मेरा मोहल्ला जिंदाबाद
संजय कुंदन
राष्ट्रवाद, प्रांतवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद वगैरह-वगैरह की तरह मोहल्लावाद भी हो सकता है, इसका पता मुझे गोकुल भइया उर्फ लंबू भइया से चला। लंबू भइया ने हमारे भीतर अपने मोहल्ले यानी नेहरू नगर के लिए न सिर्फ अद्भुत प्रेम जगाया बल्कि उसके लिए मर मिटने तक का भाव पैदा करने की कोशिश की। तब मैं आठवीं में पढ़ता था। लंबू भइया एक दिन अचानक हम मोहल्ले के बच्चों के लिए संकटमोचक की तरह प्रकट हुए। उस दिन नेहरू नगर और पड़ोसी मोहल्ले सुभाष नगर का क्रिकेट मैच था। हमलोगों ने सुभाष नगर को हरा दिया। तब एक विचित्र रीति प्रचलित थी। हारी हुई टीम के कैप्टन से एक कागज पर साइन कराया जाता था और वह कागज विजेता टीम रख लेती थी। वह कागज जीत की ट्रॉफी की तरह होता था। लेकिन हारने वाला कैप्टन अक्सर साइन करने से मना कर देता था क्योंकि इसमें उसे अपमान नजर आता था। उस दिन भी यही हुआ। मैच खत्म होते ही सुभाष नगर का कैप्टन पता नहीं कहां खिसक गया। हम लोग भी अड़ गए कि बेटा साइन कैसे नहीं करोगे। पर वे लोग टालमटोल करने लगे। तरह-तरह का बहाना बनाने लगे। चूंकि मैच उन्हीं के ग्राउंड पर हुआ था इसलिए वे थोड़ा चढ़े हुए थे। लेकिन हमलोग भी मैदान छोड़ने वालों में से नहीं थे। जब बहुत देर तक उनका कैप्टन नहीं आया तो हमलोग ने तय किया कि कप्तान के घर चलकर उसका हस्ताक्षर ले लेते हैं।
तय हुआ कि सारी टीम नहीं जाएगी, दो तीन लोग ही जाएंगे। मैं दो लड़कों के साथ कैप्टन के घर की ओर चला। साथ में सुभाष नगर की टीम भी हमें घेरकर चली। थोड़ी दूर चलते ही अचानक सुभाष नगर के कुछ लड़के हमलोगों पर झपटे और किसी ने मेरे हाथ से बैट छीन ली, और मेरे दोस्तों के हाथ से बॉल और विकेटें। फिर वे भागने लगे। मेरी तो जैसे जान निकल गई। पिताजी के सामने काफी रो-धोकर बैट खरीदवाई थी। एकदम नई थी। अब अगर वह गायब हो गई तो मेरे पिताजी तो मेरा हलवा बना देंगे। मेरे दोस्त भी सन्न रह गए। क्या करें, क्या न करें। आखिर हम सुभाष नगर में थे। वहां हम तो बस एक-दो लड़कों को ही जानते थे। अगर वे बैट-विकेट आदि लेकर गुम हो गए तो हम उन्हें खोज भी नहीं पाएंगे। हम उनके दरवाजे पर थे। अगर झगड़ा हुआ तो हमारा बुरी तरह पिटना तय था। वैसे भी हमलोग झगड़ा-झंझट करने वालों में से थे नहीं। मैं पछताने लगा। आखिर क्या जरूरत थी साइन के लिए जिद करने की। हताशा में मैं रो पड़ा।
अगले ही क्षण हमने देखा कि बिजली की गति से एक साइकिल चक्कर काटती हुई उन लड़कों के सामने रुकी। वे लड़के सकपका गए। साइकिल सवार ने तेज आवाज में कुछ कहा। हमारी उत्सुकता बढ़ी। हम जल्दी से वहां पहुंचे। वह साइकिल सवार लंबू भइया थे। वह सुभाष नगर के लड़कों को डांटते हुए कह रहे थे, ‘तुमलोग रंगबाजी करने चले हो। अपने मोहल्ले में जिसको मैच खेलने बुलाते हो उसी को लूटते हो। पुलिस बुला देंगे।’ सुभाष नगर का एक लड़का डर के मारे हकलाते हुए बोला, ‘न..न हमलोग लूटे नहीं हैं, म..म..जाक कर रहे हैं।’ मैंने और मेरे दोस्तों ने लंबू भइया को श्रद्धा भरी नजरों से देखा। हमारा खोया आत्मविश्वास लौट आया। मैंने कहा, ‘नहीं भइया ये मजाक नहीं कर रहा है। जबरदस्ती हमसे छीना है। इन लोगों का कैप्टन छुप गया है। वह साइन नहीं कर रहा है।’ सुभाष नगर के एक लड़के ने सफाई दी, ‘वह छुपा नहीं है। वो जरूरी काम से गया है।’ लंबू भइया ने कहा, ‘छोड़ो साइन वाइन का चक्कर। चलो सबलोग अपने घर।’ हमलोग अपने सामान लेकर चल पड़े। साथ में लंबू भइया थे। वह अपनी साइकिल लुढ़काते हुए चल रहे थे। उन्होंने रास्ते में मोहल्लावाद की पहली दीक्षा दी। मुझे समझ में आ गया कि किसी भी वाद के लिए नफरत का होना भी बेहद जरूरी है। हमारा मोहल्ला प्रेम दरअसल सुभाष नगर के प्रति घृणा से ही शुरू हुआ था।
