Shringar Rasa in Kalidasa's Literature books and stories free download online pdf in Hindi

कालिदास के साहित्य में श्रंगार रस

शब्दों के देवी संगीत और लय मे संजोया वह मानव जीवन जो मानो विधाता ने शंख से खोद कर, मुक्ता से सींच कर, मृणाल तंतु से सॅवार कर, कुरज कुंद और सिंधुवार पुष्पों की धवल कांति से सजाकर , चंद्रमा की किरणों के कुचूर्ण से प्रक्षालित कर और रजत रज से पोछ कर, जिसका निर्माण कि या वह जीवन आद्योपांत प्रेम और श्रृंगार की रस अनुभूति से आप्लावित है

मानव संवेदना सदैव से ही सौंदर्य की अभिलाषणी रही है। वह सदैव नवीन रूप और नूतन सौंदर्य का अन्वेषण करती रही है। मानव जीवन के समस्त लक्ष्यों में सौंदर्य ही सर्वोपरि है । कवि के लिए भी माननीय सौंदर्य सर्वाधिक आकर्षण की वस्तु रहा है। वैसे तो परम सौंदर्यमय उस अनंत सत्ता का लावण्यमय रूप ही सृष्टि के कण-कण में बिखरा हुआ है और भावना एवं कल्पना लोक का चितेरा कवि उस निखिल सौंदर्य के स्पंदन से आप्लावित होकर नित नूतन भावनाएं संजोता रहता है। मानवी य सौंदर्य मुंक होने पर भी मुखर है, पंगु होने पर भी गतिमान है, जो अपनी चेतना के परिणाम स्वरूप ह्रदय- प्रेम और श्रंगार के रसपूर्ण सागर में गोते लगाने लगता है।

संस्कृत साहित्य के कवि कुलगुरू कालिदास के साहित्य का रसास्वादन करने पर ज्ञात होता है कि उनका संपूर्ण काव्य ही श्रृगार रस की जाहनवी मैं मानो अवगाहन कर निखार पा गया है। उनके साहित्य की काव्य धारा आद्योपांत, संयोग और वियोग रुपी दो कूलों के बीच ही बहती हुई दृष्टिगोचर होती है। कहते हैं उच्च कोटि का कवि एक महान दार्शनिक भी होता है शायद इसीलिए महाकवि कालिदास ने भी अपनी पारखी नजर से नायक नायिकाओं के संयोग और वियोग श्रृंगार में भी जीवन के दर्शन को एवं अंतरात्मा की गहराई को पाने का सफल प्रयास किया है।

नित्य नूतन एवं नवीन दिखने वाला रसिक हृदय को बरबस ही अपनी और आकर्षित करने वाला सौंदर्य ही श्रृंगार रस का प्रथम सोपान कहां गया है । महाकवि कालिदास की नायिकाओं का सौंदर्य भी नित्य नवीनता लिए हुए,पृथ्वी एवं स्वर्ग की संपूर्ण आभा को अपने में संजोए हुए, रमणीयता की उच्चतम सीमा को स्पर्श करता हुआ दिखाई देता है ।

क्षणे क्षणे यन,नवतामुपैंति तदैव रूपम रमणीयताया:।

माघ की यह उक्ति कालिदास के सौंदर्य विधान पर पूर्णत: चरितार्थ होती है । उनकी नायिकाओं का सौंदर्य अध्यावधि भी नूतन है। मानवीय सौंदर्य मैं नव योवन के सौंदर्य को ही श्रृंगर रस का अनुप्राणक धर्म माना गया है। कालिदास के अनुसार-

"योवन शरीर रूपी लता का नैसर्गिक श्रंगार है, मदिरा के बिना ही मन को मतवाला बना देने वाला मादक द्रव्य है, तथा कामदेव का बिना फूलों वाला वाण है, जो हृदय में श्रृंगर रस की
उत्तेजना को स्फूर्त करता है" । कुमारसंभव 1/31

