काशी में हम हममें काशीनाथ Shyam Bihari Shyamal द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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काशी में हम हममें काशीनाथ

संस्‍मरण

काशी में हम हममें काशीनाथ

श्‍याम बिहारी श्‍यामल

लेखक-परिचय

श्‍याम बिहारी श्‍यामल

1998 में छपे अपने उपन्यास ‘ धपेल ‘ से हिन्‍दी साहित्‍य में छा जाने वाले कथाकार श्यामल ने कविता, कहानी, लघुकथा, व्‍यंग्‍य, संस्‍मरण, आलोचना और रिपोर्ताज समेत साहित्‍य की सभी विधाओं में लेखन-कार्य किया है। हाल के वर्षों में उन्‍होंने अथक श्रम करके महाकवि जयशंकर प्रसाद के जीवन-युग पर आधारित वृहत औपन्‍यासिक कृति ‘कंथा’ की रचना की है जो बहुप्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘नवनीत’ में लगातार तीन वर्षों तक धारावाहिक छपकर चर्चे में है। श्‍यामल पेशे से पत्रकार और संप्रति दैनिक जागरण की वाराणसी इकाई में मुख्‍य उप संपादक हैं।

उनके संपर्क-सूत्र :

डाक का पता : सी. 27 / 156, जगतगंज,

वाराणसी-221002 ( उत्‍तर प्रदेश )

ई मेल आईडी :

shyambiharishyamal1965@gmail.com

मोबाइल फोन नं. : 09450955978

प्रकाशित कृति‍यां : धपेल (उपन्यास / राजकमल

प्रकाशन, 1998) , प्रेम के अकाल में (कवि‍ता-

पुस्तिका / प्रथम प्रकाशन, 1998), अग्निपुरुष (

उपन्यास / राजकमल पेपरबैक्‍स, 2001), चना चबेना गंग-जल (ज्योति‍पर्व प्रकाशन, 2013),

लकुकथाएं अंजुरी भर (सत्‍यनारायण नाटे के साथ साझा संग्रह) / सांप्रत प्रकाशन, 1982)।

समय-समाज का चेहरा

बहुचर्चित उपन्‍यास ‘धपेल’ के रचनाकार श्‍याम बिहारी श्‍यामल ने अपने नगर बनारस में ही रह रहे हिन्‍दी के विख्‍यात कथाकार काशीनाथ सिंह पर संस्‍मरण लिखते हुए तीन दशक के काल-खंड का जो चित्र खींचा है, उसमें साहित्‍य ही नहीं बल्कि हमारे समग्र समय-समाज का कुछ ऐसा चेहरा है जिसे देखना रोमांचक अनुभव बन रहा है। सबसे अधिक आकर्षक है वह अनुभूति जो युवा कथाकार ने अग्रज पीढ़ी के प्रतिनिधि रचनाकार से भेंट के अनुभव के रूप में व्‍यक्‍त की है।

खास बात यह कि काशीनाथ जी के साथ प्रथम भेंट के अपने अनुभव को लेखक ने चित्रात्‍मक शैली में इतने प्रभावी अंदाज में पेश किया है कि इसे पढ़ते हुए उपन्‍यास पढ़ने जैसा सुख मिल रहा है। इसीलिए हम इसे आपके लिए खास तौर पर लेकर आए हैं। - अनामी शरण बबल

काशी में हम हममें काशीनाथ

काशीनाथ सिंह के साथ श्‍यामल

विद्वत समाज के प्रबल तुलसी-विरोध और इसके समानांतर आम जन के चतुर्दिक कबीर-अंगीकार के विचित्र विलोम-सत्‍य का अतीत रखने वाली काशी में पांडि‍त्‍य-पाखंड और जनप्रतिरोध-सजगता का समानांतर यथार्थ मध्‍यकाल के भी पहले से अस्तित्‍व में है। ईश्‍वर-सत्‍ता पर प्रश्‍न के रूप में नए विचार-दर्शन लेकर आए बुद्ध का यहां धर्मध्‍वजाधारियों की ओर से कैसा प्रचंड प्रतिरोध-प्रति‍कार हुआ और दूसरी ओर कैसे यहीं उन्‍हें अपने उपदेश के निरुपण की आधारभूमि मिली व अंतत: जनसमर्थन या विराट जनस्‍वीकृति भी, यह सब इतिहास का तथ्‍य है। सच तो यही कि काशी वस्‍तुत: शुरू से विचित्र विलोम-विपर्यय की संघर्ष-भूमि है। अभिजन और जन की धाराओं का टकराव यहां आरंभ से अपने चरम रूपों में घटित होता रहा है। जहां अभिजनों का मामला फंसा वहां पांडित्‍य-पाखंड का विस्‍फोट हुआ जबकि जो संदर्भ जन से जुड़ता दिखा वहां अद्भुत जन-समर्थन उभरकर सामने आ गया।

