सोशल मीडिया में दलित मुद्दे पर गरमागरम बहस Dr Musafir Baitha द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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सोशल मीडिया में दलित मुद्दे पर गरमागरम बहस

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सोशल मीडिया पर हिंदी दलित विमर्श

आजकल दलित विमर्श चहुँओर धकाधक चल रहा है, हिंदी हलके में भी पुरजोर. विज्ञान-तकनीक के आधुनिकतम यंत्रों-तंत्रों में से एक इंटरनेट के जरिये उद्गमित सोशल मीडिया का हिंदी हृदय भी स्वभावतः इससे अछूता नहीं है। यह ऑनलाइन विमर्श सोशल मीडिया यानी ब्लॉग, फेसबुक, ट्विटर, वेबसाइट, आदि के जरिये खूब चल रहा है. यह व्यापक खुला मंच है, हर कोई को जहाँ अपनी बात कहने का अधिकार है, मौका है। यह शक्ति है इसकी, लोकधर्मिता है। यहाँ तक कि लापरवाह-उच्छृंखल अभिव्यक्तियों पर भी यहाँ कोई रोक-टोक नहीं है। हम यहाँ अपना, खुद का सोशल मीडिया सिरज कर भी दूसरों के सामने, अपनों के सामने अपनी बात रखने, पहुँचाने का सार्वजनिक अवसर सहज ही पा ले सकते हैं।

प्रिंट एवं इलेक्ट्रौनिक जगत में मुख्यधारा की हिंदी साहित्य की पत्र-पत्रिकाएं एवं मीडिया दलित विमर्श को भरसक ही जगह देते हैं, देते भी हैं तो दलित संदर्भों-हितों को प्रायः प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने के ख्याल से, नकारात्मक रूप में प्रस्तुत करने की गरज से। यदि सही रूप में वंचितों के प्रश्न मुख्यधारा के मीडिया एवं साहित्य में रखे भी जाते हैं तो भी उचित अथवा यथेष्ट प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। इन्हीं सब चीज़ों की भरपाई के लिए मानवतावादी एवं प्रबुद्ध दलितों, दलित हितचिंतकों को पत्र-पत्रिकाओं एवं तमाम मंचों के जरिये खुद भी हस्तक्षेप करने की जरूरत पड़ी, अन्यों की तमाम सदाशयताओं, सहानुभूतियों के बावजूद, चूंकि अन्य के साथ मिलने की अपनी सीमाएं हैं और खुद को प्रतिनिधित्व एवं अभिव्यक्त कर पाने, खुदमुख्तारी के अपने लाभ हैं, अपनी अनिवार्यता है। यहाँ महामना कबीर की बहुउद्धृत पंक्ति की हमारे लिए गाइडलाईन के रूप में मौजूद है – जाके पाँव न फटे बिवाई, सो का जाने पीर पराई। हालांकि यहाँ पर जोड़ना यह भी है कि सहानूभूति अथवा परानुभूति की भी अपनी अहमियत है. पशु-पक्षी तक में दूसरे के प्रति सहानुभूति का सहृदय भाव पाया जाता है. ऐसे में अधिकारपूर्ण एवं कर्तव्यनिष्ठ सहास्तित्व के लिए मनुष्य जैसे चिंतनशील एवं विवेकयुक्त प्राणी में आपस में सहकार एवं सहानुभूति की जरूरत बेशक है. साहित्य में सुहृदय, सहानुभूति, परकायप्रवेश जैसे मूल्यों का इसीलिए महत्व है. बावजूद इन सब के स्वानुभूति की अभिव्यक्ति का कोई मोल नहीं है, कोई विकल्प नहीं है.

जहाँ तक ऑनलाइन अथवा सोशल मीडिया पर हिंदी दलित विमर्श की परिव्याप्ति और प्रभाव का सवाल है, अन्य मीडिया विमर्शों की तरह इसे अभी एक विचार-स्कूल के अवयव के रूप में बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। यहाँ लोग बहुत संगठित होकर एवं तैयारी के साथ अभी नहीं उतरे हैं, अतः बहुत सार्थक, संतुष्टिकारक व प्रभावी हस्तक्षेप नहीं दिख रहा गोकि ऑनलाइन जगत में इस ‘स्कूल’ ने भी कम असर और हलचल मचाना नहीं शुरू किया है। इस आभासी संसार के मंच से अपनी वैचारिक अभिव्यक्ति का वंचित तबकों को अबाध एवं मुकम्मल मंच और मौका मिलना ही एक बड़ी क्रांति है, बड़ी परिघटना है क्योंकि मुख्यधारा की अभिव्यक्ति के माध्यमों में इन्हें सम्यक एवं सार्थक प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा है।

हिंदी विचार-जगत की साइबर/ऑनलाइन - दुनिया में टोह लगाते अधिकांश गंभीर और महत्वपूर्ण मान्य जन भी दलित विमर्श के प्रभाव से अछूते नहीं है जबकि जातीय-धार्मिक विचारों से शीघ्र ही स्फुल्लिंग पाने वाले आम ‘नेटिजन’ इसकी भारी गिरफ्त में तो हैं ही।

इस आभासी साइबर-संसार में, सोशल मीडिया के जरिये त्वरित वैचारिक क्रिया-प्रतिक्रिया, आपसी संवाद करने के शानदार एवं रोमांचक अवसर उपलब्ध होते हैं. प्रिंट और इलेक्ट्रौनिक मीडिया तक सहज पहुँच तो हर आम की क्या हर खास की भी नहीं होती, पर यहाँ के खुले मैदान में खुला खेल फर्रुखाबादी भी खेलने के खूब-खूब मौके होते हैं। अतिवादी-अलोकतांत्रिक विचारों से सने बहुतेरे विचार मंच भी इस हवाई-संसार में आराम से पल रहे होते हैं।

