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दुर्ग की भोर

जीवन में हम सदैव ही अपने आसपास के वातावरण से प्रभावित होते रहते हैं। इस वातावरण के प्रभाव के कारण ही हमारे अंतः करण में अनेक प्रकार की विचारधाराएं जन्म लेती रहतीं है। ये विचार ही हमें जीवन पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करते हैं । निरंतर जन्म लेने वाले इन विचारों के समुद्र में डूबता उतराता हुआ मानव अपने में ही खोया हुआ कभी प्रेम के सागर में डूब जाता है तो कभी सुख-दुख के थपेड़ों को सहन करता हुआ आगे बढ़ता है और कभी इस वातावरण के प्राकृतिक सौंदर्य को दार्शनिक दृष्टिकोण से देखते देखते स्वयं भी एक दार्शनिक बन जाता है और तभी वह जीवन दर्शन को समझने का सार्थक प्रयास कर पाता है।

प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण ऐसी ही एक अनोखी छटा एक दिन मेरे जीवन को भी छू गई और उस अद्भुत स्पर्श से उत्पन्न अनेकों दार्शनिक विचार मेरे मन को आलोडित कर मेरे जीवन को एक नई दिशा प्रदान कर सके। सर्दी के दिन थे। भोर का समय था। मैं किले से नीचे उतर कर दिन भर के लिए कर्तव्यारूढ होने जा रही थी। अचानक ही पृथ्वी के मनमोहक दृश्य ने मन और नयनो को अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। मैंने देखा दुर्ग का गुंबज जिसे भगवान भास्कर की पहली किरण छू लेती है वह ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो ऊषा ने अपना प्रथम चुंबन समर्पित किया हो और इस चुंबन का आभास होते ही संपूर्ण दुर्ग प्रकाश पुंज से प्रफुल्लित हो उठा हो । जहां एक और की दुनिया इस पवित्र अलौकिक आनंद का आस्वादन कर रही थी वहीं दूसरी ओर की दुनिया अर्थात किले के नीचे की ओर दृष्टि डालते ही ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह किसी धुंधलके मैं अभी भी सोई पड़ी है। संपूर्ण शहर पर छाई हुई ओस ऐसी लग रही थी मानव बादलों ने आकर सब कुछ ढक लिया है या फिर आकाश पृथ्वी का आलिंगन करता हुआ सा प्रतीत हो रहा था। उस धुंधलके में से चमकते हुए यदा-कदा मंदिर और मस्जिदों के गुंबज पृथ्वी की उच्चता का आभास करा रहे थे। हरे और सघन वृक्ष धुंधलके में से दिखकर पृथ्वी रूपी नायिका के गदराए और गठीले शरीर का आभास कराते हुए से प्रतीत हो रहे थे।

किले पर फैले हुए प्रकाश पुंज और शहर पर छाए हुए धुंधलके को देखकर अचानक ही मुझे आभास हुआ कि सारा संसार इसी प्रकार अज्ञान रूपी अंधकार में खोया हुआ है जो प्रकृति के प्रकाश में फैली हुई ज्ञान रश्मियो को प्राप्त कर पाता है वही अलौकिक हो जाता है या यूं कहें कि जो अज्ञान रूपी अंधकार से जितना ऊपर उठ पाता है वह इस दुर्ग के समान ही ज्ञान रूपी प्रकाश से प्रकाशित हो सकता है और ज्ञान रश्मि से प्रकाशित हो जाने पर यह अज्ञान रूपी धूल से ढका हुआ संसार बहुत नीचे छूट जाता है। मानव की आत्मा पवित्र होने पर उतनी ही हल्की होकर सतत ऊपर की ओर उठती चली जाती है ।

परंतु यह क्या? मैं तो किले से नीचे उतर रही थी। प्रकृति के नयनाभिराम दृश्य को देखते और चिंतन करते मुझे पता ही नहीं लगा कि मैं कब नीचे उतर आई? भावना की दुनिया में ऊंचाई की ओर बढ़ती हुई मुझको नीचे की दुनिया में मेरे पैरों ने कब ला खड़ा कर दिया इस बात का आभास मुझे तब हुआ जब अचानक ही बैंड बाजे की उच्च ध्वनि ने कर्ण पटल पर पहुंचकर मेरे ध्यान को एक ही क्षण में आसमान से धरातल पर ला पटका।

और तब मैंने सोचा कि ईश्वर की इस मनोरम सृष्टि में माया भी कितनी बलवती है। वह भी ठीक इसी प्रकार ऊपर उठते हुए मानव को, आध्यात्मिकता की ओर बढ़ते हुए साधक को, नीचे की ओर खींच कर मोह माया के संसार में ला खड़ा करती है और बार-बार न चाहने पर भी इंसान अनायास ही इस संसार की भूल भुलैया में खो जाता है। मुझे भी अपने कर्तव्य पर पहुंचने हेतु विलंब हो जाने का भय था अतः में शीघ्र ही अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हो गई। बहुत देर तक तो प्रकृति के उस रमणीय दृश्य के आध्यात्मिक विचार मेरे मन और मस्तिष्क पर छाए रहे, परंतु धीरे-धीरे मानो उन पर भी धुंधलके की परत जमने लगी और मैं ईश्वर से प्रार्थना करने लगी कि हे प्रभु मुझे भी इस अज्ञान के धुंध से निकाल कर ज्ञान के प्रकाश पुंज की ओर अग्रसर करें जिससे मैं समय-समय पर इस प्रकृति के आलोक में ही प्रभु के प्रकाश को देख और समझ सकू । मेरी अंतरात्मा भी उस प्रकाश पुंज से आलोकित हो सके।


दुर्ग की भोर का वह अनूठा सुहावना एवं लुभावना दृश्य मैं आज तक भी अपने मन मस्तिष्क से नहीं भुला सकी हूं। उसका अनोखा अनुभव मेरे जीवन को एक नई दिशा प्रदान करने वाला था। वास्तव में दुर्ग की भोर का अपने आप में अनूठा ही आनंद है।


इति

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