पार्वती जी के शरीर में भी श्रृंगार रस का सूचक योवनोचित उभार आ गया है


उन्मीलितं तूलिकयेव चित्रम सूर्यांशुभिन्निमिवारविंदम।
बभूव तस्या: चतुरस्त्रशोभि वपुर विभक्त नव योवनेन।। कुमारसंभव 1/32

पार्वती जी के इस योवन संपन्न रूप को देखकर ऐसा जान पड़ता है कि संसार के संपूर्ण सौंदर्य को एक ही स्थान पर देखने की इच्छा से ब्रह्मा जी ने उपमा योग्य सभी वस्तुओं को यत्न पूर्वक एकत्र कर उन्हें यथा स्थान सजाकर पार्वती जी का सृजन किया।

सर्वोपमाद्रव्यं समुच्चयेन यथा प्रदेशम विनिवेशितेन ।
सा निर्मिता विश्वसृजा प्रयत्नादेकस्यथ सौंदर्य द्रिक्षयेव ।। कुमारसंभव 1/49

अभिज्ञान शाकुंतलम् में शकुंतला का सौंदर्य भी संपूर्ण विश्व में बिखरे हुए सौंदर्य का मानो पूंजीभूत रूप ही है । ऐसा प्रतीत होता है मानो विधाता ने संसार की संपूर्ण सुंदरता को संकलित कर तथा उसे चित्त में स्थापित कर, शकुंतला की सृष्टि मन द्वारा ही करके, तब उसमें प्राण डाले हो

चिते निवेश्य परिकल्पित सत्त्व योगा ।
रूपोच्चयेन मनसा विधिना कृता नु।।
स्त्री रत्न सृष्टिरपरा प्रतिभाति सा मे।
धातु : विभुत्मनुचिंतय वपुश्च तस्या ।।
अभिज्ञान शाकुंतलम् 2/ 9

ऐसे अनुपम सौंदर्य पर भला कौन मोहित नहीं होगा। कालिदास भली प्रकार अवगत है कि मानव सौंदर्य को आलोकित करने वाली प्रभा उसी व्यापक प्रभा की अंशभूत है जिससे विश्व का संपूर्ण सौंदर्य सौंदर्यार्न्वित हो रहा है और इसीलिए इस अनूठे सौंदर्य से उद्भूत श्रंगार रस भी कोई सामान्य नहीं अपितु आश्चर्य के समुद्र में डुबो देने वाला है। कालिदास का मत है कि शारीरिक सुंदर के साथ प्रेम की गहराई और तप की एक निष्ठा
आवश्यक है। ---"प्रियेष सौभाग्य फला हि चारुता"-- तभी तो पार्वती का शारीरिक रूप-- सौंदर्य व्यर्थ है, निष्फल है, यदि शिवत्व की प्राप्ति न हो । वह साधना ही क्या जो साधक और साध्य को एक न कर दे। तभी तो कालिदास जैसा कवि अर्धनारीश्वर की कल्पना कर सका। रूप की निंदा तो अवश्य हुई परंतु तप की अग्नि से तप कर निखरा हुआ रूप कंचन--- सत्कार का पात्र भी बन सका । पार्वती जी ने श्रृगार किया नहीं कि उन्हें प्रिय के पास पहुंचने की व्यग्रता हुई। भला हो भी क्यों ना? ---"स्त्रीणा प्रिया लोकफलो हि वेष"--: कुमारसंभव 7/ 22 अर्थात स्त्रियों का श्रंगार प्रिय के दर्शन से ही सफल होता है। इतना ही नहीं दूसरी ओर इस प्रेम के प्रसाद से शिव के वेशभूषा मैं भी परिवर्तन हो गया। शिव के इस सुंदर रूप को देखकर भला कौन कह सकता है की प्रेम की पुरी में रूप का राज्य नहीं है? शिव पर प्रेम का ऐसा गहरा रंग चढ़ा कि खंग मैं अपना रूप देखने लगे। शिव के रूप सौंदर्य को देखकर पुर सुंदरियां सोचने लगे कि शायद शिव ने कामदाह नहीं किया। नहीं वह तो लाज के मारे स्वयं ही चल बसा ।

