क्रांतिकारी महिलाएं नीतू रिछारिया द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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क्रांतिकारी महिलाएं

क्रांतिकारी दुर्गा भाभी

प्रसिद्ध महिला क्रांतिकारी दुर्गा भाभी का पूरा नाम दुर्गावती बोहरा (Durgawati Devi) था। उनका जन्म 7 अक्टूबर 1907 को इलहाबाद में हुआ था। प्रसिद्ध क्रांतिकारी और भगतसिंह आदि के सहयोगी भगवतीचरण बोहरा के साथ उनका विवाह हुआ था। शीघ्र ही वे अपने पति के कार्यो में सहयोग देने लगी। उनका घर क्रांतिकारियों का आश्रयस्थल था | वे सभी का आदर करती ,स्नेहपूर्वक उनका सेवा-सत्कार करती ,इसलिए सभी क्रांतिकारी उन्हें भाभी कहने लगे और यही उनका नाम प्रसिद्ध हो गया।

अपने क्रांतिकारी जीवन में दुर्गा भाभी (Durgawati Devi) ने खतरा मोल लेकर कई बड़े काम किये | उनमे सबसे बड़ा काम था लाहौर में लाला लाजपतराय पर लाठी बरसाने वाले सांडर्स पर गोली चलाने के बाद भगतसिंह को कोलकाता पहचाना | पुलिस भगतसिंह के पीछे पड़ी हुयी थी | उन्होंने अपने केश कटवाए , कोट-पेंट और हैट पहनकर यूरोपीय बने और दुर्गा भाभी अपने छोटे बच्चे के साथ उनकी पत्नी का रूप धारण करके प्रथम श्रेणी के दर्जे में अंग्रेजो की आँखों में धुल झोंककर लाहौर से निकल गयी |

राजगुरु ने मैले-कुचेले कपड़े पहनकर कुली का वेश धारण कर लिया | इस प्रकार पुलिस उस समय भगतसिंह को गिरफ्तार नही कर पाई | यदि पुलिस को इस योजना का पता लग जाता तो दुर्गा भाभी पर क्या बीतती ,इसकी कल्पना भी नही की जा सकती | केन्द्रीय असेंबली में बम फेंकने के बाद जब भगतसिंह गिरफ्तार हो गये तो दुर्गा भाभी आदि ने उन्हें जेल से निकालने की योजना बनाई | इसमें इस्तेमाल करने के लिय जो बम बनाये गये उनके परीक्षण में 28 मई 1930 को भगवती चरण बोहरा की मृत्यु हो गयी |

दुर्गा भाभी (Durgawati Devi) पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा | उनकी सम्पति जब्त कर ली गयी | फिर भी उन्होंने अपनी मुहीम जारी रखी और मुम्बई के पुलिस कमिश्नर को मारने की योजना बनाई किन्तु इसमें सफलता नही मिली | पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया लेकिन प्रमाण न मिलने पर अधिक दिन तक जेल में नही रख सके | चंद्रशेखर आजाद की शहादत के बाद जब क्रांतिकारी दल नेतृत्वविहीन हो गया तो दुर्गा भाभी (Durgawati Devi) ने पहले गाजियाबाद और 1937 से 1982 तक लखनऊ में शिक्षण केंद्र चलाया | अंत में अपने बेटे सचिन्द्र बोहरा के साथ रहते हुए 2001 में गाजियाबाद में उनका देहांत हो गया |

स्वतंत्रता सेनानी लक्ष्मी सहगल

लक्ष्मी सहगल (Lakshmi Sahgal) का जन्म मद्रास प्रेसिडेंसी के मालाबार में 24 अक्टूबर 1914 को हुआ था | उनके पिता डा.स्वामीनाथन मद्रास हाई कोर्ट में वकील और माँ अम्मू स्वामीनाथन समाज सेवक थी। लक्ष्मी सहगल ने चेन्नई मेडिकल कॉलेज से 1937 में MBBS की उपाधि प्राप्त की | उन्होंने अपनी माँ की प्रेरणा से आजाद हिन्द फ़ौज में सेवा करने का निर्णय किया। 21 अक्टूबर 1945 को आजाद हिन्द फ़ौज के स्थापना दिवस पर उन्होंने जनसभा में भाषण दिया यधपि आजाद हिन्द फ़ौज भंग कर दी गयी है लेकिन उसका उद्देश्य अभी पूरा नही हुआ है