लंबू भइया कह रहे थे, ‘ये सुभाष नगर वाले कंजड़ हैं कंजड़। हो सकता है कि इनकी टीम के पास सारा सामान चोरी का ही हो। ऐसे ही ये किसी से बैट छीनते होंगे, किसी से बॉल। अरे इन लोगों से तो किसी तरह का रिश्ता रखना ही बेकार है। सब छंटे हुए लोग हैं ये।... ये तो अच्छा हुआ कि हम आ गए नहीं तो... वो तुम लोगों का सामान थोड़े ही लौटाता। नेहरू नगर के किसी बच्चे की तरफ कोई आंख उठाकर भी देख ले, हम यह बर्दाश्त नहीं कर सकते।’ इस वाक्य को सुनते ही हम बच्चों ने गर्व और खुशी के साथ अपने खून में उबाल सा महसूस किया। हम सब ने पहले एक-दूसरे को देखा फिर एक साथ लंबू भइया पर नजर डाली। पहली बार हमने महसूस किया कि हम सब को जोड़ने वाला एक कॉमन फैक्टर है-हमारा मोहल्ला। हमारा मोहल्ला एक है, हम सब एक हैं।
हम सब मैच खेलने गए थे लेकिन लौटे एक अलग तरह के भाव लिए। हम अपने बनाए रन या अपने लिए विकेटों या कुछ लाजवाब कैचों को याद नहीं कर रहे थे। हम लंबू भइया को याद कर रहे थे। बार-बार यह सवाल मन में गूंज रहा था कि अगर लंबू भइया समय पर नहीं आए होते तो क्या होता...। और अगर हमारे मोहल्ले में लंबू भइया नहीं होते तो क्या होता...। अगले दिन, रात में जब बिजली गुल हुई तो रोज की तरह सारे बच्चे सड़क पर निकल आए। आपस में मिलते ही हम कल की घटना पर चर्चा करने लगे। तभी लंबू भइया हमारे बीच आ पहुंचे। आते ही उन्होंने कहा- ‘नेहरू नगर के शेरों, क्या हाल है?’ सारे बच्चे कृतज्ञ भाव से उन्हें देखने लगे। हमारे कई दोस्तों को लगा कि कल वे शायद ठीक से भइया का आभार प्रकट नहीं कर पाए थे, इसलिए उसकी भरपाई करना जरूरी है। हमारे एक दोस्त ने कहा, ‘भइया कल अगर आप नहीं आए होते तो वो लोग हमलोग का बैट नहीं लौटाता।’ इस पर भइया ने उलटे हमें ही झाड़¸ दिया, ‘तुम लोग हो भी तो दब्बू। अरे जाकर छीन लेना चाहिए था। क्या कर लेते वो...। आखिर तुम्हारी चीज थी। देखो आपस में एकता रखो और मुसीबत का सामना मिल कर किया करो। अब तुम लोग दो-तीन आदमी ही रह गए थे बाकी खिलाड़ी न जाने कहां सरक लिए थे। अपने मोहल्ले के कि सी भाई को संकट में छोड़कर नहीं जाना चाहिए। समझे।’
मुझे लगा कि वह हमारी बहुत ज्यादा खिंचाई पर ही न उतर आएं, सो हमने टॉपिक बदलने के लिए उनसे सवाल किया, ‘भइया आप कॉलेज में पढ़ते हैं?’ इस पर मुस्कराते हुए उन्होंने कहा, ‘हां, भाई। हम सेकंड ईयर में पहुंच गए हैं।’ फिर हमारे दोस्तों के मन में कॉलेज जीवन को लेकर जो-जो जिज्ञासाएं थीं, उन्होंने सामने रख दीं। जवाब में भइया ने कॉलेज जीवन की ऐसी तस्वीर खींची कि हम अभिभूत हो गए। हमें यह जानकर बड़ा मजा आया कि कॉलेज में लगातार क्लासेज नहीं होतीं। मन में आए तो क्लास कीजिए नहीं तो मत कीजिए। फिर यह भी रोचक बात थी कि वहां टीचर ही स्टूडेंट्स से डरते हैं।
