सविता सिंह
की
लघुकथाएं
( प्रथम खंड )
सविता सिंह
तीन दशक से रचनारत। नब्बे के दशक में ‘जनसत्ता’ से जुड़कर अविभाजित बिहार की लुप्तप्राय शताधिक लोककथाओं का संग्रह और रचनात्मक पुनर्सृजन। इसका वृहद संग्रह राजकमल प्रकाशन से प्रकाशनाधीन। सामयिक विषय-संदर्भों पर नियमित लेखन के साथ ही कहानी, लघुकथा और कविता विधाओं में रचनाएं। संप्रति : स्वतंत्र लेखन।
ईमेल : savitasingh.singh7@gmail.com
एकजैसेपन को तोड़
देने वाली रचनाएं
हिन्दी में तीन दशक की रचनात्मक सक्रियता के बाद भी लघुकथा विधा को लेकर संशय का भाव समाप्त नहीं हो रहा। इसकी दो वजहें हैं। प्रयोगधर्मी बहुआयामी रचनाधर्मिता का अभाव और कुछ अतिउत्साही कमपढ़ तत्वों की लगातार जारी धमाचौकड़ी। दुखद आश्चर्य की बात तो यह कि लघुकथा में रचनाकारों से अधिक नियमितता के साथ धमाचौकड़ीबाजों की पीढि़यां क्रमश: विकसित, अग्रसरित और माहौल पर आरोहित होती चल रही हैं। ऐसे तत्व चूंकि औने-पौने और अपरिपक्व तर्कों के साथ किसी से भी उलझने को सदा तत्पर-तैयार बैठे रहते हैं, इसलिए कोई भी जवाबदेह रचनाकार इनसे भरसक बचते हुए दूर से ही निकल लेने में अपनी भलाई समझता है। यही वजह है कि लघुकथा में महत्वपूर्ण रचनाकार या तो चाहकर भी सक्रिय नहीं हो पा रहे या यदि वह कुछ लिख भी रहे तो यहां व्याप्त धमाचौकड़ी और फार्मूला-लेखन की गहरी धुंध में उनकी रचनाएं गुम-सी होकर रह जा रहीं।
विडंबना यह भी कि जो ढर्रेबाज तत्व हैं उनमें इससे मुक्ति का कोई प्रयास तो नहीं ही गोचर हो रहा, उल्टे उन्हें नए रचनाकारों को भी खुलेआम फार्मूलेसिखाते भी देखा जा रहा है। इसके बावजूद वही अत्यल्प रचनाएं इस विधा का आधार गढ़ रही हैं जिनमें प्रयोगधर्मिता के साथ ही साथ सूक्ष्म संवेदनाओं की प्राणवंत चमक विद्यमान है। आंदोलन के शोर से अलग रहकर एकांत भाव से लगभग तीन दशक से लघुकथा लिख रहीं सविता सिंह की रचनाएं इसी कोटि में आती हैं। हालात को खोलती, मानवीय गरिमा को ऊंचे प्रतिष्ठापित करती और सकारात्मक परिवर्तन की राह गढ़ती प्राणवान कृतियां।
लघुकथा विधा में कथनी-करनी विरोधाभास से लेकर पुलिसिया क्रूरता और कार्यालयी भ्रष्टाचार आदि जैसे सतही संदर्भों की अतिव्याप्ति लंबे समय से कायम है। इसके कारण एकजैसापन उत्पन्न और स्थिर होकर रह गया है। सविता सिंह की यहां प्रस्तुत लघुकथाएं इस एकजैसेपन को प्रभावशाली ढंग से तोड़ रही हैं। इन रचनाओं में कथा-तत्वों का विन्यास अपने अलग ही अंदाज में साकार हुआ है। ‘मम्मी और मां’ में कोमल बच्चे के मासूम सवाल ने जिस तरह पूरे समय-समाज को एक झटके के साथ प्रश्नग्रस्त कर दिया, यह जितना ही मर्मस्पर्शी है उससे कहीं अधिक मर्मभेदी। ‘मुर्दे’ में चिकित्सा क्षेत्र की लाइलाज होती व्यावसायिकता और अमानवीयता का सटीक चित्र है जबकि ‘चमक’ में तीन पीढि़यों की संवेदनाओं का आकर्षक समुच्चय वस्तुत: प्रबल इच्छाओं का ऐसा परिदृश्य है जो मानवता और दुनिया को नया पाठ पढ़ा रहा है। ‘मुस्कुराना’ और ‘शुरुआत’ में समाज के गड़बड़ ढांचे को हल्के आघात के साथ जोरदार झटका पहुंचाया गया है। इन रचनाओं की खूबसूरती यह कि बुनावट ही नहीं इनकी सिलाई भी ऐसी महीन संभव हुई है कि इनमें कहीं कोई कटाई-छंटाई या तगाई नहीं दिखाई पड़ती जबकि पाठक-मन पर इनका प्रभाव इतना सघन चस्पा हो रहा कि इस मामले में उनकी सार्थकता बड़े आकार-आयतन की कृतियों से भी कहीं अधिक सिद्ध होकर पेश हो रही है। इन रचनाओं में पाठक को तृप्त ही नहीं बल्कि स्वयं के अभीष्ट मान-मूल्यों से संबद्ध भी कर लेने की क्षमता हैं। रचनात्मक क्षुधा-तृष्णा वाले पाठक इसे अमृत-कण की तरह ग्रहण कर संतृप्त हो सकते हैं।