1940 में अपने पति राव के साथ अनबन होने से वो भारत छोडकर सिंगापुर चली गयी | इसी दौरान उन्होंने आजाद हिन्द फ़ौज में प्रवेश लिया था | 1945 में उनको गिरफ्तार कर भारत भेज दिया गया जब वो आजाद हिन्द फ़ौज की तरफ से बर्मा पहुच गयी थी | जब दिल्ली में आजाद हिन्द फ़ौज के सैनिको पर मुकदमा चल रहा तो लक्ष्मी सहगल ने इसका घोर विरोध किया | अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें वापस लौटने का नोटिस दिया परन्तु वे दिल्ली से बाहर नही आयी | अंग्रेजो ने दूसरा नोटिस दिया तब उनको मजबूरन दिल्ली छोडना पड़ा | प्रतिबन्ध समाप्त होने के बाद वे भारत आयी और आजाद हिन्द फ़ौज के कर्नल सहगल से उन्होंने विवाह किया और वे डा.स्वामीनाथन से लक्ष्मी सहगल हो गयी।

विवाह के बाद उन्होंने कामपुर में मेडिकल प्रैक्टिस शुरू की | 1952 में लक्ष्मी सहगल ने देहात में डा.सुनन्दा बाई के साथ जाकर काम किया | 1971 में बांग्लादेश युद्ध में उन्होंने कलकत्ता में पीपुल्स रिलीफ पार्टी में शामिल होकर काम किया | 2002 में लक्ष्मी सहगल (Lakshmi Sahgal) ने राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा | 23 जुलाई 2012 को कानपुर में 97 वर्ष की उम्र में उनका देहांत हो गया | 1998 में लक्ष्मी सहगल (Lakshmi Sahgal) को पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया।

स्वतंत्रता सेनानी मणि बेन पटेल

लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल की सुपुत्री मणिबेन पटेल (Maniben Patel) का जन्म 3 अप्रैल 1903 को गुजरात के करमसप नाम्म्क स्थान पर हुआ था | जब वे 6 वर्ष की थी तभी उनकी माता का देहांत हो गया था | उनके लालन-पालन का दायित्व उनके ताऊ विट्ठल भाई पटेल ने उठाया | उनकी प्रारम्भिक शिक्षा मुम्बई के क्वीन मेरी हाई स्कूल में हुयी | 1920 में अहमदाबाद जाने के बाद वे गुजरात विद्यापीठ में भर्ती हुयी तथा 1925 में उन्होंने स्नातक परीक्षा उत्त्तीर्ण की |

स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे अपने पिता सरदार वल्लभभाई पटेल के साथ रहने लगी परन्तु पिता और पुत्री में किसी प्रकार का संवाद नही होता था | 1923-24 में ब्रिटिश सरकार ने क्षेत्रीय लोगो पर भारी कर लगाये , उनकी भूमि एवं पशुओ को जब्त कर लिया | अंग्रेजो के इस दमनकारी रवैये से क्रुद्ध होकर हजारो महिलाओं ने मणिबेन के नेतृत्व से बाहर निकलकर आन्दोलन किया | वे महात्मा गांधी से मिली | गांधीजी ,सरदार पटेल एवं अन्य नेताओं की सभाओं में भाग लेने लगी तथा उन्होंने “कर मत चुकाओ” अभियान को शक्तिशाली समर्थन दिया |

1928 में बारडोली के किसानो को इसी प्रकार की यन्त्रणा से गुजरना पड़ा | महात्मा गांधी ने जनता को संघठित किया तथा करबंदी अभियान की जिम्मेदारी सरदार वल्लभभाई पटेल को सौंप दी | उन्होंने इस कार्य को बड़े साहस और कुशलतापूर्वक सम्पन्न किया | उनकी इस योग्यता से प्रभावित होकर महात्मा गांधीजी ने उन्हें सरदार की उपाधि दी | यद्यपि आरम्भ में महिलाओं ने बाहर निकलने में संकोच दिखाया परन्तु मणिबेन (Maniben Patel) के संकल्प के आगे बालिकाए , दुर्बल ,अशक्त तथा बीमार महिलाये भी उठ खडी हुयी |