उसके बाद तो लंबू भइया के साथ गप-गोष्ठियों का सिलसिला चल पड़ा। प्राय: उनके साथ बैठक रात में लोड शेडिंग के समय ही होती थी। भइया कॉलेज जीवन के साथ-साथ अपने बचपन की बात भी बताते थे। लेकिन बातचीत में जल्दी ही मोहल्ला प्रसंग शुरू हो जाता था। बच्चे जान गए थे कि ये बातें भइया को अच्छी लगती हैं, सो वे चर्चा का रुख उधर मोड़ देेते थे। फिर शुरू हो जाता था सुभाष नगर को लतियाने का अभियान। एक बार एक लड़के ने कहा कि उसने स्टेशन पर एक पागल को देखा। छूटते ही सब बच्चों ने कहा, ‘वह जरूर सुभाष नगर का होगा।’ एक लड़के ने कहा कि उसके साथ सुभाष नगर का एक लड़का पढ़ता है। वह क्लास में रोज मुर्गा बनता है। इस पर जोरदार ठहाका लगा। ऐसी ही चर्चा में एक दिन लंबू भइया ने एक ऐसा प्रस्ताव रखा, जिसने हमें रोमांचित कर दिया। सरस्वती पूजा नजदीक थी और हर बार की तरह मोहल्ले के लड़के पूजा की योजना बना रहे थे। लंबू भइया का कहना था कि इस बार कुछ अलग किया जाए। उन दिनों सुभाष नगर की सरस्वती पूजा शहर भर में प्रसिद्ध थी। वहां कुछ बंगाली परिवार रहते थे जो हर साल इस मौके पर नाटक और गीत-संगीत का कार्यक्रम करते थे, जिसे देखने के लिए पूरा शहर उमड़ पड़ता था। पूजा के अगले दिन सभी स्थानीय अखबार सुभाष नगर के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तस्वीरों से भरे होते थे। नेहरू नगर वाले भी शाम से ही वहां जुट जाते थे। लंबू भइया की चिंता यही थी कि किस तरह शहर की भीड़ को नेहरू नगर की तरफ खींचा जाए। कुछ सोचने के बाद उन्होंने ऐलान किया कि सुभाष नगर की सरस्वती पूजा को भंडोल कर दिया जाए यानी उसके फंक्शन को फ्लॉप कर दिया जाए। लेकिन कैसे? सारे बच्चे इस पर सोचने लगे। सब अपना-अपना दिमाग दौड़ा रहे थे। तभी एक लड़के ने कहा, ‘क्यों न सुभाष नगर का कार्यक्रम शुरू होते ही पंडाल में सांड दौड़ा दिया जाए। एक बार माहौल बिगड़ेगा तो फिर कोई आएगा नहीं।’ दूसरे लड़के ने कहा, ‘इससे तो अच्छा है कि भीड़ पर मरा हुआ सांप उछाल दिया जाए।’ इन प्रस्तावों पर हमसे बड़ी उम्र के लड़के हंसे। उनमें से एक ने कहा, ‘सबसे अच्छा तो यह होगा कि उनका जेनरेटर गायब कर दिया जाए।’ लंबू भइया भड़के, ‘तुम लोग खाली उलटा सोच रहे हो। हम लोग उन लोगों की तरह चिरकुट नहीं हैं। हम कोई अच्छे तरीके से उन्हें डाउन करेेंगे। कुछ ऐसा करो कि शहर का हर आदमी नेहरू नगर आवे और दूसरे दिन सिर्फ हमारे मोहल्ले की चर्चा हो।’ लंबू भइया बड़ी देर तक अपने होंठों पर उंगली फिराते हुए सोचते रहे। फिर बोले, ‘आ गया आ गया एक धांसू आइडिया। सुनो...हमलोग इस बार एक खास तरह का प्रसाद बांटेंगे जिसका नाम होगा-डीलक्स प्रसाद। प्रसाद ठीक उसी वक्त बंटेगा रात आठ बजे के आसपास, जब सुभाष नगर वालों का प्रोग्राम होता है। इस प्रसाद की खासियत यह होगी कि इसमें सिनेमा का टिकट होगा।’ मैं घबराया। प्रसाद के हर दोने में सिनेमा का टिकट। यह तो काफी खर्चीला हो जाएगा। मैंने आपत्ति की तो लंबू भइया डपटे, ‘अबे सुनो तो। टिकट एक या दो ही दोने में रहेगा। यह एक तरह की लॉटरी होगी। जो लकी होगा वह टिकट पाएगा। लेकिन टिकट के चक्कर में सब प्रसाद पाने के लिए टूट पड़ेंगे।’ एक बार फिर हम चकराये। इतना प्रसाद कहां से आएगा। लंबू भइया ने शंका का समाधान किया, ‘अबे डीलक्स प्रसाद का समय सिर्फ पंद्रह मिनट का होगा। हम पहले कहेंगे कि आठ बजे प्रसाद का समय है। फिर कहेंगे कि सवा आठ बजे है, फिर कहेंगे साढ़े आठ बजे है। हम समय खिसकाते जाएंगे। लोगों की भीड़ बढ़ती जाएगी। कोई सुभाष नगर की तरफ झांके गा भी नहीं।’
