ढोलक बजाती वो औरत -- मेरी माँ Neelam Kulshreshtha द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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ढोलक बजाती वो औरत -- मेरी माँ

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

९ जून २०१८ को भतीजे अभिन्न ने आगरा से सुबह साढ़े सात बजे सूचना दी कि मेरी मम्मी जी नहीं रहीं। उनके अंत से अपने व उनके समबन्ध को स्पष्ट कर रहीं हूँ। मैं बेंगलौर में छोटे बेटे सुलभ के पास थी। मेरा तुरंत पहुंचना संभव नहीं था। मैं सुलभ व, प्रीति की भावनात्मक देख रेख व कुछ महीने की गोल मटोल पोती मिष्ठी के खिलखिलाते चेहरे से ग़म गलत कर रही थी। मैं 13 जून को मेरा जन्मदिन था, मैं बिलकुल नहीं चाहती थी कि मेरे स्नेही एफ़ बी. मित्र मुझे शुभकामनाएं दें इसलिए १२ तारीख़ को मैंने रात के बारह बजे से पहले चार पांच बार उनकी फ़ोटो सहित अपनी मम्मी के जाने की बात की पोस्ट डालने की कोशिश की लेकिन वह पोस्ट नहीं हो पा रही थी। शायद पांचवी बार कोशिश करके पोस्ट हो गई, मैं सो गई। सुबह मोबाइल देखा बुके व केक के सहित मेरी टाइमलाइन पर शुभकामनाओं के ढेर लगे हुए हैं, माँ की पोस्ट का पता ही नहीं था । मैं हैरान थी ---ऐसी ही थी उनकी मेरे ऊपर आजन्म हर ग़म व मुसीबत से जहाँ तक हो मुझे बचाती, उनकी छाया। आप कह सकते हैं -ये `टेक्नॉलॉजी फ़ेल्योर` है, मुझे भी पता है लेकिन अन्त में कुछ और भी बताउंगी।

आश्चर्य ये है कि मैं अस्मिता, महिला बहुभाषी साहित्यिक मंच, अहमदाबाद की मुसीबत व अपनी व्यस्तताओं में उलझी उन्हें ज़िंदगी में पहली बार चौदह पंद्रह दिन फ़ोन नहीं कर पाई थी। तीन जून को फ़ोन किया तो वो वे बोलीं तुम्हारी बर्थडे के लिए की शुभकामनाएं."

मुझे हंसी आ गई, "अरे अभी तो बहुत से दिन बाकी हैं। "लेकिन पता नहीं था---

मुझे जो उनसे विरासत में बहुत कुछ अलग, विशिष्ट मिला था, उसे समझने के लिए उनके यानि प्रमिला परिवार की पृष्ठभूमि को समझना होगा। उनके पिता यानि मेरे नाना कामता प्रसाद कुलश्रेष्ठ जी अलीगढ़ के जाने माने वकील थे। उनके भी पिता के बनवाये बेहद विशाल घर के बीच में उन्होंने एक बड़ा हॉल बनवाया था। क्या उस प्रगतिशीलता की आप कल्पना कर सकते हैं कि आज से साठ वर्ष पहले किसी व्यक्ति ने उत्तर प्रदेश के हॉल का नाम अपनी पत्नी के नाम पर `रुक्मणि हॉल `रक्खा . इस हॉल के दरवाज़े की जालियों पर अपने दो बेटों के साथ अपनी सात बेटियों के नाम के पत्थर लगवाए थे। उन्हें उच्च शिक्षा दिलवाई। इस विशाल घर के किरायेदार की ग्रहणी ने यानि पापा की मामी ने पापा के लिए इन्हें मांग लिया क्योंकि हमारे बाबा के देहांत के बाद पापा, उनके दो भाई व दादी वहां रह रहे थे। इस तरह मेरी माँ की चौदह वर्ष की आयु में शादी हो गई, उनकी शादी में हाथी भी आया था। जब शादी के बाद उनके कोई बच्चा नहीं हुआ तो मेरी डॉक्टर मौसी की एक मित्र ने उनकी आगरा नगरपालिका के प्राइमरी स्कूल में नौकरी लगवा दी। इस तरह मैं घर की देहरी लाँघकर काम करने वाली स्त्री की बेटी बनी। सबसे ख़ास बात ये कि इन्हीं मौसी के कारण परिवार नियोजन हमारी पिछली पीढ़ी में ही आ गया था। मैं उनकी शादी के सात वर्ष बाद पैदा हुई इसलिए प्यार के समुद्र में सब जगह भीगती रही। ननिहाल में भी बरसों बाद कोई बच्चा आया था इसलिए मैं सबका खिलौना थी।