इनके हृदय परिवर्तन का श्रेय मणिबेन पटेल को ही जाता है | इन महिलाओं ने सरकार द्वारा जबरन जब्त की गयी जमीन पर तम्बू गाड़ लिए तथा झोपड़िया खडी कर ली | उन्होंने वीरतापूर्वक पुलिस का भी सामना किया | 1928 में बारदोली आन्दोलन की सफलता के बाद मणिबेन पटेल को कई बार जेल की यात्राये करनी पड़ी | वे 1930 , 1932-34. 1938-39, 1940 तथा 1942-45 में जेल गयी | इससे पूर्व 1927 में उन्हें कैरा जिला बाढ़ राहत कार्य में सराहनीय योगदान दिया |

मणिबेन पटेल (Maniben Patel) 1951 में कांग्रेस में सम्मिलित हुयी और विभिन्न पदों पर रहते हुए पुरे भारत का दौरा किया तहत कई रचनात्मक , संघठनात्मक कार्यो का नेतृत्व किया | वे अनेक संस्थानों के उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर रही तथा इनकी कुशलतापूर्वक संचालन किया | वे गांधीवादी विचारधरा की प्रबल समर्थक थी | 1952-57 और 1957-62 तक वे लोकसभा सदस्य रही | गांधी रचनात्मक आन्दोलन संबधी उनके कई प्रकाशन भी है जिनमे बापुनो पन्नो , सरदारनी सीख तथा देशीराज आदि है | 1990 में उनका निधन हो गया | देश के स्वतंत्रता आन्दोलन एवं नवनिर्माण में उनका महत्वपूर्ण योगदान है | देशवासी उनके योगदान को लम्बे समय तक याद करते रहेंगे |

भीकाजी कामा

भारत का स्वाधीनता संग्राम ! लम्बे समय तक चलने वाला निरंतर संघर्ष | बलिदानों की लम्बी कहानी | असंख्य वीर देशभक्तों द्वारा स्वतंत्रता की बलिवेदी पर जीवन की आहुति | स्वतंत्रता का नारा बुलंद करनेवालों की टोलियाँ , लाठिया , गोलियाँ और पुलिस के जूतों की ठोकरे खाते हुए भी हँसते-हँसते सीना तानकर आगे बढती रहती थी | नारियाँ भी पीछे नही रही , वे अग्रणी होकर भी चली | जीवन के समस्त सुखो को तिलांजलि देकर कठोर साधना एवं कष्टमय जीवन अपनाने वाली नारियो में श्रीमति भीका रुस्तमजी कामा (Bhikaji Cama) का नाम विशेष सम्मान के साथ लिया जाता है |

बम्बई के सक सम्पन्न पारसी परिवार में 24 सितम्बर 1891 को श्रीमती कामा (Bhikaji Cama) का जन्म हुआ था | वह श्री सोराबजी पटेल की नौ संतानों में से एक थी | Alexandria Girls School में शिक्षा दिलवाकर उनके पिता ने पश्चिमी संस्कृति के बीज उनमे भरने का प्रयत्न किया , पर भीका तो भारत की पुत्री थी | तीव्र बुद्धि , जन्मजात प्रतिभा और संवेदनशील हृदय की स्वामिनी भीका अपने चारो ओर के भारतीय वातावरण से असंपृक्त कैसे रह सकती थी ? भारतीयों की अपमानजनक जिन्दगी उनके लिए असहनीय थी | उनकी गरीबी उनसे देखी नही जाती थी | यह वह जमाना था जब स्त्रियों को , विशेषकर समृद्ध परिवारों की स्त्रियों का , घरो से निकलकर समाज सेवा के क्षेत्र में अना एक बड़े साहस का काम था पर भीका स्वयं को रोक न सकी |

