संस्कृत नाटकों के विशाल साहित्य पर जिन गिने चुने नाटककारो के अमिट चरण चिन्ह विद्यमान है उनमें भवभूति अग्रगण्य है विशेषत: राम नाटकों के तो वे प्राण है। उन्हें अलग करके देखे तो राम नाटकों की सुदीर्घ परंपरा निर्जीव सी प्रतीत होती है ।
भभूति की आदि नाट्य कृति महावीर चरितम का उप जीव्य स्पष्टत: वाल्मीकि कृत रामायण है। कवि ने इस नाटक के प्रारंभ में आमुख में ही उप जीव्य की स्पष्ट सूचना दे दी है
प्राचेतसो मुनिवृर्षा प्रथम: कवीनाम
यत पावन : रघुपते प्राणीनाय वृत्तम
भक्तस्य तत्र समरसतमेअपि वाच :
तत् सुप्रसन्न मनस: कृतिनो भजनताम। महावीर चरितम 1/7
इस श्लोक द्वारा न केवल उप जीव्य का संकेत मिलता है अपितु उनके चरित नायक एवं रचयिता के प्रति कवि की अपार श्रद्धा एवं भक्ति के भाव भी छलकते हुए से प्रतीत होते हैं
काव्य बीजम सनातनम , बृहद धर्म 1/30
रामायण के प्रति ऐसा सहज आकर्षण केवल भवभूति के कर्तव्य की ही विशेषता रही हो , ऐसी बात नहीं है । वस्तुतः अश्वघोष, शूद्रक, विशाखदत्त जैसे कुछ गिने चुने अपवादो को छोड़कर संस्कृत महा कवियों की दीर्घ परंपरा मैं शायद ही ऐसा कोई कवि हुआ हो जिसकी विशिष्ट कृतियों का उप जीव्य रामायण या महाभारत की कथा से ना रहा हो । विशेषत: रामायण भारतीय संस्कृति के शाश्वत मूल्यों का जीवंत निदर्शन है। सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा एवं पारिवारिक आदर्शों की स्थापना में रामायण सदैव से ही अग्रणी है। यही कारण है कि राम और सीता भारतीय नाटकों में सामान्य नायक नायिका के रूप में ना होकर विशिष्ट सामाजिक मूल्यों के जीवंत प्रतीक बनकर आते हैं
ऐसा नहीं है कि भभूति रामवृत्त को अपना नाटकीय उप जीव्य बनाने वाले पहले कवि थे इनसे बहुत पहले भास ने अपनी प्रतिभा नाटक तथा अभिषेक नाटक में रामकथा का आधार लिया है किंतु आश्चर्य का विषय यह है कि भास और भवभूति के बीच संस्कृत नाटकों की लंबी परंपरा में दूसरे किसी भी नाटककार का कोई राम नाटक अब तक प्रकाश में नहीं आया है यहां तक कि कवि कालिदास ने भी यद्यपि राम के पावन चरित्र को अपने महाकाव्य में बड़ी श्रद्धा एवं सफलता के साथ निबद्ध किया है परंतु वे अपने किसी भी नाटक में रामचरित्र को उप जीव्य के रूप में ग्रहण नहीं करते जो कवि रामचरित को अपने रघुवंश महाकाव्य में उदात्तता की सीमा तक पहुंचा सकता है वह क्या उसे अपनी उदात्त नाटकीय कल्पना में ग्रहण नहीं कर सकता था ? कारण चाहे जो भी रहा हो परंतु इतना निश्चित है कि रामकथा का नाटकीय रूप कालिदास की रमणीय कल्पना के स्पर्श से वंचित रह गया । प्रतिमा नाटक में भी रामकथा को लेकर भास द्वारा किए गए सुंदर प्रयोग भी शैली शिल्प और तक नींक की दृष्टि से वे पुराने से प्रतीत होते हैं इस दृष्टि से विचार करने पर रामकथा को अभिनव एवं उदात्त नाटकीय रूप प्रदान करने वाले भवभूति ही पहले नाटककार माने जा सकते हैं वस्तुतः जो काम अधूरा कालिदास छोड़ गए उसे भवभूति ने ही पूरा किया दोनों कवियों की प्रतिभा एक दूसरे की पूरक कही जा सकती है 1
