धर्म की दीवार.. Saroj Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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धर्म की दीवार..

शाहिद लखनऊ एयरपोर्ट के बाहर आया,उसने सोचा कि किस होटल में कमरा लूँ,यहाँ तो मैं किसी को जानता भी नहीं,तभी एकायक उसके मन में विचार आया क्यों ना तिवारी मोहल्ले में ही कोई होटल तलाश करूँ,शायद वहाँ रहने के लिए कोई अच्छा सा होटल मिल जाएं और जिस काम के लिए मैं यहाँ आया हूँ हो सकता है वो काम भी पूरा हो जाए,यही सब सोचकर शाहिद ने एक टैक्सी रुकवाई और टैक्सी ड्राइवर से पूछा....
"भाई!तिवारी मुहल्ले चलोगे"
"हाँ!क्यों नहीं चलेगें साहब!जरूर चलेगे",टैक्सी ड्राइवर बोला...
"ठीक है तो चलो",इतना कहकर शाहिद ने अपना सामान टैक्सी में रखा और फिर बैठ गया"
तब टैक्सी ड्राइवर ने पूछा....
"तिवारी मुहल्ले में किसके यहाँ जाऐगें साहब?"
"वहाँ मेरा तो कोई नहीं रहता,लेकिन मुझे वहाँ कोई काम है,अगर वहाँ कोई अच्छा सा होटल हो तो तुम बता दो",शाहिद बोला...
"हाँ!वहाँ तो बहुत सारे होटल हैं लेकिन उनमें से एक होटल बहुत अच्छा है और वो होटल है तिवारी अंकल का,क्योंकि वें अपने मेहमानों का खास ख्याल रखते हैं,उनके होटल की मेहमाननवाजी भी बहुत मशहूर है,खासकर मुस्लिम मेहमानों का तो कुछ ज्यादा ही ख्याल रखते हैं वें",ड्राइवर बोला...
ड्राइवर की बात सुनकर शाहिद बोला....
"ये तो बड़ी अजीब बात सुनी कि कोई हिन्दू मुसलमानों को इतनी अहमियत देता है"
"अभी आप तिवारी अंकल से मिले नहीं है,जब मिल लेगें तो आपको भी पता चल जाएगा कि वो कितने अच्छे इन्सान हैं",ड्राइवर बोला...
"तुम इतना सबकुछ कैसे जानते हो उनके बारें में"?,शाहिद ने पूछा...
"मैं उसी मुहल्ले में रहता हूँ ना इसलिए",ड्राइवर बोला...
"ओह...तो ये बात है",शाहिद बोला...
"हाँ!साहब !मैं एक मुस्लिम परिवार से हूँ ,मेरा नाम अब्बास है और तिवारी अंकल ने हमेशा मेरी मदद की है,ये टैक्सी भी उन्ही की मेहरबानी से खरीद पाया था,उन्होंने ही इसके दाम चुकाए थे और फिर बाद में मैनें धीरे धीरे उनका सारा पैसा चुकता कर दिया और मेरी बहन की शादी में भी उन्होंने बहुत मदद की थी,मैं तो हमेशा उनका एहसानमंद रहूँगा",अब्बास बोला....
"ओह...इसलिए तुम तिवारी जी की इतनी तारीफ कर रहे हो"शाहिद बोला...
"वें हैं ही तारीफ के काबिल",अब्बास बोला....
और ऐसे ही बातों के बीच दोनों अपनी मंजिल तक पहुँच गए,होटल का नाम था मिलाप,अब्बास ने शाहिद का सामान टैक्सी से नीचे उतारा और अपने हाथों में सामान को लेकर वो शाहिद से बोला....
"साहब!मेरे पीछ पीछे आ जाइए"
शाहिद अब्बास के पीछे पीछे चल पड़ा और रेसेप्सन पर ही अब्बास को तिवारी अंकल दिख गए तो अब्बास ने सामान जमीन पर रखकर तिवारी जी के पैर छुए,बदले में तिवारी जी ने अब्बास के कन्धे पर हाथ रखकर पूछा...
"कैसे हो?बहुत दिनों बाद आना हुआ"
"बस!अंकल ठीक हूँ,एक मेहमान लाया हूँ आपके लिए",अब्बास ने शाहिद की ओर इशारा करते हुए कहा....
"ओह...आइए...आइए...आपका स्वागत है हमारे होटल में",तिवारी जी बोले...
"जी!रास्ते भर आपकी तारीफ सुनते हुए आ रहा हूँ"शाहिद बोला...
"इस अब्बास की तो ऐसी ही आदत है,जब देखो तब मेरी तारीफों के पुल बाँधने लगता है",तिवारी जी बोले...
"अंकल!झूठ थोड़े ही कहता हूँ,आपकी दरियादिली से तो हर कोई वाकिफ है",अब्बास बोला...
"बस..बस..रहने दे" और फिर इतना कहकर तिवारी जी ने एक शख्स को आवाज़ दी,जो शायद होटल में ही काम करता था और तिवारी जी ने उस शख्स से शाहिद का सामान कमरा नंबर पच्चीस में रखने को कहा,उस शख्स ने शाहिद का सामान उठाया और कमरें की ओर ले गया और इधर तिवारी जी ने पहले शाहिद का नाम पूछा फिर उसका आधार कार्ड देखकर कागजी काम पूरा करके उसे कमरें की चाबी थमाते हुए बोले....
"आप आज दोपहर का लंच यहीं लेगें या बाहर किसी रेस्टोरेंट में जाऐगें"
"जी!बहुत थका हुआ हूँ ,मैं तो पहले जी भर कर आराम करूँगा आज,बाहर जाने का झंझट मुझसे ना हो पाएगा,मैं तो लंच यही कर लूँगा",शाहिद बोला....
"तब तो बहुत अच्छी बात है लेकिन एक बात बताएं देता हूँ हमारे होटल में केवल शाकाहारी भोजन ही मिलता है",तिवारी जी बोलें....
"मुझे कोई एतराज़ नहीं"शाहिद बोला....
तब अब्बास बोला....
"तो अंकल !मैं चलूँ"
"हाँ!बेटा!ठीक है "और इतना कहकर तिवारी जी ने अब्बास को अलविदा कर दिया...
अब्बास के जाते ही शाहिद ने तिवारी जी से पूछा....
"लेकिन सर!मुझे एक बात समझ नहीं आई कि आप ब्राह्मण होकर मुसलमानों को इतना मान देते हैं,उनकी इतनी मदद करते हैं इसके पीछे कोई ना कोई बात तो जरूर होगी"
"बहुत लम्बी कहानी है बरखुर्दार",तिवारी जी बोलें...
"अगर आपको कोई एतराज ना हो तो मुझे आपकी कहानी जानने में दिलचस्पी है",शाहिद बोला...
"तो चलो मेरे आँफिस में चलकर बात करते हैं"
और फिर इतना कहकर तिवारी जी शाहिद को अपने साथ अपने आँफिस में लिवा लाए और उससे कुर्सी पर बैठने को कहा,फिर उसके लिए गरमागरम एक प्याली चाय मँगाकर अपनी कहानी सुनाने लगें ,जो कुछ इस तरह थी....
बहुत समय पहले की बात है,मेरे जवानी के समय में मेरा एक दोस्त था,जो मुस्लिम था,हमारे मुहल्ले में वही एक मुस्लिम परिवार था,बहुत खुशमिजाज था मेरा दोस्त,हम बचपन से साथ साथ एक ही स्कूल और एक ही काँलेज में पढ़े थे,फिर उसका निकाह हुआ,उसके निकाह में मैं खुशी खुशी शामिल हुआ,इसके बाद मेरी भी शादी हुई और वो भी मेरी शादी में शामिल हुआ,हम दोनों परिवारों का मेल देखकर मेरी जाति वालों को बिलकुल अच्छा ना लगता था,मेरा दोस्त बहुत ही अच्छा टेलर था,सिलाई में उसका हाथ बहुत ही साफ था,दूर दूर से लोंग उसके पास कपड़ा सिलवाने आते थे,वो गरीबों के कपड़े मुफ्त में सिल दिया करता था,उसकी दरियादिली के लोग चर्चे किया करते थे,उसकी वाणी की मिठास और उसके काम की सफाई के लिए वो बहुत मशहूर था....
दिन बीते वो एक बेटे का बाप बन गया और मैं एक बेटी का बाप,दोनों परिवार खुशहाली के साथ जिन्दगी बिता रहे थे ,इसी बीच मेरे दोस्त के अब्बा और अम्मी का हैजे के कारण इंतकाल हो गया और वो बेचारा बहुत दुखी रहने लगा,जैसे तैसे वो इस दुख से उबरा ही था कि तभी शहर में दंगे भड़के,नफरत की आग में पूरा शहर खाक होने लगा,हिन्दू मुसलमान एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए,मैं उस रोज अपने घर पर नहीं था,मेरे दोस्त को कहीं से पता चल गया कि मुसलमान दंगाई हमारे मुहल्ले में हथियारों के साथ दाखिल होने वाले हैं,मेरे दोस्त को जब ये पता चला तो वो मेरी पत्नी और बेटी को अपने साथ ले गया,उन्हें सुरक्षित रखने के लिए और मुहल्ले के लोगों ने उसे मेरी पत्नी और बच्ची को ले जाते देख लिया,जब मैं लौटा तो उन्होंने कहा कि देख वो मुसलमान तेरी पत्नी और बच्ची का कत्ल करने के लिए अपने साथ ले गया है,हो सके तो उन्हें बचा लें....
