Shyamlal ka Akelapan Sanjay Kundan द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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Shyamlal ka Akelapan

श्यामलाल का अकेलापन

क्या इंसान और होर्डिंग में कोई समानता हो सकती है? भले ही यह एक बेतुका सवाल लगे, पर श्यामलाल का मानना था कि आज हर आदमी एक होर्डिंग में बदलता जा रहा है, एक ऐसी विशाल रंगीन होर्डिंग, जिस पर किसी प्रॉडक्ट का विज्ञापन चमक रहा हो। आदमी ज्यों ही मुंह खोलता है कोई उत्पाद उसके मुंह से चीखने-चिल्लाने लगता है। श्यामलाल का अपार्टमेंट हो या दफ्तर, हर जगह ऐसे ही लोग उन्हें नजर आते थे। यहां तक कि बस और मेट्रो ट्रेन में भी होर्डिंगनुमा लोग मिल रहे थे। सड़क पर भी घड़ी दो घड़ी के लिए किसी से कोई संवाद होता तो वह भी प्रचार पर उतारू होने लगता। जैसे एक बार वह बस स्टैंड पर पेशाब कर रहे थे। बगल में एक और आदमी पेशाब करने के लिए खड़ा हुआ। कुछ क्षणों के बाद अचानक उस आदमी ने उनसे पूछा, ‘आपको इंश्योरेंस चाहिए?’

श्यामलाल हैरत में पड़ गए। फिर उस आदमी ने श्यामलाल के जवाब का इंतजार किए बगैर एक कंपनी का नाम लिया और कहा कि इसकी स्कीम सबसे बेहतर है। श्यामलाल आधे में ही रुककर तेजी से भागे। वे बार-बार मुड़कर देख रहे थे कि कहीं वह शख्स उनका पीछा न कर रहा हो। कई बार तो श्यामलाल को शक होने लगता था कि किसी ने उनकी पीठ पर इश्तहार न चिपका दिया हो। इसलिए चलते हुए वे बार-बार गर्दन घुमा-घुमाकर अपनी पीठ की ओर झांक लिया करते थे।

श्यामलाल की राय थी कि हर आदमी के विज्ञापन बांचने की एक वजह यह भी थी कि लोग सामने वाले को डराना चाहते हैं। अपना बड़प्पन और हैसियत जताने का एक रास्ता यह है कि आप सामने वाले को किसी तरह आतंकित कर दें। आप यह साबित करें कि आप सामने वाले से ज्यादा खर्च कर सकते हैं या आप उससे ज्यादा जानते हैं। कुछ ही समय पहले श्यामलाल के पड़ोसी बंसल साहब ने उन्हें मॉर्निंग वॉक करते समय अपना नया चश्मा दिखाया और बताया कि यह बीस हजार का है। श्यामलाल के लिए यह किसी झटके से कम नहीं था। उन्हें पहली बार पता चला कि कोई चश्मा इतना महंगा भी हो सकता है। लेकिन बंसल साहब इतना ही बताकर चुप नहीं रहे, उन्होंने यह भी समझाया कि आखिर इसकी कीमत इतनी ज्यादा क्यों है? उन्होंने बताया कि इसका ग्लास दरअसल जर्मन कंपनी का है। और यह एक खास तरह का शीशा है जिसकी खास तरह से घिसाई होती है। उसमें तरह-तरह के केमिकल्स डाले जाते हैं। फिर उन्हें एक निश्चित तापमान पर सुखाया जाता है। जब बंसल साहब इसकी व्याख्या कर रहे थे तब साथ में चल रहे मोहल्ले के कुछ लोग अभिभूत होकर उन्हें देख रहे थे। पर श्यामलाल को महसूस हो रहा था कि सामने बंसल साहब नहीं एक बड़ा पोस्टर खड़ा है जिस पर एक चश्मे का विज्ञापन छपा हुआ है, जो बार-बार हिल रहा है। जब यह प्रसंग समाप्त हुआ और सब लोग घरों की ओर लौटे तो बंसल साहब श्यामलाल को बार-बार घूर रहे थे। जैसे यह अंदाजा लगा रहे हों कि श्यामलाल उनसे आतंकित हुए या नहीं। श्यामलाल को लगा जैसे बंसल साहब भुनभुना रहे हों-अबे तुम लोग मेरे सामने हो क्या। पांच-सात सौ रुपये के चश्मे पहनने वाले चिरकुट।