हमें यहाँ बात चूँकि ऑनलाइन हिंदी दलित विमर्श की करनी है अतः यह बता दूँ कि दलित अभिव्यक्ति के नाम पर इस साइबर-संसार में सम्बद्ध कट्टर वैचारिक मंचों का टोटा भी नहीं है जैसे कि संघी-बजरंगी-धुर हिंदूवादी खतो-किताबत करने वालों का फैलाव भी यहाँ कुकुरमुत्ते की तरह उगा-पसरा पड़ा है. कई दलित मंच तो हिंदूवादी विचारों/मंचों से भी गलबहियां डाले मिल जाते हैं। मसलन, एक कट्टर हिन्दू धार्मिक विचार मंच फेसबुक पर ऐसा भी आपको मिल सकता है जहाँ संत कबीर, संत रैदास, संत गाडगे जैसे दलित संत भी पनाह पा लेते मिले! अम्बेडकर, दलित, मूलनिवासी, आदिवासी, आदि धर्म जैसे शब्दों को मिलाकर बनाये गए मंच (जैसे, फेसबुक एकाउंट, ब्लॉग) पर धुर आग्रही विचार बांटे जाते मिल सकते हैं जहाँ विमर्श अथवा वाद-विवाद-संवाद के लिए कोई मौका नहीं होता, बस होता है तो निजी खुन्न्सों को सहलाते अतार्किक, अनऐतिहासिक, काल्पनिक, मिथकीय बयानबाजियां और वमन जिनका लोकतान्त्रिक-मानवीय संवादों-सरोकारों से कोई मतलब नहीं होता। व्यर्थ के सांस्कृतिक-जातीय-नस्लीय गर्व वहां परोसा जाता है और दक्षिणपंथ में दीक्षित और कंडीशंड किया जाता है। दलितत्त्व पर गर्व करना सिखाते फेसबुक एकाउंट और ब्लाग भी हैं। वहां आपको जाना है तो भक्ति-भाव मात्र से जाना होगा, कोई अलग-स्वतंत्र विचार वहां मान्य नहीं। ऐसा भी देखने को मिला है कि किसी ऐसे फेसबुक एकाउंट धारी की ‘वॉल’ पर आपने भिन्न मत डाला और आप गालियों-धमकियों की बौझार से नहा दिए गए।

दूसरी तरफ, दलित प्रश्नों को लेकर इंटरनेटी विमर्श की दुनिया में कई संजीदा ब्लॉग वगैरह भी हैं, जहाँ जीवन के तमाम पहलुओं सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, साहित्यिक-सांस्कृतिक आदि की अच्छी-गहरी तथ्यात्मक जानकारी मिल सकती है। इनका फैलाव तेजी से हो रहा है. , , , जैसे नामों से जहाँ जरूरी ऑनलाइन हस्तक्षेप होने लगे हैं. कुछ बहुजन लोग तो मिशनरी भाव से इस जरूरी काम में लगे दीखते हैं।

इसी आभासी जगत में आकर ‘सहज ही’ पता चलता है कि हिंदी के प्रगतिशील, वामपंथी, मार्क्सवादी मान्य जन भी दलित-बहुजन मुद्दों पर, अम्बेडकर पर कितने आग्रही हैं? उनका छद्म उघड़ता यहाँ आप साफ देख सकते हैं। खासकर, फेसबुक, ट्विटर आदि सोशल मीडिया कहे जाने वाले मंच से जो छोटे-छोटे संवाद, विचार-विमर्श, किये जाते हैं उनमें एक-दूसरे तक अपनी त्वरित क्रिया-प्रतिक्रिया आमने-सामने की बातचीत की तरह पहुँचाना काफी आसान होता है। फेसबुक अथवा इमेल एकाउंट के जरिये ‘चैट’ करना अथवा एक या अधिक लोगों से आपस में बतियाना भी यहाँ संभव होता है। यहाँ फौरी किये गये आपसी विचार-विनिमय से एक दूसरे को जांचने-परखने का मौका रहता है। मैंने तो साहित्य एवं बौद्धिक दुनिया के प्रगतिशीलों-वामपंथियों का ऐतिहासिक-समकालिक छद्म उघाड़ना भी फेसबुक पर आने का अपना एक उद्देश्य बना रखा है।

साइबर-संसार के हिंदी परिक्षेत्र के दलित बुद्धिजीवियों की सक्रिय उपस्थिति की बात करें तो बुद्धशरण हंस, कँवल भारती, विपिन बिहारी, जयप्रकाश कर्दम, चमनलाल, असंग घोष, अनिता भारती, रजनी तिलक, सुदेश तनवर, ईश कुमार गंगानिया, तेजपाल सिंह तेज, भाई तेज़ सिंह, उमराव सिंह जाटव, रजनी दिसोदिया, एच. एल. दुसाध, अजय नावरिया, पूनम तुसामड़, कैलाश वानखेड़े, सुनील कुमार सुमन, कैलाशचंद चौहान, कौशल पंवार, राज वाल्मीकि, मुकेश मानस, कर्मानंद आर्य जैसे नाम फेसबुक और ब्लॉगों पर सक्रिय रहकर अपने त्वरित-तात्कालिक विचारों से लेकर रचनात्मक सक्रियता/अवदान की धमक महसूस करवा रहे हैं। वहीँ दलित विमर्श को धार देने में सक्रिय ओबीसी समुदाय के लेखक-विचारक, दिलीप मंडल, अरविन्द शेष, प्रेमकुमार मणि, कौशलेन्द्र, प्रमोद रंजन, अशोक यादव, प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह, पंकज कुमार चौधरी, फकीर जय, प्रो. शिवनारायण, प्रो. शिवचंद्र आदि की दमदार उपस्थिति भी यहाँ है। दिलीप मंडल एवं अरविन्द शेष जैसों की फेसबुक पर जबरदस्त उपस्थिति से तो यथास्थिवादियों एवं ब्राह्मणवादियों ही नहीं सतही-छद्म वामपंथियों की भी नींद हराम रहती है. इंटरनेट से जुड़कर इन मंचों के जरिये दलित-बहुजन ही नहीं बल्कि अन्य समाज के प्रबुद्ध जनों, मानवतावादियों से व्यक्तिगत रूप से जुड़ने का भी सुअवसर प्राप्त होते हैं। इन्हीं मंचों से जुड़ने के बाद दुनिया भर में फैले कई लोगों से मेरे प्रथम परिचय स्थापित हुए, आपसी संवाद हुए।