- श्याम बिहारी श्यामल
मम्मी और मां
मिसेज चावला के घर मिसेज सिंह अपने छोटे बेटे को लेकर आई हुई थी. दोनों गप्पें मार रही थीं. बच्चा बेचारा बारी-बारी से दोनों का चेहरा ताक रहा था. मिसेज चावला ने बच्चे को बोर होते देख लिया. बोली, '' बेटा, लॉन में झूला है, जाओ खेलो।''
बच्चा खुशी-खुशी बाहर चला तो गया लेकिन थोड़ी ही देर बाद रोता हुआ अंदर वापस भी आ गया. मिसेज सिंह ने देखा, बेटे के मुंह से खून निकल रहा है. उसके आगे के दो दांत भी टूटे दिखे. बच्चे ने रो-रो कर बताया कि बाहर झूले पर एक गंदा-सा बच्चा बैठा है मैंने उसे हटने को कहा तो नहीं हटा और मुझे ऐसा धक्का दे मारा कि मैं मुंह के बल जमीन पर जा गिरा.. वह पीछे से चिल्लाता रहा कि मां का दूध पिये हो तो हमें हिलाकर दिखाओ. .. मम्मी, यह मां का दूध होता क्या है! ..’’
मुर्दे
सूरज का बीमार बेटा नर्सिंग होम के आईसीयू में है. वहां रोगी के पास तीमारदार नहीं रह सकता. वह बस लगातार दवाइयां ढोकर पहुंचाने में जुटा है.
शाम में डाक्टर ने उसे चेंबर में बुलवाया. वह पहुंचा तो उन्होंने तत्काल ऑपरेशन की आवश्यकता बताते हुए दो लाख रुपये का इंतजाम करने को कहा. साधारण आदमी के लिए अचानक इतनी बड़ी धनराशि जुटाना कितनी बड़ी मुसीबत की बात! दूसरे दिन पत्नी के सारे गहने और घर तक को बंधक रख देना पड़ा. खैर, किसी तरह इंतजाम हो गया. छोटे-से बैग में रुपये लिए वह शाम में अस्पताल पहुंचा. काउंटर पर वह रुपये जमा कराने लगा. डाक्टर ने बगल से गुजरते हुए उसे देख लिया और रुक गए. उन्होंने बहुत गहरी सहानुभूति जताते हुए पूछा, ‘’..रुपये का इंतजाम हो गया ? ‘’
‘’.. जी, बहुत मुश्किल हुई लेकिन हो गया.. ‘’
‘’.. ठीक है ..अभी देर नही हुई, सब संभल जाएगा ..मैं तुमको सुबह से ही खोज रहा हूं.. बच्चे की हालत बहुत गंभीर हो गई है.. तुरंत ऑपरेशन करेंगे..’’ बोलते हुए डाक्टर दूसरी ओर अपने चेंबर की ओर बढ़ गए.
उनके जाने के बाद सामने के दूसरे वार्ड में खड़े एक वार्ड ब्वाय ने दूर से ही सिर हिलाकर उसे कुछ संकेत दिया. उसकी समझ में कुछ आया नहीं. वह आसपास के लोगों से नजरें बचाता हुआ सिर हिला-हिलाकर बार-बार आईसीयू की ओर इशारा करता रहा. उसके हाव-भाव से यह स्पष्ट था कि वह कोई बात गोपनीय ढंग से बताना चाह रहा है. सूरज काउंटर से बढ़कर आईसीयू की ओर गया. गेट पर नर्स ने उसे रोका. उसने हाथ जोड़कर बताया कि उसका बेटा भीतर भर्ती है. वह सामने से हटी तो वह भीतर घुस गया. बेटे के बेड के पास पहुंचकर उसने उसके माथे पर हाथ रखा. दूसरे ही पल जैसे उसके होश उड़ गए. उसका शरीर बर्फ की तरह ठंडा पड़ा था. वार्ड ब्वाय उसके सामने आ चुका था. उसने आते ही धीरे-से बताया, ‘’ ..यह कल शाम को ही ठंडा हो चुका है..’’