दफ्तर में भी जब-तब यही कहानी दोहराई जा रही थी। कुछ लोग अचानक ही विज्ञापन का भोंपू बजाने लगते। एक दिन कार पर बहस छिड़ गई। लगा जैसे कार कंपनियों के सेल्समैन की कोई कॉन्फ्रेंस चल रही हो। श्यामलाल ने डांटा, ‘अरे भाई आप लोगों ने दफ्तर को क्या बना रखा है। काम करने दीजिएगा कि नहीं?’ लेकिन किसी ने उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया। ये सब नए लड़के थे, जो श्यामलाल जैसे फिफ्टी प्लस के लोगों की नौकरी पर खतरा बनकर आए थे। एक तो ऐसे ही इनसे श्यामलाल डरे रहते थे लेकिन जब इन्होंने कार के अंतरराष्ट्रीय मॉडलों की चर्चा की तो श्यामलाल का ब्लड प्रेशर अचानक बहुत बढ़ गया। उनकी सांस तेज चलने लगी। वे पसीने से तरबतर हो गए। उन्होंने फिर टोका, ‘अरे भइया कारें खरीदनी तो है नहीं। फिर इन पर बात करके क्या फायदा।’ लेकिन फिर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया। कार चर्चा जारी रही। एक के बाद एक नाम सामने आ रहे थे। पोर्शे 911, फेरारी एंजो, लम्बोर्गेनी, गलार्डो, स्पाइडर, मस्तान जी टी, लोटस एलाइस....। हर नाम उनके सिर पर दन्न से गिरता था। सबसे खतरनाक बात तो यह थी कि उनका हमउम्र दोस्त हरगोविंद शास्त्री भी उस चर्चा में युवाओं के साथ शामिल हो गया था।

उस रात श्यामलाल ने अजीब सपना देखा। देखा कि वे सड़क पर चले जा रहे हैं और एक के बाद एक गाड़ियां उनके बगल से गुजर रही है। ऐसा लगता था कि हर गाड़ी उन्हें ही कुचलने आ रही है। वे एक गाड़ी से बचते तब तक दूसरी आ जाती और उससे बचने के लिए उन्हें दूसरी ओर उछल जाना पड़ता। इस उछलकूद में उनकी नींद टूट गई। गनीमत थी कि अगला दिन रविवार था। वह दिन भर आराम करते रहे। पत्नी ने पूछा कि क्या उनकी तबीयत खराब है तो उन्होंने पहले तो टाला लेकिन फिर अपने मन की बात रख ही दी, ‘देखो मुझे बहुत डर लगने लगा है।’

पत्नी ने चौंककर पूछा, ‘किस बात का?’ श्यामलाल ने कहा, ‘हर आदमी डरा रहा है। अब कोई कहता है कि उसने बीस हजार का चश्मा खरीद रखा है। कोई कहता है उसने पचास हजार का कुत्ता पाल रखा है।’ पत्नी ने ठहाका लगाया, ‘इसमें डराने का क्या बात हुई?’ ‘यह डराना ही तो है। वह कहना चाहता है कि साले हमसे दबकर रहो। तुम्हारी कोई हैसियत नहीं है क्योंकि तुम सस्ती चीजें इस्तेमाल करते हो।’

पत्नी ने असहमति जताई ‘यह डराना थोड़े ही हुआ। यह तो शेखी बघारना हुआ। इससे आप क्यों परेशान होते हैं। चुपचाप सुन लिया कीजिए।’

‘नहीं, मुझे अच्छा नहीं लगता।’

‘इसमें बुरा लगने की क्या बात है आप भी शेखी बघारिए।’

‘अच्छा तो मैं भी उन्हीं के जैसा हो जाऊं। ...लेकिन मैं क्या शेखी बघारूं। यही कि बीस तारीख आते-आते घर में फूटी कौड़ी भी नहीं रहती। यह कि मंगल बाजार से पटरी से खरीदी हुई कमीज पहनता हूं, यह कि फ्रिज, वॉशिंग मशीन और सारा फर्नीचर सेंकेंड हैंड है...।’ इस बार पत्नी ने थोड़ा चिढ़कर कहा, ‘इसलिए तो कह रही थी कि अपार्टमेंट में मत रहो। किसी प्राइवेट कॉलोनी में और कम किराये पर मकान मिल जाता। पर नहीं आपको तो डर है कि कहीं बच्चे न बिगड़ जाएं।’