इंटरनेट पर आकर और जाना कि वामपंथ-मार्क्सवाद को अत्याधुनिक तकनीकों एवं विचारों से बावस्ता सवर्ण-कुलक कैसे बड़े पुलक और आह्लाद से छाती से लगाये हुए हैं पर उसकी सहधर्मिणी विचारधारा अम्बेडकरवाद से उन्हें परहेज नहीं तो हिचक जरूर है। वे स्वदेशी पर निम्न-जातियों से आये सकारात्मक अवदानों को भी महत्त्व नहीं देना चाहते। सवर्ण मानस प्रगतिचेता साहित्यकार-आलोचक ब्राह्मणवाद के विरोध को उतरे पूरे दलित साहित्य को ही ब्राह्मणवादी साबित कर सकता है। यह कार्य हिंदी की प्रमुख, श्रेष्ठ और प्रगतिशील मानी जाने वाली पत्र-पत्रिकाओं के मंच से भी खूब होता है।

अतः यह अस्वाभाविक नहीं है कि दलितों एवं आंबेडकर के प्रति अतिशय पूर्वग्रह एवं कुंठा पाले वामियों की खेप और खाप ऑनलाइन हिंदी विचार जगत में भी बहुतायत में उपलब्ध है. कुछ का उत्खनन-उद्भेदन गाहे-ब-गाहे हो जाता है। उनमें से प्रतिनिधि उदाहरण दिए बिना यह शोधालेख अपूर्ण रहेगा।

अपनी फेसबुक की एक स्टेटस को मैंने विमर्श के लिए साझा किया था। यह कि ‘आधुनिक रचनाशीलता पर केन्द्रित विशिष्ट संचयन’ का दम भरने वाली हिंदी साहित्यिक पत्रिका ‘तद्भव’ के अक्तूबर 2004अंक में ‘हिंदी साहित्य में दलित दावे और जनवादी अपेक्षाएं’ शीर्षक अपने आलेख (पृष्ठ 44-57) के अंत में डा. पी.एन.सिंह ने दलित बौद्धिकों को इंगित यह निष्कर्ष रखा था :"दलित संवेदना को वर्ण-कुंठा से मुक्त होना होगा। ...वर्ण कुंठा, शास्त्र कुंठा से संत्रस्त दलित चेतना, जिसे ओमप्रकाश वाल्मीकि सही ही ‘सदियों का संताप’ का प्रतिफल बताते हैं, मार्क्सवाद और आधुनिकता के दबाव में आये एवं स्थापित बदलावों की अनदेखी करती है। ... इसी कारण समूचा दलितवादी दलित विमर्श मूलतः आत्मनिष्ठ, प्रतिक्रियात्मक और मताग्रही और ‘सेल्फ राइटियस’ है जो ब्राह्मणवाद की एक केन्द्रीय विशिष्टता रही है" जबकि ये आरोप किन्हीं उदाहरणों-प्रमाणों से समर्थित नहीं किये गए हैं।

और आगे इस ‘गाँधीवादी’ मार्क्सवादी ने दलित साहित्यकारों को लपेटते हुए आंबेडकर के विचार के ऊपर इस तरह से गाँधी के विचार की अधिमानता आरोपित की :"आज साहित्य में जो संकट दलित रचनाकार का है वही संकट बाबा साहेब के समक्ष राजनीति में था. इसी कारण उनकी सीधी टकराहट सावरकर, मालवीय और मुंडे से न होकर गाँधी और कांग्रेस से थी और उन्होंने ‘आया’ और ‘माँ’ जैसे रूपक के माध्यम से अपनी और गाँधी की भूमिकाओं में अंतर को सामने रखा था। गाँधी कभी माँ का स्थान नहीं ले सकते थे। बात अनुभवजनित थी, और अगर आया स्वयं को वास्तविक माँ समझ ले तो राजनीति में संकट और संघर्ष स्वाभाविक था। गोलमेज कांफ्रेंस में गाँधी-आंबेडकर टकराहट का यह भी एक मुद्दा था. लेकिन जनवादी साहित्यिक अथवा सैद्धांतिक सोच इससे भिन्न है- समझदार आया माँ से अधिक उपयोगी सिद्ध होती है। जैसे समझदार शिक्षिका एक बच्चे को जितना दे पाती है उतना समझदार माँ भी नहीं दे पाती"।

16 दिसंबर 2012 को दिल्ली की दामिनी-बलात्कार कांड पर फेसबुक के मंच से भी खूब बहसें चलीं, उसके पक्ष की अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति लोगों ने की। इस क्रम में कुछ का अति उत्साह बलात्कार जैसी अमानवीय कृत्य को सहलाने वाला ही साबित हुआ, चाहे यह अनचाहे ही हुआ हो। दलितों को वाम-जनों ने गरियाया। एक अनिवासी भारतीय वामी शमशाद इलाही शम्स ने फेसबुक पर लिखा-"दामिनी काण्ड विरोध प्रदर्शन के चलते खासकर बहुजन स्वामी चिंतकों के अजीबोगरीब रुख देखने को मिले। किसी को मोमबत्तियों से मिर्ची लगी तो किसी को कौन-कौन से बलात्कार याद आ गए।......बहुजन स्वामियों को किसने रोका था कि वह शिरकत न करें?"

अशोक कुमार पाण्डेय जैसे घोषित प्रचंड मार्क्सवादी कवि एवं विचारक ने शीबा असलम फहमी पर अहसान जताते हुए कहा कि 'अपर कास्ट हिन्दूओं को गरियाने की जल्दी में शायद वह यह भी भूल गयीं कि उस दिन भी हम ही सबसे ज़्यादा वोकल थे जब खुद उनके ऊपर हमला हुआ था।' यहाँ पांडेयजी ने ‘हम ही सबसे ज़्यादा वोकल थे’ कहकर अपने को सवर्णों की पांत में ‘उचित ही’ रखकर सवर्णों द्वारा उनकी मदद किये जाने की याद दिलाई। यहाँ पांडेयजी ने प्रकारांतर से यह भी कह डाला कि यदि कोई सवर्ण आपके गाढे दिनों में काम आता है तो उसके समूचे समाज से ही किसी व्यक्ति की आलोचना न करना आपका कर्तव्य बन जाता है!

