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साहित्य के अंधेरे उजेले 


लेखन की दुनिया बड़ी जटिल है |इस दुनिया में सबकी अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं |सबके अपने लक्ष्य हैं |सब नंबर वन पर आना चाहते हैं ,जिसके लिए वे कई प्रकार का खेल खेलते हैं ,गोटियाँ चलते हैं और चौपड़ बैठाते हैं |
एक अनाम लेखिका के कुछ अनुभव
एक -
वह भी आम था और कभी उसकी आम टोली में शामिल था,पर एक दिन वह दिल्ली गया और खास हो गया |खास बनने के लिए उसने क्या-क्या किया ,यह वही जाने |उसका रास्ता शार्टकट था |युवा था ...सुंदर था ...कोमल था ...लिखना-पढ़ना भी जानता था |अब वह कोई स्त्री होता तो तुरत उसके चरित्र पर प्रश्न उठता पर पुरूष का चरित्र कहाँ खराब होता है ?
कुछ दिन बाद लंबा रास्ता तय कर वह भी दिल्ली पहुंची और उसकी खास टोली में शामिल हुई ,जिसे वह गंवारा नहीं कर पाया |उसने जाने क्या-क्या किया ?पर इतना तो कर ही दिया कि एक दिन सारे प्रकाशक ,संपादक और बड़े लेखक उसके खिलाफ हो गए |बाद में पता चल गया कि सबके पास एक स्पीड लेटर पहुंचा था कि लेखिका का चरित्र अच्छा नहीं है |वह एक दिन के लिए भी उसे खास स्वीकार नहीं कर सका था |
कई बार वह सोचती है कि भरम समझ कर सब भूल जाए पर कैसे ?अभी तक उसके पास वह पत्र मौजूद है ,जिसे दिल्ली के प्रकाशकों व संपादकों के पास भेजा गया था |पत्र में उसका चरित्र हनन किया गया है और उन्हें धमकी दी गयी है कि अगर इस स्त्री को छापेंगे तो मतलब आप भी इसके साथ शामिल हैं |उनमें से कुछ साहित्यकार तो स्वर्गवासी हो गए पर एकाध लोग हैं ,जिन्होंने न केवल उस पत्र को पढ़ा था बल्कि संदेह में भी पड़े थे |पत्र का उद्देश्य उसे साहित्य से काट देना था |जो पूरी तरह पूरा तो नहीं हुआ ,पर फर्क तो पड़ा ही |उसकी स्वीकृत पाण्डुलिपियाँ लौट आइं |बड़ी पत्रिकाओं ने उसे छापना बंद कर दिया |ये सब अनायास तो नहीं हो सकता था |फिर ’मूंदहू आँख कतहू कछू नाहि’ पर वह कैसे अमल करती |
एक बड़े लेखक लेखिकाओं के मामले में बदनाम थे पर उनके साथ उसकी उजली यादें हैं |जब उनके पास उसके खिलाफ पत्र गया तो उन्होंने उसे सकारात्मक ढंग से समझाया कि हर लेखिका को यह सहना पड़ता है |हाँ ,आम वर्ग की लेखिका को ज्यादा खास वर्ग की लेखिका को कम,पर बख्शा उन्हें भी नहीं जाता ?अक्सर तो उन्हें किसी ‘खास’ के साथ जोड़कर देखा जाता है|वह खास किसी भी सत्ता का सत्ताधारी हो सकता है |
उसे तो इस बात से खुश होना चाहिए कि उसके साथ कम से कम किसी गाड फादर का नाम तो नहीं जुड़ा है |
एक और साहित्यकार ने भी उसे समझाया और उसे निरंतर लिखते रहने को प्रेरित किया |पर एक साहित्यकार थोड़े अन्यमनस्क दिखे ,जैसे उनकी प्रतिष्ठा भी दाँव पर लग गयी हो |हालांकि वे हमेशा उससे भातृवत व्यवहार करते रहे थे |
दो-