‘अरे यार अपार्टमेंट की बात थोड़े ही है। अपार्टमेंट तो छोड़कर चल देंगे। लेकिन ऑफिस का क्या करूं? वहां भी तो सब वैसे ही हैं। हर कोई सिर पर बैनर और पोस्टर चिपकाए घूमता है। उनके बीच लगता है जैसे मैं और छोटा होता जा रहा हूं। केंचुआ बन गया हूं एकदम।’ पत्नी को कोई जवाब नहीं सूझा। उसने हमेशा की तरह कहा, ‘आपका तो दिमाग खराब हो गया है। फालतू की बात पर सिर खपा रहे हैं लेकिन जो जरूरी चीज है उससे कोई मतलब नहीं है।’

दूसरे दिन दफ्तर में भी वह परेशान रहे। जब हरगोविंद ने टोका तो उसे भी अनमने ढंग से जवाब दिया। हरगोविंद शास्त्री पहली बार उन्हें अजनबी नजर आया। वह उसे देखते हुएउसके बारे में सोचते रहे। यह आदमी आखिर कैसे बदल गया। वह भी तो उन्हीं के जैसा था। अचानक कारों के बारे में इतनी जानकारी....। वह तो उस दिन नए लड़कों को भी मात दे रहा था। तभी उन्हें अपनी पत्नी की बात याद आई कि आप भी शेखी क्यों नहीं बघारते। कहीं ऐसा तो नहीं कि हरगोविंद को भी उसकी पत्नी ने ही यह सलाह दी हो। या उसने खुद ही महसूस किया होगा कि किसी से पीछे नहीं रहना है। तो क्या उसने इसीलिए गाड़ियों का नाम रटा होगा। उसने अखबार या इंटरनेट से सारे नाम जुटाए होंगे। यह क्या मतलब है...। फिर से पढ़ाई करनी होगी। सिर्फ इसलिए कि कहीं दूसरा हमें डरा न दे। डर से बचने के लिए इतनी तैयारी करनी होगी? अरे बाप रे। क्या जमाना आ गया है। कोई आदमी अपनी मर्जी के मुताबिक जी नहीं सकता। बात भी करो तो दूसरों की मर्जी से। हंसो भी दूसरों की मर्जी से..रोओ भी दूसरों की मर्जी से। जिधर देखो, तिजारत तिजारत....।

क्या हरगोविंद शास्त्री से पूछा जाए कि क्या वह भी उन्हीं की तरह डरता है? इस डर से निपटने के लिए उसने कैसे तैयारी की? हरगोविंद शास्त्री इस बात को मानेगा नहीं। वह उनकी हंसी भी उड़ा सकता है। ...यह भी तो हो सकता है कि उन्होंने हरगोविंद शास्त्री को अब तक पहचानने में भूल की हो। वह असल में ऐसा ही है। वह उनके सामने अब तक ढोंग करता आ रहा था। श्यामलाल की यह धारणा और मजबूत हो गई जब लंच के समय फिर दफ्तर की मंडली बैठी। चर्चा का विषय था-शहर में लगने वाली सेल। नए लड़कों ने बात शुरू की। उनमें से एक ने बताया कि वह सेल से बेहतरीन चीजें लेकर आया है जो किसी भी मायने में शोरूम से कम नहीं है। उसने यह भी जोड़ा कि शोरूम से खरीदारी करना तो बेवकूफी है। एक बार फिर हरगोविंद शास्त्री ने जोरशोर से भागीदारी की। और उसने लगभग पूरे शहर की बीस जगहों के नाम गिना दिए जहां सेल चल रही थी। श्यामलाल इस चर्चा से दूर भौंचक होकर हरगोविंद को देख रहे थे। ये आखिर क्या चीज है? कुछ दिन पहले तक तो उनसे वह यही कहा करता था कि यार लोग हर समय दुकानदारी की बात क्यों करते रहते हैं। जिंदगी में खरीदने और बेचने के अलावा भी कुछ है या नहीं। वह तो कहा करता था कि भारतीय संस्कृति में धर्म अर्थ काम मोक्ष को बराबर का महत्व दिया गया है लेकिन अर्थ को अब ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। इससे अनर्थ हो सकता है। जब श्यामलाल परेशान होते तो वह तुलसी की पंक्तियां दोहराता: सुनहुं भरत भावी प्रबल बिलखि कहैं मुनिनाथ हानि लाभ जीवन-मरण यश अपयश विधि हाथ। लेकिन अब वह कमबख्त विदेशी कारों के नाम का जाप कर रहा था। अचानक वह ऐसा कैसे हो गया है। उसे कैसे मालूम कि कहां-कहां सेल चल रही है। वह खुद कहा करता था कि अखबारों में वह विज्ञापन वाले हिस्से की तरफ तो झांकता भी नहीं। फिर...। उन्हेें हरगोविंद से चिढ़ सी हो गई लेकिन रात में जब उन्होंने उसके बारे में ठंडे दिमाग से सोचा तो उन्हें लगा कि वह बेचारा गलत क्या कर रहा है। डर-डरकर सबसे कटकर जीने से तो अच्छा है कि जमाने के साथ चला जाए। मतलब ...यह कि डराने वालों के औजारों से ही डर को काटा जाए। तब तो इसका अर्थ यह हुआ कि बंसल साहब को उन्हीं के अंदाज में जवाब दिया जाए। मॉर्निंग वॉक करने वालों को इतना डरा दिया जाए कि साले दिन भर सिटपिटाए रहें। लेकिन श्यामलाल कैसे डरा सकते थे किसी को।