न नूनमारूढरूष शरीरम अनेन दग्धं कुसुम आयुधस्य।
ब्रीडाद्रमुं देवमुदीक्षय मन्ये सन्यस्तदेह: स्वमेव काम:।। कुमारसंभव 7/ 67

प्रेम के क्षेत्र में निश्चय ही रूप सौंदर्य का अपना अनोखा ही महत्व है। परंतु वर्तमान में बदलते परिवेश में रूप सौंदर्य का अर्थ केवल शारीरिक वाहय सौंदर्य के संकुचित दायरे में है सिमट कर रह गया है। इसीलिए प्रेम का तात्पर्य वाहय सौंदर्य आकर्षण मात्र बन गया है जो सदाचरण और तप के ताप से अछूता होने के कारण जीवन की वास्तविकता का एक आघात पड़ते ही चकनाचूर हो जाता है । आज का प्रेम मात्र एक छलावा है,दिखावा है, या फिर धन का और शरीर का व्यापार मात्र बनता जा रहा है। इसीलिए प्रेम आज अभिशाप बनकर रह गया है। परंतु कालिदास ने जिस रूप सुंदर का वर्णन किया है वह सदाचरण से परिपूर्ण और पाप से मुक्त है। पार्वती जी के रूप को देखकर ब्रह्मचारी शिव ने कहा था--" निश्चित ही इस रूप का पाप वृत्ति से कोई नाता नहीं है। उसका संबंध शील से है । सदाचार के अभाव में रूप अभिशाप बन जाता है।"---- शिव को भी पार्वती के शील का साक्षात्कार तब होता है जब उन्हें यह सुनने को मिलता है कि

अलं विवादेन यथा श्रुतस्त्वया,
तथा विधस्तावद अशेषमस्तु स :।
ममात्र भावेकरसं मन: स्थित,
नाकाम वृत्ति : वचनीयमीक्षते ।। कुमारसंभव 5/ 82

सच भी है कि मन प्रेम में जब भावेक रस हो जाए तो अन्य विवादों के लिए स्थान ही कहां रहता है? और अंत में प्रवृत्ति की जीत हुई निवृत्ति पर। श्रंगार विजया रहा ज्ञान पर। इसी विजय के फल स्वरुप उस कुमार का जन्म हुआ ,जिसक अधीनता में
संसार के लिए उप्लव स्वरूप तारक का वध हुआ । आज भी संसार को उप्लव से बचाने हेतु ऐसे ही प्रेम योग की आवश्यकता है।

विक्रमोर्वशीयम की नायिका उर्वशी का रूप सौंदर्य भी अतुलनीय है , अकथनीय है ,जिसे देख कर नायक पुरुरवा को भी ब्रह्मा की सृष्टि रचना पर संदेह होने लगता है। वह सोचता है कि ऐसा सुंदर रुप कोई तपस्वी तो उत्पन्न कर ही नहीं सकता। क्योंकि

अस्या सर्गविधौ प्रजापति : भूच्चन्द्रो नु कांतिप्रद:।
श्रंगारैकरस: स्वयं नु मदनो मासों नु पुष्पाकर:।
वेदाभ्यास जड़ं कथं नु विषय ब्यावृत्त कोतूहलो।
निर्मातुं प्रभवेन्मनोहरमिदं रूपं पुराणों मुनि:।। विक्रम 1/10

अर्थात इसकी सृष्टि के लिए कांति प्रदान करने वाला चंद्रमा स्वयं ब्रह्मा बना होगा या श्रंगार रस के देवता कामदेव ने इसे बनाया होगा अथवा सुकुमार वसंत ने इसकी रचना की होगी । अन्यथा वेद अभ्यास से जड़ीभूत तथा विषय भोग से दूर रहने वाले बूढ़े ऋषि ऐसा मनोहर रूप क्यों कर उत्पन्न कर सकते हैं?