वो हमें अपने दोनों हाथ फैलाकर एक किस्सा सुनातीं थीं, "देख मेरी उँगलियों के किनारों पर दस चक्र हैं. पंडित जी कहतें हैं कि जिसके ये चक्र होते हैं, वह अपनी किस्मत बदल सकता है। जब हम एक गली के मकान में किरायेदार थे तो सुबह सुबह मकान मालकिन किसी बात पर लड़ने लगी। उसने कहा कि जब इतना घमंड है तो क्यों नहीं अपने खुद के घर में चली जातीं। मैंने भी कह दिया जल्दी चले जाएंगेऔर गली में ऐसा सड़ा मकान थोड़े ही बनवाएंगे ? "

आगरा नगरपालिका में एक स्कीम आई कि वह निजी घर बनाने के लिए किसी ज़मीन पर लोन दे देगी। नाना जी ने कुछ आर्थिक सहायता की और इस तरह मैं अपनी तीन वर्ष की आयु में साफ़ सुथरी कॉलोनी के अपने निजी घर में, अपनी मम्मी के सामर्थ के कारण आ गई थी । पापा के ऊपर उस समय दो भाइयों को भी सहारा देने का दायित्व था तो ये निजी मकान किसी चमत्कार से काम नहीं था। वे सुबह उठकर नाश्ता, खाना बनाकर स्कूल जातीं थी.दस बजे के स्कूल वे सारे घर के कपड़े धोकर जातीं थीं।  कुछ कहो तो कहतीं कुकर व गैस के कारण चार लोगों का खाना बनाने में कितना वक्त लगता है ? अब अपने पर शर्म आती है वो दिन सोचकर दसों भुजाओं की दुर्गा की तरह काम सम्भालने वाली अपनी मम्मी की मुझे रसोई में सहायता करनी चाहिए थी। आगरा में हमारे घर उन दिनों कभी दादी की तरफ़ का, कभी नानी की तरफ़ का रिश्तेदार आते ही रहते थे । तब वे ज़रुर रसोई में या टेबल लगाने में सहायता लेतीं थीं।

अपनी बहिनों में सबसे कम पढ़ी लिखी लेकिन सबसे` प्रेक्टिकली स्मार्ट`थीं, उनके कोई न कोई भाई बहिन सहायता के लिए उनके पास आते रहते थे। मुझे याद है मेरी मौसी की आगरा में पोस्टिंग थी, उन्हें लखनऊ मेडिकल कॉन्फ़्रेंस में जाना था। मम्मी ने उनके एक महीने के बेटे राहुल को तीन चार दिन के लिए बिना हिचक दूध की बोतल के सहारे रख लिया था। आज राहुल विदेश मंत्रालय मेंआई एफ़ एस यानि द्वितीय सचिव, मिस्त्र में पोस्टेड है। जब भी भारत आता था तो कोशिश यही रहती थी कि  मेरी मम्मी से मिलकर जाए। वे सिर्फ़ अठारह, उन्नीस वर्ष की थीं तब अपनी बहिन आदर्श जैन [पत्नी सुप्रसिद्ध लेखक श्री यशपाल जैन ]की टी बी की बीमारी में देख रेख करने दो महीने भुआली सेनेटोरियम में रहीं थीं।