महाकवि तुलसीदास ने शास्‍त्रों के प्रक्षेत्र में प्रवेश और ऐतिहासिक हस्‍तक्षेप किया था। उन्‍होंने अनादि काल से देवभाषा में बंधी रामकथा को जनभाषा के रूप में मुक्ति दी तो पंडितों ने उन्‍हें अपराधी घोषित कर दिया। कबीर ने जीवन और जन के परिदृश्‍य को चुना और अपने समय के पाखंड पर निर्भीक होकर लगातार घनघोर घनचोट करते रहे। कहने की आवश्‍यकता नहीं कि उन्‍हें भरपूर जनसमर्थन मिला। लोगों ने उन्‍हें सिर-आंखों पर बिठा लिया। यह क्रम कमोवेश हर युग-काल में जारी रहा।

इसी बनारस में यदि बीएचयू से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और डा. नामवर सिंह के निष्‍कासन की घटनाएं घटित हुईं तो दूसरी तरफ अपशब्‍द लिखने के आरोपों से घेरे जाने वाले कवि धूमिल और उनके ही संगी 'काशी का अस्‍सी' जैसा उपन्‍यास लिखने वाले काशीनाथ सिंह का जन-स्‍वीकार भी सबके सामने है। कहने की आवश्‍यकता नहीं कि आचार्य द्विवेदी और डा. सिंह जैसे आचार्यों को पांडित्‍य-पाखंड पक्ष का ही आघात झेलना पड़ा जबकि धूमिल और काशीनाथ जनपक्ष के समर्थन-बल पर स्‍वीकार्य बने।

संसार के प्राचीनतम नगरों में शुमार जिस काशी की बौद्धिक नागरिकता के इतिहास में महर्षि वेदव्‍यास, तुलसीदास, कबीर व रैदास से लेकर भारतेंदु हरिश्‍चंद्र, मदनमोहन मालवीय, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल, विनोदशंकर व्‍यास, रायकृष्‍ण दास, बाबूराव विष्‍णु पराड़कर, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, सर्वपल्‍ली राधाकृष्‍णन, लालबहादुर शास्‍त्री और नामवर सिंह सरीखे नाम दर्ज हों वहां यह तो एकबारगी नहीं कहा जा सकता कि आज काशीनाथ सिंह की जो यहां एकल प्रतिष्‍ठा है वह अपूर्व है किंतु इस तथ्‍य को अनुल्‍लेख्‍य भी नहीं माना जा सकता। कौन ऐसा दिन है जब नगर के किसी न किसी सभा-समारोह या गोष्‍ठी-संगोष्‍ठी में सम्मिलित या उल्‍लेखित होने के कारण अथवा किन्‍हीं वैचारिक चर्चा-परिचर्चाओं के विमर्श-क्रम में उनका नाम या चित्र स्‍थानीय समाचार-पत्रों में नहीं दिख जाता! एक तरह से वह बनारस में लेखक समाज के चेहरे के रूप में प्रतीकित हो चुके हैं।

काशी में आज जो हमारा शब्‍द समाज धड़क रहा है, उसमें निश्‍चय ही उनकी उपस्थिति अपने विशिष्‍ट आलोक-वलय से रंजित है। उनका सोचना, बोलना या लिखना हममें से किसी भी नए से नए लेखक से कम नया या ताजगीभरा नहीं। वस्‍तुपरक होकर भी देखें तो भाषा-शब्‍दावली की जिस बेहद बिंदास हद तक जाकर उन्‍होंने समाज को उसके यथार्थ रूप में चित्रित किया है, दूसरे भला किस वरिष्‍ठ या कनिष्‍ठ ने इस हद तक जाकर लिखने का साहस दिखाया है! व्‍यक्ति-रूप में भी वह यहां हम रचनाकारों के अभिभावक की भूमिका में हैं। इसे विभिन्‍न स्‍तरों पर बाकायदा संतृप्‍त करने में भी कभी पीछे नहीं रहते। पिछले लगभग दशक भर की अपनी काशी-नागरिकता के दौरान इन पंक्तियों के लेखक को स्‍वयं के संदर्भ में ऐसा कोई अवसर स्‍मरण नहीं, जब किसी भी रचना के छपने और उसे देख लेने के बाद उन्‍होंने मिलने पर या प्राय: फोन करके मुक्‍तकंठ सराहना न दी हो। संयोग से इतने ही समय से महाकवि जयशंकर प्रसाद के जीवन-युग पर आधारित उपन्‍यास 'कंथा' का मेरा काम जारी है, हर मुलाकात या फोन-वार्ता के दौरान उनका पहला प्रश्‍न इसे ही लेकर होता है, “ प्रसाद जी के जीवन पर तुम्‍हारा उपन्‍यास कब आ रहा है ? ‘’