वे एक बहुत बड़े प्रगतिशील जनवादी कवि थे |बाहर के एक कार्यक्रम में वह भी उनके साथ गई थी |वे हर मायने में उससे बड़े थे पर उनका छोटापन भी उतना ही बड़ा निकला |कार्यक्रम के दूसरे दिन उन्होंने उसे साहित्य चर्चा के बहाने अपने कमरे में बुलाया |अलग-अलग प्रदेशों के बहुत सारे रचनाकर उस कार्यक्रम में आए थे और सभी एक-दूसरे से मिल-जुल रहे थे |वह तो खैर उनसे पूर्व परिचित थी |पर जब वह उनके कमरे में आई तो वे पूरी तरह नंगे खड़े थे |वह हतबुद्धि होकर कुछ क्षण वहीं खड़ी रह गयी फिर एकाएक मुड़ी और दरवाजे की तरफ भागी | वे उसे पुकारने लगे और बार-बार खुद को एक बार पूरी तरह देख लेने की प्रार्थना करते रहे |पर वह नहीं रूकी तो नाराज हो गए |नाराजगी इतनी बढ़ी कि वे उससे शत्रुवत व्यवहार करने लगे |वापसी तक वह बहुत तनाव में थी कि कहीं उसके साथ कुछ गलत न घटित हो जाए क्योंकि वह इलाका,कार्यक्रम के आयोजक और अन्य लोग भी उनके ही परिचित थे |लौटने के बाद भी वे उसके इंकार के अपमान को नहीं भूले और साहित्य से उसे काटने की हर कोशिश की |उस बड़े कवि का छोटापन उसे लगातार आहत करता रहा |



तीन –
वे एक बड़े अकादमी के उपाध्यक्ष थे और स्त्री भक्षी जीव भी |स्त्री भक्षी तो क्या कहें ,क्योंकि शुगर के कारण वे लगभग नपुंसक हो गए थे |स्त्रियों के साथ वे क्या और कितना कर पाते होंगे ,यह तो वही जानें ,पर आयोजन कर्ता होने के कारण उनके पौ बारह थे |वे साहित्यिक कार्यक्रम निर्धारित करके साहित्यकारों का चयन करते थे |उन्हें देश के सुरम्य स्थलों पर रचना-पाठ के लिए साथ ले जाते थे |इसमें नाम और पैसा भी था इसलिए नयी लेखिकाएँ आसानी से उनके चंगुल में आ जाती थीं |
चार –
पुरूष तो कभी किसी स्त्री को ‘खास’ मानता ही नहीं ,जुबान से भले ही कह दे |स्त्री के मस्तिष्क होने को वह आज भी दिल से स्वीकार नहीं करता |उससे उम्मीद रखना खुद को धोखे में रखना है पर मेरी दृष्टि में स्त्री सशक्तिकरण के सबसे अधिक खिलाफ जाता है जागरूक और विशिष्ट यानी खास स्त्रियों का खुद को विशिष्ट यानी खास मानकर चलना |वे खुद को खास मानती हैं अपने सौंदर्य ,प्रतिभा और उपलब्धियों के आगे दूसरी स्त्रियों के सौंदर्य ,प्रतिभा और उपलब्धियों को नगण्य समझती हैं या फिर किसी की कृपा से हासिल समझती हैं |साहित्य जगत भी इससे अछूता नहीं |अपने लेखन के आगे औरों के लेखन को तुच्छ समझना ...उसे देखना तक नहीं पढ़ना तो बड़ी बात है |उभरती लेखिकाओं को डामिनेट करने के लिए नाना तिकड़म करना ,अपने पावर का ,परिचय का उपयोग करना खूब चल रहा है |यह सब खुद को खास रखने और अन्याओं को आम बना देने के लिए है जो स्त्री शक्ति के एकीकरण में सबसे बड़ी बाधा है |
पाँच -
जब कोई आम अपरिपक्व लेखिका किसी खास पक्व लेखक का सम्मान करती है ,उसका सानिध्य चाहती है तो उसकी वजह अक्सर उनके लेखक रूप का सम्मान ही होता है |वह उनसे कुछ सीखना चाहती है ताकि आगे चलकर वह भी खास हो सके पर वे लेखक सोचते हैं कि वह उनके पुरूष रूप पर मोहित है और उसे लुभाने की जुगत में लग जाते हैं |वह यह नहीं सोच पाते कि उनके चुके हुए पुरूष रूप को नयी लड़की क्यों पसंद करेगी ?यदि कोई शिकार हो गयी तो वे गर्व से भर जाते हैं और उसका कुछ भला भी कर देते हैं ,पर जो बिफर गयी उसका सत्यानाश करने के लिए अपनी टूटी कमर कस लेते हैं |क्या वे किसी बाबा से कम होते हैं ?