जब मैं दसवीं की परीक्षा देने वाली थी तब हमारे यहां किरायेदार रहने आये अपना नौ महीने का बेटा बबलू लेकर आगरा कॉलेज के प्रोफ़ेसर जगदीश चंद्र उपाध्याय। आज की परिस्थितियों में जबकि कोई बच्ची सुरक्षित नहीं रह सकती, कल्पना करना दूभर है कि दो परिवार कॉमन आंगन में रह सकतें थे । बाद में इन अंकल राजकुमारी आंटी के दो बच्चे हुए। मम्मी ने इस परिवार को इस तरह आँचल की छाँह दी कि हम लोगों के आज तक हमारे पैंतालीस साल बाद भी संबंध बने हुए हैं सिर्फ़ मम्मी व राजकुमारी आंटी की समझदारी के कारण। जाड़ों के दिनों में वे जल्दी खाना बनाकर इन बच्चों को अपनी रज़ाई में घुसाकर बैठ जातीं जिससे राजकुमारी आंटी अपना खाना बना सकें। जब कभी किसी भी घर में बढ़िया डिश बनती तो दोनों परिवार खाते। सबसे बड़ा शारद ऊर्फ़ बबलू उनसे बहुत जुड़ा हुआ था। वह डेढ़ दो वर्ष का था।मम्मी को कहीं जाना था। आंटी और हम सब उन्हें छोड़ने राजा मंडी स्टेशन गए। जब गाड़ी चली गई तो बबलू उदास बोलने लगा, "मम्मी गई --गाड़ी गई --मम्मी गई --गाड़ी गई। "

बस तबसे मम्मी का निक नेम`मम्मी गाड़ी ` पड़ गया था। घर में बच्चा आये या बुज़ुर्ग दरवाज़े से पूछता चला आता था, "मम्मी गाड़ी हैं क्या ?"

अनूठे सम्बन्ध की एक और बात याद है। जब अंकल का सारा परिवार विदेश जा रहा था तो आंटी की माँ भी आईं हुईं थीं लेकिन आंटी अपनी कुछ सोने के गहने मम्मी को सम्भलवा कर गईं थीं। उपाध्याय परिवार की सज्जनता व मम्मी के कारण मैं ऐसे ही ख़ुशनुमा, ईमानदार, दूसरों की सहायता करने वाले वातावरण में पली हुईं हूँ इसलिए मेरे व्यक्तित्व की ईमानदारी कोई ओढ़ी हुई चीज़ नहीं है, न कोई दिखावा ।

पापा की पोस्टिंग अपने बैंक की ब्राँच गाँव बनीपारा महाराज में हो गई थी। जहाँ हम छुट्टियों में जाते तो कानपुर से आगे रूरा स्टेशन पर उतरते थे. जहाँ पापा की भेजी बैलगाड़ी हमारा इंतज़ार कर रही होती, जहाँ से वह पांच मील दूर था। नीचे बैंक थी, पहली मंज़िल पर घर था। मम्मी गाँव पहुँचते ही पापा का बिखरा घर सींक की झाड़ू से साफ़ करतीं और मिट्टी के चूल्हे पर लकड़ी की आग में सहजता से रोटी बनाने बैठ जातीं। गैस पर रोटी बनाने वाली मम्मी का ये रूप हमारे लिये नया होता था। जिन्होंने लकड़ी की आग पर बनी रोटी खाई है वे कभी भी उस स्वाद को नहीं भूल सकते क्योंकि वह दुनियां की सबसे स्वादिष्ट रोटी होती है। मेरा भाई व मैं थोड़ा गुस्सा होते कि क्यों गर्मियों में बिना बिजली वाले गाँव में हमें ले आतीं हैं। वे धीरज से उत्तर देतीं, "तुम्हारे पापा को इन दिनों ही सही घर का खाना मिल सके। "

सन 1975-76 में उस गाँव के लोगों को देखकर मेरे मन में बसी गाँव की भोली छवि खंडित होने के ये दिन थे। गाँव की पंद्रह सोलह बरस की लड़की सुरजी बैंक के क्लर्क व चपरासी से चपल हो रही थी। एक बार पापा टूर पर गए हुए थे। रात के नौ बजे किसी ने कुंडा खटखटाया, एक बार नहीं तीन बार। अब कल्पना कीजिये एक कोने में बनी बिल्डिंग और दूर दूर तक फैला गाँव का अँधेरा, हमारी मम्मी जी सीढ़ी उतारकर दरवाज़ा खोलकर नीचे चिल्लाईं, "कौन है ?कौन खटखट कर रहा है ? हिम्मत है तो सामने आओ. "

काली माँ की इस ललकार पर कौन सामने आता?