किशोरावस्था में ही भीका (Bhikaji Cama) का ध्यान राजनीति की ओर आकर्षित हुआ | सन 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद जब कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन हुआ , तब उनकी अवस्था केवल 24 वर्ष थी | नेताओं के उग्र भाषणों और जोरदार अपीलों से वे इतनी प्रभावित हुई कि तभी से एक सक्रिय कार्यकत्री के रूप में कार्य करने लगी | जात-पांत , धर्म सम्प्रदाय के भेदभाव को भुलाकर उन्होंने सबसे पहले सभी तरह की स्त्रियों और महिला संस्थानों के संघठन का बीड़ा उठाया | निर्धन और अभावग्रस्त महिलाओं में समाज कल्याण-कार्य के अतीरिक्त उनका विशेष कार्य उन महिलाओं को अपनी दुर्दशा के प्रति सचेत करना और उनमे जागृति का शंख फूंकना था | विदेशी राज्य के अत्याचारों के खिलाफ होने के लिए उन्होंने सभी को ललकारा और उनके सोये हुए आत्माभिमान को जगाया |

उनके क्रांतिकारी विचारों और ब्रिटिश साम्राज्य गतिविधियों से आतंकित हो सन 1885 में ही उनके पिता ने उनका विवाह श्री रुस्तम जी कामा से करके उन्हें घर परिवार की तरफ मोड़ने का प्रयत्न किया पर विवाह से उनकी गतिविधियों में कोई बाधा नही पड़ी | श्री कामा एक विद्वान और सम्पन्न पिता के पुत्र थे | प्रारम्भ में उन्होंने श्रीमती कामा (Bhikaji Cama )के काम में कोई रुकावट नही डाली | वे दोगुने उत्साह से काम में जुट गयी | यहा तक कि वे पति से अधिक कार्य के प्रति समर्पित हो गयी | वे कहा करती थी “मेरा विवाह तो मेरे ध्येय के साथ हो चूका है”| इस तरह काम में डूब जाने और घर की ओर ध्यान न दे पाने के बाद से उनका वैवाहिक जीवन असफल हो गया | फिर एक बार जब वे बहुत बीमार पड़ गयी तो पति ने यह समझकर उन्हें इंग्लैंड भेज दिया कि भारत से बाहर जाकर वे राजनीती से अलग हो जायेगी | पर यह उनका भ्रम था |

जब वो स्वस्थ होकर भारत लौटने वाली थी उन्ही दिनों इंग्लैंड में उनकी भेंट प्रसिद्ध भारतीय क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा से हो गयी | श्यामजी के ओजस्वी भाषणों से उनकी सुषुप्त भावनाओ ने फिर इतना जोर मारा कि भारत लौटने का निश्चय छोडकर उन्होंने वही स्वतंत्रता संग्राम छेड़ दिया | श्री श्यामजी वर्मा के साथ वह भी हाइड पार्क में अपने जोशीले भाषणों से स्वतंत्रता का नारा बुलंद करने लगी | अंग्रेज आश्चर्यचकित हो गये | भारत जैसे गुलाम और पिछड़े देश की एक महिला अपने शासको के देश में इस तरह खुल्लमखुल्ला विद्रोही प्रचार कर सकती है | इंडिया ऑफिस के अधिकारी आग बबूला हो गये | उन्होंने श्रीमती कामा (Bhikaji Cama) को समझाया कि वे भारत लौट जाए नही तो उनके खिलाफ कारवाई की जायेगी | पर वे कहा मानने वाली थी | उन्होंने आन्दोलन ओर तेज कर दिया |