अटूट बंधन
सर्वेश्वर दयाल सिंह बड़े ही धुमधाम से पुत्र आकाश की बारात लेकर समधियाने पहुंचे. वहां जोरदार स्वागत. उत्तम खान-पान, बरातियों के टिकने का बेहतर इंतजाम. शुभ मुहूर्त में विवाह संपन्न हो गया.
जनवासे में खुशनुमा माहौल में बाराती हंसी-मजाक व समधियाने की बड़ाई कर रहे थे तभी वहां लड़की के पिता महेन्द्र सिंह आए. हाथ जोड़ कर सर्वेश्वर दाल जी से बोले, '' समधी जी, मैंने आपलोगों की सेवा में कोर्इ कमी नही की अपनी ओर से, बावजूद इसके अगर कोई कमी-बेसी हो गई हो तो मै आप सब से क्षमा प्रार्थी हूं. सर्वेश्वर दयाल जी ने समधी साहब के जुड़े हाथों को अपने दोनों हाथों में समेट लिया और गदगद स्वर मे बोले,'' आपकी खातिरदारी की बात ही हमलोग कर रहे थे. हमारी आशा से अधिक आपने किया. हम आप जैसे परिवार से रिश्ता जोड़कर धन्य हो गए. अब मेरी एक विनती है आपसे. आशा है आप उसे मना नही करेंगे. ''महेन्द्र सिंह भी समधी साहब के व्यवहार से गदगद हो गए. भरे स्वर में बोले,'' आज्ञा करें.'''' जी आज्ञा नही, गुजारिश है. मैं चाहता हूं कि कोमल बिटिया को आपने जो भी उपहार दिया है उसकी आप दो सूची बनाए. उस सूची पर मेरी और आपकी ओर से दो-दो लोग हस्ताक्षर करेंगे. यह सब हम यहां के थानेदार साहब के समक्ष करेंगे. मैंने उन्हें फोन करके यहां बुला लिया है बस वे आते ही होंगे.'' मीठी (हल्की) मुस्कान के साथ सर्वेश्वर बाबू ने कहा.
महेन्द्र सिंह के चेहरे का रंग उड़ गया. वे हकलाते से बोले,'' इन सबकी क्या आवश्यकता है. हमलोग तो अब एक परिवार हो गए हैं. अब तो हमारा अटूट बंधन हो गया है. क्षमा करे मुझसे यह न होगा.''
सर्वेश्वर दयाल जी खिलखिलाकर हंस पड़े और हंसतें हुए ही बोले,'' अपने इसी अटूट ब्ंधन को मजबूत करना चाहता हूं. अब तो कानूनन यह नियम बन गया है कि विवाह में किए गए लेन-देन की सूची थाने में पंजीकृत हो. लेकिन हमारा समाज वो भी खासकर लड़की वाले भला ऐसी गलती कर सकते हैं नही ना. उन्हें रिश्ता जोडना है तोडना नही इसीलिए वे ऐसा कोई काम नही करेंगे जिससे कि लड़के वाले पागल घोड़े की तरह बिदक जाए. मैं भी शायद नहीं करता किन्तु हाल ही में मेरे प्ाड़ोस में हुई एक घटना ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया और मैं ऐसा करने के लिए अपनेआप से वादा किया. हुआ कुछ यूं कि पड़ोस की बहू की किसी हादसे मे मृत्यु हो गई और बहू के माता-पिता ने पता नही क्या-क्या इल्जाम लगाया उनपर और ऐसे-ऐसे सामानों की सूची पुलिस को दी कि हमारे पड़ोसी सकते में आ गए. आज बिचारे जेल की हवा तो खा ही रहे हैं धन-संपति से भी हाथ धो बैठे हैं. मैं ऐसा नही चाहता. भविष्य के गर्भ में क्या है कौन जानता है. ऐसा करने से न तो हमारा नुकसान है और ना ही आपका. यह तो बस एक सुरक्षा के तहत की गई हमारी एक नई शुरूआत होगी जो समाज के लिए भी आगे चलकर एक मिसाल बनेगी और इससे बेगुनाह लोग भी सुरक्षित हो जाएंगे. किसी न किसी को तो कदम उठाना ही पड़ेगा. तो हमलोग क्यों नहीं. और यह कदम तो मैं उठा रहा हूं इसलिए आपको चिंता करने की कोई आवश्यकता ही नही है. हंसकर कहिए मंजूर है ना.
'' जी, मंजूर है.'' हंसकर महेन्द्र सिंह ने कहा. तभी थानेदार साहब भी आ गए. कागजी खानापूर्ति के बाद दोनों समधी एक-दूसरे के गले लग गए. सबने तालियां बजाकर इनका समर्थन किया.