शायद यही गुण मुझमें आया होगा जो मैं निरंतर शहर के` बिग शॉट` कहे जाने वाले दुश्मनों से लड़ने         की हिम्मत रखतीं हूँ, इसी ललकार के साथ। या कहिये मुझे ऐसी माँ उपर वाले ने दी जो मुझसे गुजरात में पत्रकारिता करवाना चाह रहा था। बैंक के दो कर्मचारियों के पास में मैनेजर पापा किसी को ` पॉवर ऑफ़ एटॉर्नी` के पास नहीं थी इसलिए मैनेजर पापा किसी को बैंक का चार्ज नहीं दे सकते थे. उन्हें` न `के बराबर छुट्टियां मिलतीं थीं। इस बात से समझा जा सकता है कि मेरे शादी में वे शादी के दो दिन पहले लगुन टीका में रात में पहुँच पाये थे। मम्मी हाथ में ब्रीफ़ केस दबाये मेरे भाई हेमंत व एक दो रिश्तेदार की सहायता से शादी के इंतज़ाम करतीं रहीं थीं। हमारे ख़ुद के बच्चे बड़े हो जातें हैं। तब हमें अपने माता पिता की मजबूरियां समझ में आतीं हैं। पापा को आगरा आने के लिये पहले पांच मील बैलगाड़ी पर चलना होता था फिर रूरा से ट्रेन पकड़कर शनिवार रात को बारह बजे घर पहुँच पाते थे। जहाँ हम आधी नींद में ऊंघते से उनसे` नमस्ते` कर फिर सो जाते थे। पापा को रविवार को पांच बजे शाम को ट्रेन के लिए निकलना होता था। कभी रूरा स्टेशन से किसी की सायकल पर सवार होकर जाते थे। कभी ऐसे मौके आते कि कोई सवारी नहीं मिलती तो पांच मील चलकर जाना पड़ता था । बैंक के नियमों के अनुसार जीवन में एक बार गाँव में पोस्टिंग की जाती थी।

एक तो मेरी मम्मी की जाँबाज़ी,  दूसरी बात मेरे हौसलों में अलीगढ़ के घर के रुक्मणि हॉल के पत्थर जड़े हुए हैं। ससुराल काफ़ी बड़ी थी इसलिए ऐसी माँ हमेशा मेरा साया बनी रही। वह चिंता करती कौन से रंग या कौन से स्टेट की साड़ी मेरे पास नहीं है। मेरा कोई गहना टूट गया तो उनके सिर डाल आती थी। वह उसमें कुछ सोना डालकर ठीक करवाकर मुझे दे देतीं थीं। मुझे दे देतीं थीं। हम लोग लखनऊ जा रहे थे। रास्ते में आगरा पड़ता था। वह भाई के साथ स्टेशन पर मिलने आईं और उन्होंने मुझे दो जोड़ी मोज़े थमा दिए, "मुझे पता था तुझे वड़ोदरा में रहने से याद नहीं रही होगी यहां की सर्दी तू ज़रुर सॉक्स लेकर नहीं चली होगी।, । "

ऐसे विशुद्ध वातावरण में मुझे अहसास नहीं होता था कि मैं लड़की हूँ। हाँ, कुछ लड़की होने के अहसास, अपनी सुरक्षा का ख्याल तो रखना ही पड़ता है। यही कारण है कि वड़ोदरा में पत्रकारिता करने निकली तो पता लगा कि स्त्री होना क्या होता है ?और अपनी कलम से भिड़ने लगी स्त्री की हर असमानता से। गुजरात की सांस्कृतिक आत्मा को समझने वाली स्त्री विकट स्त्री विमर्श लेखिका बन गई कहने की ज़रुरत नहीं है कि अर्थोपार्जन का तो प्रश्न ही नहीं उठ रहा था लेकिन मेहनतकश मम्मी की बेटी होने के कारण मैं तब भी अपने लक्ष्य में जुटी हुई थी। ये उनका ही सुद्रढ़ व्यक्तित्व का मेरे पर साया था। छोटे बच्चे, बड़ी ससुराल की समस्यायों, मानसिक दवाबों के बीच मैं `धर्मयुग `व `साप्ताहिक हिन्दुस्तान `जैसी राष्ट्रीय पत्रिकाओं के लिए लम्बे आलेख, सर्वे लिख रही थी।.

