितना वजन बच्चों का नहीं होता उससे कहीं अधिक वजन उनके बैग का होता हैं। सरकारी विद्यालयों में पुस्तकें कम हैं तो वहां शिक्षा के नाम पर शिक्षक नहीं हैं और निजी विद्यालयों में शिक्षिक हैं तो भारी भरकम पुस्तकों का बोझ खड़ा हैं।

निजी विद्यालयों ने सरकारी विद्यालयों की गलतियों का फायदा उठाया और आज निजी विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने वालें बच्चों की संख्या में तीव्रता से वृद्धि हो रही हैं। निजी विद्यालयों द्वारा अभिभावकों को उनके बच्चों के भविष्य का प्रलोभन देकर उन्हें अपनी शिक्षण संस्थान से जोड़ने का भरपूर प्रयत्न कर रहे हैं। अभिभावक भी बच्चों की शिक्षा से पहले बच्चों के लिए विद्यालय में उसकी निजी जीवन की जरूरत देखते हैं। मतलब शिक्षा और संस्कार ये दोनों मात्र शब्द प्रायः हो चुके हैं।

लेकिन कहां गया है कि

सुखार्थी त्यजते विद्यां विद्यार्थी त्यजते सुखम्

सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम्

अर्थात जो व्यक्ति सुख के पिछे भागता है उसे ज्ञान नही मिलेगा तथा जिसे ज्ञान प्राप्त करना है वह व्यक्ति सुख का त्याग करता है। सुख के पिछे भागने वाले को विद्या कैसे

प्राप्त होगी ? तथा जिसको विद्या प्रप्त करनी है उसे सुख कैसे मिलेगा ?

इसलिए आज माता-पिता को समझना चाहिए कि शारीरिक सुविधायें कि जगह बच्चों के लिए ऐसे विघालय का चयन करें। जिसमें उसकों संस्कार मिल सके। जहां उसके चरित्र का निर्माण हो सके। जहां बच्चों का मानसिक विकास हो सके।

वर्तमान में शिक्षा का चिंतन व शिक्षा का प्रथम उद्देश्य बच्चों को एक परिपक्व इन्सान बनाना होता है, ताकि वो कल्पनाशील, वैचारिक रूप से स्वतन्त्र और देश का भावी कर्णधार बन सकें। अब हमें बदलाव का दौर लाना होगा। समय की रेत में उन्हें धूमिल नहीं होने देंगे। शिक्षा के स्तर में बदलाव लाने का प्रयत्न करेंगे। बच्चों को संस्कार की शिक्षा देकर उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से प्रबल बनाने का प्रयत्न करेंगे।

कुछ समय पूर्व आई हिंदी फिल्म थ्री इडियट में जो कहानी दर्शायी गई थी वो आज के दौर की सही रूप से हकीकत हैं। आज हम रट्टामार छात्र को पैदा कर रहे है, लेकिन वैचारिक रूप से स्वतन्त्र और परिपक्व छात्र नहीं। वो सिर्फ किताबी कीड़े बनकर ही रह गये हैं। उन्हें ना व्यवहारिक ज्ञान होता हैं ना ही नैतिक ज्ञान। वो अपनी शिक्षा में इस कद्र खोये हुवे हैं कि उन्हें जिन्दगी की मुलभुत बातों का भी ज्ञान नहीं होता हैं।

आजकल बच्चों के संस्कारों का हनन तो हुआ ही हैं साथ में बच्चों का शिक्षा के प्रति मायने ही बदल गयें हैं। अब बच्चे उसी प्रकार की शिक्षा पाना चाहते हैं जिसमें सबसे ज्यादा शोहरत और पैसा हो। पहले बच्चों से पूछा जाता था कि बडे़ होकर क्या बनोगे तो उनका जवाब होता था डाक्टर, इन्जीनियर, पायलट, शिक्षिक और सैनिक। उस वक्त बच्चों के लिए पैसा सर्वोपरी नहीं होता था। उनके अंदर देश सेवा, माता-पिता का नाम रोशन करने का जज्बा होता था। पर अब के बच्चों से पूछते हैं तो बच्चे उसी तरफ भाग रहे हैं जहाँ सबसे ज्यादा पैसा हो। जहाँ उनकी मुलभुत आवश्यकताएं पूरी हो सके। पर क्या शिक्षा सिर्फ पैसा ही हैं ? सोचनीय प्रश्न यह हैं कि क्या हम बच्चों का मार्गदर्शन सही दिशा में कर रहे है ?

