Characteristic of the dramatic style of nature painting (with special reference to Kalidasa and Bhav books and stories free download online pdf in Hindi

प्रकृति चित्रांकन की नाटकीय शैली का वैशिष्ट्य (कालिदास और भवभूति के विशेष संदर्भ में)

मानव संवेदना सदैव से ही सौंदर्य की अभिलाषणी रही है। वह सदैव नवीन रूप व नूतन सौंदर्य का अन्वेषण करती रहती है। मानव जीवन के समस्त लक्ष्यो मैं सौंदर्य ही सर्वोपरि है। प्रकृति के कण-कण में सौंदर्य परिव्याप्त है और अनादिकाल से मानव चेतना इस सौंदर्य को आत्मसात करती रही है। वस्तुतः मानव जीवन स्वयं भी तो प्रकृति के विशाल रूप का एक अभिन्न अंग है। अतः सभ्यता और संस्कृति के प्रारंभ से ही मानव की जीवनधारा में यदि प्रकृति ने अपनी सौंदर्य सुषमा के रंग विखरे हैं तथा अपने प्रतिबिंबो को मानव ह्रदय के विविध भावों के रूप मैं मूर्त कराया है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
वैदिक वांग्मय मैं ऋषियों ने प्राकृतिक सुषमा में दार्शनिक या जिज्ञासु दृष्टि से अन्वेषण करने का प्रयास किया है वही बाल्मीकि ने प्राकृतिक सौंदर्य को कवि दृष्टि की सहृदयता व सहानुभूति के साथ अपनाया है । इस प्रकृति ने हमें कल्पना या सादृश्य विधान की वह आदर्शोन्मुखी उड़ान दिखाई नहीं देती जिसके दर्शन कालिदास की काव्य कृतियों में होते हैं। भवभूति के पूर्व के कवियों महाकाव्य प्रणेताओं तथा नाटक कारों की परंपरा में वर्णित प्रकृति चित्रण की दो विशिष्ट शैलियां सामने आती है एक यथार्थ एवं सादृश्य मूलक सरल भावात्मक शैली और दूसरी चमत्कार एवं वैचित्त्य मूलक संश्लिष्ट शैली । भवभूति से पूर्व प्रथम शैली के कवि कालिदास माने जा सकते हैं और दूसरी शैली के बाणभट्ट। भवभूति ने इन दोनों ही शैलियों की उर्वर भूमि पर अपनी प्रतिभा को पनपने दिया है साथ ही उन्हें नाटकों में प्रकृति चित्रांकन की एक विशिष्ट सीमा में स्वभावत : ही आबद्ध होना पड़ा है।

वस्तुतः काव्य प्रतिभा की वास्तविक कसौटी नाटक ही माने गए हैं। जहां कम से कम शब्दों द्वारा कथावस्तु के परिसीमित आयाम मैं अपने भावों को अधिक से अधिक मूर्त रूप में रखना पड़ता है । इस भाव गत संक्षिप्तता के कारण ही नाटकों में प्रकृति चित्रण को वह उर्वरता प्राप्त नहीं हो पाती जो उसे श्रव्य काव्य में प्राप्त हो जाती है। रसानुभूति का संबंध भी सामान्यतः काव्य से ही माना जाता है किंतु नाटकों की चित्रमयता चाक्षुस प्रत्यक्षता भावदि की सम्यक योजना के कारण उनकी रस पेश लता सर्वोपरि हो जाती है। अतः उद्दीपन रूप में प्रकृति का संबंध नाटकों के साथ कहीं अधिक गहन माना जा सकता है। श्रव्य एवं दृश्य दोनों ही काव्य रूपों में प्रकृति चित्रण प्रधान रूप से उनकी भंगिमामय वर्णनात्मक शैली का आधार है वहां दृश्य काव्य में उसका सौंदर्य प्रधानत : कथावस्तु एवं कार्य व्यापार के विकास में सहायक होता है । नाटकों में यदा-कदा जहां भी प्रकृति का सौंदर्य वर्णनात्मक हुआ है निश्चय ही वहां नाटकीय कार्य व्यापार शिथिल पड़ गया है ।