कितनी साधारण और सरल जिंदगी रही है उनकी। और वे चाहते थे कि इसी तरह उनका जीवन कट जाए। आज तक तो उन्होंने किसी का बुरा नहीं सोचा। कोशिश की कि जितना हो सके लोगों की मदद ही करें। वे तो चाहते थे कि एक जैसा जीवन हो यानी जो मन में हो, वही बाहर भी हो। वे भी अपना सुख-दुख लोगों से कहें और लोग भी उनसे अपना सुख-दुख बांटें। जीवन का यही मूलमंत्र उन्हें अपने बाबूजी से मिला था और वह इसी को लेकर चलना चाहते थे। लेकिन अब लग रहा था सब कुछ गड़बड़ा रहा है। कोई शख्स ऐसा नहीं मिल रहा जो एक जैसा जीवन जीता हो। हर कोई दोहरा जीवन जी रहा था। आखिर वह किस पर भरोसा करें, किससे अपने मन की बात कहें। कोई व्यक्ति अपने दिल की बात नहीं कहता था। कोई अपने दुख-तकलीफ की बात नहीं कर रहा था। हर कोई अपने को समृद्ध और सफल साबित करने पर लगा हुआ था। इसके लिए वह इतनी दूर से बात करता था। उनके पड़ोसी बंसल साहब ने उन्हें यह नहीं बताया कि उनका हाल में ऑपरेशन हुआ है। उन्होंने यह भी नहीं बताया कि उनका बेटा फेल हो गया है। लेकिन यह जरूर बताया कि वह एक और फ्लैट लेने की सोच रहे हैं। यह क्या मतलब है? यह कैसा संबंध है जिसमें सुख की ही बातें होती हैं, अपने दुख-दर्द के बारे में कुछ नहीं बोलता। हर समय इंसान सामने वाले पर चढ़ने की कवायद में लगा रहता है।