काशीनाथ जी के साथ श्‍यामल

काशी की तरह ही काशीनाथ भी विलोमों और विपर्ययों के विशिष्‍ट समन्‍वय हैं ! सरल लेकिन एकदम विरल। उसी तरह, सहज किंतु इतने ज्‍यादा कि सामने वाला असहज होने से शायद ही बच सके। जल ऊपर से उतर रहा हो तो उसे सामने के आकार में ढल जाने या तमाम विस्‍तार को लीन कर लेने में जैसे देर नहीं लगती वैसे ही पल भर में ही किसी अपरिचत पर भी छा जाने या उसे अपने से एकाकार कर लेने वाला व्‍यक्तित्‍व। स्‍वयं और उपस्थित व्‍यक्ति के बीच के किसी भी अंतर या दूरी को एक मुस्‍कान-भर या अदने वाक्‍य से दूर फेंक देने वाले। उनसे पहली मुलाकात का प्रसंग कभी नहीं भूलने वाला है।

बनारस आया तो पहले भी था। कई-कई दिन टिकने का मौका भी मिलता रहा किंतु हर बार प्रिंटिंग कार्य कराने के ख्‍याल से ही आना हुआ था। उस यह मुद्रण का बड़ा केंद्र था। प्रेसों में दिल्‍ली से लेकर नेपाल तक की किताबें छपती दिख जातीं। तब फोटो के ब्‍लॉक बनाने होते। बढ़ि‍या समझे जाने वाले मुद्रक ताजा ढले लेटर का संदर्भ या फाउंड्री से तुरंत मंगाने का लालच देते। कहां डाल्‍टनगंज जैसे हमारे तब के छोटे बेहाल नगरों में पांव से भी चला ली जाने वाली ढुकढुकिया छोटी-मध्‍यम ट्रैडिलें और कहां यहां एक से एक हाथी जैसी फ्लेट मशीनें लगाए बैठे मुद्रकों का जलवा। यहां-वहां तलाश और ताक-झांक में ही देखते-देखते हफ्ता भर का समय भी यों उड़ जाता ज्‍यों दो-चार पल।

ऐसा नहीं कि केवल मुद्रण, संसार के इस प्राचीनतम नगर में जीवन का कौन ऐसा रंग है जिसकी प्राथमिक से लेकर क्‍लासिक तक की श्रृंखला नहीं होती ! सबके उनके शून्‍य क्रम से लेकर अनन्‍त चरम तक के रूप। संगीत का कोई रसिया आ जाये तो उसके सामने राह चलते इकतारा बजाने वाले किसी अनाम कलाकार से लेकर बेनियाबाग के हड़हासराय में शहनाई-सम्राट बिस्मिल्‍लाह खान तक से मिलने का विकल्‍प आकर्षित करने को तैयार। ठुमरी साम्राज्ञी गिरि‍जा देवी से तबला सम्राट किशन महाराज तक, सभी यहीं। साहित्‍य के श्रद्धालु के सामने तो सबसे बड़े क्षेत्रफल का विस्‍तार लहराने लगता... कहां गोस्‍वामी तुलसीदास की स्‍मृतियों से जुड़े तुलसी व अस्‍सीघाट, कबीर की जन्‍म-जीवन गाथा से जगमगाता लहरतारा और संत कवि रैदास की बानी से गुलजार उनका जन्‍मस्‍थल सीरगोवर्द्धन। भारतेंदु बाबू की ठठेरी गली, जयशंकर प्रसाद का सरायगोवर्द्धन और प्रेमचंद की लमही तक। सभी अपनी ओर खींचने को बेताब। उसी तरह कोई ज्‍योतिष-जिज्ञासु आ जाए या वेद-शास्‍त्रों का ज्ञानपिपासु अथवा धर्मप्राण कोई प्राणी। सबको उनके विषय-संदर्भ के सहज-सरल साधारण से लेकर विशिष्‍ट-विरल और असाधारण तक लक्ष्‍य स्‍पष्‍ट दिखने और खींचने लगते। दुनिया भर में पसंद की जाने वाली बनारसी साडि़यों की तिजारत की दुनिया को तो भांपना-मापना न पहले मुमकि‍न था न अब। उसी तरह, गंजेड़ी-भंगेड़ी से लेकर शीशी- बोतलबाज तक के नशेड़ि‍यों को भी उनका क्‍लासिक आशिक मिलते देर नहीं लगती।