चमक
सूर्य उदित होने वाला था. समीर अपने पिता तथा चार वर्षीय पुत्र आर्यन के साथ समुद्र किनारे पहुंच गया. वहां ठंड़ी हवा ने उनका स्वागत किया. नन्हे आर्यन ने आव देखा ना ताव, मस्ती मे दौड़ पड़ा. उसे पकड़ने उसके पीछे समीर भी दौड़ पड़ा. अचानक उसके दौड़ते कदम ठिठक से गए. पीछे मुड़कर देखा तो पिताजी धीमे कदमों से उनकी ओर आ रहे थे. उसने मुड़कर एक नजर भागते आर्यन पर डाली और फिर एक नजर पिता जी पर. उनदोनों के बीच वह कुछ क्षण खड़ा रहा. फिर समीर आर्यन की ओर मुड़ा और उसे आवाज लगाई,'' आर्यन, रुको...दादाजी का हाथ पकड़कर चलो..'' अच्छे बच्चे की तरह आर्यन दादा जी के पास दौड़ कर आया और उनकी अंगुलियों में अपनी अंगुली फंसा दी. दादा जी मुस्कुरा दिए. तभी लाल सूरज क्षितिज में चमकने लगा. आर्यन चिल्लाया, '' दादा जी, लाल सूरज!''
दादा जी ने चहकते हुए कहा, '' आर्यन, तुम्हें मालूम है यह सूरज दादा हैं ना , मालूम है इनके साथ क्या हुआ था एक बार.''
‘’..क्या हुआ था दादा जी ?...’’ आर्यन की आवाज में जिज्ञासा चमक उठी।
‘’.. हुआ यह कि एक बार जब वह इसी तरह आसमान में लाल-लाल चमक रहे थे, वहां से गुजरते बालक पवनसुत ने उन्हें लाल फल समझ लिया और खा गए.. सूरज के गायब होते ही चारों तरफ अंधेरा छा गया.. हाहाकार मच गया.. देवताओं के काफी अनुनय-विनय करने पर पवनसुत ने सूर्य को अपने मुंह से बाहर निकाला.. है न रोचक कहानी? '' दादा जी ने आर्यन से पूछा.
‘’.. सच्ची दादा जी, पवनसुत सूरज दादा को निगल गए थे, यह तो बहुत ही मजेदार बात बताई आपने. मैं अपने दोस्तों को बताउंगा..'' आर्यन के चेहरे पर उमंग तैरने लगी. समीर के चेहरे पर थोड़ी देर पहले वाली चिंता की रेखाएं मिट चुकी थीं. वह शांत भाव से सूरज को निहारने लगा. उसके चेहरे पर चमक थी.
मेहनतकश
''..पापा, पापा, यह देखिए कितनी ढेर सारी काली चीटियां. अरे, सभी एक लाइन में बढ़ रही हैं और सबके मुंह में सफेद-सफेद कुछ है भी. मैं देखता हूं ये कहां जा रही हैं.’’ बोलते हुए राहुल का ध्यान दूसरी ओर खिंच गया। उसने ताली पीटकर खुश होते हुए इशारा करते हुए कहा, ‘’..पापा.. पापा.. यहां एक बिल है चीटियां उसी में जा रहीं है.. लेकिन देखिए पापा, बिल के भीतर से जो चीटियां बाहर निकल रहीं हैं उनके मुंह में सफेद वाला नही है.. क्यों पापा..?''
‘’.. बेटा, जो चीटियां बाहर आ रही हैं, वे फिर से खाना खोजने जा रही हैं.. चीटियां बड़ी मेहनती होती हैं.. हम आम इंसानो की ही तरह.. पेट तो मेहनत करके ही भरा जा सकता है..''
'' आउच .... '' राहुल के मुंह से चीख निकली.
'' ...क्या हुआ बेटा ? ... ''
'' यह देखिये, लाल चीटी ने काट लिया.. '' कहकर राहुल ने लाल चीटी को जमीन पर फेंक दिया।
पापा ने कहा, '' ..बेटा, समाज के ये खास वर्ग के लोग हैं जो दूसरों का खून पीकर ही जीवन जीने में विश्वास करते हैं.''
राहुल दौड़कर रसोई में गया। एक मुट्ठी चीनी निकाली और काली चीटियों के बिल के पास पहुंचकर बिखेर दी. चीटियां चीनी के दाने उठा-उठा कर ले जाने लगीं. राहुल उन्हें तन्मयता से देखने लगा.
धरती-कामना
उसके शरीर से आत्मा निकल गई। शव को घर से ले जाया गया। अंतिम संस्कार के बाद यह राख में तब्दील हो गया। इसे नदी में बहा दिया जाता या यह धीरे-धीरे हवा में उड़ जाती, इससे पहले मैंने उसे समेटकर घड़े में रख लिया। ऐसा इसलिए क्योंकि अंतिम समय में उसने मुझसे वचन लिया था कि उसकी राख को मैं न नदी में बहने दूं और न हवा में उड़ने.. और इसे धरती मां के आंचल में रखकर उसपर फल का एक नन्हा पौधा अवश्य लगा दूं!