कालिदास प्रेम के प्रत्येक क्षेत्र के कुशल चितेरे थे। वे जानते थे कि ---"अनन्य प्रेम अनन्य अधिकार चाहता है।"---प्रेम की सतत प्रवाहमान जलधारा में उत्पन्न होते हैं---- रोष और मनाव के छोटे-छोटे भंवर। जो उठते भी हैं और तुरंत लुप्त भी हो जाते हैं । रति का रोष के साथ गहरा लगाव है । रति मीठी है तो रोष सलोना है। सृष्टि दोनों के अनुपात से चलती है। जो प्रेमी युगल इस रूठने मनाने की कला में जितने कुशल हस्त होते हैं वे प्रेम के सागर में उतने ही गहरे गोते लगा पाते हैं।

वर्तमान युग में प्रेम सदाचरण की सीमा को पारकर उच्छृंखल होता जा रहा है । प्रेम विधि के कर्मकांड का बंधन कब मानता है? प्रेम समाज और धर्म के बंधन को कब स्वीकारता है? यही मानव इतिहास है। आधुनिक युग में श्रंगार का संयोग पक्ष भी शारीरिक व भौतिक सुख का साधन मात्र बनकर रह गया है किंतु कालिदास के प्रेम ने कहीं भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। पार्वती जी को शिव के प्रेम प्रसंग में पिता का ध्यान आता है तो शिव को प्रिया प्रसंग में संध्या वंदन का। उर्वशी भी पुरुरवा समागम में गुरु आदेश का पालन करती है। अनुशासन की यह प्रतिष्ठा ही प्रेम को सर्वथा स्वच्छंद होने से बचा लेती है और हमारे सामने प्रेम का वह आदर्श रूप प्रतिष्ठापित होता है जो कभी भी वासना से धूमिल नहीं होता। इस प्रेम में वासना का स्वच्छ विलास ही नहीं , अपितु ज्ञान का गंभीर उल्लास भी है। इसी कारण अभिज्ञान शाकुंतलम् में शकुंतला के सौंदर्य को बिना सूघ हुआ फूल, बिना छेदन किए हुए रत्न के समान अछूता बताकर, प्रेम की पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया है

अनाघातं पुष्पं किसलय मलूनं कररुहै--
----रनाविद्धं रत्नं मधु नवम नास्वादित रसं।
अखंडं पुण्यानां फलमिव च तदरूपमनघं
ना जाने भोक्तारं कमिह समुपास्थास्यति विधि:।। अभिज्ञान शाकुंतलम् 2/10

ऐसे अनाघात पुष्प के समान अछूते सौंदर्य को पाने की लालसा भला किसे उत्तेजक न बना देगी। मुंह में रखते ही रसास्वाद प्रदान करने वाले अंगूर के समान कालिदास का सौंदर्य भी सहृदय पाठकों को रसासिक्त बना देता है । श्रृंगार रस की सौंदर्य निपुणता को देखकर ही गीत गोविंद कार जयदेव ने उन्हें -----"कविता कामनी का विलास"---- की संज्ञा दी है।
यह था श्रंगार का सयोग पक्ष परंतु यह संयोग भी वस्तुतः वियोग के बिना अधूरा है। विप्रलंभ के बिना श्रृंगार रस का आनंद ही क्या? किसी ने ठीक ही कहा है

"जो व्यक्ति जीवन में कभी किसी की याद में तड़फा न हो, ,एकांत में बिलख बिलख कर किसी की स्मृति में रोया न हो, वहां जीवन के उस सुख से वंचित है, जिस पर अनेकों मुस्कान के सुखों को भी न्योछावर किया जा सकता है।"

वास्तव में सच्चा प्रेमी ही किसी अलौकिक आनंद को प्राप्त कर सकता है क्योंकि --"प्रेम वह तीखा काजल है जिसे आंखों में आॅजते ही अश्रु बहने लगते हैं।"---- जिसमें वियोग की व्यथा को सहा ही ना हो वह संयोग के सुख को कैसे समझ सकता है? दुख के पीछे मिलने वाला सुख बड़ा रसीला होता है। पेड़ की छाया उसी मनुष्य को अच्छी लगती है जो धूप में तप कर आया हो ।