अस्‍सी इलाका है जहां पप्‍पू की चाय दुकान है और शाम में काशीनाथ जी वहीं मौजूद रहते हैं, यह जानकारी न जाने कब से जेहन में बसी हुई थी। उन्‍हें कितना पढ़ा था, यह तो हिसाब नहीं, किंतु कहानी 'सुख' और उपन्‍यास 'अपना मोर्चा' जैसे दिमाग से कभी उतरने को तैयार नहीं। इसी दीवानगी में 1990 में जब दैनिक आवाज ( धनबाद ) में साप्‍ताहिक स्‍तंभ शुरू करने लगा तो 'हंस' के पत्र वाले कॉलम का ध्‍यान रहते हुए भी “अपना मोर्चा” के मुकाबले कोई और नाम गले के नीचे उतरा ही नहीं।

असंभव नहीं कि उपन्‍यास से मन में पैठे-बैठे प्रभावालोक के बूते ही जोश कभी मद्धिम नहीं पड़ा हो और यह स्‍तंभ दशक भर तक अविराम धमधमाता रहा। कौन-सा ऊंचे लपलपाता ध्‍वज भंग होने से बचा रहा, किन मठाधीशों को हमले से विचलित नहीं होना पड़ा ? बहरहाल, काशीनाथ जी से मिलने जाने से पहले मन में जितनी ही जिज्ञासा थी, श्रद्धा-भावना उससे जरा भी कम नहीं। और, सबसे अधिक संकोचमिश्रित घबराहट।

संयोग यह भी कि नामवर जी से पहली बार मिलने का अवसर इससे करीब आधा दशक पहले 1997 में ही मिल गया था। 'धपेल' ( उपन्‍यास : 1998 ) के प्रकाशन से भी साल भर पहले, जब 'महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली' और 'रेणु रचनावली' के संपादक अग्रज-कवि भारत यायावर के साथ धनबाद से दि‍ल्‍ली जाना हुआ था। नामवर जी के नाम का बौद्धिक आतंक भी बेशक दिमाग में कम न था किंतु अब सोचने पर आश्‍चर्य होता है कि उनसे मिलने जाते समय कोई खास हिचक, संकोच या घबराहट आदि जैसे भाव मन में क्‍यों नहीं बन-फैल रहे थे ! संभव है, ऐसा इसलिए क्‍योंकि तब मैं भारत जी के साथ था यानि कि अग्रज का संरक्षण-कवच जैसा कुछ। स्‍वाभाविक रूप से मिलने का समय भी उन्‍होंने ही लिया था।

बहरहाल, नामवर जी से प्रथम भेंट का प्रसंग अत्‍यंत स्‍मरणीय बना जिस पर फिर कभी। बाद में भी उनसे तो कई बार तफ्सील से मिलना-बतियाना होता रहा। 'धपेल' के बारे में वह हर बार कुछ न कुछ कहते और अगले उपन्‍यास के बारे में पूछते।

नामवर जी को भला कैसे बता पाता कि छोटी जगह में दिन-रात जुतकर अखबारी नौकरी घोंटने वाले आदमी के लिए व्‍यवस्थित ढंग से साहित्‍य रचना करना कितना विपरीत और दुष्‍कर कार्य है! यह तो वही समझ सकता है जिस पर बीत चुकी हो। उस पर तुर्रा यह कि दैनिक आवाज में उन दिनों मैंने 'अपना मोर्चा' के साप्‍ताहिक खुराफात के रूप में एक ऐसा रोग मोल ले लिया था जिसके लिए हफ्ते भर दिमाग देश भर के साहित्यिक-सांस्‍कृतिक परिदृश्‍य से मुद्दे छानने और सवालों पर धार चढ़ाने में जुटा रहता। अखबार में रोजमर्रे के समाचारी लेखन कार्य भी होते रहते। 'यहां से देखो शहर को' ऐसा ही साप्‍ताहिक कॉलम था जो हर बार धनबाद नगर के किसी एक मोहल्‍ले की समस्‍याओं पर केंद्रित होता और मेरे नाम के साथ जाता। यह चित्रों व स्‍थलीय विवरणों का पूरे पृष्‍ठ का आयोजन होता। उसी तरह बीच सप्‍ताह में पूरे पन्‍ने का एक अन्‍य स्‍तंभ चलाया था “गांव-गांव पांव-पांव”। सुबह फोटोग्राफर लेकर किन्‍हीं दो-चार गांवों का दौरा करता और लौटकर तत्‍काल पूरे पृष्‍ठ का लेखन-चित्रण आयोजन। दोनों स्‍तंभ खूब लोकप्रिय हुए और वर्षों अबाध चले। ...लेकिन, यह भी है कि आग की उत्‍पति शैल-संघर्षण से ही तो संभव है !

उन्‍हीं पशोपेश-कश्‍मकशों के बीच दूसरा उपन्‍यास 'अग्निपुरुष' शुरू हो गया और धारावाहिक छपने लगा। भले-भले निभ गया और पूरा हुआ। 2001 में राजकमल पेपरबैक्‍स से छपकर जब यह पुस्‍तकाकार आया तब तक धनबाद छूट चुका था। काशीनाथ जी से मिलने जाते समय हाथ में 'अग्निपुरुष' की प्रति आ पाने का संयोग भी कम रोचक नहीं।

मन में आया कि उनके लिए कुछ लेकर तो चलना ही चाहिए। पास में ऐसा कुछ था नहीं। लगा शायद किसी प्रमुख पुस्‍तक दुकान में राजकमल की किताबें मिल जाएं। पता करने पर विश्‍वविद्यालय प्रकाशन के बारे में जानकारी मिली। गोदौलिया में ही ठहरा था। अस्‍सी की दिशा के विपरीत पहले चौक क्षेत्र जाकर विश्‍वविद्यालय प्रकाशन खोजा। संयोग कि दुकान में किताबों की कतार में 'अग्निपुरुष' की प्रतियां दिख गईं। मैंने देर किए बगैर एक प्रति ले ली। जल्‍दी-जल्‍दी पॉलीथीन को मोड़ा और दुकान से बाहर आ गया। वहां से पैदल ही भीड़ चीरते हुए गोदौलिया और यहां से ऑटो लेकर कुछ ही देर में अस्‍सी। पप्‍पू की चाय दुकान पहुंचने पर पता चला कि काशीनाथ जी आजकल रोज नहीं आ पा रहे। मेरा सांचा-ढांचा देखकर दुकानदार ने संभवत: समझ लिया था, बिना देर किए सामने खड़े लंबे कद वाले ठनकते-से व्‍यक्ति से बोला, “..रामजी भैया, इनके काशी गुरु से मिलावा... बाहर से आइल हउवन...”

कान से अंगुली भर ऊपर रस्‍सी जैसी ऐंठी-बिटी गमछी का मुरेठा। मुंह में घुलाया जाता हुआ पान। आंखें तरेर कर ताकने का अंदाज। ऐसे ढांचे वाले सज्‍जन ने नजर उठाई तो जरा भी नहीं लगा कि यह व्‍यक्ति कोई लेखक-पत्रकार भी हो सकता है! पता चला कि यह रामजी राय हैं, पत्रकार। इस नाम से तत्‍काल दिमाग में पटने वाले रामजी राय याद हो आए- बौद्धिक खदबदापन जगाती दाढ़ी, तनतनाये-से रहने वाले खिंचडि़याये-से मध्‍यम उठान के बाल और विमर्श-सजग मुख-मुद्रा। लेकिन, यहां तो जो नए रामजी राय सामने थे इनमें एक खास तरह की उग्रता की गंध थी लेकिन यह अहसास दूसरे ही पल तब तिरोहित हो गया जब उन्‍होंने मुंह खोला। सम्‍मान पूर्वक परिचय पूछा। जेब से टेलीफोन नंबरों वाली पतली-छोटी डायरी निकाली और बगल के बूथ की ओर चल पड़े। फोन लगाकर बतियाने लगे। उधर से काशीनाथ जी चाहे जो बोल रहे हों, इधर से यह जनाब तो जोड़ीदार की तरह ललकार और ठनक के अंदाज में वाक्‍य ऐंठ रहे थे। फोन रखकर तुरंत बूथवाले को उन्‍होंने सि‍क्‍का थमाया और आतिथ्‍य-स्निग्‍धता से ताककर चाय पीने चलने को कहा।