हम रोमांचित हो उठे। क्या कमाल का आइडिया है। नेहरू नगर में इस बार सरस्वती पूजा में रंग जम जाएगा। पहले तो कोई झांकने तक नहीं आता था। लेकिन समस्या यह थी कि यह बात सरस्वती पूजा आयोजन समिति के संरक्षकों को कैसे समझाई जाए। उनकी सहमति आवश्यक थी क्योंकि फंड का इंतजाम तो उन्हें ही करना था। मुख्य संरक्षक मेरे पिताजी थे। वह जूनियर इंजीनियर थे। अच्छी-खासी ऊपरी आमदनी थी। स्वभाव से भी थोड़ा दबंग थे, इसलिए इस पद के स्वाभाविक दावेदार वही थे। सरस्वती पूजा का आयोजन उन्हीं के निर्देशानुसार होता था। वह कुछ ठेकेदारों से चंदे का इंतजाम करवाते थे। वैसे मैंने कई बार लोगों की फुसफुसाहटों में सुना था कि वह चंदे के नाम पर अपने लिए काफी कुछ जुटा लेते थे।
पिताजी लंबू भइया की योजना पर मोटे तौर पर सहमत हो गए पर उन्हें डीलक्स शब्द पर आपत्ति थी। उनका कहना था कि सरस्वती पूजा जैसे पवित्र कार्य में अंग्रेजी का इस्तेमाल क्यों हो? क्यों न इसे महाप्रसाद या विशिष्ट प्रसाद कहा जाए। इस पर लंबू भइया ने जो दलील दी उस पर हम मुग्ध हो उठे। उन्होंने कहा है कि समय बदल रहा है। आने वाला समय अंग्रेजी का ही है। जिस चीज में अंग्रेजी शब्द घुस जाता है, वह बड़ा महत्वपूर्ण हो जाता है। पहली बार पिताजी को मैंने किसी के सामने निरुत्तर होते देखा। वह मान गए। उनके तैयार होते ही दूसरे संरक्षकों ने भी अपनी स्वीकृति दे दी। इस साल का बजट दोगुना कर दिया गया। हम बच्चे लंबू भइया के नेतृत्व में एक धमाके दार पूजा की तैयारी में लग गए।
सरस्वती पूजा के एक हफ्ता पहले से ही शहर भर में भोंपू लगाए एक ऑटोरिक्शा घूमने लगा। भोंपू पर हम बच्चे घोषणा करते-आइए नेहरू नगर। सरस्वती पूजा में सबको मिलेगा डीलक्स प्रसाद। एक अद्भुत स्वादिष्ट प्रसाद। जो होगा किस्मत वाला वह प्रसाद के दोने में पाएगा सिनेमा का टिकट। आइए, आइए, अपनी-अपनी किस्मत आजमाइए। हमारा ऑटोरिक्शा सुभाष नगर में खूब देर तक ठहरता। यह शहर के लिए सचमुच अद्भुत प्रयोग था। हालांकि हमारे मोहल्ले के कुछ बुजुर्ग हमारी इस योजना का मजाक उड़ाते। वे पिताजी को पीठ पीछे कोसते थे। उनका कहना था कि वे लड़कों को बिगाड़ रहे हैं। उनकी बातों से हमारा उत्साह कम पड़ने लगता था। लेकिन यह योजना आशा के विपरीत सफल हुई। डीलक्स प्रसाद पाने के लिए शहर के नौजवान ही नहीं, सभी उम्र के लोग उमड़ पड़े। ऐसी अफरातफरी मची कि पुलिस आ गई और उसने हल्का लाठीचार्ज तक किया। इधर प्रसाद का मामला शुरू हुआ तो उधर कुछ बच्चे सुभाष नगर का मुआयना करने लगे। वहां के प्रोग्राम को थोड़ी देर के लिए स्थगित कर दिया गया। कार्यक्रम में दर्शकों की संख्या आधी से भी कम हो गई। सुभाष नगर के ही कई लोग डीलक्स प्रसाद के लिए लाइन में लगे थे।
इस डीलक्स प्रसाद ने लंबू भइया को मोहल्ले का हीरो बना दिया। सब लोग उन्हें पहचान गए। सबसे बड़ी बात यह हुई कि वह पिताजी की नजरों में चढ़ गए। मैंने महसूस किया कि पिताजी में भी अचानक मोहल्लावाद जाग उठा है। वह भी बात-बात में नेहरू नगर वाले या नेहरू नगर के लोग या हमारा नेहरू नगर आदि कहने लगे।