वीभत्सकारी घटना के बाद 19 दिसंबर को फेसबुक पर रामजी तिवारी और वंदना शुक्ला ने अपनी सहमति रेखांकित की कि पीड़िता इस समाज को जगाने वाली लडकी थी. याद कीजिये, रूपकुंवर भी समाज को जगाने के लिए ही सती हुई थी जिसका गुणगान तबके बड़े पत्रकार प्रभाष जोशी (अब स्वर्गवासी!) ने जनसत्ता के पन्नों पर किया था। वैसे, भारतीय इतिहास में कितनी ही सतियां जमींदोज़ हैं पर पता नहीं क्यों उनके बलिदान समाज को कभी जगा नहीं पाए? फेसबुक और इंटरनेट के तमाम मंचों पर दिवंगत बलात्कार-पीड़िता के बलिदान एवं पथप्रदर्शक भूमिका पर कवितायेँ लिखी गयीं, यशगान हुए।

यह कुहराम दरअसल प्रसिद्ध युवा महिला विचारक एवं ‘हंस’ की स्तंभकार रहीं शीबा असलम फहमी की फेसबुक पर एक काव्यमय अभिव्यक्ति पर मचा था। शीबा असलम फहमी की पंक्तियाँ ये थीं:

पहले उन्होंने एक शूद्र महिला से बलात्कार किया, मैं चुप रहा, क्योंकि मैं उच्च जातीय हिन्दू था।

फिर उन्होंने एक मुस्लिम महिला को अपनी हवस का शिकार बनाया, मैं कुछ नहीं बोला, क्योंकि मैं उच्च जातीय हिन्दू था।

फिर वे एक मणिपुरी महिला का इज्जत उतार ले गये, मैं चुप्पी साधे रहा, क्योंकि मैं उच्च जातीय हिन्दू था।

फिर उन्होंने एक आदिवासी महिला की आबरू लूट ली, मैंने अपनी जुबान नहीं खोली, क्योंकि मैं उच्च जातीय हिन्दू था।

फिर वे मेरी बिरादरी की एक महिला को हाथ लगाया, यह स्त्री-सम्मान पर बहुत बड़ा हमला था, क्योंकि मैं उच्च जातीय हिन्दू था।

युवा वामी मान्य कवि अशोक कुमार पाण्डेय ने फेसबुक-टिप्पणी की कि हमारी आपत्ति यह है कि पास्टर निमोलर की इस ऐतिहासिक कविता का दुरुपयोग किया गया...और वक़्त ने साबित किया कि वह किसी तथ्य पर नहीं एक पूर्वाग्रह पर आधारित था. संतोष चतुर्वेदी ने शीबा को 'नव-सवर्णवाद' नजरिया का घोषित किया, तो कइयों ने इसे कु-कविता करार देते हुए उनसे माफ़ी मांगने को कहा। शीबा ने जब “तिवारी, चतुर्वेदी, शुक्ल, चौबे, पाण्डेय, उपाध्याय...डीएनए मेक-अप का मामला है क्या?’‘ का प्रश्न उठाया तो जैसे दक्षिणपंथी-पुराणपंथी-संघी-बजरंगी बातों के पैरोकार फेसबुक वासी भी वामपंथी-मार्क्सवादी-प्रगतिशील सवर्णों के साथ गलबहियां कर चले और उनने शायद ‘आपद धर्म’ का यह साथ समझ बिना किसी न-नुकुर के साथ स्वीकारा। यह बहुरंगी-बदरंगी घालमेल मानीखेज था। मानीखेज तो यह भी था गोया कि शीबा की फेसबुक पर सभी जाति-धर्म के नाम-टाइटल वाले स्त्री-पुरुष इस बहस में प्रायः उनके साथ होते दिखे जबकि वही डीएनए-मेक-अप वाला मामला दिखा। शीबा के विरोध में उतरे जन सवर्ण-टाइटल धारी मात्र थे. एक अपवाद केवल शमशाद इलाही शम्स का था।

रामजी तिवारी की फेसबुक-वॉल पर चली बहस में मैंने जब यह लिखा- 'राम की शक्तिपूजा' जैसी कु-कविता को जो प्रगतिशील रचा/रचना मान पचा ले गये उन्हें मेरा 'जय श्रीराम'!!!- तो कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. मनोज कुमार झा (बिहार से युवा कवि और भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त) को भी मैंने ललकारा कि "आप 'राम की शक्तिपूजा' जैसी कु-कविता पर क्या कहेंगे जो प्रगतिशीलों का कंठहार बनी हुई है.....तो वे प्रतिक्रिया-विहीन रहे जबकि उन्होंने प्रसिद्ध युवा महिला विचारक शीबा असलम फहमी की काव्यमय अभिव्यक्ति को ‘कुकविता’ करार देते हुए उनसे बदतमीज़ी से पूछा था कि “”शीबाजी, क्या इस कुकविता से आपको दुनियावी लाभ के अतिरिक्त कोई दीनी लाभ भी मिलेगा...जन्नत वगैरह....एक विनम्र जिज्ञासा.."। यहाँ देखिये, एक ब्राह्मणी-विनम्रता कैसी होती है? ‘..ताडन के अधिकारी..’ का मनु-फरमान देने वाले पंडित तुलसीदास भी कदाचित अपनी इसी विनम्रता में राम को मर्यादा पुरुषोत्तम और अपना आराध्य तक बना गये?