भाषणों का सिलसिला बंद न करने पर अधिकारियो ने उन्हें जबरदस्ती निकाल देने की धमकी दी , पर वह भी बेकार ! आखिर जब श्रीमति कामा को गुप्त रूप से खबर मिली कि उनके खिलाफ कठोर कारवाई की जाने वाली है तो वे इंग्लिश चैनल के रास्ते तुंरत फ्रांस पहुच गयी और फिर पेरिस को उन्होंने अपना कार्यस्थल बना लिया | पेरिस में उनका घर क्रांतिकारीयो का मुख्य आश्रय था | यहाँ भारत,फ्रांस और रूस के सभी भूमिगत क्रांतिकारी शरण पाते थे | ब्रिटिश अधिकारियो ने उनकी गतिविधियों से आतंकित होकर उनके भारत-प्रवेश पर रोक लगा दी थी इसलिए श्रीमति कामा 35 वर्ष तक पेरिस में रही | अंग्रेज अधिकारियो ने फ्रांस सरकार से उनके प्रत्यर्पण की कई बार कोशिश की , पर असफल रहे | यदि फ्रांस द्वारा उन्हें ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया जाता तो निश्चय ही वे गोली से उड़ा दी जाती |

इस तरह फ्रांस सरकार से सुरक्षा का आश्वासन पाकर उन्होंने “वन्दे मातरम्” पत्र का प्रकाशन भी प्रारम्भ कर दिया | फ्रांस सरकार पर इस प्रकाशन ने किसी तरह की उलझन में न पड़े , इसलिए उसका प्रकाशन जेनेवा से किया गया | यह क्रांतिकारी पत्र नौ वर्षो तक विदेशो में भारतीय स्वतंत्रता की अलख जगाता रहा | उनकी एक प्रमुख एवं चिरस्मरणीय देन है भारतीय तिरंगा झंडा | भारतीय स्वतंत्रता के प्रतीक तिरंगे झंडे का नमूना श्रीमति कामा (Bhikaji Cama) द्वारा भारत से बाहर तैयार किया गया | इसकी भी एक कहानी है

18 अगस्त 1907 को जर्मनी में विश्व समाजवादियों का एक विशाल सम्मेलन हुआ था जिसमे 1000 से अधिक प्रतिनिधि सम्मिलित हुए थे | उस सम्मेलन में श्रीमती कामा को न केवल आमंत्रित किया गया , सम्मेलन के नेता श्री जीन जोरस ने सभा-मंच से उनका परिचय “फ्रेटरनल डेलिगेट” के रूप में किया जिसका अर्थ होता है हमसफर प्रतिनिधि | श्रीमती कामा (Bhikaji Cama) ने इस सम्मेलन में अपने तूफानी भाषण से श्रोताओं के हृदय में उथल-पुथल मचा दी | अपनी ओजस्वी वाणी से उन्होंने यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया “भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का बने रहना हम भारतीयों के लिए घोर अपमानजनक और भारतवर्ष के लिए सर्वनाश है | सम्पूर्ण विश्व स्वतंत्रता प्रेमियों को विश्व की चौथाई से अधिक जनसंख्या वाले इस दलित राष्ट्र की स्वाधीनता में अवश्य सहयोग देना चाहिए”|

इसके बाद एक भारी भीड़ उन्हें बधाई देने उमड़ पड़ी | इसी बीच भावावेश में आकर उन्होंने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ा और उसे भारतीय स्वतंत्रता के झंडे के रूप में गर्व से लहरा दिया और कहा “यह है मेरे राष्ट्र की पताका” | श्रीमति कामा के व्यक्तित्व और कार्यो से प्रभावित होकर स्वयं लेनिन ने उन्हें रूस आने के लिए कई निमन्त्रण दिए , जिन्हें वे किसी कारणवश स्वीकार न कर सकी | 35 वर्ष तक भारत से निष्काषित रहकर काम में जुटी रहने वाली इस निर्भीक महिला की व्रुद्धावस्था में स्वदेश लौटने की इच्छा इतनी बलवती हो उठी कि राजनीति में भाग न लेने की ब्रिटिश सरकार के शर्त पर उन्होंने यह सोचकर स्वीकृति दे दी कि अब वे काम करने लायक नही रह गयी थी | अब वो एक थकी ,रुग्ण और क्षीणकाय नारी मात्र थी |