याद नहीं कि साथ में कौन आया था किंतु संभवत: बाइक से काशीनाथ जी किसी के संग थोड़ी ही देर में हमारे सामने। अपने रंग और अपनी ही चमक वाली कुर्ता-धोती। चेहरे पर बिछी-सी धुनी हुई बर्फ सरीखी दाढ़ी। बंद-बंद चलता मुंह। आंखों में चहक-चमक। बिना कुछ कहे भी गहरे आश्‍वासन से समृद्ध करती-सी कद्दावर दृढ़ता। एकबारगी इस रूप में उन्‍हें सामने देखने का वह प्रथम टटका-टहक रोमांच और खांटी सुख आज भी मन में अक्षत कायम है। शाम अपने रंग में भीग चली थी।

तब तो भीतर बेंच पर चुपचाप या भुनभुन बतियाते ग्राहकों के कारण यह स्‍थान बेशक दुकान ही लगा था किंतु अब यहां बाहर तक कतारें और भीड़। बैठे या खड़े लोगों में ज्‍यादातर के मुंह से भुनते दाने जैसे छिटकते गरम-छनछनाते शब्‍द या धाराप्रवाह भाप छोड़ती विचार-धार। छोटे-छोटे गुच्‍छों में समूहों के बीच बहसें, कहकहे। कहीं थोड़े नियंत्रित वाक्‍टकराव तो कहीं बेलगाम पूंछऐंठव्‍वल-सिंघटकरव्‍वल तो कहीं तुर्की-ब-तुर्की मुंहबिरव्‍वल-चिढ़व्‍वल। अब यह दुकान नहीं, पूरी तरह बौद्धिक अखाड़ा था। कुछ लोग काशीनाथ जी के पास पहुंचकर थोड़ा संयम दिखाते किंतु एकाध कदम आगे-पीछे होते ही फिर चालू। कोई दिल्‍ली तो कोई लखनऊ की सरकार को उखाड़ने में जुटा दिखता। कोई बनारस के प्रशासन का बाजा बजा रहा है तो कोई अमेरिका पर यहीं से झपट्टा मार रहा है...।

इसी बीच भीतर ही हम तीनों ने स्‍थान पकड़ लिया था। काशीनाथ जी को मैंने पॉलीथीन से निकालकर अपनी किताब भेंट की। उन्‍होंने तुरंत पलटना शुरू कर दिया, “ अरे, क्‍या किताब अभी तुरंत खरीदकर ले आए हो मेरे लिए ? “ मैं सकपकाया, यह बात भला प्रकट कैसे हो गई।

उन्‍होंने किताब के पन्‍नों में दबी रशीद निकालकर दिखाई। बात समझते देर नहीं लगी, यह पुस्‍तक-विक्रेता के यहां ही पॉलीथीन में रखते समय पन्‍नों के बीच डाल दी गई होगी। अब ध्‍यान गया, पेपरबैक्‍स पुस्‍तक के कवर पर पीछे विक्रेता ने राजकमल प्रकाशनके लोगो के बगल में ही अपना स्टिकर भी लगा रखा था। क्‍या कहता, मैं संकोच में गड़ा गुमसुम बना रहा।

काशीनाथ जी ने रामजी राय को मेरे बारे में बताना शुरू किया। 'धपेल' उपन्‍यास की हिन्‍दी साहित्‍य में हो रही चर्चा, इससे मिलने वाली मुझे पहचान और इन सबसे लेकर मेरे नामवर जी का प्रिय पात्र होने तक जैसी बातें। मैं कहां देर से मन के भीतर उन्‍हें अपना परि‍चय देने के तरीके और सटीक शब्‍दावली सोच-खंरोच रहा था, वहीं स्‍वयं उन्‍होंने जल्‍द ही मुझे यह अहसास करा दिया कि इस मामले में मेरी ओर से उन्‍हें किसी सूचना-निवेदन की आवश्‍यकता है ही नहीं।

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