श्यामलाल का पूरा जीवन तो खुली किताब की तरह था। वे तो अपनी असफलताओं को भी विस्तारपूर्वक बताते थे। वे यह मान कर चलते थे कि साथ रहने वालों से पर्दा क्यों। लेकिन नहीं ...अब श्यामलाल को लगने लगा था कि वे गलत हैं। अब यह सिद्धांत नहीं चलने वाला। शायद इसी कारण वे अकेले पड़ते जा रहे थे- दफ्तर में, मोहल्ले में और अपने घर में भी। उन्हें अपने बच्चों को देखकर आश्चर्य होता था कि आखिर उनके भीतर ये बातें कहां से आ गईं। हर समय उनका बेटा उन्हें ताना मारता कि वे उसके लिए ढंग का मोबाइल तक नहीं खरीद सकते। उनकी बेटी की शिकायत रहती थी कि उसे बस तीन सेट कपड़ों से ही चलाना पड़ रहा है। उन्हें इस बात से दुख होता था कि वे अपने बच्चों की इच्छाएं पूरी नहीं कर पा रहे। लेकिन तभी उन्हें यह ख्याल आता कि उन्होंने अपने बचपन में अपने पिता से तो कभी इस तरह की शिकायत नहीं की। कई बार लगता था कि यह शहर उन्हें छोड़कर भागा जा रहा है और वे किसी तरह हांफते-दौड़ते उसे पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं। शहर में बने रहने के लिए जरूरी था कि होर्डिंग बना जाए। ठीक उसी तरह जैसे हरगोविंद कोशिश कर रहा था। वह कारों की एक होर्डिंग में बदल गया था, वह शहर में लगने वाली सेल का विज्ञापन बन गया था। वह डर का सामना कर सकता था क्योंकि वह भी यह बताकर किसी को डरा सकता था कि उसे कारों की लेटेस्ट विदेशी मॉडलों की जानकारी है। वह ऐसे- ऐसे नाम ले सकता था जिसे सुनकर सामने वाला चमत्कृत रह जाए। लेकिन श्यामलाल क्या करें, वे किस चीज की होर्डिंग बनें? ... वे क्या कहें कि सामने वाला थोड़ी देर के लिए उनका लोहा मान ले। ऐसी कोई चीज उन्होंने तो खरीदी ही नहीं जिसका बखान किया जा सके। उनके बाल-बच्चों ने भी पढ़ाई या किसी और चीज में ऐसा कोई कारनामा तो किया नहीं जिसकी चर्चा की जा सके।

श्यामलाल माथापच्ची करते रहे। दिमाग में इतनी हलचल मची थी कि नींद बहुत दूर थी। वे उठे और घर में चक्कर काटने लगे। सब लोग सो चुके थे। उनके खर्राटे की आवाज आ रही थी। श्यामलाल ने सोचा कि क्यों न साहस करके कोई महंगा सामान खरीद ही लिया जाए। लेकिन क्या? क्यों न वे सोने की चेन पहनना शुरू कर दें। लेकिन लोग क्या कहेेंगे। पटरी से खरीदी गई कमीज पैंट पर महंगी चेन कैसी लगेगी। ... या फिर क्यों न कुछ ऐसा किया जाए जो सोसाइटी से एकदम अलग हो। जैसे- अपनी बेटी को ताइक्वांडो सिखाया जाए। लेकिन इसमें तो पैसे बहुत लगेंगे। फिर उनकी पत्नी ऐसा नहीं होने देगी। ... उनका उत्साह अचानक ठंडा पड़ गया। वे गटागट दो बोतल पानी पी गए। फिर वे अपने मन में दूसरी योजना तैयार करने लगे। क्यों न...। तभी उनके भीतर अचानक बिजली सी कौंधी। अरे! वे यह तो भूल ही गए थे कि उनके गांव के त्रिलोकीचंद सांसद हैं। गांव के रिश्ते से तो वे उनके भाई ही हुए। श्यामलाल लोगों को यह तो कह ही सकते हैं कि उनका भाई एमपी है। वे त्रिलोकी चंद और उसके परिवार का ढिंढोरा पीट सकते हैं। वे बता सकते हैं कि त्रिलोकीचंद के पास एक शानदार घर है...घर में ये-ये सामान है। त्रिलोकीचंद ने उन्हें एक बार शानदार उपहार दिया था। अब यह बात अलग है कि गांव छोड़े हुए श्यामलाल को वर्षों हो गए। त्रिलोकीचंद को तो उन्होंने बचपन में ही एक बार देखा था। वैसे उनका परिवार त्रिलोकीचंद के बाप-दादाओं को तो आदमी मानता ही नहीं था। वे खुद त्रिलोकीचंद को अब देखें तो शायद पहचान ही न पाएं। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। वे त्रिलोकीचंद के जरिए सामने वाले को आतंकित कर सकते थे। वे यह जता सकते थे कि वे एक रसूख वाले आदमी हैं, उन्हें कोई ऐसा- वैसा न समझा जाए। फिर जरूरत पड़ने पर त्रिलोकीचंद से दोस्ती गांठी भी जा सकती है। उनके गांव के कई लोगों ने ऐसा किया ही था।