नबम्बर 1935 में बम्बई पहुचने पर स्ट्रेचर और एम्बुलेंस द्वारा उन्हें सीधे अस्पताल पहुचाया गया , जहां आठ महीने बाद 13 अगस्त 1936 को उनका स्वर्गवास हो गया | उनके अंतिम शब्द दे “वंदेमातरम्” | 19वी सदी में जबकि अंग्रेजो की शक्ति भारत या इंग्लैंड में ही नही ,सारे संसार में बढी चढी थी और जब भारतीय परूष भी खुलकर ऐसे आंदोलनों में भाग लेने से डरते थे एक नारी का इतना महान एवं साहसी कार्य सचमुच अद्भुद प्रेरणा और शक्ति प्रदान करता है |

क्रांतिकारी बीना दास

क्रांतिकारी बीना दास (Bina Das) का जन्म 24 अगस्त 1911 को कृष्णानगर में हुआ था | उनके पिता बेनी माधव दास बहुत प्रसिद्ध अध्यापक थे और नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी उनके छात्र रह चुके थे | बीना की माता सरला दास भी सार्वजनिक कार्यो में बहुत रूचि लेती थी और निराश्रित महिलाओं के लिए उन्होंने “पुण्याश्रम” नामक संस्था बनाई थी | ब्रह्म समाज का अनुयायी यह परिवार शुरू से ही देशभक्ति से ओत-प्रोत था | इसका प्रभाव बीना दास और उनकी बहन कल्याणी दास पर भी पड़ा | साथ बंकिमचन्द्र चटर्जी और मेजिनी , गेरी वाल्डी जैसे लेखको की रचनाओं ने उनके विचारों को नई दिशा दी |

1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार के समय बीना (Bina Das) ने कक्षा की कुछ अन्य छात्राओं के साथ अपने कॉलेज के फाटक पर धरना दिया | वे स्वयंसेवक के रूप में कांग्रेस अधिवेशन में भी सम्मिलित हुयी | उसके बाद वे “युगांतर” दल के क्रान्तिकारियो के सम्पर्क में आयी | उन दिनों क्रान्तिकारियो का एक काम बड़े अंग्रेज अधिकारियों को गोली का निशाना बनाकर यह दिखाना चाहता था कि भारतवासी उनसे कितनी नफरत करते है | बीना दास को बी.ए. की परीक्षा पुरी करके दीक्षांत समारोह में अपनी डिग्री लेते समय वे दीक्षांत भाषण देने वाले बंगाल के गर्वनर स्टेनली जेक्सन को अपनी गोली का निशाना बनायेगी |

6 जनवरी 1932 की बात है | दीक्षांत समारोह में गर्वनर ज्यो ही भाषण देने लगा , बीना दास अपनी सीट पर से उठी और तेजी से गर्वनर के सामने जाकर रिवाल्वर चला दी | उन्हें आता देखकर गर्वनर थोडा सा हिला जिससे निशाना चुक गया और वह बच गया | बीना को वही पकड़ लिया गया | मुकदमा चला जिसकी सारी कारवाई एक ही दिन में पुरी करके बीना दास (Bina Das) को नौ वर्ष की कड़ी कैद की सजा दे दी गयी | अपने अन्य साथियो का नाम बताने के लिए पुलिस ने उन्हें बहुत सताया , पर बीना ने मुह नही खोला |

1937 में प्रान्तों में कोंग्रेसी सरकार बनने के बाद अन्य राजबंदियो के साथ बीना भी जेल से बाहर आ गयी | “भारत छोड़ो आन्दोलन” के समय उन्हें तीन वर्ष के लिए नजरबंद कर लिया गया था | 1946 से 1951 तक वे बंगाल विधानसभा की सदस्य रही | गांधीजी की नौआखाली यात्रा के समय लोगो के पुनर्वास के काम में बीना (Bina Das) ने भी आगे बढकर भाग लिया |

स्वतंत्रता सेनानी दुर्गाबाई देशमुख

दुर्गाबाई देशमुख (Durgabai Deshmukh)का जन्म 1909 ई. में आंध्रप्रदेश में हुआ था | 10 वर्ष की आयु में दुर्गाबाई ने काकीनाद में महिलाओं के लिए हिंदी पाठशाला की स्थापना की | अपनी माँ सहित 500 से अधिक महिलाओं को हिंदी पढाने के साथ साथ उन्हें स्वयं सेविका के रूप में तैयार करने का महत्वपूर्ण कार्य किया | उस समय फ्रोक पहने हुए इस नन्ही मास्टरनी को देखकर जमनालाल बजाज हक्के बक्के रह गये थे | महात्मा गांधी ने कस्तूरबा गांधी और सी.ऍफ़.एंड्रूज के साथ जब दुर्गाबाई (Durgabai Deshmukh) की इस पाठशाला का निरीक्षण किया तब दुर्गाबाई की आयु केवल 12 वर्ष थी |