प्रसिद्ध समाजशास्त्री आशीष नंदी द्वारा जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में दलित-विरोधी सार्वजनिक बयान देने पर भी फेसबुक पर बहस चली जिसमें हर धड़े के अधिकांश सवर्ण साहित्यकारों-विचारकों ने नंदी को पाक-साफ़ करार देने की कोशिश की। इसमें अपूर्वानंद, अशोक कुमार पाण्डेय, रामजी तिवारी जैसे प्रगतिशील जन शामिल थे। जबकि प्रमुख अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं, दी हिन्दू, दी टेलीग्राफ, फ्रन्टलाइन, मेनस्ट्रीम ने बड़े ही तथ्यपूर्ण और तार्किक ढंग से नंदी के बयान की अप्रगतिशीलता को रेखांकित किया था. हालाँकि ‘जनसत्ता’ जैसे अखबार ने धुर-नंदी समर्थक स्टैंड लेकर नंदी के पक्ष में उतर कर कई सम्पादकीय और आलेख छापे थे।

डा जगदीश्वर चतुर्वेदी, कथित मार्क्सवादी साहित्यकार और विचारक जो इस समय कोलकाता विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं, अपनी एक फेसबुक-स्टेटस में "कृपया इन शब्दों को पढ़ें नए तथाकथित दलित चिंतक" शीर्षक से कुछ बात लिखते हैं जिसमें वे लगे हाथ यह भी लख जाते हैं - "मित्रों से एक अन्य बात कहनी है कि फेसबुक स्टेटस को एक सहज सामान्य कम्युनिकेशन विधा के रूप में लें उसे वैचारिक और किसी को ओछा बनाने या मूल्य निर्णय के आधार पर कम से कम न देखें। यहां एक सामान्य कम्युनिकेशन है जो हम लोग करते रहते हैं। सामान्य कम्युनिकेशन को गंभीर मूल्य निर्णय की ओर जो भी ले जाता है वह सही नहीं करता। किसी के भी बारे में कोई भी राय कम से कम फेसबुक स्टेटस के आधार पर नहीं बनायी जा सकती। कोई रचना हो तो उसके आधार पर गंभीर बात हो सकती है।"

उपरि दलित लेखकों के प्रति कितना पूर्वग्रह संचित है चतुर्वेदी जी में कि चतुराई जाती रहती है. जब आप ‘नए तथाकथित दलित चिंतक’ से संबोधित हैं तो ‘मित्रों से एक अन्य बात कहनी है‘, यह क्यों कह जा रहे हैं? जाहिर है, मकसद आपका ‘अपनों’ को ही बताना है, समझाना है, उनकी दलित विरोधी कंडिशनिंग करनी है. चतुर्वेदी जी आगे अपना ज्ञान उड़ेलते हैं-"भीमराव आंबेडकर के मित्र थे श्रीधरपंत तिलक (लोकमान्य तिलक के बेटे), वे आंबेडकर के चहेते थे। वे प्रगतिशील विचार रखते थे। उनका मानना था कि हिन्दू संगठन का लक्ष्य है चारों वर्णों का विनाश हो।"

देख लीजिये यहीं, क्या प्रगतिशील सोच है? जिस हिन्दू धर्म की आत्मा ही वर्ण/जाति है उसके चारों वर्णों के खात्मे का लक्ष्य कोई हिन्दू संगठन रखता है, यह हास्यास्पद निष्कर्ष हमें एक मार्क्सवादी विचारक मनवाना चाहता है? अम्बेडकर का नाम लेकर एक ब्राह्मणमिजाजी का विज्ञापन? वाह रे वाम!

चतुर्वेदी जी को दलितों द्वारा आत्मकथा लिखे जाने को लेकर भी भारी अपच है। गोया यह भी कि जबतक इस विधा में कोई कम्युनिस्ट नहीं उतरता, उसकी आत्मकथा साहित्य-लोक में अपना डंका नहीं बजवा लेता तबतक वे इस बाबत अपनी नाक-भौंह सिकोड़ते रहेंगे! आत्मकथा महान लोग नहीं लिखते, और महान महज कम्युनिस्ट प्राणी ही हो सकते हैं, उनकी कथनी से यह भी ध्वनित होता है। उनके कथन निहारिये-'सन् 1983 में मई के दिनों में मैंने माकपा के पोलिट ब्यूरो मेम्बर माकपा के बड़े नेता और तेलंगाना के महान आंदोलन के समय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव रहे बीटी रणदिवे से सवाल किया था कि आप अपनी आत्मकथा क्यों नहीं लिखते, उसके जबाव में उन्होंने कहा कि हमने ऐसा क्या किया है जो आत्मकथा लिखें। मुझे यह बात आज भी प्रासंगिक लगती है। कम्युनिस्ट नेताओं ने बेशुमार कुर्बानियां दीं, बड़ी लडाइयां लड़ीं। लेकिन आत्मकथा नहीं लिखी।' वे अपना नकार-एजेंडा कुछ यों व्यक्त करते हैं-"इधर हिन्दी लेखकों में यह फैशन चल निकला है कि वे वोल्यूम दर वोल्यूम आत्मकथा लिख रहे हैं जबकि उनकी आत्मकथाओं में स्कूल के दाखिले, कॉलेज का जीवन, गांव या मुहल्ले के वर्णन और ब्यौरों के अलावा कुछ नहीं होता।..."

ऐसा कहते दरअसल उनकी मुराद दलित लेखक से है, टारगेट दलित आत्मकथाकार हैं। उनकी अपूर्व स्वीकार्यता चतुर्वेदी जी की ‘वाम देह’ में पैठी ‘ब्रह्म-आत्मा’ नहीं स्वीकार कर पा रही। "ब्राह्मणों या सवर्णों पर प्रामाणिक लेखन के लिए जब ब्राह्मण या सवर्ण के गर्भ से जन्म लेना जरूरी नहीं है तो दलित पर प्रामाणिक लेखन के लिए दलित के गर्भ से जन्म लेना क्यों जरूरी है? मजेदार बात यह है कि दलित लेखक अपने को ब्राह्मणों (सवर्ण) पर लिखने का अधिकारी विद्वान मानते हैं। लेकिन ज्योंही कोई ब्राह्मण लेखक दलितों पर लिखता है तो सीधे कहते हैं आप दलित हुए बिना दलित पर नहीं लिख सकते।"– जैसी सतही सामान्य सवर्ण-स्थापनाएं भी चतुर्वेदी जी अपने वाम मन से कर जाते हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि चतुर्वेदी जी का कहना सरासर गलत है कि दलित लेखक अपने को ब्राह्मणों (सवर्ण) पर लिखने का अधिकारी विद्वान मानते हैं। वे अपने पर ही लिखते हैं जिसमें ब्राह्मणों/सवर्णों का सन्दर्भ आता है, और यह एकस्वादी नहीं होता. अधिकांशतः कटु होता है तो कभी सुस्वादु भी, क्योंकि कुछ सवर्ण मानवतावादी भी होते हैं। दलित आत्मकथाओं में ऐसे सन्दर्भ आये भी हैं। कहना यह भी है कि ब्राह्मणों या सवर्णों पर प्रामाणिक लेखन के लिए ब्राह्मण या सवर्ण होना उस अर्थ में जरूरी है कि उनकी कलम से ही उनकी हरमजगियों, उनके दलित-दलन का लेखा सामने आये, दलितों-वंचितों के प्रति उनके स्वानुभूत एवं सहानुभूत-सदाशयता का ब्यौरा आये. ‘कथादेश’ नामक हिंदी साहित्यिक पत्रिका ने एक समय अपना प्लेटफॉर्म ‘हिम्मती’ सवर्णों के लिए उपलब्ध करवाने की कार्रवाई भी की, कि सवर्ण कोख से आने वाले लोग अपने परिवार-समाज एवं अपने कियों-अनकियों का ईमानदार खुलासा करे, पर उस मंच पर अपने को खोलने को आने को कोई तैयार नहीं हुआ। अपवाद में, कृपाशंकर चौबे, एक नामीगिरामी पत्रकार, सामने आये पर उनकी आत्मबयानी में भी ‘हिम्मत’ जैसा कोई तत्व न दिखा।