राम नाटकों की दीर्घ परंपरा में उत्तररामचरितम् की श्रेष्ठता के बाद यदि कोई दूसरा नाटक है जो वस्तु एवं भाव दोनों ही दृष्टि यो से समृद्ध हो तो वह भवभूति का ही दूसरा नाटक "महावीर चरितम है"। भवभूति की आदर्शवादी विचारधारा के समर्थ प्रतीक राम, महावीर चरितम नाटक की कलात्मक वस्तु के सर्वस्व है 1 राम के इस महावीर रूप को समझे बिना उत्तररामचरितम् के राम के चारित्रिक वैशिष्ट्य को समझ पाना अपूर्ण सा प्रतीत होता है। "महावीर" राम ही आगे चलकर उत्तररामचरित के "लोक आराधक" राम के उत्कर्ष रूप में दृष्टिगोचर होते हैं उनकी वीरता ही उत्तररामचरितम् में सजल करुणा का रूप ले लेती है
महावीर चरितम मैं निश्चय ही वृत्त की प्रांतर रेखाएं बाल्मीकि की है परंतु उसके आभयातर रूपों को भवभूति ने बड़ी ही सफलता एवं मौलिकता के साथ सजाया संवारा है एवं नाटकीय औचित्य प्रदान किया है। नाटकीय औचित्य की दृष्टि से निम्नांकित नाटकीय विशेषताओं पर विचार किया जा सकता है
1 महावीर पद की सार्थकता
महावीर पद वस्तुतः सामान्य अर्थ वाची है जो किसी भी सूर्यवीर के लिए प्रयुक्त हो सकता है। महावीर चरितम को सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करने पर भी यही तथ्य प्रकाश में आता है कि भवभूति ने भी महावीर पद का प्रयोग न केवल विशेष श्रीराम के लिए किया है अपितु यह पद इस नाटक में अपनी अपनी भूमिका में आने वाले राम के सहयोगी या प्रतियोगी अन्य कई पात्रों के लिए भी अपनी व्यंजकता सिद्ध करता है। कवि ने परशुराम, हनुमान, बाली , कथा जटायु आदि विभिन्न पात्रों के लिए किसी ना किसी संदर्भ में वीर महावीर आदि तदवाची पदों का प्रयोग किया है। एक आश्चर्य की बात यह भी है कि संपूर्ण नाटक में स्पष्टत : महावीर शब्द का प्रयोग एक बार भी चरित्र नायक राम के लिए नहीं किया गया है परंतु यह भी सत्य है कि सभी महा वीरों की तुलना में राम की शक्ति तेज वॉल महिमा अधिक अतिशय होकर प्रकट हुई है इसीलिए जनक ----"अयम विनेता दृपतानमिकवीरो जगतपति:" म चरितम 3/46 ---कहकर उन्हें एक वीर की संज्ञा से विभूषित करते हैं। दूसरी ओर राम स्वयं अपने विरोधियों को महावीर शब्द से भूषित करते हैं । वस्तुतः नाटक में जितने भी महावीर आए हैं वे सभी वस्तुतः राम के ही महावीरत्त्व का समपोषण करते हैं इस प्रकाश में देखने पर महावीर चरितम के वास्तविक महावीर राम ही सिद्ध होते हैं अतः नाटक के नामकरण का औचित्य स्वत: सिद्ध हो जाता है।
2 नाट्य वस्तु के साथ वीर पद का सामंजस्य