प्रकृति चित्रांकन के काव्य शास्त्रीय विवेचन से अलग हटकर यदि नाटकों की व्यावहारिकता की दृष्टि से विचार करें तो हमारे सामने प्रकृति चित्रांकन की नाटकीय शैली का रूप स्पष्ट हो जाता है। नाटकीय वृत्त के लिए प्रकृति का प्रयोग कई रूपों में उपयोगी सिद्ध होता है और संस्कृत के श्रेष्ठ नाटककारों ने इसका भरपूर उपयोग किया भी है। प्रकृति के आलंबन एवं उद्दीपन दोनों ही रूपों का दृश्य काव्य में नाटकीय मूल्य कुछ विशेष हो जाता है। यहां इन्ही मूल्यों की दृष्टि से कालिदास और भवभूति के प्रकृति चित्रांकन की नाटकीय शैली का रूप भी स्पष्ट हो जाता है। यहां इन दोनों के प्रकृति चित्रांकन का सापेक्क्ष्य विवेचन करने का प्रयास किया गया है।

किसी भाव विशेष को चित्रित रूप में प्रस्तुत करने की जितनी अपेक्षा नाटकों में होती है उतनी काव्य की किसी अन्य विधा में नहीं। इसका कारण मूलतः नाटकों का दृश्य होना है। यह भावगत रूपात्मकता प्रकृति के उपकरणों के परिवेश में स्फुरित हो उठती है । प्रकृति के चित्र- विचित्र रंग -भावों की अमूर्त रेखाओं को चित्रात्मक स्पर्श देकर उन्हें अधिकाधिक रूप से मूर्त एवं प्रत्यक्ष बनाने में बहुत सहयोग प्रदान करते हैं। नाटककार को एक कुशल शिल्पी की तरह प्रकृति के उन्ही चित्रों का चयन करना पड़ता है जिनका अभीष्ट भावों के साथ प्रत्यक्ष एवं गहन संबंध स्थापित किया जा सके। उसे प्रकृति के केवल उन्ही उपकरणों को ग्रहण करना होता है जो कम से कम समय में उसके भावों को अधिकाधिक संवेग दे सकें तथा नाटकीय कार्य व्यापार की श्रंखला बनी रह सके। भावों तथा कार्य व्यापार का ऐसा प्रत्यक्ष आधार बनाने वाले प्रकृति चित्रों का सम्यक चयन ही नाटकीय शिल्प का उत्कृष्ट नमूना बन सकता है। जो नाटककार अपनी इस कला में जितना सफल होता है उसके नाटकों में भाव भूमि उतनी ही उन्नत हो जाती है।

नाटकों के दृश्य विधान में भी प्रकृति चित्रों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। परंतु प्राचीन काल में ही नहीं अपितु वर्तमान काल में भी इन प्रकृति चित्रों को दिखाना संभव नहीं होता। अतः इनमें से कुछ को तो नाटककार एक विशिष्ट वर्णनात्मक पद्धति द्वारा पात्रों के मुख से अभिव्यक्त करवाता है तथा कुछ अन्य को एक हलके संकेत द्वारा पाठको या दर्शकों की कल्पना के लिए छोड़ देता है। सभी दृश्य तत्वों को रंगमंच पर उपन्यस्त न कर सकने के कारण नाटककार को अपनी नाटकीय शैली में कुछ ऐसा मोड़ देना आवश्यक हो जाता है जो रंग विधान के अभावों की पूर्ति कर सकें तथा कई दृष्टियो से उसका पूरक बन सके। कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम् तथा भवभूति के उत्तररामचरितम् जैसी नाट्य कृतियों के वस्तु संगठन पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट होता है कि संस्कृत के इन महान नाटककारो ने देश एवं काल की सर्वतो दृश्य प्राकृतिक सुषमाओं को किसी प्रकार अपने शब्द शिल्प की नपी तुली नाटक की रेखाओं में पाठको एवं दर्शकों के अंत: चक्षु के समक्ष साकार कर दिया है। चाहे अभिज्ञान शाकुंतल के तपोवन दृश्य को ले या उत्तररामचरित के दंडकारण्य के दृश्य को इनकी विराट प्राकृतिक पट्टभूमि के जीवंत निदर्शन हमारे हृदय को सहज ही आकृष्ट करने में समर्थ है। प्रकृति के ऐसे महत् रूपों को किसी भी मंच पर उतारना संभव नहीं है फिर भी देश काल ऋतुआदि के स्वाभाविक विस्तार में खींचे गए प्रकृति के ऐसे शाब्दिक चित्र हमारे अंतर स्थल पर अपनी प्रभाव उत्पादकता की अमिट छाप छोड़ जाते हैं । उन्हें साक्षात मंच पर न देख कर भी हम उनकी एक एक भंगिमा का साक्षात्कार कर सकते हैं। कालिदास और भवभूति दोनों ने ही अपने-अपने ढंग से प्राकृतिक जीवन के विविध पक्षों को जिस नाटकीय शैली में प्रस्तुत किया है उनका न केवल प्राकृतिक चित्रण की दृष्टि से महत्व है अपितु नाटकीय भाव संविधान के सम विषम प्रवाह के साथ उनका अन्योन्याश्रित संबंध है। इस दृष्टि से उनका कलागत मूल्य और भी बढ़ जाता है। कोई मंच निर्देशक प्रकृति के ऐसे उपादानो को यदि अपनी रंगशाला में चित्रित करने में समर्थ भी हो तो भी वह निश्चित ही अपने उत्कृष्ट रंग शिल्प की योजना से भी वह व्यक्तित्व प्रदान नहीं कर सकता जो इन दोनों कवियों की नाट्य कृति में उपलब्ध होता है। संस्कृत के इन महान नाटककारो की कृतियो में प्रकृति के सौम्य या गंभीर रूप मूक नहीं अपितु वाचाल है । नाटकों के पात्रों की तरह ही इन प्रकृति चित्रों का अपना व्यक्तित्व है जो अपने मौन में मुखर तथा स्थावरता में भी गतिमान है। जो नाटकीय वृत्त की कलात्मक पृष्ठभूमि से कहीं अधिक पात्रों के अंतः करण एवं वाहय जीवन का संवेदनशील प्रतिनिधि है। उनका सच्चा साथी है। प्रकृति के ऐसे जीवंत रूपों के अभाव में इन नाटकों की शकुंतला या सीता तथा उनकी तरह कई अन्य पात्र निष्प्राण से दिखते हैं उनके चैतन्य की प्रक्रियाओं में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। वहां प्रकृति का उदात्त जीवन पात्रों की दृश्य अदृश्य वृत्तियो के साथ इस प्रकार जुड़ा हुआ है कि उसकी उद्दीपन या आलंबन की सीमित शब्दावली में व्याख्या नहीं की जा सकती है।

कालिदास के नाटकों में प्रकृति चित्रण की जिस नई शैली का रूप प्रस्फुटित हुआ है उनके पूर्व के नाटकों में उस शैली की सत्ता कहीं दिखाई नहीं देती। उनकी यह शैली अन्य सभी शैलियों में उत्कृष्ट उदात्त एवं ह्रदय ग्राही मानी जा सकती है। अतः कालिदास प्रकृति चित्रण की इस विशिष्ट नाटकीय शैली के उद्भावक माने जा सकते हैं और उनकी इस शैली का प्राणवंत रूप है ----अभिज्ञान शाकुंतलम् का चतुर्थ अंक। कालिदास के प्रकृति चित्रण की यहउदात्त पद्धति उनके बाद के नाटक कारों के लिए न तो अनुकरण का विषय बन सकी और न ही वे अपने नाटकों में प्रकृति का कोई ऐसा रूप प्रस्तुत कर सके जो स्वतंत्र रूप से किसी नवीन अभिव्यंजना का द्योतक माना जा सके। वस्तुत: प्रकृति के इंद्रधनुषी जीवन को शब्दों की परिसीमित रेखाओं में मूर्त करने तथा मानवीय भावनाओं से आप्प्लावित करने हेतु जिस संवेदनशीलता, सौंदर्य ग्राहिग्णी दृष्टि तथा काव्य प्रतिभा की अपेक्षा है ,वह निश्चित ही कालिदासोत्तर नाटक कारों को प्राप्त नहीं थी। हां , कालिदास के बाद भारतीय नाट्य साहित्य की लंबी परंपरा में केवल एक ही अपवाद है और वे है --भवभूति। इस प्रकार अभिज्ञान शाकुंतलम् के अपूर्व वस्तु संगठन के नाटकीय प्रवाह में अत्यंत स्वाभाविक रूप से स्फुरित होने वाली तथा मानव जीवन के समानांतर चलने वाली प्रकृति का जो सम्मोहन प्रकट हुआ है वह लगभग तीन शताब्दियों के बाद पुनः एक बार (उत्तररामचरितम्में) अपनी अभिनव भंगिमाओ मैं व्यक्त होकर फिर सदा के लिए तिरोहित सा हो जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि संस्कृत नाटकों में प्रकृति चित्रण की इस उदात्त शैली के उन्नायक केवल दो ही हैं ----कालिदास और भवभूति। प्रकृति को व्यक्तित्व प्रदान करने में यद्यपि भवभूति कालिदास के समकक्ष ही प्रतीत होते हैं फिर भी इन दोनों महा कवियों की नाट्य शैली में जो अंतर है कुछ वैसा ही अंतर उनके प्राकृतिक चित्रों के कलात्मक चित्रण में भी परिलक्षित होता है। कालिदास ने अपनी कवि सहृदयता द्वारा प्रकृति का केवल सौम्य सुकुमार रूप चित्रित किया है जबकि भवभूति ने अपनी प्रबल कल्पना शक्ति एवं गंभीर जीवन दर्शन के अनुरूप प्रकृति का जो भव्य वितान खड़ा किया है वह प्रकृति जीवन का एक नवीन पक्ष है। उसकी कोई प्रति छवि कालिदास के नाटकों में नहीं खोजी जा सकती। उनकी प्रकृति के दो विशिष्ट रूपों में मतिभ्रम की कोई गुंजाइश नहीं है। इन दोनों महा कवियों की नाट्य कला इस दृष्टि से जहां एक दूसरे के समकक्ष है वहां एक दूसरे की पूरक है ।

आचार्य भवभूति की तीनों नाट्य कृतियों के संदर्भ में विवेचन करने पर प्रकृति चित्रण के कुछ रूपों में भवभूति को हम कालिदास से आगे ही पाते हैं। स्थान विशेष एवं काल विशेष के उभय तटो से संनिबिष्ट नाटकीय कार्य व्यापार के प्रवाह में चित्र मयता, संवेदनशीलता एवं स्वाभाविकता के रंग भरने में वातावरण के चित्रण का विशेष योगदान रहता है । महावीर चरितम मैं कथा की गहनता एवं जटिलता होने पर भी भवभूति को जहां थोड़ा भी अवसर मिला वे प्रकृति के मोहक रंग बिखेर कर नाटकीय वातावरण को चित्रमय एवं संवेदक बनाने से नहीं चूके। अयोध्या प्रत्यागमन के समय विभीषण श्रीराम का ध्यान कावेरी के तटवर्ती प्रदेशों की ओर आकृष्ट करते हैं। यहां पर कावेरी पर्यंत फैली हुई उन्मुक्त प्रकृति की वन श्री मैं स्थित आश्रमों की पुराण एवं तप : पूत एकांत गरिमा हमारे मन को अनायास ही खींचने में समर्थ है। यह भवभूति जैसे कलाविद की लेखनी का ही चमत्कार है जो नाटकीय वृत्ति पर बिना कोई अनावश्यक भार दिए हुए भी अपनी सूक्ष्म शब्द तूलिका से प्रकृति के ऐसे विशाल खंड को चित्रबद्ध कर सकी। इसी प्रकार---" प्रशांत गंभीर नील विपुल ---श्री: अरण्य गिरि भूमि: प्रसज्यते"--- कहकर कवि ने अपनी समास शैली में निबद्ध छोटे से वाक्य मैं युक्त विशिष्ट एवं ध्वनयात्मक विशेषणों द्वारा विपुल वन श्री से दर्शकों एवं पाठकों का मानसिक साक्षात्कार करा दिया है।