विक्रमोर्वशीयम मैं राजा पुरुरवा के जीवन --गगन के रक्ताभ-- पटल पर अभी स्नेह ज्योत्सना छटकी ही थी कि विफल प्रेम की धूप खिलखिला उठी और राजा का उर्वशी से वियोग हो गया। बस फिर क्या था, राजा प्रियतमा के वियोग में व्याकुल होता उठता है, पागल हो जाता है। मुस्कुराते होठों को क्या पता था कि अब दर्द करवट ले रहा है। वह वियोग की अधिकता के कारण,मोर ,कोयल, हंस, चकवा ,गजराज ,हरिण आदि अनेक पशु पक्षियों से अपने प्रियतमा का समाचार पूछता है और पूछता ही चला जाता है। परंतु पशु पक्षी कब किसी की मनो व्यथा को हल्का कर सके हैं, अंतर की पीड़ा को कब सहलाकर सुला सके हैं । वह वालको जैसी अधीरता के साथ हंस से पूछता है -----"रे हंस ! तुमने मेरी प्रेमिका की चाल को कहां से चुराया? ----उत्तर ना मिलने पर वह आगे बढ़ता है। बार-बार पूछता है---- पर सब व्यर्थ। वास्तव में कामीं पुरुष चेतन और अचेतन के विषय में स्वभाव से ही कृपण हुआ करते हैं

कामांर्ता हि प्रकृति कृपण: चेतनाचेतनेष।

वास्तव में कालिदास द्वारा वर्णित पुरुरवा का विरह इतना हृदयस्पर्शी है कि पाठक भी पुरुरवा के साथ अश्रु बहाने लगते हैं उसके दुख से दुखी हो जाते हैं।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विरह की यह व्यग्रता अभिशाप बनकर रह गई है। जो प्रेम में वह तपन नहीं तो विरह में कसम कैसी? किसी ने ठीक ही लिखा है

व्यवसायी बन गई भावना, सुविधा ने डाला डेरा ।
गई साधना ,रही वासना, अहंकार फिर मंडराया ।।
ईश्वर से मांगती है वरदान
केवल पाषाण हो
कोख की मेरी भी संतान। ।

वैभव लिप्सा के प्रति यह व्यंग समय पर तीखा प्रहार है।

कालिदास के काव्य का विप्रलंभ श्रंगार ,भारतीय संस्कृति का एक उच्च आदर्श है। वियोग के बिना प्रेमी की साधना आराधना अपूर्ण है विरह के द्वारा ही उसके पावन प्रेम को पूर्णता प्राप्त होती है । जब मनुष्य के मन में भावनाओं का ज्वार कभी दुख के कगार से टकराता है, कभी सुख के तरफ से वंचित रह जाता है , जब उसके मन की उस गहन सरिता में ऊहापोह का आंदोलन कसमसाता है, तब ही तो उसके जीवन में एक नया निखार , नया तेज आ जाता है और वह इस सुख दुख , संयोग और वियोग के द्वारा आए नए निखार और नवीन तेज से दूसरों का मन बलात अपनी ओर खींच लेता है।

कालिदास का प्रणय--कातर यक्ष जब मेघ को संदेश वाहक बनाकर भेजता है तब वह बिरहावस्था में भी मेघ से यह अनुरोध करता है कि--"प्रणय अभिसार करने वाली कामनियो का पथ आलोकित कर, उनके प्रिय समागम में सहायता करना"--- वास्तव में प्रेम द्रव से ओतप्रोत मानस मैं करुणा एवं सहानुभूति के अतिरिक्त अन्य तत्व प्रविष्ट हो ही नहीं सकते। यक्ष का प्रणय संदेश किसी परकीया प्रेयसी के प्रति नहीं है अपितु अपनी पतिव्रता धर्म पत्नी के लिए प्रेषित किया गया है। उसे विश्वास है कि उसकी प्रेयसी भी वियोग की गाढी उत्कंठा के कारण कुछ ऐसी विवर्ण बन् गई होगी जैसे पाले से मारी कमलिनी मलिन द्युति वाली हो जाती है । यक्ष का कथन है कि
उसकी प्रिया या तो उसका चित्र खींचती होगी या पिंजरे की सारिका से मीठे स्वर में पूछती होगी कि----"हे सारिके! हे रसिके क्या स्वामी तुम्हें भी याद आते हैं? यक्ष ने वैसे तो रात्रि में ही अपना संदेश सुनाने की सलाह दी है, लेकिन यदि वह विरहणी निद्रा मगन हो तो यक्ष का अनुरोध है की मेघ उसे जगाने की चेष्टा न करें क्योंकि वह स्वप्न में प्रिय आलिंगन का आनंद ले रही होगी