इसी समय दुर्गाबाई (Durgabi Deshmukh) महात्मा गांधी के सम्पर्क में आयी | उन्होंने गांधीजी के सामने ही विदेशी कपड़ो की होली जलाई | अपने कीमती आभूषण उनको दान में दे दिए तथा स्वयं को एक समर्पित स्वयं सेविका के रूप में समर्पित कर दिया | महात्मा गांधी भी इस छोटी सी लडकी के साहस को देखकर दंग रह गये थे | कांग्रेस अधिवेशन में इसी छोटी लडकी ने जवाहरलाल नेहरु को बिना टिकट प्रदर्शनी में जाने से रोक दिया था | पंडित नेहरु इस लडकी की कर्तव्यनिष्ठा एवं समर्पण से बहुत प्रभावित हुए तथा टिकट लेकर ही अंदर गये |

बीस वर्ष की आयु में तो दुर्गाबाई (Durgabai Deshmukh )के तूफानी दौरों और धुआधार भाषणों की धूम मच गयी थी | उनकी अद्भुत संघठन क्षमता एवं भाषण देने की कला को देखकर लोग चकित रह जाते थे | उनके साहसपूर्ण दृढ़ व्यक्तित्व को देखकर लोग उन्हें “जॉन ऑफ़ ओर्क” के नाम से पुकारते थे | इस प्रकार वे दक्षिण के घर घर से निकलकर पुरे देश में विख्यात हो गयी थी |

“नमक सत्याग्रह” के दौरान दुर्गाबाई 1930 से 1933 के बीच तीन बार जेल गयी | उनको असहनीय यातनाये जैसे तेज धुप में खड़े रहना , भूखा रहना , मिर्च पिसवाना , आदि दी गयी परन्तु उन्होंने जेल से मुक्ति के लिए क्षमा नही माँगी | जेल से छूटने के बाद उन्होंने आगे की पढाई की | मैट्रिक से एम.ए. की पढाई पुरी की , फिर L.L.B. किया और वकील बनी | वे कई महिला संघठनो से जुडी रही | जैसे अखिल भारतीय महिला परिषद , आंध्र महिला सभा , विश्वविद्यालय महिला संघ , नारी रक्षा समिति और नारी निकेतन आदि |

दुर्गाबाई देशमुख (Durgabai Deshmukh) का विवाह 1953 में भूतपूर्व वित् मंत्री चिंतामणि देशमुख के साथ हुआ | विवाह के समय दुर्गाबाई “योजना आयोग” की सदस्या थी | “नारी शिक्षा की राष्ट्रीय कमेटी” की प्रथम अध्यक्षा ने नाते नारी शिक्षा के लिए विशेष प्रावधानों ,योजनाओं को व्यवस्था करने , पिछड़े वर्गो तथा महिलाओं -बच्चों के उत्थान कार्य को प्राथमिकता दिलाने के लिए दुर्गाबाई देशमुख ने अपना पूरा जीवन लगा दिया |

आंध्रप्रदेश के गाँवों में शिक्षा प्रसार के लिए उन्हें “नेहरु साक्षरता पुरुस्कार” से सम्मानित किया गया | 71 वर्ष की आयु में एक लम्बी बीमारी के बाद 9 मई 1981 को हैदराबाद में उनका निधन हो गया | यह एक राष्ट्रीय क्षति मानी गयी | उनका सौम्य एवं दृढ़ व्यक्तित्व भारतीय महिलाओं के लिए सदैव प्रेरणा स्त्रोत रहेगा | भारतीय संविधान के निर्माण में उनका महत्वपूर्ण योगदान था | उन्होंने भारतीय महिलाओं को संवैधानिक समानाधिकार दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई |