फूलों की भेंट.. Saroj Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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फूलों की भेंट..

मँझली बहू गुन्जा जैसे ही दादा जी के कमरें उनके दोपहर का भोजन लेकर पहुँची तो उसने देखा कि दादा जी अपने बिस्तर पर लेटे थे,गुन्जा उनके बिस्तर के पास जाकर बोली...
"माँफ कर दीजिए दादाजी!आज आपका खाना आपके कमरें तक पहुँचाने में देर हो गई, शादी का घर है इसलिए व्यस्त थी"
गुन्जा की बात सुनकर दादा जी ने कोई जवाब ना दिया,तो ये गुन्जा को कुछ अटपटा सा लगा ,क्योंकि दादा जी इतने सरल स्वाभाव के थे कि कभी किसी से बड़ी बात पर गुस्सा ना होते थे तो ये तो बहुत छोटी सी बात थी ,दादा जी को भी पता था कि बहुएँ व्यस्त हैं आजकल ,शादी के घर में कितने ही काम होते हैं और कल ही तो सत्यकाम की बारात लौटी है, घर में नई बहू आई है,उसका भी ख्याल रखना है, वें इन सब बातों को समझते थे....
लेकिन आज उन्होंने जब कोई जवाब ना दिया तो गुन्जा को कुछ अजीब सा लगा इसलिए उसने खाने की थाली को मेज में रखा और अपना चेहरे का घूँघट सरका कर करवट लिए दादाजी को हाथ से जगाने का प्रयास किया,बहुत जगाने पर जब दादाजी नहीं जागे तो उसे बहुत चिन्ता हुई और वो अपने पति को बताने चली गई, उसका पति ये खबर सुनकर भागते हुए दादाजी के कमरें में आया और उसने दादाजी का शरीर छूकर देखा जो बिल्कुल ठण्डा था,ये देखकर उसके तो होश ही उड़ गए और वो अपने बड़े भाई को कमरें में बुलाकर लाया,धीरे धीरे लोग कमरें में इकट्ठे होने लगे तो पता चला कि अब दादाजी इस दुनिया में नहीं रहे,अभी कल तक तो भले चंगे थे,सुबह भी सबसे हंँस बोल रहे थे,सबके संग सुबह नाश्ता करते हुए उन्होंने अपने बड़े पोते रामस्वरूप से ये कहा कि.....
"तुम्हारे माता पिता तो अकस्मात् नदी में डूबकर चले गए थे और तुम तीनों भाइयों की जिम्मेदारी मेरे सिर आ गई, जवान बेटा और बहू की मौत ये दिल सह नहीं पा रहा था लेकिन कलेजे पर पत्थर रखकर मैनें और तुम्हारी दादी ने तुम तीनों को पाल पोसकर बड़ा किया,फिर एक दिन वो अभागन भी चल बसी,इसके बाद मैनें ही तुम सबको सम्भाला,तेरी दादी के जाने के बाद घर में केवल हम चार मर्द ही थे,जो मिलता पकाकर खा लेते,लेकिन घरनी के बिना घर नहीं होता,इसलिए जब तू बीस साल का हो गया तो सोचा तेरा ब्याह कर दूँ,घर में बहू आ जाएगी तो थोड़ी रौनक लगेगी,तीज-त्यौहार का पता चलता रहेगा,तुलसी की सेवा और चन्द्रमा की पूजा होती रहेगी,
इसलिए बहू भी मैं बड़ी सोच समझकर लाया कि वो आकर घर और अपने दोनों देवरों को भी सम्भाल ले,माँ की तरह दोनों देवरों का ख्याल रखे और ईश्वर की कृपा रही कि बड़ी बहू बृजरानी बड़ी ही सुघढ़ और गृहस्थन निकली,आते ही घर सम्भाल लिया और ईश्वर की कृपा से मुझे एक ही साल में परपोता खिलाने को मिल और दूसरे साल में उसने कान्ता को जन्म दिया,मेरी तो जैसे जन्म जन्म की आस ही पूरी हो गई, फिर बृजरानी अपने देवर कृष्ण चन्दर के लिए अपनी ही चचेरी बहन गुन्जा को चुनकर लाई,मँझली बहू भी हीरा निकली,दोनों देवरानी -जेठानी ने घर को ऐसे सम्भाल लिया कि जैसे बुजुर्ग महिलाएं सम्भालतीं हैं, ना दोनों में कभी किट-किट हुई और ना कोई अनबन,दोनों ही संतोषी स्वाभाव की हैं,फिर गुन्जा ने भी जुड़वाँ लड़को को जन्म दिया,मेरा घर तो जैसे बाल-गोपाल से भर ही गया,बस एक ही आस बची थी कि छोटे पोते सत्यकाम का ब्याह और हो जाएं तो गंगा नहा लूँ तो ये आस भी पूरी हो गई, कल छोटी बहू दमयन्ती भी आ गई है और आज से सत्यकाम की गृहस्थी भी शुरू हो जाएगी,अब कोई इच्छा बाकी नहीं रह गई है अब ईश्वर उठा ले तो कोई ग़म ना होगा"....
तब बड़ा पोता रामस्वरूप बोला...
"ऐसी बातें मत कीजिए दादाजी!ईश्वर करें आपकी छत्रछाया सदैव हम सब पर बनी रहे,अभी तो आपको सत्यकाम के बच्चों को भी तो खिलाना है"
"हाँ!ये भी सही है, तो फिर मरना स्थगित, सत्यकाम के बच्चों के मुँह देखने के बाद ही जाऊँगा" दादा जी बोलें..
और फिर दादाजी की इस बात पर सब हँसने लगे.....
दादाजी के पार्थिव शरीर के पास खड़ा रामस्वरूप बोला....
"अभी सुबह तक ये हँस रहे थे और दोपहर तक हम लोगों को ये समाचार मिल गया,आज तो सत्यकाम की सुहागरात थी"
फिर जो लोग काम में व्यस्त थे ,सबके हाथ रूक गए, अचानक से ये दुखद समाचार पाकर सबको गहरा सदमा पहुँचा,दादाजी एक स्कूल में एक अध्यापक बन कर वे आये थे, जल्दी ही वे साधारण से असाधारण बन गए,बहुत से अध्यापक आये और गए, पर दादाजी का स्थान कोई नहीं ले पाया,वे इसी गांव के रंग में रंग कर यहीं रह गए, छोटे से गाँव में दादा जी का सर्वोच्च स्थान था,उनकी वाणी की मिठास और हृदय में भरा अपार प्रेम सबका मन जीत लेता था,ये अशुभ समाचार सुन कर सब को गहरा आघात लगा, सब लोग एक दूसरे का मुँह देखने लगे, तब कृष्ण चन्दर बोला....
"आज सत्यकाम की सुहागरात है और दादाजी....., "
फिर रामस्वरूप ने घर में उपस्थित लड़कों से कहा ....
"जाओ गांँव में जहाँ-जहाँ फूल मिलें, एक-एक कर के चुन-चुन कर ले आओ"
और फिर सब बच्चे फूल लेने दौड़ कर चले गए....
अब बात यह उठी कि कौन-कौन श्मशान जाएगा और कौन-कौन घर पर रहेगा?सब लोग इस विषय में विचार कर ही रहे थे कि इतने में सत्यकाम वहाँ आया,तो कृष्णचन्दर ने पूछा....
"क्या कर रहा था भीतर,तुझे अब पता चला"?
सत्यकाम बोला...
"सजावट देख रहा था"
कृष्णचन्दर ने तब पूछा...
"किसकी सजावट देख रहा था?"
तब सत्यकाम बोला...
"दुल्हन और कमरें ,दोनों की"
"बस कर,बिल्कुल बेशर्मी लाद रखी है",कृष्णचन्दर बोला...
तब सत्यकाम ने अत्यंत सहज भाव से पूछा ....
'दादा जी ,सच में चले गए?'
"हाँ, वही तो हम लोग कह रहे थे, ऐसे समय में गए हैं कि"....,रामस्वरूप बोला...
तब कृष्णचन्दर बोला....
"आज का यह प्रोग्राम तो अब तेहरवीं के बाद ही होगा"
तब सत्यकाम ने कहा....
"ऐसा नहीं हो सकता ,कल तो मेरी केवल लोगों को दिखाने की शादी थी, असली शादी तो आज ही है, फिर यह आगें कैसे बढ़ाई जा सकती है?'"