"महावीर चरितम" मैं राम की विविध वीरता की पुष्टि आद्योपंत बड़ी सफलता के साथ की गई है। विविध प्रसंगों में वीर शब्द का प्रयोग 200 से अधिक बार हुआ है कवि की दृष्टि में वही वीरता वास्तविक एवं प्रशंसनीय है जो अहंकार शून्य तो है ही साथ ही व्यक्ति की विनम्रता सहानुभूति शीलता परोपकार परायणता आदि गुणों पर टिकी हो। आत्मिक शक्ति रुपी अमृत के अभाव में बड़ी से बड़ी शारीरिक शक्तियां ढह जाती हैं 21 वार क्षत्रिय वंश को निर्मूल करने वाले महाबली परशुराम का अब कुंठित पौरुष भी अंततोगत्वा राम की विनय एवं मानवीय मधुरता में सनी हुई वीरता के आगे घुटने टेक देता है वानर यूंथ बाली और निशाचर पति रावण का भी वही हाल होता है कवि ने इन सारे महावीरों के बीच में राम को खड़ा किया है राम जो स्पष्ट रूप से एक बार भी महावीर नहीं कहे गए हैं फिर भी इन सब महावीरो में महान और परम तेजस्वी हैं। व्यक्त रूप से महावीर न बनना शत्रुओं तक की वीरता का प्रशंसक होना तथा कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य और विनय न खोना ही उनके अजय पुरुषार्थ का मूल मंत्र है
3 मूल कथा में परिवर्तन एवं परिष्करण
भवभूति द्वारा महावीर चरितम की कथावस्तु को बड़ी कुशलता के साथ संगठित कर संजोया गया है कथा परिवर्तन के पीछे कवि के दो भाव स्पष्ट रूप से विद्यमान हैं 1 रामकथा के प्रति कवि की अपार श्रद्धा एवं भक्ति भाव, 2 कथावस्तु को नाक की मर्यादाओं के अनुरूप बनाना। इन दोनों ही आदर्शों को कथावस्तु में ढालने मैं महावीर चरितम की आत्मा एवं शरीर दोनों ही संतुलित एवं मर्यादित रहे हैं। कवि ने मूल रामकथा के वेतरह उलझे हुए तथा एक दूसरे से असमबंद्ध प्रसंगों की दूर व्यापिनी झाड़ियों के बीच अपने लिए एक ऐसा शुभम मार्ग तैयार कर लिया जो उनकी नाट्य प्रतिभा का साक्षी है। रामकथा के वस्तु गत परिवर्तन में जो मौलिकता और नाटकीय अन्विति भवभूति प्रदान कर सके हैं गैस आभास नहीं कर पाए हैं। राम और कैकेयी के चरित्र में कलंक मार्जन हेतु जिस नाटकीयता के साथ परिमार्जन किया गया है वह भवभूति की अपनी अनूठी देन है परंतु इसके साथ ही बाली जैसे राम के प्रतिद्वंदी को भी जब कवि एक अभिनव तथा उदात्त परिवेश मैं खड़ा कर देता है तो पाठक दंग रह जाता है। इस प्रकार महावीर चरितम में इन चरित्रों को निष्कंटक बनाने के साथ ही अपूर्व निखार भी ला दिया है।
महावीर चरितम मैं आदि से अंत तक कार्य कारण संबंध दिखाई पड़ता है जबकि रामायण की घटनाएं विश्रखलित रूप से जुड़ी हुई है भवभूति की नाट्यकला का सर्वोपरि चमत्कार यह है कि वह न केवल घटनाओं को श्रंखलाबद्ध कर देते हैं वरन उनमें कार्य कारण भाव से प्राण भी फूंक देते हैं । वे भली प्रकार जानते हैं कि उनका मार्ग क्या है ? उन्हें कहां जाना है? वे अपने लक्ष्य से कभी भी दिग्भ्रमित नहीं होते
सत्य का मार्ग संघर्ष की आंधियों में यदा-कदा ओझल भले हो जाए वह लक्ष्य से विच्छिन्न कभी नहीं होता भारतीय नाटक कारों की "सत्यमेव जयते" मंत्र में ध्रुव आस्था है इसी आस्था के परिणाम है--- नीतिज्ञ मूल्यवान की विफलता और एकाकी राम के विजय की ओर बढ़ते हुए अडिग चरण । असत्य पर सत्य की विजय के साथ ही असत्य का घना अंधकार सत्य के प्रखर तेज से सदा के लिए छूट जाता है अन्याय पर न्याय की विजय पताका फहराने लगती है।
इति