उसने आगे कहा था, ‘’.. मैं फिर से जीना चाहती है.. यह धरती बड़ी सुंदर है.. प्रकृति में मेरी आत्मा बसती है जिसे मैंने जी-जान से प्यार किया है, अगर एक दिन मैं भी उसका एक हिस्सा बन सकूं तो यह मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी.. तुम मुझे मेरा सौभाग्य दोगी न? ‘’
मैंने अपनी सखी को धीमी मुस्कान के बीच ऐसा ही करने का वचन दिया था। इसी के पश्चात उसने चेहरे पर संतोष का भाव ओढ़ लिया और सदा के लिए चिरनिद्रा में लीन हो आंखें मूंद ली थी।
जहर
सामना होते ही पहले से कमर कसकर तैयार मीना ने ऐसी खरी-खोटी सुनाई कि अजित तिलमिला कर रह गया। उसने पहले भी कई बार कड़वे बोल बोले हैं पर आज तो हद ही कर दी। मुंह खोला तो फिर बोलती ही चली गई। कुछ यों जैसे उसने अब चुप न होने की कसम ही खा ली हो। वह दम साधे हमेशा की तरह आज भी सिर्फ उसे सुनता रहा।
उसके चुप रह जाने के कारण वह हर बार देर तक बोलती रह जाती है और खुब सुनाकर ही दम लेती है। एक दिन अजित का भी मुंह खुल गया, '' तुम इस तरह रोज-रोज बोलना छोड़ोगी कि नहीं!''
मीना ने जहरबुझे स्वर में बोलना शुरू किया, '' नहीं, तब तक नहीं जब तक तुम भी अपने भाई की तरह घर नहीं बना लेते.. इतने कम पैसों में मैं तुम्हारा घर अब नहीं संभाल सकती.. मेरी कोई इच्छा पूरी करने की तुममें हैसियत नहीं है.. हैसियत बनाओ हैसियत.. तुम्हारे कारण मैं कब तक शर्मिंदा होती रहूंगी!''
अजित ढीला पड़ गया, ''..यह घर तो तुम्हारा भी उतना ही है जितना कि मेरा.. इसे हमें ही तो मिलजुल कर चलाना है..''
'' नहीं, यह घर मेरा नहीं है.. ऐसा घर तो बिल्कुल नहीं..'' कहते हुए मीना पैर पटकती दूसरे कमरे में चली गई।
अगले दिन अजित कुछ देर से घर लौटा। मीना पहले से भरी बैठी थी। दरवाजा खोल जैसे ही उसने मुंह खोला कि अजित के शरीर का पूरा भार उसके ऊपर आ गया। वह दुखद आश्चर्य से तिलमिला-सी गई। उसे जैसे-तैसे संभालती हुई वह पलंग तक ले गई और बिस्तर पर लिटा दिया।
अब रोज ही ऐसा होने लगा। अजित लड़खड़ाते कदमों से घर लौटता और निढाल पलंग पर पसर जाता। मीना के सामने अब स्वयं को कोसने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था, ''..पहले आराम से दाल-रोटी तो मिल जाती थी.. इस मुई शराब की लत ने तो वह भी दूभर कर दिया.. काश, मैंने अपनी इस जुबान से लगातार जहर नहीं उगला होता.. ''
साधारण-सी घटना
संजय ने घर में कदम रखते ही मां को हांक लगाई, '' मां.. मां.. कहां हो.. बड़े जोरो की भूख लगी है, खाना दो..''
तभी उसकी नजर मां पर गई। वह जो उसकी एक आवाज पर खाना परोस देती हैं, आज सिर पर हाथ धरे क्यों बैठी हैं! उसकी आवाज से वह बेअसर।
वह उनके नजदीक पहुंचा। उन्हें हिलाया-डुलाया, लेकिन सब बेकार। घबराते हुए लगभग चिल्ला कर उसने पूछा, '' मां.. बताओगी भी कि क्या हुआ! मैं चिंता से मरा जा रहा हूं। बताओ ना क्या बात है। ''
मां का सपाट स्वर फूटा, '' तुम्हारा तो कोई दोस्त मर गया है फिर तुम्हें इतनी जोर से भूख क्यों लगी है? गाडि़यों में आग लगाकर भी तुम्हारी भूख शांत नही हुई? ''
संजय ने आश्चर्य से उनकी को देखा और फिर सिर झटक कर बोला, '' अरे मां, वह मेरा कोई दोस्त-वोस्त नहीं था.. बस, कॉलेज का एक लड़का भर था जिसे किसी गाड़ी ने कुचल दिया तो हमने भी कुछ गाडि़यों में आग लगा दी, बस.. और क्या!''