‘मध्यवर्गीय है दलित की अवधारणा’ नामक अपने आलेख में वामपंथी मान्य विमर्शकार डा. राजू रंजन प्रसाद अपने ब्लॉग ‘हस्तक्षेप’ पर 23 मई, 2010 को अपने अम्बेडकर एवं दलितों के प्रति अपना पूर्वग्रह यों खोलते हैं “यह वर्ग (दलित मध्य वर्ग) अपने समुदाय के लोगों के बीच यह ‘मिथ्या चेतना’ पैदा करने अथवा गढ़ने की कोशिश करता है कि उस जातीय समुदाय के सारे लोगों के सामाजिक-सांस्कृतिक स्वार्थ एक-से हैं। ...वे (आंबेडकर) ठीक मुसलमानों की तरह दलितों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की भी व्यवस्था कर चुकनेवाले थे। ये सब करने के पीछे उनकी एक सोची-समझी राजनीति थी-‘फूट डालो और शासन करो।’ .....आज विमर्श की जो आंधी चली है-यथा दलित विमर्श, नारी विमर्श, पर्यावरण विमर्श या फिर उत्तर आधुनिकता का विमर्श ही क्यों न हो-सभी वर्गीय चेतना को कमजोर बनाने के वैश्विक हथकंडों को अमरीकी फंडिंग जारी है। अकारण नहीं है कि दलित बुद्धिजीवियों को चुन-चुनकर फोर्ड फाउंडेशन के फेलोशिप प्रदान किये जा रहे हैं।'

डा. राजू रंजन प्रसाद ने अन्यत्र अपने ब्लॉग और फेसबुक पर
अम्बेदकर को इतिहास-दृष्टि से रहित, पूर्वग्रह से ग्रस्त मानस करार देते हुए यह भी कहा है कि उन्होंने जिस चीज को समझने के लिए अधिक श्रम और समय दिया है, वह है भारत की जाति व्यवस्था।

‘समकालीन जनमत’, सीपीआइ (माले) एवं जसम से जुडी पत्रिका के संपादक सुनील यादव ने "अम्बेडकरवाद के आइने में माया और शीतल साठे’ नामक एक फेसबुक स्टेटस लगायी जिसमें उन्होंने उचित ही यह बात रखी कि "कबीर कला मंच की गायिका शीतल साठे की विगत 2 अप्रैल को महाराष्ट्र विधान भवन के सामने हुई गिरफ्तारी से अम्बेडकरवादी आन्दोलन की रैडिकल अन्तर्वस्तु एक बार फिर उजागर हुई है। इस गिरफ्तारी ने यह जता दिया है कि अम्बेडकरवादी धारा से मायावती ही नहीं; शीतल साठे भी पैदा हो सकती हैं।"

लेकिन इस स्टेटस को शेयर करते हुए बी.एन.सिंह, जो रांची विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं, ने बिन मौका के मौका निकलते हुए! दलितों के प्रति अपना पूर्वग्रह यों बकोरा-'फेसबुकिया अम्बेडकरवादियों को मुंह चिढ़ा रही हैं शीतल साठे'।

“बिहार में संघी खेमे के एक विचारक हैं श्रीभगवान सिंह, जो भागलपुर स्थित एक कॉलेज में हिंदी प्राध्यापक भी हैं. 23 जुलाई, 2011 के जनसत्ता में 'दुनिया मेरे आगे' स्तंभ में उन्होंने 'चमकती पगडण्डी' नाम से एक आलेख लिखा, जिसमें उन्होंने बिहार के एक गांव के मंदिर में पूजा-पाठ के दौरान भजन गाने वाले दलितों को देखकर और सवर्णों से अलग पांत में वहीँ कहीं दलित-पांत में उन्हें भोज में बिठाये गए पाकर प्रफुल्लित चित से यह लिख मारा है कि यह 'चमकती पगडण्डी' है! इतने ही से श्रीभगवान को लगा कि दलित ने सवर्णों से समकक्षता का, अपनापा का व्यवहार पा लिया! सवर्णों की पांत अलग, दलित-पांत अलग और फिर भी यह साथ साथ भोजन करना हुआ!

बता दें कि इसी शख्स ने अपने कॉलेज के हिंदी विभाग में मनाये जाने वाले एक तुलसी-जयंती पर कभी जनसत्ता में ही एक आलेख लिखा था, जिसमें एक मुस्लिम छात्र द्वारा चन्दन-टीका लगाकर और अन्य हिंदू वाह्याडम्बर, जैसे तुलसी पूजा, तुलसी वंदना आदि किये-अपनाए जाने को सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल और नई चेतना का प्रस्फुटन साबित किया था.'