उन्हीं दिनों एक अजीब घटना घटी। रविवार का दिन था। सुबह-सुबह उठकर हम सब मोहल्ले के मैदान में डटे हुए थे। क्रिकेट की प्रैक्टिस चल रही थी। लंबू भइया अपने हमउम्र दोस्तों के साथ वहीं सामने पान की दुकान पर खड़े गप मार रहे थे। तभी जोर-जोर से चिल्लाने की आवाज सुनाई पड़ी। हम सब खेलना छोड़ आवाज की दिशा में दौड़े। आवाज मेरे घर से ही आ रही थी। हमने देखा कि पिताजी के साथ किसी की बहस हो रही है। एक आदमी जोर-जोर से पिताजी से कह रहा था, ‘आप मेरा पेमेंट क्यों नहीं क्लियर करवा रहे हैं, जबकि हम तो आपका हिस्सा पहुंचा चुके हैं।’ इस पर पिताजी ने जोर से डांटकर कहा, ‘हम बकवास नहीं सुनना चाहते।’ अचानक उस आदमी ने पिताजी का कॉलर पकड़ लिया। मैं सन्न रह गया। पिताजी ने उसका हाथ झटका और दौड़कर पान की दुकान के पास पहुंचे। उन्होंने लंबू भइया और उनके दोस्तों से कहा, ‘एक आदमी मेरे घर के सामने मुझे धमका रहा है और तुम लोग चुप खड़े हो। यह तो नेहरू नगर की बेइज्जती है।’
उनकी इस बात का जादू सा असर हुआ। लंबू भइया और उनके दोस्तों ने उस आदमी को मैदान में दौड़ा-दौड़ाकर मारना शुरू किया। जिसके हाथ में जो आ रहा था वह उसकी ओर फेंक दे रहा था। मैं डरकर घर में छिप गया। उस दिन मेरे घर में लंबू भइया की खूब खातिरदारी हुई। मां ने उनके लिए पूरी, कई तरह की सब्जियां और खीर बनाई थी। खाते हुए पिताजी कह रहे थे, ‘मोहल्ले में ऐसी ही एकता की जरूरत है। ठीक है कि हमलोग अलग-अलग जगहों से आकर इस कॉलोनी में बस गए हैं लेकिन अब हमें रहना तो साथ ही है। हर आदमी अगर सुख-दुख में एक-दूसरे का साथ दे तो किसी के जीवन में कोई समस्या ही नहीं रह जाएगी।’
थोड़े ही दिनों बाद एक और बात हुई जो मेरे लिए बड़ी विचित्र थी। एक दिन जब मैं स्कूल से लौटा तो देखा कि लंबू भइया हमारे घर से एक बक्सा उठाए चले जा रहे हैं। थोड़ी देर बाद वह खाली हाथ आए फिर कुछ और सामान लेकर जाने लगे। मुझे लगा कि हमलोग मकान छोड़ने वाले हैं। मैंने मां से पूछा तो उसने कुछ नहीं बताया। पिताजी ने भी डांटकर कहा कि जाओ चुपचाप खेलो। समझ में नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है। खैर मोहल्ले के कई लोगों की खुसुर-फुसुर पर मैने ध्यान केंद्रित किया तो पता चला कि पिताजी इस बात से डरे हुए हैं कि हमारे घर पर छापा पड़ सकता है। इसलिए उन्होंने अपना कीमती सामान, जेवरात, पासबुक वगैरह घर से बाहर दूसरे लोगों के घर में रखवा दिया है। मोहल्ले के लोगों ने अपना फर्ज समझकर हमारा सामान अपने घर में रख लिया। खैर छापा-वापा तो नहीं पड़ा लेकिन इस घटना ने भी मोहल्ले के लोगों में एकता के बीज बोने में अहम भूमिका निभाई।
उसके बाद लंबू भइया का हमारे घर आना-जाना बढ़ गया। भइया, पिताजी से कम मां से ज्यादा बात करते थे। कई बार रेखा दीदी भी बात में शामिल हो जाती थीं। लेकिन थोड़ी देर बाद मां उन्हें डांटकर भगा देती और कहतीं, ‘तुम क्या बात सुन रही हो, भागो। जाकर पढ़ाई करो।’ लंबू भइया मां की कई प्रकार से मदद करते थे। वह हमारे घर का गेहूं पिसवा कर लाते। कई बार पापड़ या बड़ियां बनाने और उन्हें सुखाने में हाथ बंटाते। मुझे थोड़ी हैरत होती भी थी कि लंबू भइया का मन इन सब चीजों में कैसे लगता है। फिर मैंने सोचा कि यह जरूर मोहल्ला प्रेम की ही देन है। मैंने उन्हें प्रसन्न करने के लिए राष्ट्रगीत की तर्ज पर मोहल्ला गीत बनाया। उसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार थीं- नेहरू नगर हमारा, प्राणों से भी प्यारा,