महावीर चरितम में लक्ष्मण के द्वारा पूछे जाने पर राम अपने पर्यत्सुक ह्रदय का भेद "अभिधा" में नहीं खोलते किंतु जैसे अनजाने ही समर्थ उद्दीपको का निबंधन उनकी जिहवा पर थिरक उठता है उनके आकुल मन की पुकार बनकर प्रकृति का एक एक उपादान फूट पड़ता है। मालती माधव में भी मालती के बिरह में विक्षिप्त माधव के बिरह भाव को उद्दीप्त करने में विंध्य के हरे भरे अंचल में फैली हुई चित्र विचित्र प्रकृति भरपूर योगदान देती है। दंडकारण्य में भी प्रकृति बहुत कुछ ऐसी ही है और राम की दशा भी समान है। ऊपर से शांत दिखने वाले समुद्र के समान राम के हृदय में भी विरह--- बड़वाग्नि की ज्वाला निरंतर सुलग रही है ---समुद्र जैसे इस कठिन बहिर्मुखी ऊष्मा को पी जाना चाहता है। राम के व्यक्तित्व की मर्यादा रोने और विलाप करने में नहीं है जितनी अपनी भावनाओं पर संयम पाने में है। ऐसा नहीं है कि श्रीराम के पुटपाक सदृश्य कठिन धैर्य का बांध कभी टूटता ही नहीं ,उनकी घनीभूत वेदना पिघल कर आंखों की राह से बहती ही नहीं --- यह सब कुछ होता है, किंतु उसका ढंग दूसरा है ,उन की प्रक्रिया दूसरी है। जहां माधव प्रकृति के रमणीय चित्रों से उद्दीप्त होकर अपने शोकावेग से आबद्ध होकर स्वयं विक्षिप्त सा हो जाता है वही राम के शोका वेग से आबद्ध स्वयं प्रकृति ही पिघल पड़ती है उसका वज्र हृदय भी टूक टुक हो जाता है --'"जन स्थाने शून्य विकल करण: आर्यचरितैरपि ग्रावा रोदत्यपि दलति बज्रस्य हृदयम्" मानव वेदना के घनत्व की यह पराकाष्ठा ही है जबकि वह स्वयं उद्दीपन बन जाए और उद्दीपन को आलंबन बना दे, स्थावर जंगम सभी वेदना की टीस से सुलग उठे ।

वस्तुतः उत्तररामचरित में जो कुछ है वह भाव की दृष्टि से महनीय है। और इस में चित्रित की गई प्रकृति इसी भाव के अणु अणु मैं समाई हुई है तथा उसकी व्यंजना एवं अर्थ वत्ता की प्राणवंत सहचरी बन कर आई है । उत्तररामचरित तो विशेषत : कवि के गंभीर जीवन दर्शन का चूड़ान्त निदर्शन है। करुणा की मार्मिक व्यंजना कवि के कलागत गांभीर्य का ही पर्याय है । इस करुणा के गंभीर उद्घोष में जिन तत्वों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहायता पहुंचाई है उनमें प्रकृति के समर्थ चित्रांकन का विशेष महत्व है। जिस प्रकार अभिज्ञान शाकुंतलम् से प्रकृति को हटा लेने पर शकुंतला ,शकुंतला, नहीं रह जाएगी ,उसी प्रकार उत्तररामचरित से प्रकृति को अलग कर लेने पर राम --सीता रूपिणी करुणा भी गूंगी हो जाएगी । इस कृति में मानव पात्रों के समान ही प्रकृति का अपना अलग व्यक्तित्व है। निर्वासित सीता की रक्षा करने वाली प्रकृति की ही दो विराट मूर्तियां हैं ---गंगा और पृथ्वी । नाटकीय दृष्टि से इनका व्यक्तित्व दिव्य और आकर्षक है। सातवें अंक के अंतर नाटक में इन दोनों प्रकृति देवियों ने मानव ह्रदय को स्पर्श करने तथा भाव विभोर बनाने में जैसी भूमिका निभाई है वैसी कदाचित किसी भी मानव पात्र से संभव नहीं होती। द्वितीय अंक मैं वासंती साक्षात वन सौंदर्य की मूर्त कल्पना है। यह आगे चलकर नाटकीय कार्य व्यापार के विकास में परम सहायक सिद्ध होती है। सबसे आश्चर्यजनक उपलब्धि तृतीय अंक में दिखाई पड़ती है जहां शोकाकुल सीता को आश्वस्त करने के निमित्त तमसा और मुरला नामक दो नदियों की सृष्टि मानवीकृत मूर्तियों के रूप में कर दी गई है। यदि यो कहां जाएं कि प्रथम अंक को छोड़कर शेष सभी अंकों की घटनाएं प्रकृति के किसी न किसी परि पाश् र्व मैं ही जन्म लेती है तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । कवि ने वस्तुतः राम के जीवन के जिस अंश को अपने नाटकीय वृत्त का आधार बनाया है उसे इस प्रकार प्रकृतिमय बना दिया है कि कथानक के भाव ,शिल्प और वस्तु तीनों में प्रकृति के शाश्वत रंग समा गए हैं।