उनका व्यवसाय सीधा सादा था, सारे दिन मेहनत करने के बाद जब देखतीं, "ओ ---दस बज गए ?" दन्न से बिस्तर पर गईं और सो जाती थीं. कभी किसी सम्पादक का मानसिक दवाब, जो मैं गुजरात की प्रगति, अलग तरह की एन जी ओज़ के विषय में लिखती लेकिन सम्पादक इसको प्रकाशित नहीं करते। कभी छः, महीने कभी साल भर कभी ३-४ वर्ष भी मेरे लेख अप्रकाशित रहते । आगरा जाती तो सूरत पर बारह बजे रहते तो खीजतीं, " तू जाने कैसा काम पकड़ कर बैठ गई है ?"

हाँलांकि शादी से पहले आगरा की गोष्ठियों में वह मेरे साथ हमेशा जाने को तैयार रहतीं थीं, लिखने को हमेशा प्रेरित किया. बमुश्किल मेरा लिखा स्वीकृत होने लगा।

जब मेरे छोटे बेटे को सबसे पहले अपने बैच में केम्पस सिलेक्शन में चुन लिया गया तो पी जी का फ़ाइनल वायवा देने से पहले उसे जाना पड़ा । तब मानव संसाधन विषय का प्रचलन नया ही हुआ था इसलिए हम लोग बहुत खुश थे। बिना एक आँसु गिराए मैं ने उसे पहली नौकरी करने दमन के लिए विदा कर दिया। वह दोबारा भी आया तो भी खुशी के कारण कुछ रोना नहीं आया, थोड़ा बुरा लग रहा था, बस। एक बार मैं घर लौट रही थी तो देखा इसका बहुत नज़दीकी मित्र बाइक से आ रहा है .दिल को वह धक्का आज तक याद है कि सबके बच्चे यहीं कॉलोनी में हैं, मेरा सुलभ दूर चला गया है। घर लौटकर  डाइनिंग टेबल पर बैठकर मैं हिचकी भर भर कितना रोई थी, बता नहीं सकती। तभी उस ग़म को ग़लत करने लिखने बैठ गई, पता नहीं कैसे कलम बेटे से अपनी जड़ें तलाशती अपनी मम्मी तक जा पहुँची। हर स्त्री के प्रसव के बाद उसकी माँ या सास होती है यानि की दो जानों को जीवनदान देती है वही औरत .रिश्तों की इस डोर के अलावा जीवन संभव ही नहीं, न ही ये अनुमान था मैं अपने मम्मी के व्यक्तित्व को जो चित्रित कर रहीं हूँ --एक दृश्य भी है -वे ज़ोर ज़ोर से ढोलक बजाते गा रहीं हैं, "नौ कनस्तर घी के पी गई, नौ मन खा गई ज़ीरा री, जच्चा मेरी खाना न जाने री। "

ये मेरी कहानी थी `वो दूसरी औरत एक सिटिंग में पूरी हुई एक मात्र कहानी. जहाँ भी प्रकाशित हुई फ़ोन आये या पत्र पत्रिका में प्रकाशित हुए कि इसमें जो ढोलक बजाती औरत है, वह अविस्मरणीय है। वो और कोई नहीं मेरी माँ थीं। प्रतिलपी व मातृभारती वेबसाइट पर इसे हज़ारों पाठक पढ़ चुके हैं। उन दिनों मेरा मुझसे तीन वर्ष छोटा भाई हेमंत व वे ही मेरे बड़े गोल मटोल तीन वर्ष के बड़े बेटे अभिनव को सम्भालते रहे थे, उनके नखरे सहते रहे थे। घर में मरीज़ की देखभाल वो जिस तरह पूरे समर्पण से करतीं, यही गुण मैंने उनसे पाया है।