हम हैं इसके बच्चे सच्चे, यह आशियां हमारा।
घर-घर इसका प्रेम से रोशन, लुटो दो इस पर निज तन-मन,
संकट की हर आंधी में, दिया है इसने सहारा...।
लंबू भइया ने इसे सुनकर पिताजी के सामने प्रस्ताव रखा कि क्यों न नेहरू नगर में बच्चों की काव्य प्रतियोगिता करवाई जाए। इस प्रस्ताव को लेकर पिताजी ने कोई खास उत्साह नहीं दिखाया बल्कि यह कहा कि उनके पास एक अलग योजना है जिसका ऐलान वह मोहल्ले के लड़कों के सामने करना चाहते हैं। अगले रविवार की सुबह नेहरू नगर के सभी आयु वर्ग के लड़कों को हमारे घर बुलाया गया। पिताजी ने घोषणा की कि इस बार रक्षाबंधन के दिन नेहरू नगर की सारी लड़कियां मोहल्ले के सारे लड़कों को राखी बांधेंगी। मोहल्ले के सारे भाइयों को मोहल्ले की बहनों की रक्षा का दायित्व लेना होगा। यह सुनकर हमारी उम्र के बच्चे अति प्रसन्न हुए पर लंबू भइया और उनके दोस्तों के चेहरे लटक गए। फिर भी उन्होंने फीकी हंसी हंसते हुए प्रस्ताव का समर्थन किया।
रक्षा बंधन के दिन लंबू भइया कहीं नजर ही नहीं आए। उन्हें बुलाने के लिए लोगों को उनके घर दौड़ाया गया। वह अकेले एक कमरा लेकर रहते थे। जब लोग वहां पहुंचे तो उन्होंने दरवाजे पर एक बड़ा ताला लटकता पाया। पिताजी बहुत खिन्न हुए। उनके चेहरे के भाव से ऐसा लगा जैसे उन्हें अपनी यह योजना व्यर्थ लग रही हो। मुझे समझ में नहीं आया कि एक लंबू भइया के न रहने से क्या फर्क पड़ता है। खैर किसी तरह आयोजन संपन्न हुआ। लंबू भइया तीन-चार दिनों के बाद नजर आए। बताया कि उनकी नानी की तबीयत अचानक खराब हो गई थी, सो उन्हें हड़बड़ी में गांव जाना पड़ा। पिताजी ने उन्हें इस तरह देखा जैसे उन्हें इस बात पर यकीन न हो रहा हो। मां ने भइया को उलाहना दिया कि रेखा तो बार-बार उनके बारे में पूछ रही थी कि वह कब राखी बंधवाने आएंगे। मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने तो रेखा दीदी को एक बार भी ऐसा कहते नहीं सुना था।
कुछ दिनों के बाद रेखा दीदी की परीक्षा होने वाली थी। वह मैट्रिक में एक बार फेल हो चुकी थीं और दूसरी बार फिर परीक्षा देने वाली थीं। घर में इस बात की चिंता थी कि आखिर वह इस बार भी पास होंगी या नहीं। मां और पिताजी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि रेखा दीदी के लिए नकल कराने का इंतजाम कराया जाए क्योंकि उसके बगैर उनका पास होना संभव नहीं। पर क्या नकल कराना आसान है? इसके लिए पहले से जाल बिछाना होगा। सेंटर इंचार्ज, टीचर, दारोगा-सिपाही सबको पटाना होगा। पिताजी ने पहले ही हाथ खड़े कर दिए कि इन सब के लिए उनके पास वक्त नहीं है। मां ने रास्ता निकाला। क्यों न लंबू भइया को यह जिम्मेदारी दी जाए। लंबू भइया को तो इसके लिए तैयार होना ही था। आखिर मोहल्ले की लड़की की इज्जत की बात थी। पिताजी ने कहा कि चाहे जितना खर्चा हो वो ले लें और किसी तरह चीटिंग कराने का जुगाड़ लगाएं।