मैंने ये बातें 24 जुलाई, 2011 की अपनी फेसबुक पर साझा की. तिसपर रमेश कुमार नामक शख्स का कॉमेंट आया-'समाचार अच्छा है. पता नहीं आप इसे कैसे ले रहे हैं - वो तो आपने लिखा नहीं - आप इसे बढ़ा - चढ़ाकर लिखे जाने के कारण खिन्न हैं या ऐसी घटनाओं से आप क्षुब्ध हैं. कुछ भी हो, मीडिया का काम अच्छी बातों को प्रकाशित करना है ...सो हो रहा है.....बात तो अच्छी जरूर है..शुरुआत है... राक्षसों और देवताओं द्वारा साथ मिलकर समुद्र मंथन भी वहीं हुआ था..'

जब मैंने बात आगे बढाई, कहा कि "कौन राक्षस कौन देवता? ये ब्राह्मणों की गढ़ी कहानियां हैं, ब्राह्मणवाद के पोषण के लिए, इस समय भी कोई इस कहानी से ऊर्जा पाता है तो 'भगवान ही मालिक है उसका!", तो एक टीकाधारी फेसबुक तस्वीर वाले व्यक्ति कौशल किशोर भट्ट भी बहस बीच आ टपके, मुझसे कुछ यूँ बतियाते हुए-"आप किसी पूर्वग्रह से ग्रसित हैं. भगवान् तो आपका भी मालिक है...मगर, अफ़सोस, वह भी आपकी नज़र में ब्राह्मणवाद की ही देन है..."

01 जुलाई, 2011 को अरुण प्रकाश मिश्र नामक व्यक्ति ने यह फेसबुक स्टेटस लगाया-

"हिन्दू समाज के पथ-भ्रष्टक - तुलसीदास"

"नारी-निंदक तुलसीदास"

"दलित-विरोधी तुलसीदास"

जब हम चौथी-पांचवीं कक्षा में थे तो सरिता-मुक्ता में छापा करता था - "हिन्दू समाज के पथ-भ्रष्टक - तुलसीदास"| जब बी.ए. में आये तो पढ़ा - "नारी-निंदक तुलसीदास"| जब अध्यापक बने तो सुना - "दलित-विरोधी तुलसीदास"| तुलसीदास के निंदनीय चरित्र का यह क्रमशः विकास आकर्षक है | इसका मूल कारण बाबा की एक बेचारी चौपाई रही - " ढोल गंवार शूद्र पशु नारी| ये सन ताड़न के अधिकारी ||.....'ताड़' का अर्थ है 'perception', 'understanding'. 'ताड़ना', जिससे 'ताड़न' बना है, का अर्थ है 'to percieve', 'to understand', 'to become aware of', 'to guess', 'to deduce', 'to look into' and 'to examine (a matter). अब आप सभी सुधीजन बाबा की चौपाई का अर्थ कर लें|

यदि तुलसी नारी-निंदक हैं तो सीता की वन्दना क्यों करते हैं - "जनक-सुता जग-जननी जानकी| अतिशय प्रिय करुणानिधान की ||"

...मैं इस बात को समझाने में बिलकुल असमर्थ हूँ कि सीता की वन्दना करने वाला व्यक्ति नारी-निंदक कैसे हो सकता है?

अब आप पुनः बाबा की चौपाई का अर्थ करें और देखें कि 'जय भीम' का नारा देने वालों ने और पश्चिम के महिला-मंचों से प्रभावित आधुनिकतावादी महिलाओं ने कैसा सोद्देश्य-स्वार्थपूर्ण 'महाभारत' रचा है।" और, उपर्यक्त स्टेटस पर जो बहस चली उसमें क्या दक्षिणपंथी-संघ-बजरंगी, वामपंथी तक ‘जय भीम’ संबोधन को एक सुर से धुर जातिवादी बताने लगे, तथा ‘ताड़’ के श्रीमन मिश्र द्वारा बताये गए नायाब अर्थों-व्युत्पत्तियों को पुचकारने लगे. वाम भी भक्त-हृदय हो उठे. डा. राजूरंजन प्रसाद नामक खांटी मार्क्सवादी ने इस दूर की कौड़ी ताड़-विवेचना को यूँ स्वीकार भरी- "आपकी बात तर्कपूर्ण है और नई भी. लाभ हुआ पढ़कर"।

जबकि DM Bhim नामक फेसबुक एकाउंट ने ‘ताड़’ की नकेल कसते हुए उचित ही प्रतिप्रश्न दागा था कि "ढोल को कैसे dhol ko kaise - to percieve ... to become aware of ... to guess to deduce .... आदि-इत्यादि करोगे??????!!!!! तुलसी द्वारा सीता को मान देने के ब्याज से तुलसी के नारी निंदक न होने के तर्क को DM Bhim ने इस तरह तर्कपूर्ण ढंग से काटा-“जहाँ तक नारी की पूजा किये जाने की बात है, बकरी को भी बलि चढ़ाने से पहले पूजा जाता है...।'

जबकि मैंने 'जय भीम' पर अपना पक्ष कुछ यों रखा था-"जैसे, ‘साहब बंदगी’ कबीरपंथियों का आपसी संबोधन है, चूँकि एक मत को मानने वालों से यहाँ मतलब होता है, उसी तरह से 'जय भीम' अम्बेडकरवादी दलितों का आपसी संबोधन है, गैर अम्बेडकरवादी दलितों का आपसी संबोधन इससे इतर होता है. वहां प्रायः पारंपरिक या फिर ब्राह्मणवादी संबोधन व्यवहृत होता है-प्रणाम, पांव लागू,चरंण स्पर्श, नमस्ते, नमस्कार, आदि। पते की बात बताऊं कि मैं अपनी माँ का चरण स्पर्श ही करता हूँ और उनसे फोन पर भी इसी अर्थ के लोकल शब्दों का प्रयोग करता हूँ। तो मूल बात मंशा या ध्येय का है.और 'जय भीम' को हमेशा आप अतिवादी संबोधन नहीं ठहरा सकते, भले ही कुछ लोग ऐसा करते हों.हम दलित लेखक बहुत ही सहज भाव से 'जय भीम' अभिवादन का व्यवहार आपस में करते हैं"।