'' क्या मिला.. दूसरे की गाडि़यों में आग लगाकर तुमलोगों को क्या मिला! इस खुराफात से क्या वह लड़का वापस आ गया! किसी गाड़ी ने तो उसे अनजाने कुचला होगा लेकिन तुमलोगों ने तो न जाने कइयों को जान-बुझकर कुचल दिया.. उनका क्या कुसूर था! तुमलोगों के गुस्से का खामियाजा कितने बेकसूर लोगों को भुगतना पड़ा, इसका कोई हिसाब है तुम लोगों के पास? तुमलोगों ने जो आगजनी और पत्थरबाजी की उससे तुम्हे क्या मिला!'' मां का स्वर तेज होता गया। बोलते-बोलते अंतत: वह हांफने लगी।
संजय ने मां का हाथ् पकड़कर अनुनयभरे स्वर में कहना शुरू किया, '' मां, तू इतनी इमोशनल क्यों हो रही है! यह तो साधारण सी बात है.. आजकल तो रोज ही ऐसा होता रहता है, कहीं न कहीं.. चलो अब यह सब छोड़ो, मुझे खाना दो.. बड़े जोरों की भूख लगी है..''
'' खाना नही बना है..'' मां का सपाट स्वर गूंजा।
'' खाना नही बना है? ऐसा क्यों? '' आवाज में आश्चर्य के साथ-साथ थोड़ी खीझ भी।
मां का तेज स्वर तेज होकर फूटा, '' जिसकी कमाई से चूल्हे में आग जलती थी उसे तो तुम आग के हवाले करके आए हो। जब तुम अपने दोस्तों के साथ यह साधारण कारनामा कर रहे थे उस समय तुम्हारे बाबू जी भी अपनी ऑटो के साथ वहीं थे। तुम जानते हो इसे उन्होंने कुछ दिन पहले ही बैंक से लोन लेकर खरीदा था.. हंगामे के समय उन्होंने मदद पाने के लिए तुम्हें हांक भी लगाई लेकिन तुम भीड़ के साथ घटिया कार्य में ऐसे मशगूल थे कि तुम्हारे कानों तक उनकी चीख नही पहुंची.. उनकी आंखों के सामने तुम सबने उनके सपने में आग लगा दी.. उनके सपने को जो बड़ी मशक्कतों के बाद सच हुआ था, तुमलोगों ने उनकी आंखों के आगे जलाकर खाक कर दिया..''
अब सिर पर हाथ रखने की बारी संजय की थी। उसके चेहरे पर पश्चाताप के भाव तैरने लगे। आांखों में आंसू आ गए जो कि उस लड़के के मरने पर भी नहीं आए थे जिसके लिए कुछ ही देर पहले तूफान खड़ा कर दिया गया था!
खबर-बेखबर
राम शर्मा ने घड़ी देखी, नौ बज गए थे। हड़बड़ाकर उन्होंने फोन उठाया, देखा एक भी मैसेज नहीं! जल्दी ही उन्होंने एक नम्बर डायल किया। फोन लगते ही कड़क आवाज में बोले,'' एक भी खबर अभी तक नहीं मिली.. क्या कर रहे हो.. जल्दी कोई घटना भेजो..''
जल्द ही तैयार होकर वह ऑफिस के लिए निकल पड़े। बार-बार फोन में मैसेज चेक करते और कुछ नहीं होने पर झुंझला उठते। ऑफिस में भी जब कई घंटे तक कोई खबर नहीं आई तो फिर उन्होंने कॉल लगाया।
उधर से आवाज आई, '' सर कोई घटना ही नहीं है तो मैं क्या खबर दूं..''
राम शर्मा को मन मसोसकर रह जाना पड़ा। ऐसे रिपोर्टरों के भरोसे से तो काम चलने से रहा। मीडिया वर्ल्ड के भीतर मची ऐसी गलाकाट होड़ कि हर क्षण एक बैनर दूसरे की गर्दन मरोड़कर छाती पर चढ़ बैठने को बेताब! ऐसी जंग क्या ऐसे ही सुस्त रिपोर्टर के बूते जीती जा सकेगी! सोचते हुए वह स्वयं को ज्यादा देर रोक नहीं पाए। फोन लगते ही लगभग चिल्लाते हुए बोले,'' शहर में एक भी मौत नहीं हुई? एक भी एक्सीडेंट नहीं? क्राइम की कोई घटना ही नहीं हुई? ..कुछ तो हुआ होगा शहर में.. पता करो.. जल्दी पता करो.. और मुझे तुरंत बताओ..''