तस्मिन काले जलद यदि सा लब्धनिद्रा सुखास्याद'

अनवस्यैनां स्तनितविमुखो याममात्रं सहस्व ।
मां भूदस्या : प्रणमिनि मयि स्वप्नलब्धे कथच्चित
सद्य : कंठमुत भुजलताग्रंथि गाठोपगूंढम।। उत्तर मेघ 34

विरह कातर यक्ष का मर्मस्पर्शी संदेश, प्रणय काव्य की नितांत मधुर निधि है। कहता है कि हे मित्र मेघ! तुम मेरी प्रियतमा से इस प्रकार कहना कि

तव सहचरो रामगिरी आश्रमस्य: ।
अव्यापन्न : कुशलमबले प्रच्छति त्वाम विमुक्त:
पूर्वाभाष्यम सुलभ विपदां प्राणीना मेतदेव। । उत्तर मेघ 41

हे अबले ! रामगिरी के आश्रमों में निवास करने वाला तुम्हारा सहचर अभी जीवित है। तुम्हारे वियोग की व्यथा से व्यतीत उसने पूछा है कि-" तुम कुशल से तो हो? जहां प्रतिपल विपत्तियां प्राणियों के निकट हैं वहां सबसे पहले पूछने की बात भी तो यही है।"

यक्ष जानता है कि उसके दयिता को सबसे पहले यही संवाद मिलना चाहिए कि वह यक्ष जीवित है। यदि उसको यह कुशल संवाद तत्काल नहीं मिलेगा तो वह शायद पंचतत्व को प्राप्त हो जाएगी । इस प्रकार विरह की दारुण निविड़ता उभयनिष्ठ है दोनों और समान हैं । आदर्श दांपत्य की कसौटी भी यही है।

कालिदास का कवि हृदय जीवन का मार्मिक सखा है । उन्हें जीवन की प्रत्येक मुस्कान और प्रत्येक उच्छवास की गहराई का ज्ञान है। प्रेमी ह्रदय के स्पंदन की गति से वह परिचित है। वियोग ही तो प्रेम की कसौटी है। वियोग मैं प्रेम तपाए गए स्वर्ण की भांति निखर जाता है। संपूर्ण आनंद उत्सव प्रेयसी के बिना फीके पड़ जाते हैं। समस्त ऋतुसंहार और मेघदूत इस बात के अकाट्य प्रमाण हैं कि सबसे बड़ा सुख प्रिया का साहचर्य एवं प्रिया आलिंगन जन्य आनंद ही है। इसीलिए तो यक्ष बिरह अवस्था में चित्र के माध्यम से ही मिलन की आकांक्षा करता है वह अपने संदेश में कहता है

त्वामालिख्य प्रणय कुपिताम धातुरागै: शिलायाम
आत्मानम ते चरण पतित यावदिच्छामि कर्तुम्।
असैस्तावत मुहूरूपचितै: दृष्टिरालुप्यते मैं
क्रूरस्तस्मिननपि न सहते संगम : नौ कृतांत :।। उत्तर मेंघ 42

अर्थात हे प्रिय अत्यधिक प्रेम के कारण रूठ जाने वाली तुमको मनाने के लिए मैं तुम्हारा चित्र शिलापट पर गेरू आदि रंगों से बना कर तुम्हारे चरणों में ज्यों ही स्वयं को गिराना चाहता हूं वैसे ही प्रेम आंसुओं के बार- बार और अत्यधिक उमड़ आने से मेरी आंखें भर जाती हैं। क्रूर विधाता उस चित्र में भी हम दोनों के मिलन को नहीं सह सकता ।