परीक्षा के दो दिन पहले लंबू भइया अपनी मंडली के साथ एग्जामिनेशन सेंटर का दौरा कर आए। वहां उन्होंने किसी तरह सिटिंग अरेंजमेंट का भी पता लगा लिया। मालूम हुआ कि दीदी की सीट खिड़की के किनारे है। रणनीति यह बनी कि परीक्षा शुरू होते ही दीदी खिड़की से प्रश्नपत्र नीचे गिरा देंगी और लंबू भइया धीरे-धीरे खिड़की से उत्तर की सप्लाई करते रहेंगे। दीदी की सीट परीक्षा भवन के पहले फ्लोर पर थी यानी उस कमरे की खिड़की तक पहुंचने के लिए लंबू भइया को विशेष प्रयास करना पड़ता। तय हुआ कि लंबू भइया साइकिल पर चढ़कर खिड़की तक पहुंचेंगे। लंबू भइया की यह योजना कामयाब रही और दीदी तक सफलतापूर्वक चिट पहुंचाई जाती रही। लेकिन अंतिम पेपर में मामला गड़बड़ा गया। लंबू भइया साइकिल पर चढ़े हुए चिट सप्लाई कर ही रहे थे कि तभी न जाने कैसे संतुलन थोड़ा गड़बड़ाया और साइकिल गिर गई। लंबू भइया अपने को संभालने के लिए झट से खिड़की का रॉड पकड़ कर लटक गए। कुछ देर लटके रहे। तभी हल्ला हुआ कि मजिस्ट्रेट अपने लाव-लश्कर के साथ आ रहा है चेकिंग के लिए। नीचे शोर मचा। घबराहट में भइया का हाथ छूटा और वह गिर पड़े। लेकिन गिरते ही संभले और किसी तरह भागे। पर ज्यादा दूर नहीं जा पाए। पैर में इतना दर्द उठा कि चलना मुश्किल हो गया। उनके दोस्त उन्हें पास के अस्पताल में ले गए। वहां पता चला कि एक पैर में फ्रैक्चर है। नेहरू नगर में यह खबर आग की तरह फैल गई कि रेखा दीदी को नकल करवाने के चक्कर में लंबू भइया ने अपना पैर तुड़वा लिया।
भइया घर लाए गए। मोहल्ले के लोगों ने उनकी सेवा-टहल और खाने का जिम्मा ले लिया। तय किया गया कि बारी-बारी से मोहल्ले के हरेक घर से उनके लिए खाना और नाश्ता आएगा। इसी तरह लड़कों की ड्यूटी लगाई गई कि कौन कब उनके साथ रहेगा। लंबू भइया की इतनी खातिरदारी होते देख मुझे तो ईर्ष्या होने लगी। सोचने लगा कि काश मैं भी कुछ ऐसा करता कि इसी तरह लोग मेरे भी आगे-पीछे रहते। खैर लंबू भइया का टांग तुड़वाना व्यर्थ नहीं गया। रेखा दीदी सेकंड डिवीजन में अच्छे नंबरों से पास हो गईं। तब तक लंबू भइया का पैर भी ठीक हो गया। मोहल्ले के लोगों को उम्मीद थी कि अब उन्हें शानदार दावत मिलेगी। पिताजी ने दावत दी भी लेकिन उसमें नेहरू नगर के बस दो तीन लोगों को बुलाया गया जो पिताजी के साथ उठते-बैठते थे। बाकी इंजीनियर, ठेकेदार और कुछ अधिकारी थे। दावत में लंबू भइया तक को नहीं बुलाया गया था। मैं इस बात से बेहद दुखी था। इस मौके पर गांव से मेरे दो चाचा भी आए थे।
दावत देर रात तक चली। इस कारण मैं काफी देर से सोया। सुबह मेरी नींद शोर-शराबे से खुली। कई लोग जोर-जोर से कुछ बोल रहे थे। कई वाक्य टूट-टूटकर मेरे पास पहुंच रहे थे- आस्तीन का सांप.. ये सिला दिया तुमने ...लु्च्चा कहीं का .. काट कर फेंक देंगे..मोहल्ला छोड़ दो वर्ना...। आवाजें जानी पहचानी थीं। इनमें कुछ वाक्य पिताजी के थे तो कुछ चाचाओं के, लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब किस को संबोधित करके कहा जा रहा है। मैं जल्दी से उठकर खिड़की से बाहर ताकने लगा। मैंने देखा कि लंबू भइया तेजी से हमारे घर के अहाते से बाहर निकल रहे हैं। मैं दौड़कर बाहर आया। मुझे यह समझते देर न लगी कि पिताजी और चाचा लंबू भइया पर चिल्ला रहे हैं। लेकिन क्यों? मैं लंबू भइया के पीछे दौड़ा। मुझे पिताजी ने पीछे से पकड़ लिया और कहा, ‘जाओ तुम अंदर।’ मुझे झटका लगा। मैंने मां से कारण पूछा तो उसने भी डांट दिया। मैं दिन भर उधेड़बुन में रहा। शाम में हम सब लोग लोग घूमने गए इसलिए मैं मोहल्ले के दोस्तों से मिल नहीं सका।