छह -
-‘अच्छा तो तुम हो ....खूब और अच्छा लिख रही हो आजकल ...अच्छा लगता है ...ज्यादा से ज्यादा लड़कियों को लेखन के क्षेत्र में आना चाहिए |इधर नया क्या लिखा है ?भेजना.... फुरसत मिलते ही पढ़ूँगी और कुछ लिखूँगी उस पर |मेरी फलां –फलां किताबें पढ़ी क्या ?अच्छा !कैसी लगीं ?.....मेरी नयी किताब आ रही है ....भिजवाती हूँ तुम्हें ...खूब बढ़िया और बड़ी सी समीक्षा लिखना ....छपवाने की चिंता न करो ....वो तो मैं मैनेज कर ही लूँगी |’
वे एक बड़ी लेखिका थीं और उसने अभी लिखना शुरू किया था ,इसलिए वह निहाल हो उठी| अपनी प्राइवेट नौकरी में दिनभर खटने के बाद भी रात-रात भर जागकर उसने उनकी किताब का आद्योपांत कई बार अध्ययन किया |महीनों की मेहनत के बाद जाकर पंद्रह –बीस पेज की समीक्षा तैयार की |जो देश के सबसे प्रतिष्ठित अखबार के बाद प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और फिर उनकी नयी आलोच्य पुस्तक में भी छपी |उसे न तो कोई परिश्रमिक मिला न उसका नाम ही बड़ा हुआ |जो मिला उन्हें ही मिला |उसके बाद तो कई लेखिकाओं ने कभी खुद ,तो कभी अपने प्रकाशकों से कहकर उसके पास अपनी किताबें समीक्षार्थ भिजवाईं ,उसने सब पर खूब मेहनत की |एक लाभ उसे भी हुआ कि सब उसे जानने लगे |हर समीक्षा की प्रशंसा हुई |ऐसा नहीं कि वे किताबें ‘खास’ वर्ग की लेखिकाओं की होने के नाते ‘खास’ थीं पर वह ‘आम’ को भी अपनी मेहनत और शब्द-कौशल से ‘खास’ बनाने में माहिर हो गयी थी |
काफी समय तक यही चलता रहा |फिर उसकी भी किताब आई |उसने उन बड़ी लेखिकाओं से उस पर कुछ लिख देने की प्रार्थना की ,पर सबने कोई न कोई बहाना बना दिया |किसी के पास समय नहीं था |कोई अपनी नयी किताब में व्यस्त थीं |किसी को सभा-सेमीनारों से फुरसत नहीं थी |पर दरअसल बात यह थी कि वे ‘खास’ थीं और ‘आम’ पर कलम चलाना अपनी तौहीन समझती थीं |वैसे उनमें से किसी ने उसे स्पष्ट इंकार नहीं किया |सबने कहा –समय मिलते की पढ़ूँगी और लिखूँगी भी ,पर वह समय कभी नहीं आया | उस दिन उसने जाना कि वे दूसरों का कुछ पढ़ती ही नहीं ...ज़्यादातर आत्ममुग्धा हैं और खुद को संभ्रांत और विशिष्ट लेखिका मानती हैं |
और यह भी जाना कि खास लोगों द्वारा आम लोग सिर्फ इस्तेमाल किए जाते हैं क्षेत्र कोई भी हो |इसमें लिंग भेद मायने नहीं रखता |इस बात से नसीहत लेकर उसने भी खुद के लिखने पर ध्यान केन्द्रित किया |

सात-
वे प्रकाशक की खास थीं |वह उनकी किताबों के प्रचार-प्रसार में काफी रूचि लेता |एक-एक किताब को कई-कई बार और कई प्रकार से छापता था |प्रकाशक रसिक था,इसलिए अन्य युवा लेखिकाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व में भी रूचि लेता था ,पर उन पर उसकी विशेष कृपा थी |वह भी नयी-नयी प्रकाशक से परिचित हुई थी |खुद नयी थी ...लेखन भी नया था और नया-नया साहित्य में नाम हो रहा था |सो धड़ाधड़ उसने उसकी भी दो किताबें छाप दीं |वह भी लेखिकाओं की पंक्ति में शामिल हो गयी |
वे नाराज हो गईं |’आम’ लेखिका ‘खास’ बन जाए ...यह उन्हें नहीं भाया |शायद उन्होंने प्रकाशक को तलब किया या जाने क्या किया ,अब ये तो प्रकाशक ही जाने |पर फिर उसने उसे छापने से इंकार कर दिया |
वैसे भी वह न तो किताबों की रायल्टी देता था न कोई अन्य लाभ|ऊपर से हाथ –पैर मारने की कोशिश भी करता था ,जिसे वह साफ बचा ले जाती थी |आम लड़कियों को इस तरह की स्थितियों का सामना करने की आदत बचपन में ही पड़ जाती है |वे तूफान से भी अपनी कश्ती को निकाल ले जाती हैं ,यह बात प्रकाशक जैसे लोग नहीं जानते हैं |
अब प्रकाशक उनके डर से पीछे हट गया या फिर अतिरिक्त लाभ [देह लाभ]न मिलने की वजह से ,यह तो वही जाने |पर उसने जरूर राहत की सांस ली कि –कम से कम इस्तेमाल तो नहीं हुए |

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