अक्सर मुम्बई या आ बड़े शहरों में रहने वाली मेरी एफ़. बी .मित्र लिखतीं हैं कि उन्होंने अपनी माँ को रसोई में ऑंसू बहाते सिर्फ़ रोटी बेलते देखा है।ज़िंदगी की परेशानियों की बात छोड़ दीजिये, मैंने अपनी मम्मी को या उनकी उच्च शिक्षित बहिनों को दूसरों के आंसू पोंछते देखा है। "अबला तेरी यही कहानी -----` .वाली स्त्री से ये बेहद अलग अपने आप निर्णय लेने वाली, अकेले यात्राएं करने वाली, आत्मनिर्भर थीं ये बहिनें। जिस तरह सज धजकर बाहर निकल सकतीं थीं, उसी तरह रसोई में एक से एक व्यंजन बना सकतीं थीं, महिला संगीत में ढोलक पर लोक गीत गा सकतीं थीं, नृत्य कर सकतीं थीं इनमें मेरी मम्मी के साथ डॉक्टर मौसी भी शामिल थीं। ये बात और है उच्च पद पर होने के कारण पुरुष व्यवस्था ने इनके छक्के छुड़ाए तो ये भी मुंहतोड़ उत्तर देने से पीछे नहीं हटीं .

मम्मी कुछ अलग हटकर ढोलक बजातीं थीं। आगरा में, हमारी कॉलोनी, रिश्तेदार व कुलश्रेष्ठ समाज के महिला संगीत में उन्हें बीच में बिठाकर ढोलक या हारमोनियम पकड़ा दिया जाता था। लोग बाहर से उनका स्वर पहचान लेते थे कि गाती हुई ये बुलंद आवाज़` बुटकन `[उनका निक नेम] की है। ताज़ातरीन बात बता रहीं हूँ, मेरी रिश्ते की एक बहिन ने कुछ महीनों पहले बताया था, "हमें तुम्हारी मम्मी की याद है। जब हम कोटा जाते थे तो वे सारी बहिनें अपने नाना जी के घर आतीं थीं। कहीं शादी या बर्थ डे का लेडीज़ संगीत हो तो सारी बहिनों के गानों से आँगन गूँज उठता था। तुम्हारी मम्मी बहुत सुन्दर डांस करतीं थीं `मेरे पिया गए रंगून, वहां से किया है टेलीफ़ोन ---.`

इन्हीं का मुझ पर प्रभाव रहा, जब तक मेरे पति की नौकरी रेलवे में रही, हमेशा मेरे `सोलो डांस` की फ़रमाइश वडोदरा मंडल के देश भर में प्रसिद्द तीज फंक्शन के लिए आती रही। मेरे द्वारा प्रस्तुत नृत्य नाटिकाएं इस जश्न की जान होतीं थीं। पार्टीज़ में भी मेरे गाने की फ़रमाइश हो ही जाती थी।

सन 2002 में मेरी पर्यावरण पर जीवन की प्रथम पुस्तक का विमोचन पर्यावरण सरंक्षण के लिए काम करने वाली एन जी ओ इनसोना कर रही थी। उन दिनों वे बहुत व्यस्त थीं लेकिन वे अचानक बड़ौदा मेरे भतीजे अनु को लेकर आ गईं थीं।सन 2004 में उनके बड़े दिन उन्हें उनके बुरे दिन बड़ौदा खींच लाये थे।  एक रात सड़क पर मेरे साथ जाते हुए गिर गईं। उनकी हिप बोन टूट गई, ऑपरेशन नहीं हो सकता था इसलिए उन्हें ट्रेक्शन पर रक्खा गया। उन्हें दो महीने बाद आगरा पहुंचा दिया गया। वे धीरे धीरे वॉकर से चलना आरम्भ हुआ लेकिन वह पहली जैसी एक्टिव लाइफ़ में कभी नहीं लौट पाईं। जो उनके बहुत निकट थे, उनका प्यार पूर्ववत बना रहा। बाद में मैंने मृदला गर्ग जी के संस्मरण में पढ़ा कि उनकी माँ भी बरसों बिस्तर पर रहीं लेकिन उनको प्यार करने वाले, मानने वालों के लिए वे वही रहीं थीं जिन्हें वे इज़्ज़त देते थे।