इस ख्याल ने उनके भीतर झुरझुरी पैदा की। वे बेकार ही अपने को लतियाया हुआ समझ रहे थे। श्यामलाल उत्साहित हो उठे। मन ही मन वे रिहर्सल करने लगे कि कैसे मॉर्निंग वॉक पर बंसल एंड कंपनी के सामने त्रिलोकीचंद का प्रसंग ले आना है। इसकी शुरुआत इस तरह से हो सकती है-अरे क्या बताऊं भाई रात में ठीक से सो नहीं पाया। सब पूछेंगे ही कि अरे क्या हुआ? वे कहेंगे -हमारे एक भाई हैं एमपी। अब उन्होंने बारह बजे फोन कर दिया। कहने लगे दिन भर इतना व्यस्त रहता हूं कि अपने लोगों से बात करने की फुर्सत ही नहीं मिलती। सो अभी बात कर रहा हूं। लगे हालचाल पूछने। ...श्यामलाल बंसल, मिश्राजी आदि के चेहरे की क ल्पना करने लगे। यह सुनते हुए उनके चेहरे का रंग जरूर उड़ जाएगा। वे जरूर सोचेंगे कि यह श्यामलाल तो छुपा रुस्तम निकला। फिर दफ्तर में भी लड़कों के सामने यह प्रसंग जारी रखना है। उन्हें साफ बता देना है कि वे श्यामलाल को मामूली न समझें। वे सांसद के आदमी हैं इसलिए उनकी नौकरी पर आंच नहीं आ सकती लिहाजा वे श्यामलाल को गंभीरता से लें और उनकी इज्जत करें।

ओह! जल्दी से सुबह क्यों नहीं हो जाती। उन्होंने घड़ी देखी-दो बजे थे। अभी भी मॉर्निंग वॉक में कम से कम तीन-साढ़े तीन घंटे बाकी थे। इतना समय कैसे काटा जाए। नींद तो आ नहीं रही थी। श्यामलाल चुपचाप उठे। उन्होंने दरवाजा इस तरह खोला कि कोई आवाज न हो। वे धीरे से उसे सटाकर बाहर निकल आए। वे चुपचाप खड़े होकर अपने अपार्टमेंट को निहारने लगे। इस वक्त कितना शांत और बेजान लग रहा है सब कुछ। जो लोग दिन की रोशनी में चीख-चीखकर अपना वजूद जाहिर करते हैं, वे इस वक्त निढाल पड़े कैसे लग रहे होंगे? श्यामलाल उन्हें चुनौती देना चाहते थे, उन्हीं के हथियार से। बहुत दिन दब कर रहे वे। अब नहीं दबेेंगे,अब नहीं डरेंगे। यह भी कोई बात हुई कि एक आदमी झूठ नहीं बोलना जानता तो सब लोग मिलकर उस पर चढ़ जाएं। निकलो बाहर बताता हूं-श्यामलाल इसी अंदाज में एक-एक फ्लैट को देख रहे थे। वह बंसल के फ्लैट के आगे ठिठके। वहां खिड़की पर कूलर बेहद शोर कर रहा था। इस कूलर को लेकर भी बंसल साहब ने खूब गाया था। जैसे यह नायाब चीज हो और दुनिया में सिर्फ उन्हीं के पास हो।

श्यामलाल सोसाइटी के गेट की तरफ बढ़े। उन्होंने देखा कि सिक्युरिटी रूम में बल्ब जल रहा है। वहां से बात करने की आवाजें आ रही थीं। श्यामलाल ने सोचा, सारे गार्ड बैठे गप मार रहे हैं। बेचारे करें भी तो क्या? हजार-दो हजार तनख्वाह में बारह-बारह घंटे खटना पड़ता है। इतनी मुश्किल ड्यूटी कैसे काटें आखिर। इनके जीवन में है ही क्या। लेकिन तभी उनके मन ने एक अलग रास्ता पकड़ा-नहीं इन्हें चलकर डांटा जाए। आखिर सब एक साथ क्यों बैठ गए। कम से कम एक आदमी को तो चक्कर लगाते रहना चाहिए था। ऐसे ही आसपास बहुत चोरियां हो रही हैं। अगर सोसाइटी के पिछले गेट से कोई फांदकर अंदर आ गया तो ...। हालांकि श्यामलाल ने कभी आज तक किसी को कुछ कहा नहीं था। सबसे बड़े प्यार से मिलते थे वे। दीपावली में वे कि सी और को मिठाई भिजवाएं या नहीं सुरक्षा कर्मचारियों को जरूर भिजवाते थे।

लेकिन नहीं... अब खुद को बदलना होगा। इन्हें अपना नया रूप दिखाना होगा। यही मौका है। वे यहीं से शुरुआत कर सकते हैं। उनके सामने यह साफ नहीं हो पा रहा था कि वह कैसे त्रिलोकीचंद प्रसंग को लोगों के सामने लाएं। सिक्युरिटी गार्डों के साथ इस बात की प्रैक्टिस की जा सकती है। यही सोचते हुए वे सिक्युरिटी रूम के पास पहुंचे। उनके वहां पहुंचते ही वहां चल रही बातचीत अचानक रुक गई। सुपरवाइजर तेजी से बाहर आया। उसने श्यामलाल को पहचान कर कहा, ‘सर नमस्कार। आप इस समय यहां। सब ठीक तो है?’