शर्मा फोन रखने ही वाले थे कि उधर से आवाज आ गई, '' सर, एक घटना है.. एक्सीडेंट हुई है.. ''
'' बताओ , बताओ.. मैं नोट कर रहा हूं.. '' जैसे मनचाही मुराद मिल गई हो। उन्होंने उत्साह के साथ कागज-कलम को उठा लिया।
'' सर घटना सुनने से पहले आप अपनी मैडम से एक बार बात कर लेते तो अच्छा था..'' आवाज में थोड़ी कंपन।
'' खबर के बारे में उनसे क्या बात करना.. अभी तो मिलकर ही आ रहा हूं.. तुम जल्दी से खबर बताओ.. '' कड़क स्वर।
समाचार लिखा जाने लगा। क्या लिखे जा रहे हैं, शर्मा जी को इसका जरा भी भान नहीं। बस, लिखे चले जा रहे। सरपट, फटापट। बीच में मोबाइल बजा। स्क्रीन पर पत्नी का नंबर भी दिखा लेकिन काम के समय घर की क्या चिंता करना! तुरंत कॉल को काटकर वह लिखते रहे। तुरंत फिर कॉल। उन्होंने रिसीव करते डपटा, '' ..सिर पर पहाड़ टूट गया है क्या! अभी तो घर से ही निकला हूं.. मुझे डिस्टर्व न करो.. बहुत जरूरी नोट कर रहा हूं.. बाद में बात कर लेना.. '' उन्होंने अपनी बात उगलकर तुरंत कॉल डिस्कनेक्ट कर दिया और आगे लिखने लगे।
जब खबर लिखना पूरा हो गया तो वाट्सएप पर डाल दिया। खबर पास हो गई तो लगा जैसे जान में जान आई। अब पत्नी को फोन मिलाया और सफाई देने लगे, '' .. अरे, एक खबर आ गई थी, उसी को नोट कर रहा था.. दरअसल, सुबह से एक भी खबर हाथ नहीं लगी थी.. इसलिए जैसे ही पता चला सोचा कि इसे तुरंत यूज कर लें.. खबर थी भी एक्सीडेंट में मौत की जिसमें नाबालिग बच्चों को बाइक दे देने के लिए गार्जियनों को भी रगड़ने का मौका मिल गया.. ''
'' बच्चे का नाम-पता, उम्र देख लीजिएगा.. '' पत्नी ने रोते हुए कहा और फोन पटक दिया।
राम शर्मा ने जब खबर पर दुबारा नजर डाली तो उनके हाथ से कलम छूटकर गिर पड़ी। अचानक पल पैर में कुछ चुभा तो उनकी चीख निकल गई। वह समझ नहीं पा रहे कि कलम की नीब गड़ गई है या खबर!
मुस्कुराना
घर सूना। मां की कलाई सूनी। विराट और राजी के चेहरे सूने। पापा का चेयर सूना पर उनके चित्र का सूनापन गायब। माला चढ़ गई थी उस पर चंदन की और माला उतर गई थी मां के गले की। बच्चे जो जिद करते माता-पिता उसे पूरा करते पर अब ?
अब ?? विराट और राजी ने एक-दूसरे की ओर देखा। हल्के से सिर हिलाया और पहुंच गए मां के श्रृंगार बॉक्स के पास।
वापस मां के पास आए तो विराट के हाथ में मां की हरी चूडि़यां थीं तो राजी के हाथ में मां की लाल बिंदी।
विराट हरी चूडि़यां पहना मां के जीवन में हरियाली लाना चाहता है तो राजी लाल बिंदी लगा कर उनके चेहरे से गायब लालिमा की वापसी।
मां ने गुस्से और आश्चर्य से एक साथ अपने हाथ और माथे को झटका पर तबतक देर हो चुकी थी। बिंदी चिपक चुकी थी और विराट हाथ में चूडि़यां पहना चुका था। मां ने बिंदी-चूड़ी निकालने की कोशिश की पर बच्चों की मजबूती और ढिठाई के आगे वह कमजोर पड़ गईं। उनकी एक न चली।
मां के हाथ में हरी-हरी चूडि़यां भर गईं और माथे पर लाल बिंदिया सज गई। बच्चों को मां अब भरी-भरी लग रही हैं और घर का सूनापन भी अब कम हो चला है। बच्चे हल्के से मुस्कुरा कर पापा की तस्वीर की ओर देखने लगे। पापा पहले से ही मुस्कुरा रहे थे। मां के चेहरे पर भी हल्की- सी मुस्कान तिर आई। क्योंकि हंसना-गाना उनलोगों ने हमेशा साथ-साथ ही किया, जब भी मौका मिलता रहा। फिर आज वह बच्चों व पति की मुस्कान में कैसे नहीं साथ देतीं!
आंसू
बच्चे को रोता देख मां ने उसे गोद में उठा छाती से लगा लिया। शायद बच्चा भूखा था उसने हबककर मां की छाती में दांत गड़ा दिया। शायद मां भी काम से थककर चिढ़ी हुई थी। उसने एक थप्पड़ बच्चे को जड़ दिया। पास ही बगल में बच्चे का पिता बैठा था। बच्चे को थप्पड़ लगा देखकर उसने भी आव देखा ना ताव पत्नी को जड़ दिया थप्पड़। उसकी आंखों में दो बड़े-बड़े मोती छलक आएं आंसू के रूप में। ये आंसू बच्चे के दांत काटने से उमड़ पड़े या पति के थप्पड़ से मालूम नही।
शुरुआत
‘..मां, एक बात पूछूं .. बुरा तो नहीं मानोगी!... तुम मेरे साथ क्यों नहीं चलती ? ’ मानसी घर के प्रतिकूल माहौल पर नजर फिराती रही।
‘..कहां.. कहां चलूं... तुम्हारे साथ?..’ आंखों की तरह ही मां की आवाज भी भर आयी।
‘..मेरे घर और कहां..’ स्वर मे आवेश।
‘..अच्छा, तुम्हारे घर... हां-हां क्यों नहीं, जरूर चलूंगी... फिर यहां वापस पहुंचायेगा कौन ? क्या दामाद जी को समय मिल पायेगा?..’ मां ने गौर से ताका।
‘..मां दो-चार दिनों के लिए नहीं, मैं तो हमेशा के लिए आपको ले जाना चाहती हूं..’
‘..मैं अपना घर छोड़कर हमेशा के लिए तुम्हारे घर क्यों चलूं... यहां मुझे दिक्कत ही क्या है ?..’ अपने स्वर की तरह ही मां भी अचानक बदली-बदली-सी लगने लगी।
‘..यहां का हाल मैं साफ-साफ देख ही रही हूं...’ उसने सामने आंगन से निकलती भाभी पर जलती हुई नजर डाली।
‘..तू विभा की बात पर ध्यान मत दे... वह बिचारी दिन भर घर के कामों मे उलझी रहती है... आखिर वह भी तो इंसान है... उसे भी तो गुस्सा करने का हक है.. और गुस्सा आदमी उसी पर करता है, जिस पर वह अपना हक समझता है... क्या वह तुम पर आज तक कभी गुस्सा हुई है ?..’ मां ने दृढ़ता से ताका।
‘.. आखिर आपको मेरे साथ चलने में दिक्कत ही क्या है ? ’ तेज खीझ।
‘.. दिक्कत मुझे नहीं, बच्चों को होगी.. वे मेरे साथ ही सोते हैं, कहानी सुनते है... मेरे साथ ही स्कूल जाते हैं... वे दिनभर मेरे आगे-पीछे लगे रहते हैं... कभी खाने की फरमाइश तो कभी खेलने की... पढ़ना भी वो मुझसे ही चाहते हैं.. विभा तो ऐसी ही हैं, पल में तोला पल में माशा.. गुस्सा चढ़ा नहीं कि किसी को नहीं छोड़ती और जैसे ही पारा उतर जाता है बदल जाती है। बेटी, सभी घरों में ऐसा ही होता है.. जरूरत है तो बस इस बात की कि कभी विवाद हो तो कोई एक ही भड़के... तभी घर टूटने से बचा रहेगा... उसके साथ मैं भी तू-तू मैं-मैं करूं तो बताओ इस घर में क्या होगा... या तो वह इस घर में रह सकेगी या फिर मैं ... फिर वह घर ही कैसा, जहां परिवार का प्रत्येक सदस्य हक से न रह सके.. क्या तुम्हारे साथ जाकर रहना ही एकमात्र हल है ? अच्छा, यह बताओ तुम्हारी सासू मां कहां हैं ? मां की नजरें जैसे मानसी के चेहरे के पास कुछ देखने की कोशिश करने लगीं।
मानसी एकबारगी सकपका कर रह गयी। उसने बात बदल देनी चाही पर मां की प्रश्नभरी नजरों को वह लांघ नहीं सकी, ' सासू मां तो अभी छोटी ननद के पास हैं... मैंने कई बार कहा कि मेरे साथ रहिये पर वह मानती ही नहीं ...' मानसी का स्वर कमजोर पड़ गया।
' मैं अपनी बेटी के साथ रहूं, तुम्हारी सास अपनी बेटी के साथ रहें, उसकी सास अपनी बेटी के साथ रहें... आखिर यह सब क्या हो रहा है ? बेटी, तुम लोग यह कैसी परंपरा की नींव डाल रही हो? क्यों नहीं सास अपनी बहू को बेटी मान लेती और उसकी अच्छाई-बुराई को समझते-समझाते हुए एक-दूसरे को संभालने-संवारने की कोशिश के साथ जीवन को खुशी से साथ-साथ जिए... आखिर बहू अपनी सास की बेटी क्यों नहीं बन सकती?..’ मां का दर्द जैसे हवा पर उतरकर चारों ओर फैलने लगा था।