आजकल अभिभावकों के लिए भी शिक्षा के मायने ही बदल गये हैं। शिक्षा को सिर्फ एक इन्वेस्टमेंट का रूप में देखने लगे हैं। अभिभावक सिर्फ यही चाहता हैं कि जल्द से जल्द शिक्षा पूरी हो जाएँ और किसी ना किसी कार्य में फिट हो जाये। मतलब साफ हैं शिक्षा अर्थात सिर्फ रोजगार या व्यापार। क्या पढ़ा, क्या सिखा इससे किसी को कोई मतलब नहीं रहा हैं। शिक्षा का जीवन में क्या महत्व हैं इस पर ध्यान नहीं हैं बस ध्यान हैं तो शिक्षा पूरी हो और कहीं ना कहीं बस फिट हो जाये। माता-पिता के लिए भी बच्चा इन्वेस्टमेंट बन चूका हैं। पैसा लगाओ और जल्द से जल्द पैसा वापस पाओ। बच्चे का इसमें कोई दोष नहीं हैं माता-पिता ही उसे इस कदर शिक्षित कर रहे हैं कि वो बच्चा कम और पैसा कमाने की मशीन ज्यादा नजर आने लगा हैं। क्या शिक्षा का यही उद्देश्य हैं ? या फिर हम लोगो का सोचने के मायने ही बदल गये हैं। या यूँ कहें हम ज्यादा स्वार्थी हो चुके हैं।

अगर आप अपने बच्चों को जीवन जीने की कला सिखाना चाहते हैं तो आपको उनके अंदर अच्छे संस्कारों के साथ-साथ अच्छी शिक्षा की सिंचाई करनी होगी। शिक्षा और संस्कार वो कला हैं। जहां शिक्षा हमे जीवन निर्वाह की कला सिखाती है तो वहीं संस्कार हमें जीवन निर्माण की कला सिखाते है।

शिक्षा और संस्कार वो पेड़ हैं जो हमें छाया के साथ फल भी देता हैं। वह एक ऐसा माध्यम हैं जो हमें नई सोच और नया सवेरा देता हैं। हमें व्यवहारिक और नैतिक ज्ञान देता हैं। एक अच्छे समाज का निर्माण करने में मदद करता हैं। शिक्षा एवं संस्कार दोनों एक दुसरे के पूरक हैं मतलब किसी एक से वंचित रहना मतलब खुद को खुद से वंचित रखना। शिक्षा हमें संस्कारों को समझने, उसमें ढलने और बदलती समाजिक परिस्थितयों को समझने और उनका अनुसरण करने की समझ देती हैं। उसी तरह संस्कार भी हमें शिक्षा के नैतिक मूल्यों व मानवीय मूल्यों को समझने का मार्गदर्शन करता हैं।

आज जिस तरह शिक्षा उच्च मुकाम पर पहुँच रही हैं वही उसमें आमूल परिवर्तन करने की भरपूर जरूरत हैं। शिक्षा के साथ संस्कार की शिक्षा भी अनिवार्य करनी चाहिए। महापुरुषों के योगदान और उनकी जीवनी, शिक्षा के माध्यम से बच्चों को पढने के लिए उपलब्ध करनी होगी। जब उन्हें महापुरुषों और देश के लिए शहीद हुवे सच्चे वीरो की गाथा पढ़ने को मिलेगी, तब उन पर इसका गहरा प्रभाव अवश्य ही पड़ेगा और वो इन सबके नैतिक मूल्यों को अपने अंदर विसर्जित करने की कोशिश करेंगे।

बच्चें कच्ची मिट्ठी की तरह होते हैं जैसे एक कुंभार (मिट्टी के बर्तन बनाने वाला) मिट्ठी के ढ़ेले को जैसा भी आकार देता हैं तो ढ़ेला उसी आकार में ढल जाता हैं वैसे ही बच्चे सिखाने से नहीं सीखते। बच्चे सीखते हैं अपने माता-पिता और बड़े-बुजर्गों को देखकर। यदि हमें अपने बच्चों से अच्छे आचरण और अच्छे संस्कारों की उम्मीद करनी है तो सबसे पहले हमें आचरणवान और संस्कारवान बनना होगा। अच्छे आचरण और अच्छे संस्कार वो ही माता-पिता दे सकते हैं जिन्होंने अपने जीवन में सही आचरण और सही संस्कारों को अपनाया हैं।

बच्चों का पहला गुरु उसके माता-पिता होते हैं जो उन्हें सिखने को देते हैं बच्चा वो ही सीखता हैं। अभिभावक अगर अपने माता-पिता का आदर-सत्कार करेंगे तो उनकी सन्तान भी उनका अनुसरण करेगी। आप प्रतिदिन किसी की निंदा करोगे तो बच्चा भी आपका अनुसरण करेगा। मतलब साफ हैं आप जिस तरह की राह उन्हें दोगे, बच्चे उसी तरह की जीवन गाड़ी उस राह पे चलाएंगे। आप जिस तरह का व्यवहार अपने माता-पिता, बुजर्गों के साथ करेंगे, बच्चें आने वाले कल में वहीं व्यवहार आपके साथ दोहराएंगे। अगर आप अपने माता-पिता का सहारा बन उन्हें मन्दिर लेकर जायेंगे तो आपके बच्चे भी आपको मन्दिर लेके जायेंगे और अगर आप आपने माता-पिता को वृद्धाश्रम का द्वार दिखाएँगे तो आपके बच्चे भी बड़े होकर आपके साथ वही व्यवहार करेंगे।

कबीर जी ने कहाँ था की

करता था सों क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय,

बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय।

अर्थात अगर तुम अपने आपको ही कर्ता मानते थे तो फिर जीवन में असफल ही क्यों हुए। इसका मतलब यह है कि तुम कर्ता नहीं हो कर्म के निमित्त हो। तुम अपने अहंकार में आके कृतित्व का भाव न रखते तो अपने आप को कर्ता न मानते। तब दुःख भी न पाते। अब पछताने से क्या होगा। जब परमात्मा की दी हुई शक्ति को ही तुमने अपना अहंकार बना लिया है। बबूल का पेड़ तुमने ही तो बोया था जिसमें कांटे ही कांटे हैं अब तुम उन पेड़ों से आम खाने की आशा कर रहे हो। तुमने ऐसे काम क्यों नहीं किये जो जीवन में सुख दे। सकाम कर्म करने का तुमने दंभ पाला था। इसलिए अब कष्ट भी तुम ही उठा रहे हो।

ये हकीकत हैं कि आप जिस तरह का पौध लगाओगे आपको उसी तरह के फल प्राप्त होंगे। इसलिए सबसे पहले अभिभावकों को अपनी सोच-विचार को बदलना चाहिए। उनको एक सही नींव खड़ी करने के लिए सही राह का चुनाव करना चाहिए तभी उनको एक सक्षम व्यकित्व से लिप्त बालक मिलेगा।

आज बच्चों को जीवन की समग्रता के लिए देशप्रेम, संस्कृति, परम्परा, अनुशासन, सच्चाई, सेवाभावना, विनय, राष्ट्रभक्ति आदि अनेक मूल्यों को सिखाने की जरूरत है। और यह कार्य सिर्फ बच्चे के अभिभावक और गुरू कर सकते है।

अभी भी समय हैं, निंद्रा से जागो, खड़े हो जाओ और बिगड़ती हुई शिक्षा प्रणाली को बचा लो। वरना आने वाला समय सिर्फ अंधकारमय रौशनी देगा। इसलिए समय रहते बदलाव के लिए आगे बढ़ो। आज सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है भावी पीढी को सुसंस्कारित करना और इसकें लिए हमें समय रहते अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए सही मार्ग बनाना होगा। जिससे उन्हें लड़खड़ाना ना पड़े और ना ही उन्हें गलत दिशा का चुनाव करना पडे़।

आधुनिक शिक्षा और संस्कार चाहे किसी भी युग के हो, हर युग का भविष्य उसकी आने वाली अग्रिम पीढ़ी पर ही निर्भर करता हैं। इसलिए सबसे पहले बदलाव के लिए बच्चों को भारी भरकम बैग के बोझ से मुक्त करना चाहिए। शिक्षा को ना केवल किताबी ज्ञान बल्कि व्यवहारिक ज्ञान के रूप मंे प्रदान करना चाहिए। हमें रट्टामार की छाप से बच्चों को निकालकर उनका मानसिक विकास करना चाहिए। बच्चों पे पड़ रहे अत्याधिक भार को कम कर उनके शारीरक, मानसिक विकास की ओर ध्यान देना चाहिए। शिक्षा में कम्पयूटर शिक्षा के साथ-साथ नैतिक शिक्षा, व्यवहारिक ज्ञान, भारतीय संस्कृति, संस्कार व भारतीय इतिहास की शिक्षा अनिवार्य करनी चाहिये।

आजकल बच्चों के लिए अंग्रेजी भाषा जरूरत का आधार मानी जा रही हैं पर हकीकत में बच्चों को संस्कृत और हिंदी भाषा ज्ञान सर्वप्रथम होना अतिआवश्यक हैं क्यूंकि संस्कार आपको अंग्रेजी भाषा से नहीं हमारी अपनी भाषा से ही प्राप्त हो सकता हैं इसलिए हर शिक्षण संस्थान में संस्कृत और हिंदी भाषा नियमित करना चाहिए। निजी एवं सरकारी विद्यालयों में सही रूप से शिक्षा के समान प्रावधान लागू करने चाहिए। निजी विद्यालयों की मनमानी पर रोक लगानी चाहिए। सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के पर्याप्त साधन उपलब्ध करवाने चाहिए।

सरकार शिक्षा में किये जा रहे भेदभाव को मिटाने की पहल करे । देशभर में एक तरह की शिक्षा प्रणाली लागू हो। जिससे देश में एक समान वातावरण बनने में सहूलियत हो। शिक्षकों को भी उनकी जिम्मेदारी से अवगत करवाना होगा। जब समाज को शिक्षा का दर्पण दिखाने वाला शिक्षक ही अपनी जिम्मेदारी भूलता है तब शिक्षा की नीति पूरी तरह से अक्षम हो जाती है।

अभिभावकों को अपनी सोच बदलनी होगी उन्हें अपने बच्चें को डॉक्टर, इंजीनियर, अकाऊटेंट, वकील, आई.एस.एस., आई.पी.एस. बनाने के साथ-साथ उन्हें एक अच्छा इंसान बनाने का भी ज्ञान देना होगा। बच्चों को ये भी सिखाना होगा कि शिक्षा का उद्देश्य केवल आजीविका का साधन मात्र ही नहीं है अपितु जीवन में निखार लाने वाली साधना भी है।

शिक्षा का मूल उद्देश्य बच्चों में अच्छे संस्कार एवं अच्छे आचरण सींच कर उन्हें सुसंस्कारित कर उन्हें समाज एवं देश के लिए सुयोग्य नागरिक बनाना हैं। शिक्षा उन्हें अज्ञानता, बुराइयां, घृणा, अंधविश्वास, दुर्भाव, लालसा, क्रोध, भेदभाव, वैमनस्य आदि नकारात्मक तत्वों से उन्हें मुक्त रखती हैं। जो हम अपने बच्चों को सिखाते हैं वो ही सब हमें अपनाना चाहिए अन्यथा हम जो भी शिक्षा बच्चों को देंगे उसका प्रभाव उन पर कभी नहीं पड़ेगा।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है, जिसमें बदलाव की बहुत सख्त जरूरत है। ऐसी शिक्षा भी हमारें किस काम की हैं जो हमें माता-पिता, गुरुजनों, बड़े-बुजर्गों, संस्कृति, शास्त्रों और देश का सम्मान करना न सिखाए। अभी तक शिक्षा ने काफी लंबा सफर तय किया। पर जहां खेलने-पढ़ने की उम्र में तकरीबन छह करोड़ बच्चे मजदूरी करने पर बाध्य हों और पचास फीसदी लड़कियों की शादी पढ़ने की उम्र में कर दी जा रही हो, वहां व्यापक सुधार की दरकार है। चारों तरफ भ्रष्टाचार, अपराध और असुरक्षा का बोलबाला यह दर्शाता है कि कहीं न कहीं देश की शिक्षा पद्धति में खोट है।