‘हां, बस ऐसे ही नींद नहीं आ रही थी। और बताओ क्या हाल है?’ यह सवाल पूछने के बाद श्यामलाल ने खुद को मन ही मन टोका-अरे, यह क्या। तुम तो इन्हें डांटने वाले थे न। सुपरवाइजर ने कहा, ‘क्या बताएं, सर। तबीयत ठीक नहीं चल रही है। लेकिन अब क्या करें। काम छोड़कर भी नहीं जा सकते न। दो-दो लड़कों ने छुट्टी ले ली है।’ श्यामलाल ने सुपरवाइजर को गौर से देखा। वह बीए पास लड़का, इस शहर में नौकरी की तलाश में आया। कुछ नहीं मिला तो दरबान बन गया। आज से दो-तीन साल पहले तक वह बहुत स्वस्थ और सुंदर लगता था। अब उसके चेहरे पर गड्ढे नजर आने लगे थे। श्यामलाल को कुछ नहीं सूझा कि वह उससे क्या कहें। वह चुपचाप उसे देखते रहे। उसकी आंखें लाल थीं, चेहरा बेहद थका-थका सा लग रहा था। तभी अंदर किसी गार्ड ने गुनगुना शुरू किया,

मोहे बलम बिना नींद न आवे, बरबाद कजरवा हो गइलें।

श्यामलाल कूदकर सिक्युरिटी रूम के अंदर पहुंचे और गुनगुना रहे गार्ड से बोले, ‘तुम गलत गा रहे हो। गाना ऐसे है....’

फिर श्यामलाल ने सुर मेें गाया- हाथ में मेंहदी मांग सेनुरवा, बरबाद कजरवा हो गइलें,

बाहरि बलमु बिना नींद ना आवे, करवटे कुबेरवा हो गइलें...।

सुपरवाइजर भी अंदर आ गया। उसके चेहरे पर मुस्कान खिल गई। उसने कहा, ‘सर आप तो बहुत अच्छा गाते हैं।’ फिर उसने सकुचाते हुए कहा-‘एकाध गाना और सुनाइए न।’ श्यामलाल वहीं एक कुर्सी पर बैठ गए और गाना शुरू किया-अरे माधव मदन मुरारी तनी आव हमरी दुआरी, तोहे माखन खियैबो आंगनवा में...।

यह गाते हुए श्यामलाल को अपना छात्र जीवन याद आया। अपने कॉलेज के दिनों के संगीत कार्यक्रम, युवा महोत्सव कीलोकगीत प्रतियोगिताएं आंखों के सामने तैरने लगीं। फिर गला भरने लगा। वह गाते हुए रोने लगे... वह रोते हुए गाने लगे। फिर आंखें मुंदने लगीं। ...श्यामलाल को जब किसी ने झकझोरा तो वे हड़बड़ाकर उठे। चारों ओर उजाला फैल चुका था। सामने सुपरवाइजर खड़ा था-‘सर आप गाना गाते हुए सो गए थे। हमलोगों ने आपको डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा। ... सर आप बहुत अच्छा गाते हैं।’ श्यामलाल सिक्युरिटी रूम से निकले फिर सोसाइटी से बाहर चले आए। वह सड़क पर धीरे-धीरे चलने लगे। इतना तरोताजा बहुत दिनों के बाद महसूस किया था उन्होंने। लग रहा था जैसे बहुत दिनों के बाद वे चैन की नींद सोकर उठे हों। जरा भी थकान नहीं, सिर पर कोई बोझ नहीं। कोई हड़बड़ी नहीं। इस वक्त कोई उनसे त्रिलोकीचंद के बारे में पूछता तो वे जरूर उसी से सवाल करते- कौन है ये त्रिलोकीचंद?