प्राणायाम और हल्के फुल्के योग से उनकी बिस्तर पर पड़े हुए उनकी याददाश्त देख लोग आश्चर्य करते थे। अपने अंतिम वर्षों में वे अपने बिस्तर के नीचे पानी भरी बाल्टी, बैड पैन रखवातीं रहीं, सवयं ही सब काम मैनेज करतीं रहीं। इस उम्र में शरीर का मांस सूख ही जाता है, आकृति ही बदल जाती है। मेरी माँ भी ऐसी हो गईं थीं। वे हम सबको दिलासा देती कहतीं, "जाई विधि राखे राम ताही विधि रहिये। ` `

वे कहतीं ", भगवान से प्रार्थना कर मुझे उठा ले। "मैं बेबस कह देती, "भगवान की मर्ज़ी। "

सन 2018 फ़रवरी में मैं उनके पास आठ दिन रही। ऐसा लग रहा था दुबले शरीर में कुछ अटक रहा है, जाने को तड़प रहा है --मेरा मन चुप हो गया --कह न पाया भगवान की मर्ज़ी। सबके लिए सहारा बनाने वाली, खुले हाथ सबको सहारा देने वाली ने लगभग 13-14 वर्ष उम्र का वनवास क्यों काटा, इतना शारीरिक कष्ट क्यों झेला?इन बातों का कोई उत्तर नहीं होता। बस मन समझाया जा सकता है कि उन्होंने इकलौती ऐसी बहू रूपम पाई उनकी निरंतर सेवा करती रही।

उपाध्याय अंकल बार बार विदेश गए अच्छा पैसा कमाया, आगरा के कमला नगर में विशाल बँगला बनवाया लेकिन मम्मी से इस परिवार के वही संबंध रहे । एक अविश्सनीय सी बात है 8 जून 2018 को रात में आंटी, अंकल अपनी आँखों में आंसु लिए [ ये अतिश्योक्ति नहीं है ] आपस में बात कर रहे थे बहुत दिन से `मम्मी गाड़ी` से नहीं मिलने गए और सुबह ---

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हमारे माता पिता दूर चले तो जाते हैं लेकिन हम में हर समय समाये रहते हैं। खाना बनाओ, कुछ भी करो यही लगता है कि हम अपनी माँ की तरह ही हर काम करतें हैं। कितनी पारमपरिक डिशेज़ बनाते याद आता है कि मम्मी ने ये नानी से सीखा होगा, उन्होंने -----.. कितनी प्यारी श्रंखला है। जिन्हें बहुत सज्जन कहा जाता है, मेरे पापा ऐसे ही थे। ऐसे लोगों की पत्नियों को हर फ़्रंट पर जूझना पड़ता है। हम पर भी कभी नहीं चिल्लाते थे। कभी पढ़ाई करने की बात नहीं मानो तो ज़ोर से कान उमेठ देते थे। तब हम दर्द से तिलमिला देते थे। आज बहुत याद आता है, उनका कान उमेठना।

रेखा चित्र के आरम्भ में मैंने लिखा था कि वे सन 2018 में जा चुकीं थीं। सन --२०19 में को मैं अहमदाबाद के अंतर्राष्ट्रीय लेखिका परिसंवाद जूही मेला, में भाग लेने जा रही थी। पूना में ट्रेन में बैठकर मोबाइल ऑन कर एफ़ बी देखा। सामने उसने दिखाई मम्मी की मेरी ली हुई हुई अंतिम तस्वीर। लाल शॉल में उनकी आँखें चश्मे से झांकती कह रहीं थीं, "शुभयात्रा ---आशीर्वाद। "

जी हाँ, ये भी टेक्नॉलॉजी है -----

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नीलम कुलश्रेष्ठ

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