पढ़ने की रंगीन कला Dr Musafir Baitha द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पढ़ने की रंगीन कला

कहानी

पढ़ने की रंगीन कला

एक लोकल ट्रेन यात्रा में बिहारी सफ़र का अनुभव साझा कर रहा हूँ. तब मैं दैनिक यात्री था. गया से पटना नौकरी के क्रम में नित दिन का आना-जाना था. पर अनुभव बांटने से पहले पढ़ने के तरीके पर कहानी की बतौर सहचरी भूमिका एक बात. पुस्तकों को पढ़ने वाले कुछ थूक-अभ्यासी लोग भी होते हैं जो अपनी जीभ पर तारी लार अथवा तरल द्रव्य से अपनी तर्जनी के अग्र भाग को भिंगो कर पन्ने पलटने में उसके प्रभाव का इस्तेमाल करते हैं. (बैंकों के कैशियर नोट गिनने का काम पानी से भींगे स्पंज के स्पर्श से करते हैं. हालांकि वहाँ अब मशीनें भी नोट गिनने के काम में लगी हैं.) जो पन्ने सहज ही उलटने-पलटने को तैयार नहीं होते उन्हें यह तरलता मना लेती है. जब आपकी जीभ रंगी होगी तो स्वाभाविक रूप से उसकी तरलता का प्रभाव भी उसके योग या कि प्रताप से उलटे पन्ने पर रंगीन-मिजाज़ ही पहुंचेगा! जैसे, कोई पान खाकर यदि इस उलट-पुलट के कार्य को अंजाम दे तो परिणाम बेशक, टहटह लाल यानी रंगीन असर का होगा!

यात्रा में मेरा सहयात्री भी पान चाभ रहा था. लिखंत-पढ़न्त के प्रति आम उदासीनता के इस घोर कलि-काल में अधेड़ अवस्था के बावजूद पढ़ने की ललक बाकी थी उसमें. मेरे लिए यह इत्मीनान से अधिक सुखद आश्चर्य की बात थी इस यात्रा-संहाती में! पढ़ने की अपनी हॉबी को पूरा करने के मामले में यह यात्री अपनी पॉकेट को ढीला करने में भले ही कंजूसी बरतने वाला हो सकता हो मगर फ़ोकट में पढ़ने का मौका मिलने को गंवाना वह शायद कतई पसंद नहीं करता था! मैं सफ़र को सहज काट्य बनाने के लिए, बोरियत प्रूफ करने के लिए बहुतेरे अन्य लोगों की तरह ही आमतौर पर पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं को उपादान बनाता हूँ. इस बार एक हिंदी समाचार पत्रिका इस भूमिका में थी. सुबह की ‘पी.जी.’ को पटना जंक्शन से गया जाने के लिए पकड़ा था. बताते चलें कि गौतम सान्याल ने ‘हंस’ में प्रकाशित ‘पी.जी. भौजी’ नामक अपनी बेहतरीन व्यंग्य कहानी में पटना-गया लोकल डी.एम.यू. ट्रेन को ‘पी.जी. भौजी’ नाम दिया है. भौजी (भाभी) से जिस तरह देवरों का मजाक का नाता होता है, परिहास का रिश्ता होता है वैसे हि इस रूट के यात्री इस ट्रेन से मनमौजी छेड़छाड़ करते हैं. मन हुआ तो ट्रेन की जंजीर खींची और अपने स्टेशन से पहले ही अपने गंतव्य के गाँव अथवा कस्बे के पास उतर गए अथवा अपने प्रियजनों को चढ़ाने के लिए कहीं भी ट्रेन को रोक लिया. टिकट कटाने की तो खैर सोचना ही क्या? जब भौजी ही है तो पैसे खर्च कर क्यों सवारी करना!

