रमा kirti chaturvedi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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रमा


आज बाबुल के अंगना से रमा की बेटी पूनम की विदाई हो रही थी। कन्यादान बेटी के चाचा और चाची ने किया जबकि उसी मंडप के सामने माता और पिता दोनों मौजूद थे। दरअसल ऐसा मां की ममता को नकारने के लिए किया जा रहा था। कई बार मां यानी हमारी कथा की नायिका रमा ने आगे आने का असफल प्रयत्न किया मगर हर बार उसे दुत्कार कर वहां से जाने को कहा गया। विवश रमा दूर से ही तमाशबीन बनकर सब तमाशा देखती रही। जब बेटी विदा हो गई तो वह भी अपनी कोठरी में आकर रोती रही।
कई बार ऐसे घटनाक्रम सामने आते हैं कि न चाहते हुए भी समाज की सड़ी-गली मानसिकता पर तकलीफ होती है, मगर नानक इस संसार में भांति-भांति के लोग कहावत चरितार्थ होते नजर आती है। दरअसल रमा मेरे घर में भी काम करती थी। समाज के पिछड़ा वर्ग से आने वाली रमा ने अपनी जिंदगी में चैन कभी नहीं पाया था। जिस परिवार में जन्म लिया और होश संभाला तो पाया कि वहां उससे बड़ी दो बहनें और दो छोटी बहनें मौजूद थीं। माता और पिता ने गरीबी में जितना स्नेह लुटा सकते थे, दिया लेकिन भाग्य में अगर सुख न बदा हो तो नियति ही बदल जाती है। खैर किसी तरह सबका लालन-पालन हुआ और सरकारी स्कूल में कक्षा पांचवीं से लेकर आठवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त गरीब की कन्याएं विवाह योग्य आयु में प्रवेश कर गईं।
दो बड़ी बहनों का विवाह पास ही के गांव में एक किसान परिवार में हो गया। जब रमा की बारी आई तो किसी ने शहर में सरकारी चपरासी के पद पर कार्यरत नत्थूलाल का नाम सुझाया। किस्मत में शादी होना लिखी थी इसलिए वहां बात पक्की हो गई। विवाह के बाद रमा अपने ससुराल  गई। जो कि कहने को तो शहर में था मगर तंग गलियों की एक बस्ती में उसका आशियाना एक कोठरी में बना। दूसरे ही दिन से सबकी असलियत सामने आने लगी। नत्थूलाल की मां नहीं थी मगर ये कसर उसकी बड़ी बहन ने पूरी कर दी थी। दिन रात तानें और सारा कामकाज और हुक्म की तामील में जरा देर हो जाए तो गालियों की बौछार और लात घूंसे से स्वागत होना जैसे आम बात थी। अब रमा ने भी हालात से समझौता कर लिया था। चुपचाप घर के काम करती। धीरे-धीरे समय गुजरता रहा। अब उसकी गोद में एक बेटी आ गई जिसका नाम उसने पूनम रखा। इसके बाद एक बेटा निखिल हो गया। पति में बस एक ही अच्छाई थी कि वह दारू का सेवन नहीं करता था। कुछ समय उपरांत नत्थूलाल को एक बंगले के आउट हाउस में जगह मिल गई थी। मगर रोज रोज की किचकिच की वजह से नत्थू को उसके मालिक ने बंगला खाली कर देने को कह दिया। अब वह फिर से उसी कोठरी में आ बसा। यहां रमा को पहले अपने ननद के घर का कामकाज करना होता। फिर खुद के घर का। दोनों बच्चे पास ही के सरकारी स्कूल में जाने लगे थे। रमा ने आसपास के घरों में रोटी बनाने का काम शुरू किया। इस पर भी घर में रोज की कलह का सामना करना होता। मगर इस काम से दो पैसे उसके हाथ में आने लगे थे। इसलिए उसने काम जारी रखने का फैसला किया।
इन्हीं घरों में से एक महिला चिकित्सक का भी घर था। उन्हें जब रमा के हालात का पता चला तो उन्होंने उसे हिम्मत दी कि घबराने से कुछ नहीं होगा। तुम एक महिला जरूर हो मगर आत्म सम्मान के साथ काम करती रहो। किसी की मार पिटाई और गालियां खाने की जरूरत नहीं है। उधर रमा का पति उसके काम छोड़ देने के पीछे पड़ा रहता था। उसने कई बार चाहा कि रमा सब काम छोड़कर घर में ही रहे। रमा अब पीछे हटने को राजी नहीं थी। एक दिन ऐसे ही झगडे़ में रमा को मार पीटकर घर से निकाल दिया गया और उसके दोनों बच्चे पति ने अपने पास रख लिए। अब रमा के पास काम तो था लेकिन सर पर छत नहीं थी। एक बंगले के अहाते में उसे सर्वेंट क्वार्टर में जगह मिल गईा। उसने वहीं काॅलोनी में रहते हुए काम करने का फैसला किया। इससे वो अपने बच्चों को दूर से देख सकती थी। कभी घरवालों की नजर बचाते हुए उनसे बात भी कर सकती थी।