यह सुनकर सबको केवल आश्चर्य ही नहीं हुआ बल्कि क्रोध भी आया, बुरा भी लगा, दुःख भी हुआ, सबसे ज्यादा दादाजी सत्यकाम को ही प्यार करते थे और ऐसा नहीं था कि सत्यकाम के मन में भी दादाजी के लिए अगाथ भक्ति और श्रद्धा की कमी थी, फिर भी आज ये ऐसा क्यों कह रहा है? आज दादाजी से बढ़कर इसकी सुहागरात हो गयी?
"तो फिर अब क्या करना है,कृष्णचन्दर ने पूछा...
रामस्वरूप बोला.....
"कुछ लोंग घर पर रहेगें और कुछ श्मशान घाट जाऐगें"
तब सत्यकाम बोला.....
"मैं तो श्मशानघाट जाऊँगा"
तब रामस्वरूप बोला.....
"तू श्मशानघाट कैसे जाएगा? तेरी आज सुहागरात है,ऊपर से नवविवाहित है कोई चुड़ैल-वुड़ैल चपट गई तो लेने के देने पड़ जाऐगें...
अब दादाजी के श्मशानघाट जाने की तैयारी होने लगी,लेकिन सत्यकाम अब भी श्मशानघाट जाने की जिद लगाए बैठा था और उसने नौकरानी से कहा.....
"ओ धनिया!अपनी छोटी भाभी से कह देना कि मैं श्मशानघाट जा रहा हूँ और भीतर से मेरा पुराना कुरता ला दे,यदि मैं भीतर गया तो फिर उसे देखकर बाहर ना आ पाऊँगा"
सत्यकाम की इस बात पर रामस्वरूप को बहुत गुस्सा आया लेकिन कह कुछ ना सका लेकिन कृष्णचन्दर बोल पड़ा......
" जरा देखो !तो अरमान फूट फूटकर निकल रहे हैं"
दादाजी के श्मशानघाट जाने की तैयारी हो ही रही थी कि तभी लड़को के झुण्ड में से एक ने आकर कहा .....
"कहीं भी फूल नहीं मिले"
"फूल नहीं मिले?"सब के कंठ से एक साथ आश्चर्य का स्वर फूट पड़ा, इतना बड़ा गाँव और उसमें दादाजी की अर्थी पर चढ़ाने के लिए कहीं फूल नहीं हैं?
लड़कों में से एक ने कहा.....
"आज लड़कियों की पता नहीं कौन-सी पूजा हैं, वे सवेरे सवेरे ही पूजा करने के लिए सारे फूल ले आयीं हैं,पेड़ों पर जो थोड़े फूल बचे थे, सारे के सारे लोग चुन-चुन कर यहाँ सत्यकाम चाचा की फूल शैय्या के लिए ले आये हैं, पेड़ों में गिनती के एक भी फूल नहीं बचे ,पूरा गांँव ढूंढ डाला, कहीं भी एक भी फूल नहीं मिला, दादाजी की सौगंध खाकर कहता हूँ, बहुत ढूंँढ़ा लेकिन एक भी फूल नहीं मिला"......
तब रामस्वरूप बोला......
"अब क्या किया जाए? सिर चकरा गया है मेरा ,दिमाग काम नहीं कर रहा है,"
इतने में सत्यकाम भी सबके साथ जाने के लिए तैयार होने लगा तो रामस्वरूप ने उससे डाँटते हुए कहा.....
"मैने कहा ना तू हम लोगों के साथ श्मशानघाट नहीं जाएगा"
तब सत्यकाम ने गुस्से में कहा -
"अच्छा ! ठीक है!मैं तुम लोगों के साथ श्मशान नहीं जाऊंँगा "...
और सत्यकाम गुस्सा होकर छत पर चला गया तभी कृष्णचन्दर ने रामस्वरूप से कहा....
"उसकी बुद्धि का क्या भरोसा है? कहीं जाते समय हमारे साथ चल दे तो तब क्या होगा"?
तब रामस्वरूप बोला......
"अगर ज्यादा जिद करेगा तो कमरे में बंद कर देंगे,उसका श्मशानघाट जाना ठीक नहीं"...
सारी तैयारी होते होते शाम हो गई,श्मशान घाट गांँव से काफी दूर था, सब लोग जब दादाजी को लेकर वहाँ पहुंँचे तो अँधेरा घिर आया था, दादाजी की अर्थी को कंधे से उतारकर,कुछ लोग वहाँ बैठकर भजन कीर्तन करने लगे और कुछ लोग चिता सजाने लगे,सब लोग काम में व्यस्त थे, दादाजी उन लोगों को छोड़ कर सदा के लिए जा रहे थे, जैसे कि उन लोगों का बड़ा अवलंब और बहुत बड़ा सहारा उनसे अलग हो रहा था......