ट्रेन के मीठापुर बाइपास ओवरब्रिज से आगे निकलने और पटना शहर के सघन नागरी हिस्से के पीछे छूटने के साथ ही मैंने अपने ऑफिस बैग से पत्रिका निकालकर उसमें अपनी आँखे गड़ा दीं. सहयात्री खिड़की पर था और मैं उसकी बगल में. वह पिच्च पिच्च थूक कर बार-बार अपनी पान-पीक गाड़ी-बाहर कर रहा था. जब उसके मुंह से पीक लगभग निःशेष हो गया और अभी ठोस-पदार्थ अन्दर ही था, तो यह पदार्थ यानी पान की गिल्लौरी मुंह में दाबे और मुंह चबर-चबर चलाते हुए वह भी अपना सर मेरे ही साथ मेरी पत्रिका में घुसेड़कर अध्ययन-कार्य में बेसाख्ता दाखिल हो गया! उनकी यह ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ वाली ढीठ कार्रवाई मुझे बेहद असहज कर रही थी, थी तो यह अतिरेकी अध्ययन-उत्सुकता एक असभ्यता का नमूना भी, पर इधर से भी समभाव तो नहीं ही हुआ जा सकता था न! फ़िर, सहयात्री की बेकरारी एवं बॉडी लैंग्वेज को भी मैंने मनोविज्ञान के हवाले से परीक्षित किया! मेरे प्रत्युत्पन्नमतित्व ने संयोगवश यहाँ काम किया! मैंने झट ही पत्रिका उस पढ़ने को बेकरार बगलगीर को ही थमा देने में अपनी भलाई समझी. वह ‘अनन्य’ पाठक बिना किसी ना-नुकुर के, बल्कि मुखड़े पर हुलस के छींटे जाहिर करते हुए, “बस, थोड़ी देर में लौटाता हूँ”, का आश्वासन थमाकर पढ़ने में मगन हो गया, और मैं खिड़की से बाहर के दृश्य झाँकने में. मगर, यदा-कदा निगाहें तो पत्रिका की तरफ चली ही जा रही थी मेरी. अचानक क्या देखता हूँ कि जनाब पत्रिका को ऊँगली के सहारे अपनी जीभ से उधार ली रंगीनी का बार बार इस्तेमाल बड़े इत्मीनान से पन्ना पलटने में किये जा रहे हैं. देखते ही देखते पत्रिका के अधिकांश पलटे पन्नों पर रंगीनी का पुरजोर असर दिखने लगा. जब मनभर अपनी अनोखी जिह्वा-सह-हस्त कला का प्रदर्शन और पत्रिका-पठन का कार्य उन्होंने पूरा कर लिया और उनका गंतव्य स्टेशन अब अगला ही था, तो उतरने की गरज से अपनी सीट छोड़ते हुए धन्यवाद की औपचारिकता के साथ विहंसित-मुख वे पत्रिका लौटाने को मेरी तरफ मुखातिब हुए. मैंने पत्रिका को छुआ भर, उनके हाथों में ही रहने दिया और कहा, “भाईसाहब! खैर, पत्रिका पढ़ तो नहीं पाया था मैंने, उलटाया भर था, पर अब यह आपके रंग में रंग कर आपके पास ही रहने की अधिकारिणी हो गयी है. आप निःसंकोच इसे अपने साथ लेते जाएँ.” यह सुनते ही उनका चेहरा विस्मय, शर्म और संकोच के सम्मिश्रण भरे आवरण से आच्छादित हो गया, जिसमें कुछ अंदरूनी आक्रोश जनित तनाव के तत्व भी सम्मिलित थे. एकबारगी मेरी तरफ से हुई इस प्रतिक्रिया के लिए वे बिलकुल तैयार न थे. कम्पार्टमेंट में आसपास बैठे कुछ लोगों की निगाहें भी हमारे संवाद पर थीं, माजरा वे बखूबी थाह रहे थे. यात्रा-संहाती ने झिझक के साथ अपनी शर्ट की उपरली जेब से पत्रिका की कीमत के बराबर मूल्य के दो छुट्टे नोट निकाले और मेरे हाथ की और बढ़ा दिए. मैंने पैसे लेने से साफ़ इनकार कर दिया और फौरन यह कहा, ”भाईसाहब! कृपया, अन्यथा न लें. पत्रिका मैं बेचने के लिए थोड़े ही खरीदता हूँ. और, जैसा कि मैं समझता हूँ, आपसे पत्रिका का दाम वसूलना मेरी नादानी होगी. मैं तो बस, पत्रिका के रंगीन तबीयत की हो जाने के चलते उसे आपके हाथों में रहने देना चाह रहा हूँ! इस हाल में मैं उसे पढ़ नहीं पाऊंगा.” इस बात-बहस बीच ट्रेन धीमी होने लगी थी. आगे कुछ बतियाने-समझाने के लिए भाईसाहब के पास वक़्त भी नहीं बचा था, वे अलविदा का संकेत कर ट्रेन के गेट की तरफ हड़बड़ा कर बढ़ गए. मेरी बौगी से ही किसी ने अगला स्टेशन आने से पहले ही चेन खींची थी और इस यात्री को भी उतरने की हांक लगाई थी.

एक जिज्ञासा मेरी अबतक बनी हुई है कि पता नहीं, बाद को भी उनने मुफ्त पढ़ने की वह आदत, खासकर, अजनबियों के साथ लग कर अपना रंगीन असर देने वाली, बदली कि नहीं!

# मुसाफ़िर बैठा

संपर्क:बसंती निवास, दुर्गा आश्रमगली,शेखपुरा, डाकघर- बिहार वेटनरी कॉलेज, शेखपुरा, पटना-800014 मोबाइल: 09835045947, ईमेल musafirpatna@gmail.com