अगले दिन जब मैं बाहर निकलने लगा तो पिताजी ने कड़े शब्दों में हिदायत दी कि मुझे मोहल्ले के बच्चों से दूर रहना है। मेरे लिए शाम के वक्त ट्यूशन रख दिया गया, इसलिए मेरा बाहर निकलना बड़ा मुश्किल हो गया। मैं यह जानने के लिए बहुत उत्सुक था कि आखिर लंबू भइया के साथ हुआ क्या? क्यों उन पर घर के लोग चिल्ला रहे थे और क्यों लंबू भइया ने हमारे घर आना छोड़ दिया। लेकिन यह बताने वाला कोई नहीं था। हमारे स्कूल में नेहरू नगर का एक लड़का पढ़ता था। मैने उससे भइया के बारे में पूछा तो उसने केवल इतना ही बताया कि वह नेहरू नगर छोड़कर कहीं चले गए हैं। मुझे उनकी बहुत याद आती थी। एक बार मैंने डरते-डरते पिताजी से चर्चा की तो वह नाराज होकर बोले कि आज के बाद उसका नाम मत लेना। जब भी मौका मिलता मैं लंबू भइया के दोस्तों, नेहरू नगर की महिलाओं, बुजुर्गों की बातें सुनने की कोशिश करता। काफी दिनों के बाद थोड़ा बहुत संकेत मिला। कुछ लोगों का मानना था कि लंबू भइया ने पिताजी के पैसे मार लिए। हालांकि मुझे इस पर जरा भी यकीन नहीं हुआ।
धीरे-धीरे मोहल्ले के लोगों ने लंबू भइया को भुला दिया। उनके कारण नेहरू नगर में जो माहौल बना था वह भी खत्म हो गया। मैं मैट्रिक करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चला आया। मैं यहां भी लंबू भइया को खूब याद करता था। मुझे बार-बार उस दिन का लंबू भइया का चेहरा याद आता था, जब मैंने उन्हें अपने अहाते से बाहर निकलते देखा था। हमेशा खिलखिलाते रहने वाले चेहरे पर पहली बार बार मैंने बेचारगी देखी थी। उस घटना के करीब पांच साल बाद एक दिन मेरे पास पिताजी का फोन आया। उन्होंने कहा, ‘जल्दी से चले आओ। तुम्हारी दीदी की शादी तय हो गई है।’ बड़ी मुश्किल से रेखा दीदी की शादी तय हो पाई थी। न जाने कितनी जगहों पर बात बनते-बनते बिगड़ जाती थी। मैं काफी प्रसन्न हुआ। उसी रात घर के लिए निकल पड़ा। शादी धूमधाम से संपन्न हुई। वैसी सजावट मोहल्ले में पहली बार लोगों ने देखी थी। मेरी आंखें उस दिन भी न जाने क्यों लंबू भइया को ही ढूंढ रह थी। मैंने मोहल्ले के कछ लोगों के सामने उनकी चर्चा की तो उन्होंने ऐसे मुंह बनाया जैसे पहली बार उनका नाम सुन रहे हों।
रेखा दीदी के विदा होने के बाद मैं बेहद उदास उनके कमरे में बैठा था। मैंने देखा कि उनकी पलंग के नीचे ढेर सारी किताब-कॉपियां बिखरी हैं। मैंने सोचा, उन्हें व्यवस्थित करके एक जगह रख दूं। मैं उत्सुकतावश उनकी पुरानी कॉपियां उलटने लगा। उनकी आखिरी पेजों पर बहुत सुंदर स्केच बने हुए थे। मै दंग रह गया। दीदी तो कलाकार हैं। पर इसके बारे में किसी को कुछ मालूम तक नहीं। उन्होंने मुझसे भी इस बारे में कभी कुछ नहीं बताया। तभी एक कॉपी के एक स्केच पर नजर ठिठक गई। यह चेहरा जाना-पहचाना लगा। अरे, यह तो लंबू भइया थे। नीचे में बहुत छोटी लिखावट में कुछ पंक्तियां लिखी गईं थीं। पढ़ा तो मेरे होश उड़ गए। दीदी ने लिखा था-‘इस लंबू को क्या मालूम कि यहां उसकी तस्वीर है। वैसे उसकी तस्वीर तो मेरे मन में है।’ कहीं दीदी की यह कॉपी पिताजी के हाथ तो नहीं लग गई थी? मेरे सामने पांच साल पहले का वह दृश्य घूम गया, जब लंबू भइया हमारे घर के अहाते से बाहर निकल रहे थे।
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