ग़ज़ल - सहारा में चल के देखते हैं - 5 alka agrwal raj द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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ग़ज़ल - सहारा में चल के देखते हैं - 5

अलका 'राज़ " अग्रवाल ✍️✍️

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: ******ग़ज़ल****

 

मुहब्बत हमें  हो  गई अब किसी से।

लगाया है दिल इसलिए शाइरी से।।

 

दुआ है हमारी फ़क़त ये उसी से ।

न हो दुश्मनी अब किसी को किसी से।।

 

वो दो चार दिन भी चुरा ज़िन्दगी से।

जिन्हें नाम वअदों के करदे ख़ुशी से।।

 

ग़रज़ थी हमेंभी तो कुछ रौशनी से।

चुरा चाँद को लाये हम  चाँदनी से।।

 

मुझे बोलना जिनका अच्छा लगे है।

मै डरती हूं उनकी उसी ख़ामुशी से।।

 

फ़क़त रोधना और मसलना है उनको।

उन्हें फूल से है न मतलब कली से।।

 

बहुत मुश्किलें है गुलों से गुज़रना।

निकल आई कांटों कि मैं तो गली से।।

 

हमें काम ना आई  ईमानदारी।

लिया काम हर एक से आजीज़ी से।।

 

रखा  गुफ़्तगू में सदा याद तुमको।

बता "राज़" आख़िर बनी बात ही से।।

 

अलका " राज़ " अग्रवाल ✍️✍️

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******ग़ज़ल****

ये जो नफ़रत है कम होने को जो तैयार हो जाए।

महब्बत फिर ज़माने में गुले गुलज़ार हो जाए।।

 

तिरी नज़रे इनायत का अगर इज़हार हो जाए।

हमारे दिल का  मौसम भी गुले - गुलज़ार हो जाए।।

 

कहीं ऐसा न हो के ज़िन्दगी दुश्वार हो जाए।

जिसे जीना हो मरने के लिए तैयार हो जाए।।

 

कभी तेरी गली की  ख़ाक छानी हमने भी लेकिन ।

यही हसरत थी दिल में बस तिरा दीदार हो जाए।।

 

जो देखून्गी बयाँ वो ही करूँगी तुम से मैं खुलकर।

ज़माने भर में ही फिर क्यूँ न हा हा कार हो जाए।।

 

क़ुसूर इसमें अँधेरे का नहीं है जब हवा अक्सर।

बुझाने के लिए सारे दिये तैयार हो जाए।।

 

अना के साथ समझौता तो मुश्किल "राज़" है अपना।

कही बे बात ही ना  बेसबब तकरार हो जाए ।।

 

अलका "राज़ "अग्रवाल ✍️✍️

 

 

करो तकरार मत उनसे, बिछा दो राह में कलियां

प्रकट उनके लिए हमसे, जरा आभार हो जाए।

           -सरि

*****ग़ज़ल*****

चेहरे से जब ज़रा दे हटा नकाब- ए- हिजाब की ।

दीदार ही करा तू वो सूरत ए माहताब  की।।

 

मुझसे करो फिर तुम न बात माहताब की ।

साहब  ये छोड़ दो भी है बातें हिसाब की ।।

 

तौबा न बात कर जो दिये उन गुलाब की ।

अब याद आए है वो उन्ही के शबाब की ।।

 

दिल ऐ ज़िगर मिरा भी निशाने पे वो रहा ।

उनकी फ़क़त रही वो उल्फ़त हिज़ाब की ।।

 

यादें हसीन " राज़ "है जो खुशबू गुलाब सी ।

बातें  चली बज़्म तेरे मेरे शबाब की !।

 

अलका "राज़ "अग्रवाल ✍️✍️

****ग़ज़ल ******

 

क्या नया अपना लें सारा  सब पुराना छोड़ दें।

लोग कहते हैं हमें गुज़रा ज़माना छोड़ दें।।

 

कब कहा है मैंने ये सारा ज़माना छोड़ दें।

मेरे ख़ातिर अपने दिल में इक ठिकाना छोड़ दें।।

 

ये तो सब होता ही होगा वो सब होना है जो।

ज़ल जलों के ख़ौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें।।

 

सिर्फ़ मेरा दिल नहीं मुजरिम दयारे- इश्क़ का।

आप अब इल्ज़ाम ये मुझ पर लगाना छोड़ दें।।

 

अश्क बारी में गुज़र जाए न अपनी ज़िन्दगी।

ऐ ! ख़ुदा हंसने का क्या इंसां बहाना छोड़ दें।।

 

ये शरर हैं रौशनी इनसे नहीं हो पायेगी ।

आप चिंगारी से अब दीपक जलाना छोड़ दें।।

 

कम न होगी मुश्किलें आँसू बहाने से कभी।

दौरे - गर्दिश में भी क्यूँ हम मुस्कुराना छोड़ दें।।

 

हौसले क़ायम रखें इन मुश्किलों के दौर में

ख़ौफ़ से ज़ालिम के हम क्या मुस्कुराना छोड़ दें।।

 

ज़िन्दगी ने " राज़ "बख़्शी हैं फ़क़त तारीकियाँ।

इसलिए हम घर में क्या दीपक जलाना छोड़ दें।।

 

अलका "राज़ "अग्रवाल ✍️✍️

******ग़ज़ल****

बड़ी मुश्किल से  हम इस  दिल को अब तक के सम्भाले हैं।

हमें लगता है के वो सारे रिश्ते कट ने वाले हैं।।

 

ज़माने तेरे जो दस्तूर  हैं कितने निराले हैं।

उजालों में अँधेरे हैं अंधेरों में उजाले हैं।।

 

तिरे ये होंट जैसे के कोई य मे के पियाले हैं।

इन्हीं में आके डूबेंगे यहाँ जो पीने वाले हैं।।

 

कोई भी साथ देता ही नहीं है वक़्ते मुश्किल भी।

यहाँ पर लोग जितने हैं सभी वो देखे भाले हैं।।

 

हमारा नाम मरकर भी अमर है आज भी देखो।

हमारे नाम के दुनिया ने भी सिक्के उछाले हैं।।

 

महक उठते ना क्यूँकर दोस्तों अशआर मेरे ये।

इन्हें ख़ून ए जिगर से  सींच कर मैंने जो पाले है।।

 

जहाँ रौनक़ ही रौनक़ " "राज़" थी चारों  तरफ़ लेकिन।

नहूसत है उन्हीं महलों में अब मकड़ी के जाले है।।