रमा को काम करते हुए अर्सा हो चला था। जिन घरों में काम करती वहीं से खाने की व्यवस्था हो जाती। वहीं से जरूरत लायक कपडे़ इत्यादि मिल जाते। इससे उसे मिलने वाले पैसे बचने लगे। किसी ने सलाह दी कि पैसे ऐसे न रखा करो। बैंक में खाता खुलवा लो। एक शुभचिंतक महिला की मदद से उसने जमा किए पैसों की एफडी करवा दी। उस पर ब्याज भी मिलने लगा।
पहले तो रमा को मायके के परिवार में सबने धिक्कारा कि उसने वहां से निकलकर अच्छा नहीं किया। मगर जब उसने परिवार में सबकी रूपए पैसों से मदद की तो विरोध के स्वर धीमे होते चले गए। उसने परिवार को भी सहारा दिया अपनी बहनों के विवाह में सहायता की। अपने पिता का साथ दिया।
काॅलोनी में अपने पिता की चोरी से उसके बच्चे मां से मिल लेते। अक्सर वह उन्हें टाॅफी या जो उनका खाने का मन हो वो खिला पिला भी देती। उसकी बेटी को आठवीं करने के बाद घर बैठा दिया गया। बेटे को भी वह काॅलोनी में दूर से साइकिल चलाते हुए देख लेती और उसे प्यार न कर पाने के एहसास के कारण मन मसोस कर रह जाती। रमा की पूरी जिंदगी सब बंगले के मालिकों को खाना बनाकर सुकून देने में थी। मगर उसकी स्वयं की जिंदगी से सुख चैन गायब थे। अब उसके पैसे कमा लेने के कारण दूर के रिष्तेदार भी नाता जोड़ने लगे थे। पहले तो रमा समझाी नहीं और लोगों के मांगने पर जतन से जोडे़ पैसे दे दिया करती थी। कुछ साल बाद उसे समझ आने लगा कि सारी नातेदारियां सिर्फ पैसों की खातिर ही है। फिर तो उसने जी तोड़ मेहनत करने की ठान ली। सुबह से शाम तक सिर्फ काम करना और जो मिले खाकर सो रहना। छुट्टी लेना तो कभी उसने सीखा नहीं तो फिर भला बंगले वालों को इससे बेहतर महाराजिन कहां मिलती।
समय के साथ उसके बच्चे भी बडे़ होते रहे। एक दिन उसकी बेटी पूनम ने उसे फोन पर बताया कि उसके लिए घर-वर की तलाष की जा रही है। रमा प्रसन्नता से झूम उठी कि उसकी बेटी का संसार बस जाएगा तो वह बुआ और पिता के अत्याचारों से दूर हो जाएगी। एक दिन पूनम की मंगनी की रस्म अदा कर दी गई। कुछ दिन बाद की विवाह की तिथि तय कर दी गई। जाहिर सी बात थी कि रमा को इस शादी के कामकाज से दूर ही रखा गया। उसने बहुत प्रयत्न किए कि कोई भूले से उसे निमंत्रण दे क्योंकि वह गरीब तो ममता की मारी थी। मगर हाय रे जालिम दुनिया उस पर किसी को तरस नहीं आया। न रमा को किसी ने बुलाया और दोनों बच्चों को भी कड़ी ताकीद कर दी गई कि वे भूलकर भी अपनी मां को खबर न करें और न कोई वास्ता रखें। भला ऐसी बाते छिपती है कहीं तो उसके घर की गली में जब मंडप लगा तो उसे भी खबर मिल गई। वह भी दुखियारी अपना आत्म सम्मान भुलाकर बिना निमंत्रण के मंडप के सामने जा पहंुची। जहां पर बारात आ चुकी थी और वरमाला के बाद फेरों की तैयारी चल रही थी। सब लोगों ने रमा की भरपूर उपेक्षा की और उसे वहां से चली जाने को कहा पर रमा वहीं गली के एक कोने में अपनी जाई बेटी को पराया होते देखती रही। यहां तक कि बिदाई के समय उसे मां के गले लगकर रोने का सहारा भी नहीं मिला और पूनम बिदा हो गई।
रमा को लगा कि उसके दिल में फांस सी चुभकर रह गई। वह कुछ भी न कर सकी। ईश्वर की कृपा से पूनम का पति ठीक व्यक्ति निकला और पूनम अपने घर में खुश थी। इसके बाद रमा ने अपनी बचत में से कुछ रकम निकाल कर बेटी और दामाद को तोहफे दिए। दो साल बाद पूनम के यहां भी एक बेटी हो गई। रमा को पहले से ही मालूम था कि उसे घर की दहलीज से बाहर निकाल दिया है तो फिर जिंदगी खुद के दम पर अकेले ही गुजर बसर करना होगी। कुछ साल पहले उसकी ननद ने कोशश की थी कि रमा अपने पति को तलाक दे तो वह नत्थू का घर दोबारा बसा सके। लेकिन रमा ने कसम खा ली थी कि वह अपने जीते जी किसी दूसरी महिला को नत्थूलाल और उसकी बहन की ज्यादती की शिकार नहीं बनने देगी। इसलिए उसने तलाक देने के लिए हामी नहीं भरी। नत्थूलाल भी गाली दे देकर हार गया मगर रमा टस से मस नहीं हुई।
रमा आज भी हसंती मुस्कुराती कभी मिल जाती है तो मेरे सब परिजनों के हालचाल लेना नहीं भूलती। अब काॅलोनी ही उसका घर आंगन है और उसके बंगले वाले उसके परिवार के सदस्य। यूं उसके काम वाले भी रमा का ख्याल रखते है। बस भगवान से यही प्रार्थना है कि भविष्य में उसका बेटा समझदारी दिखाकर अपनी मां को ससम्मान घर लाकर रख सके, तो रमा को उसके हिस्से का सुख मिल सके।

कीर्ति चतुर्वेदी