और, मुझे मुकुल कुमार नामक व्यक्ति इसी फेसबुक पर उलाहना देता है कि सारी कमी आपको तुलसीदास में नज़र आने लगी, दो अक्षर क्या पढ़ लिया साधु को दुःख दे दिया. जबकि जिस बात पर मेरे लिए Mukul Kumar का उक्त कमेन्ट आया है वह नोट की सामग्री Arun Prakash Mishra की है पर जनाब ‘साधु’ को परेशानी मुझसे हो गयी। फेसबुक पर ही अन्यत्र शशिभूषण, जो कि एक कथाकार हैं, तो अपना प्रचंड ब्राह्मणवादी रुख व्यक्त करते मिले. मसलन, उन्होंने मुझसे मुखातिब हो कह डाला कि 'दलित के रूप में खुद को पेश करना कुछ कुछ वैसा ही हो चला है कि जैसे सबसे बड़े मॉल में डिनर करते हुए खुद को ग्रामीण ही हैं हम बताना'। शशिभूषण तो काफी हमलावर हो अपना प्रचंड ब्राह्मणवादी रुख व्यक्त करते मिले। मसलन, उन्होंने मुझसे मुखातिब हो कह डाला कि "दलित के रूप में खुद को पेश करना कुछ कुछ वैसा ही हो चला है कि जैसे सबसे बड़े मॉल में डिनर करते हुए खुद को ग्रामीण ही हैं हम बताना"।

‘नामवरों की साजिश में दलित-विमर्श हाशिये पर’ नामक अपनी रपट, दिनांक 26 सितम्बर, 2009 में ‘मोहल्ला लाइव’ ब्लॉग पर मीडिया विश्लेषक एवं टिप्पणीकार विनीत कुमार लिखते हैं कि 2009 के सितंबर 23 से 29 के शिमला में ‘हिंदी की आधुनिकता : एक पुनर्विचार’ विषय पर होनेवाली बहसों में ये बात बार-बार खुल कर सामने आ रही है कि आखिर दलित विमर्श हिंदी की मुख्यधारा का साहित्य क्यों नहीं बन पा रहा है? दलित के सवाल को एक गैरदलित उतनी तल्खी से क्यों नहीं उठाता? रपट में दलित-प्रश्न पर नामचीन वामपंथी-मार्क्सवादी साहित्यकार रामविलास शर्मा, अरुण कमल आदि की प्रगतिशीलता को कठघरे में रखा गया है, हालाँकि घेरने वाले दलित नहीं हैं।

उक्त रपट पर 100 से अधिक दलित-मानमर्दन की प्रतिक्रियाएं आती हैं. एक प्रतिनिधिक बानगी, किन्हीं अभय की तल्खी यों आती है-”कुछ मूर्खों को लगता है कि दलितो के लिए सिर्फ दलित ही सोच सकते हैं। वो चाहते हैं कि दलितवाद का खेत उनके चरने के लिए छोड़ दिया जाए। वो सरकार की तरफ से मिलने वाले नगद लाभ पर ऐश करे। कुछ लोग सिर्फ इसलिए चिंतक बने फिरते हैं कि वो दलित हैं। जो उनका विरोध करे उसे उसकी जाति के नाम पर खारिज कर दिया जाए। ये लोग दिवंगत विद्वानों के भूल-गलती को उछालते रहते हैं। संजीव को मेरी राय है कि वो दुनिया के किसी भी देश साहित्य के किसी भी विद्वान से तुलसीदास के लिटररी मेरिट की जाँच करवा लें। दलितवाद के नाम पर आप जो चाहे कहें, कौन विरोध करेगा!!!", जबकि गौरतलब तथ्य यह है कि संजीव, जो कि दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं, दलित नहीं हैं, सवर्ण-कुलक हैं।

सहज बांटते-दीखते जातिवादी जन ऐसे ही खुल कर और खौल कर रंगे सियार की तरह अपनी खोल से बाहर निकलते हैं।

इसी रपट वाले पेज पर तक़रीबन ढाई साल बाद 24 फरवरी, 2012 को मोहल्ला लाइव पर साहित्यकार प्रफुल्ल कोलख्यान की टिप्पणी आती है कि "असल में हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा में आ रहे दलित साहित्य को स्वीकार करने की सबसे बड़ी पगबाधा है हमारा दृष्टिकोण — सिर्फ परंपरा पोषित दृष्टिकोण ही नहीं बल्कि आधुनिकता जनित दृष्टिकोण भी। दलितत्व एक सामाजिक सचाई है। साहित्य में इस सचाई का आना स्वाभाविक ही नहीं जरूरी भी है। सचाई और कल्पना के सातत्य की समस्या तो है ही, यह समस्या तब विकट हो जाती है जब हम दलितत्व को भी ललितत्व के पोशाक में ही खोजते हैं या साहित्य मानने के आग्रह में ललितत्व को उसका अनिवार्य पोशाक बना देते हैं।"

”हमारे समय के एक सशक्त युवा चर्चित दलित कथाकार हैं, कैलाश वानखेड़े. ‘हंस’, कथादेश’, ‘वागर्थ’, ‘पाखी’ जैसी मुख्यधारा की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी कहानियां छप चुकी हैं, और बेहद सराही गयी है. हाल ही में उनका कथा-संग्रह आधार प्रकाशन से ‘सत्यापन’ नाम से आया है. संग्रह की कहानी 'सत्यापित' की ये पंक्तियाँ मुझे ऑनलाइन दलित विमर्श के मामले में प्रभु जातियों से आने वाले विमर्शकारों-साहित्यकारों द्वारा दलित लेखन के चरित्र को भी बहुत कुछ सत्यापित करती लगती हैं-"सत्यापन..उनका, उनके द्वारा जो पहले ही उन्हें "सत्यापित" कर रखें है..!! व्यवस्था के खामियों को पकड़ कर ऐसे लोगों के बीच यह किस तरह की दुरभि संधि है, जो हर जरुरतमंद को पहले से ही पहचान कर सत्यापित करने के जुगाड़ में लगी है। कहाँ और कब ख़त्म होगा...ये सत्यापन गठजोड़।"

*आलेखक : डा. मुसाफिर बैठा

संपर्क : बसंती निवास, दुर्गा आश्रम गली, शेखपुरा, पो.-वेटरिनरी कॉलेज, शेखपुरा, पटना-800014,

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