फूल नहीं मिले थे,तीन चार गुड़हल के गंधहीन फूल तोड़-तोड़ कर शव के ऊपर रामस्वरूप बिखरा रहा था, उसकी आँखें सजल थीं,वो दादा जी से बोला –
"दादाजी!, यह दुःख हम लोगों को हमेशा रहेगा कि आपके अन्तिम समय में आपको चढ़ाने के लिए हम लोगों को फूल तक ना मिले, आज गांँव के सारे फूल सत्यकाम की शैय्या पर शोभा पा रहे हैं और दादा जी के लिए एक भी फूल नहीं हैं,
तब एक बोला....
"चिता एकदम तैयार है,अब दादाजी को उठा कर ले जाओ"
और फिर सभी लोग उठ कर खड़े हो गए,इतने में साइकिल कि ध्वनि और प्रकाश को देखकर सभी लोग लोभातुर हो एकटक उधर ही देखने लगे,
रामस्वरूप का बेटा कृतार्थ आंँसू पोछते हुआ बोला..
"कहीं फूल नहीं मिले"
और कृतार्थ रोता हुआ दादाजी के पैरों पर गिर पड़ा, सब लोग शव उठाने ही जा रहे थे इतने में कृषणचन्दर ने सब को रोकते हुए कहा.....
"जरा रुको तो, उधर से परछाई सी आ रही है"
सभी लोग उस ओर देखने लगे,देखा तो सत्यकाम था ,जो मानो जिंदगी कि बाज़ी लगा कर यहाँ दौड़ता हुआ चला आ रहा था,सत्यकाम वहांँ आ पहुंँचा तो सब लोग उसे देखने लगे, किसी के मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला,तब सत्यकाम ने हाँफते हुए कहा....
"ईश्वर को बहुत बहुत धन्यवाद, किसी तरह समय से आ पहुंँचा यहाँ,पता है कितनी चालाकी करके, सबको धोखा देकर यहाँ आया हूँ,लेकिन तुम लोग नाराज़ मत होना, एक को छोड़कर किसी को कुछ पता नहीं लगने दिया कि मैं यहाँ आने वाला हूँ,अब तो पहुँच ही गया, अब मेरा कौन क्या बिगाड़ सकता है भला? साइकिल से आने पर सब को मालूम हो जाता, इसलिए दौड़ता हुआ ही आ गया, भगवान् ने सद्बुद्धि दी थी इसलिए पता नहीं मुझे कैसे यह शॉर्टकट रास्ता सूझ गया,एक जगह पत्थर से ठोकर लगने से पैर के अँगूठे से खून भी बहा लेकिन मैं यहाँ आ ही पहुँचा और वो एक गठरी खोलते हुए बोला...
"लो कितने फूल चाहिए ले लो"
इतना कहकर उसने बनारसी ओढ़नी की गठरी की गाँठ खोल कर सारे फूल डाल दिए,फिर सबसे बोला...
"लो सब लोग दादाजी को चढ़ा दो,गुलाब, बेला, चमेली, गंधराज, रजनी गंधा, जूही, एक-एक करके उसने सारे फूल दादाजी पर चढ़ा दिए,अरे बड़ी सयानी निकली दादाजी की छोटी बहू,वो अपने सारे फूलों के गहने उतारकर और कमरें में सँजी फूलों की लड़ियाँ अपनी बनारसी ओढ़नी में बाँधकर मुझे चुपके से देकर चली गयी और मैं पोटली उठा कर यहाँ भाग आया"....
और फिर सब लोग सत्यकाम के मुँह की ओर आश्चर्य से देखने लगे,तब सत्यकाम बोला – ‘
"मेरा मुँह क्या देख रहे हो? चलो अब देर मत करो, दादाजी की अर्थी पर सारे फूल चढ़ा दो और इतना कहकर सत्यकाम स्वयं ही दादाजी को फूल चढ़ाने लगा,सबकी सजल आँखें सत्यकाम को और दादाजी को दी जा रही फूलों की भेंट देख रहीं थीं.....

समाप्त.....
सरोज वर्मा.....