अंतिम प्रेम-पत्र Ranjana Jaiswal द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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अंतिम प्रेम-पत्र

श्याम ,शायद यह मेरा अंतिम प्रेमपत्र हो |

अंतिम इसलिए कह रही हूँ कि धीरे-धीरे मैं उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच रही हूँ ,जिसे दुनियावी प्रेम का अंतिम छोर माना जाता है |इस उम्र में प्रेम का नाम लेना उपहास का पात्र बनना है |वैसे तो सभी कहते हैं प्रेम में उम्र नहीं देखी जाती ,पर जहां भी कुछ बेमेल दिखा ,लोग हँसी उड़ाने लगते हैं |स्त्री के लिए तो यह चरित्र का मामला बन जाता है ,जबकि पुरूष के लिए यह उतना हास्यास्पद नहीं होता |यही कारण है कि एक युवती प्रौढ़ प्रेमी के लिए गौरवान्वित होती देखी जा सकती है पर किसी भी उम्र के पुरूष के लिए प्रौढ़ा प्रेमिका कभी भी गर्व का विषय नहीं होती |वह उससे प्रेम को गुनाह की तरह छिपाता है |यही कारण है कि एक खास उम्र के बाद स्त्री अपने प्रेम भावनाओं को मन की सन्दूकची में कसकर बंद ही नहीं करती ,बल्कि उसपर मजबूत ताला लगा देती है |मुझे भी शायद यही करना पड़े |कर पाऊँगी?यह अलग बात है |

और शायद...इसलिए कह रही हूँ कि इस मन का क्या ठिकाना ?किसी भी घड़ी आवेग में भर हाथ को कलम थामने के लिए मजबूर कर देगा ...कह दो कि यह गलत है |नहीं ...नहीं अपना प्रिय शब्द कहो ‘.....खतरनाक है |’मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मेरा प्रेम देह में होकर भी देह से परे है |देह स्तर पर मैंने कभी तुम्हें चाहा ही नहीं |तुम्हीं कहो कभी मैंने देह से नजदीक होने की कोशिश की |कभी कोई अपेक्षा की ?फिर क्या फर्क पड़ता है देह की उम्र बढने से| उसके नष्ट हो जाने से भी कुछ नहीं होगा क्योंकि प्रेम तो कभी नहीं मरेगा |

श्याम ,मैंने हमेशा तुम्हें तुम्हारी सीमाओं में चाहा है |झूठ नहीं कहूँगी कि मेरे प्रेम में देह नहीं है , पर इतना ही है कि मैंने मन ही मन कई बार कल्पना की है कि कभी हमें एकांत के कुछ लमहें मिलें और उस समय हमारे बीच और कोई भी न हो |कोई झिझक कोई मर्यादा भी नहीं |तब मैं एक भ्रमरी की तरह तुम्हारे कमल से चेहरे पर मंडराऊँ |तुम्हारी आँखों से उतरकर होंठों पर बैठ जाऊँ और उसके सारे मकरंद पर एकाधिकार जमाऊँ और कुछ क्षण ही सही तुम्हारे हृदय की पंखुरियों में कैद हो जाऊँ |पर इस बंधन में भी स्वतन्त्रता है ...उड़ान है ...सुख है |हमेशा के लिए बंध जाने या बांध लेने की आकांक्षा नहीं |जाने क्यों यह जानते हुए भी कि तुम किसी अन्या के स्पर्शों के आदी हो ,तुम्हारा चेहरा मुझे अनाघ्रात कमल की तरह अमल ,सुरभित और सुंदर दिखता है औए मेरा मन चल हो उठता है |

बस...बस श्याम ,इससे अधिक कुछ नहीं |कभी एक स्त्री की तरह तुम्हारे पुरूष को देह स्तर पर पूरी तरह पाने की कल्पना मैंने नहीं की |जानती हूँ कोई इस बात को नहीं मानेगा शायद तुम भी नहीं |तभी तो कई बार तुमने मुझे खुद से विरत करने के लिए सामान्य पुरूष की तरह आचरण किया है |कभी पत्नी से ज्यादा प्रेम का प्रदर्शन किया है तो कभी अन्य महिला मित्रों को तरजीह दिया है |झूठ नहीं कहूँगी कुछ क्षण के लिए मुझे इससे तकलीफ भी हुई है पर फिर खुद पर हँस पड़ी हूँ |मैं कोई सामान्य स्त्री तो नहीं और ना मेरा प्रेम इतना सतही है कि अन्याओं के कारण अपनी चमक खो दे |वैसे भी तुमने अपनी तरफ से कभी अपने प्रेम को प्रकट भी नहीं किया है पर सच कहो क्या मेरे कारण तुम्हें कभी कोई फर्क नहीं पड़ा ?