मेघदूत का विप्रलंभ श्रंगार अपनी चरम अवस्था तक पहुंच गया है । परंतु यक्ष आशावादी है वह कहता है कि ---"मैं बड़े धैर्य और विवेक से यह विरह दुख सहन कर रहा हूं। प्यारी तू भी मेरी ही तरह उसे सहन कर क्योंकि सुख और दुख सदा एक सा नहीं रहता। दुख के बाद सुख अवश्य मिलता है"। उत्तर मेघ 46

कालिदास की इसी आशावादिता के कारण ही परित्यक्ता सीता जी का विरहावस्था में श्री राम को भेजा गया संदेश भी अत्यंत मार्मिक बन गया है। सीता जी अपने संदेश में कहती हैं कि

"मैं प्रसव के उपरांत सूर्य की ओर दृष्टि लगाकर तप करने की चेष्टा करूंगी जिस से दूसरे जन्म में आप ही मेरे पति हो और वियोग न हो"रघुवंश 14/ 66

वास्तव में स्त्री पुरुष का संयत अनुशासित संबंध ही कालिदास के काव्यो में सौंदर्य के उपादान सुसंगठित है। दुखों में पला, त्याग और धर्म से समन्वित आदर्श प्रेम ही कवि का अंत: सौंदर्य है । तभी तो विभिन्न रूपों में आनंद प्रदान करने वाली इंदुमती के वियोग में महाराज अज व्यथित हो कहते हैं

ग्रहणी सचिव: सखी मिथ: प्रिय शिष्या ललिते कलाविधौ।
करुणा विमुखेन मृत्युना हरता त्वां वद किं न मे ह्रतम् ।। रघुवंश 8 /67

अर्थात तुम ग्रहणी ,मंत्री एकांत की सखी और मनोहर कलाओं के प्रयोग में प्रिय शिष्या थी 1 तुम को हरण करके निर्दय मृत्यु ने मेरा क्या क्या नहीं हरण कर लिया? अर्थात सब कुछ हरण कर लिया है।

भूपति अज बार-बार अपनी प्रेम निष्ठा का प्रमाण देते हुए कहते हैं --"मैंने मन से भी कभी तुम्हारा अप्रिय नहीं किया फिर तुम मुझे छोड़ कर क्यों जा रही हो? मैं निश्चय ही नाम मात्र से ही पृथ्वी का पति हूं परंतु तुम से मेरा स्वाभाविक प्रेम है।"
प्रिया इंदुमती के निष्प्राण हो जाने पर अज स्वाभाविक धैर्य को छोड़कर ,अत्यंत व्याकुल हो ,आंसू से गदगद होकर जोर-जोर से विलाप करने लगते हैं । जब तपा हुआ लोहा भी पिघल जाता है तब चैतन्य जीव धारियों के विषय में धैर्य खो बैठना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। वे अपने दुर्भाग्य को कोसते हुए सृष्टि के विधान पर आश्चर्य करते हैं --"कि यदि कोमल फूल भी शरीर पर गिर कर मारने में समर्थ होते हैं तब खेद है कि ईश्वर की दूसरी कौन सी वस्तु मृत्यु का साधन नहीं बनेगी"। यह हो सकता है कि काल कोमल पदार्थ से ही नष्ट करता हो। वास्तव में अज का विलाप इतना हृदयस्पर्शी है कि सहृदय पाठक तो क्या पाषाण हृदय भी द्रवी भूत हुए बिना नहीं रहता।

अंततोगत्वा हम कह सकते हैं कि आज का मानव प्रेम के पक्ष में अपना कुछ भी तर्क क्यों ना दे ,कालिदास का अपना सिद्धांत तो यही है---

"कहते हैं कुछ लोग अवश्य कहते हैं कि भोग के अभाव में स्नेह ध्वस्त हो जाता है किंतु उनसे कहे कौन? अरे सच्ची बात तो यह है कि इस प्रकार का जमा हुआ स्नेह प्रेम का पुंज बन जाता है। तपस्वी जानते ही नहीं कि प्रेम का रसायन विरह के पुटपाक मैं ही सिद्ध होता है । वस्तुतः है भी यही। प्रेम भोग का नहीं योग का नाम है।"



इति

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