ये सुनकर मेरा खून खौल उठा और मैं एक बड़ा सा धारदार चाकू लेकर उसके घर पहुँचा और उसने जैसे ही दरवाजा खोला और वो कुछ कह पाता कि उससे पहले ही वो चाकू मैनें उसके पेट में घुसा दिया,एक बार निकाल कर दोबारा घुसा दिया,फिर तिबारा घुसाया और चौथी बार में वो धरती पर धराशायी हो गया,मैं धड़ाधड़ भीतर पहुँचा और दोनों कमरों को तलाश करने के बाद मैं तीसरे कमरें में पहुँचा,जहाँ मेरी पत्नी और बच्ची, दोस्त की पत्नी और बेटे के साथ दुबके बैठे थे,तभी मुझे देखकर मेरी पत्नी बोली....
"भाईजान!हमें बचाकर अपने घर ले आएं,नहीं तो आज हम जिन्दा ना बचते"
ये सुनकर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई और मैंने दोस्त की पत्नी से कहा....
"आप सब लोग मेरे साथ पीछे वाले दरवाजे से भाग चलो,क्योंकि यहाँ आप सबकी जान को खतरा है"
लेकिन मैं दोस्त की पत्नी से ये नहीं कह सका कि मैनें आपका सुहाग उजाड़ दिया है और मैं उन सबको बचाकर अपने घर ले आया,भाभी मेरे घर में दो चार दिन रहीं और मैनें उनसे ये कहा कि आपके पति का दंगाइयों ने कत्ल कर दिया है,अब आप अपने मायके चली जाओ और फिर दंगा खतम होते ही मैनें उस बेचारी को उसके मायके जाने वाली ट्रेन में उसके बच्चे के साथ बिठा दिया,वहाँ पहुँचने के बाद उनका एक ख़त आया था कि वें सुरक्षित पहुँच गईं हैं लेकिन फिर उसके बाद ना उनका कोई खत आया और ना वें कभी यहाँ आईं,मैनें भी उन्हें कोई खत नहीं लिखा,क्योंकि मैं तो यहाँ पश्चाताप की आग में जल रहा था,मैनें ये बात आज तक किसी को नहीं बताई लेकिन आज ना जाने क्यों आपको बताने का मन कर गया....
इतना कहते कहते तिवारी जी की आँखें सजल हो आईं....
"क्या मैं आपके दोस्त और उनकी पत्नी का नाम जान सकता हूँ?",शाहिद बोला....
तब तिवारी जी बोले...
"उस अभागे का नाम शौकत अली मिर्जा और उसकी बेग़म का नाम शाइस्ता अली मिर्जा था"
तब शाहिद बोला...
"आपने शायद गौर नहीं फरमाया कि मैं भी शाहिद अली मिर्जा हूँ"
ये सुनकर तिवारी जी भौचक्के रह गए और शाहिद से बोलें....
"कहीं तुम शौकत की औलाद तो नहीं?"
तब शाहिद बोला....
"अम्मी ने ही मुझे यहाँ आने को कहा था और बोलीं थीं तिवारी मुहल्ला होकर जरूर आना,वहाँ वो रहते हैं जिन्होंने हम दोनों की जान बचाई थी,लेकिन यहाँ आकर पता चला कि कहानी तो कुछ और ही थी"
तब तिवारी जी बोलें....
"बेटा!मैं तुम्हारा गुनाहगार हूँ,तुम्हारे बाप का कातिल हूँ,मुझे तुम जो भी सजा देना चाहो वो मुझे मंजूर होगी"
तब शाहिद बोला....
"सर!मैं आपको चाचा जी कहकर तो सम्बोधित नहीं कर पाऊँगा,इसलिए सर कह रहा हूँ और मैं क्या आपको सजा दूँगा,सजा तो आप पा ही रहे हैं जो इतने सालों से पश्चाताप की आग में जल रहे हैं,मेरे पिता के कातिल आप नहीं है,धर्म की दीवार है जो हम सबने खड़ी कर रखी है और जब देखो तब यह धर्म की दीवार गिरती रहती है और इसके तले दबकर ना जाने कितने ही बेगुनाह लोग मर जाते हैं और अनाथ हो जाते हैं मुझ जैसे बदनसीब बच्चे,माँफ कीजिएगा मैं अब आपके होटल में नहीं रुक सकता,मेरा सामान मँगवा दीजिए मैं यहाँ से जाना चाहूँगा ,क्योंकि जिस काम के लिए अम्मी ने मुझे यहाँ भेजा था वो पूरा हो गया है,वें आपको खुदा समझतीं थीं और फिक्र मत कीजिए मैं उनकी ये गलतफहमी कभी दूर नहीं करूँगा क्योंकि फिर आप में और मुझ में क्या अन्तर रह जाएगा,क्योंकि मैं यहाँ धर्म की दीवार खड़ी करने नहीं आया हूँ,मैं तो इस धर्म की दीवार को हमेशा के लिए गिराने आया हूँ....
और फिर कुछ देर के बाद शाहिद का सामान आ गया और वो तिवारी जी को खुदाहाफ़िज बोलकर होटल से बाहर निकल गया और ये सब देखकर तिवारी जी की आँखें एक बार फिर से सजल हो गईं....

समाप्त....
सरोज वर्मा....