आज हम बहुत आगे निकल आये है और समय को पिछे छोड़ दिया है। समय की रेत समय के अनुसार उड़ रही हैं पर हम समय के अनुसार कब चलेंगे यह प्रश्न अभी तक सोचनीय हैं। जिस तरह से अपराध बढ़ रहे हैै। नारी के साथ रोज कोई न कोई अनहोनी हो रही हैं। आतंकवाद का साया हर पल हम पर मंडरा रहा हैं। रोज नये वृद्धाश्रम खुल रहे हैं इससे तो यही लगता हैं कि हमारी शिक्षा का स्तर बढ़ा नहीं घट गया हैं। संस्कार तो चैपाल की तरह हो चूका हैं जो धीरे-धीरे लुप्त हो रहा हैं।

माता-पिता को अब सोचना होगा कि उसे बच्चे का विकास चाहिए या विनाश। क्योंकि आज भी बहुत से ऐसे विद्यालय है जहां अच्छी शिक्षा देकर बच्चों को गुणवान और संस्करवान बनाया जाता है। बस उन्हें अपने बच्चे के भौतिक सुख के साथ-साथ अच्छे विद्यालय का भी ध्यान रखना होगा। जहां फैशन नहीं शिक्षा दी जाती हो। जहां अच्छे संस्कारों का पाठ पढ़ाया जाता हो। बस ध्यान रहे कि हमारे देश में ऐसे विद्यालय बहुत कम बचे है इसलिए बच्चों का भविष्य तय करने से पहले विद्यालय की समस्त जानकारी प्राप्त करे। और प्रतिदिन बच्चों को वक्त देकर उसकी शिक्षा को जाने और समझे कि उन्हें क्या पढ़ाया जा रहा और क्या सिखाया जा रहा है।

आपका एक गलत चुनाव बच्चों का भविष्य बिगाड़ सकता है इसलिए दिखावे की हौड़ ना करके, बच्चों को अच्छे जीवन और अच्छे भविष्य की ओर अग्रसर करें। वरना आपकी एक गलती की वजह से बच्चेे को, परिवार को, समाज और देश को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसलिए समय रहते जागृत हो जाये और बच्चे को सुसंस्कारित कर सबका उज्जवल भविष्य बनाये। और जहां ये लगे कि बच्चे को गलत शिक्षा दी जा रही है वहां आवाज उठाये और विद्यालय, प्रशासन, सरकार को उसकी गलती का अहसास करवायें।

वक्त रहते माता-पिता, गुरू को अपना कर्तव्य समझना होगा। बच्चे को नैतिक ज्ञान, मानवीय और जीवन मूल्य का ज्ञान उसे समय रहते देना होगा। बचपन से ही उसे सबके प्रति आदर (खासकर लड़को को नारी के प्रति) जीव-जन्तु एवं प्रकृति के प्रति प्रेम, मानव के प्रति इंसानियत, समाज के लिए अच्छे आचरण, देश के लिए राष्ट्रप्रेम की शिक्षा देनी चाहिए। और बच्चों को भी अपनी जिम्मेदारी समझ आये, उसके लिए माता-पिता को उसे बचपन से सुंस्कारित करना चाहिए।

इसलिए आओ हम सब मिलकर माता-पिता, विद्यालय, समाज, प्रशासन और सरकार को उनके कर्तव्य का बोद्ध करवायें और हमारी दंश मारती शिक्षा प्रणाली में बहुमूल्य बदलाव करने के लिए आवाज उठाये। और बच्चों को शिक्षा के साथ-साथ सुसंकारित करने में अपना अहम् कदम बढायें। उनका मानसिक व नैतिक स्तर गिरने से बचायें। उन्हें व्यवाहरिक ज्ञान देकर देश को एक अच्छे निर्माण की ओर अग्रसर करें। अगर हम बदलेंगे समाज बदलेगा और जब समाज बदलेगा तो एक अच्छे राष्ट्र का निर्माण होगा।

वरना समय की रेत जिस तरह से गतिमान है उसे सिर्फ विनाश ही विनाश होगा। ना हम सुरक्षित होंगे, ना ही हमारा देश। समय की रेत को समझना होगा और चिन्तन कर उसका मन्थन करना होगा तभी हमें हमारी सही दिशा व दशा का ज्ञान होगा। और तभी एक सुन्दर नींव खड़ी करने में हम सही राह का चुनाव करेंगे।

ऋषि अग्रवाल

(समय की रेत)