प्रथम अंक के "चित्र दर्शन" में भी कुछ चुने हुए चित्रों के माध्यम से राम और सीता के अतीत जीवन को न केवल प्रत्यक्ष सा कर दिया है वल्कि उसके मर्म को अपनी शब्द तूलिका से जीवंत बना दिया है। चित्र दर्शन के इस अपूर्व दृश्य में प्रकृति प्राण रूप से प्रतिष्ठित की गई है राम और सीता के दांपत्य प्रेम की सरस एवं मार्मिक भावना वस्तुतः प्रकृति के परिवेश मैं ही इतनी सफलता के साथ हो सकी है। द्वितीय के प्रकृति चित्रांकन में भी वृक्षों पर कूजते तथा कुट कुट करते पक्षियों की चहल-पहल, हाथियों का अपने कंडू युक्त मस्तकों को वृक्षों से रगड़ना, ग्रीष्म ऋतु का सौंदर्य ,सनसनाते वेणु--- गुच्छों की तुमुल ध्वनि से डर कर कौओं का भी निशब्द हो जाना, पुराने चंदन के वृक्ष पर मयूर के फुदकते रहने तथा फड़ फड़ उड़ते रहने पर सुगंध प्रेमी सर्पों का उन वृक्षों से लिपटे रहना आदि अनेक प्रकृति के विकट ---यथार्थ, भवभूति की ओजस्वी कल्पना से ही इतने प्राणवंत हो कर प्रकट हुए हैं । भवभूति का कवि जीवन और समाज की जिस मिट्टी से बना है उसके प्रकृति चित्र में भी उसी मिट्टी की गंध समाई हुई है।

कहते हैं कि साहित्यकार की निजी व्यक्तित्व की रेखाएं अपने मूल या परिष्कृत रूप में उसके साहित्य निर्माण की भित्ति होती हैं । इन दोनों महान नाटक कारो कीप्रकृति चित्रण शैली पर भी उनके अंत : करण तथा वैचारिक मान्यताओं की जो छाप परिलक्षित होती है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि कालिदास की प्रकृति अपने मूल रूप में मृदु है वही भवभूति की प्रकृति अपने मूल रूप में कठोर है। एक के चित्रण में यदि प्रकृति की नैसर्गिक मुस्कान एवं मधुर संगीत है तो दूसरे के चित्रण में प्रकृति का अट्टहांस एवं रौद्र स्वर है। एक की प्रकृति में यदि मुग्धा नायका की सहज संकोच तथा मोहक भंगिमाऐ है तो दूसरे की प्रकृति में किसी प्रोढ नायिका के कठोर अनुभव तथा ततजन्य कुटिल भूक्षेप है । एक ने यदि प्रकृति के माध्यम से अपने मीठे अनुभवों की बांसुरी सुनाई है तो दूसरे ने उनके द्वारा अपने तीखे अनुभवों का पांचजन्य मुखरित किया है। एक की प्रकृति वीर एवं करुणा की गंभीर तथा कठोर भूमि पर प्रस्फुटित हुई है एक के प्रकृति चित्र नदी के कोमल प्रवाह की तरह अलस ,मदिर एवं कलरव प्रिय है, तो दूसरे के प्रकृति चित्र तरंग आंदोलित समुद्र की तरह विराट विक्षिप्त प्रखर नाद से आक्रांत है। इस प्रकार दोनों नाटककारों के प्रकृति चित्रांकन शैली में एक मौलिक अंतर है जो जीवन के प्रति भिन्न दृष्टिकोण के ही परिणाम स्वरूप माना जा सकता है।

कालिदास की सुकुमार प्रकृति की नव नवोन्मेष शालिनी घटा के तंतुओं से स्पष्ट है कि उसकी परंपरा उनके पूर्व बाल्मीकि, भास आदि कवियों में विद्यमान थी, जिसे कालिदास ने अपनी उर्वरा कल्पना तथा प्रखर प्रतिभा के सयोंग से एक अभिनव रूप प्रदान किया है किंतु भवभूति की प्रकृति का जो वैशिष्टय हमारे सामने प्रकट होता है उसकी कोई निश्चित परंपरा भवभूति से पूर्व प्राप्त नहीं होती। वे स्वयं इस परंपरा के प्रवर्तक माने जा सकते हैं। कालिदास और भवभूति के प्रकृति चित्रांकन की नाटकीय शैली का यह मूलभूत अंतर सिद्ध करता है कि मौलिकता की दृष्टि से भवभूति की प्रकृति कालिदास की प्रकृति की अपेक्षा कहीं अधिक आकर्षक एवं मनमोहक है ।


इति

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