फिर वे कौन सी किरणें हैं ,जो तुम्हारी तरफ से आकर मुझसे रात-रात भर बतियाती हैं |मुझे आश्वस्त करती हैं |तुम्हारी खुशी,उदासी ,दुख-सुख सबसे अवगत कराती हैं |कई दिन जब तुम नहीं दिखते और मैं तड़पती हूँ तो किसी न किसी बहाने तुम्हारे चेहरे को दिखाकर सुकून दे जाती हैं | पता नहीं क्या है ,क्यों हैं ?बस इतना जानती हूँ मेरी चाहत में एक पवित्र औदात्य है...गरिमा है.....कोई कलुषता नहीं |

श्याम ,तुम दुनिया के सबसे सुदर्शन पुरूष नहीं हो |ना तुम्हारी खूबियाँ अंतिम हैं फिर क्यों मैं तुम्हें ही चाहती हूँ यह तो मन जाने |शायद मैं जहां तक पहुंचना चाहती थी ,वहाँ तुम पहुंचे ...शायद जो गुण अनुकूल वातावरण और खाद-पानी के अभाव में मेरे भीतर अंकुरा कर ही सूख गए,वे तुम्हारे भीतर फूले-फले ...शायद मन की कोई और दबी चाहत ....शायद ...पर कुछ तो होगा ही इस आकर्षण के पीछे|अंतिम सत्य के रूप में जिसे नहीं कह सकती |

श्याम ,मैं यह भी जानती हूँ कि तुम्हारे कंधे इतने मजबूत नहीं कि मुझे मेरे तमाम अतीत के साथ संभाल सकें ,इसलिए मैंने कभी अपनी परेशानियों और दुख को तुमसे नहीं कहा |अपने संघर्षों में शामिल करने की इच्छा नहीं पाली |सब कुछ अकेले ही झेलती ...सहती रही |अपने ही कमजोर कंधे पर सारा कुछ एक साथ लादकर लड़खड़ाती हुई जिंदगी के सफर पर चलती रही |जहां सुस्ताई ,तुम्हें याद किया बिना चेहरे पर एक शिकन लाए ...हंसते हुए ...मुसकुराते हुए ताकि तुम पर मेरी दुश्चिंताओं का जरा –सा भी असर न हो |मैं जानती थी कि मुझे तो कोई परम पुरूष ही संभाल सकता है और तुम वह नहीं हो पर एक बात यह भी सच है कि उस परम पुरूष की झलक तुममें पाकर ही मैं तुम्हारी तरफ आकृष्ट हुई थी |

श्याम, मैं बचपन में ईश्वर के श्याम रूप की पुजारन थी |रूप-रंग से भी श्यामा थी और मेरा जन्म भी उनकी ही जन्म की तिथि को हुआ था |मुझे वे इतने प्रिय थे कि सब मुझे मीरा ही कहने लगे थे |अपना दुख-सुख बतियाना ,शिकवा-शिकायत करना ,उनका ही भजन –कीर्तन करना बस मेरा यही काम था |पर बढ़ती उम्र और शिक्षा ने उन्हें मुझसे दूर कर दिया |मुझे उनके अस्तित्व में ही संदेह होने लगा |सोचने लगी-भला ऐसा भी कोई हो सकता है ,जो इतना सम्मोहक हो कि एक साथ सबको बांध ले |

पर आज मुझे उनके जैसे प्रेम पुरूष होने के संबंध में कोई संदेह नहीं |उन्होंने तुम्हारे रूप में जैसे खुद को साबित कर दिया है |

श्याम ,तुम मेरा सम्पूर्ण मन लेकर भी मुझे नहीं समझ पाए ,पर शायद तुम्हारे अनजाने ही मेरे पास तुम्हारा मन भ्रमर उड़ता हुआ कभी-कभार आ जाता है और मेरे जीवन को सार्थक कर जाता है |तुम इस को समझते भी हो या नहीं ,नहीं जानती |पर क्या फर्क पड़ता है इससे ?