शब्दों के दैवी संगीत और लय में संजोया वह मानव जीवन जो मानो विधाता ने शंख से खोद कर मुक्ता से खींच कर मृणाल तंतु से सवार कर कुरज कुंद और सिंधु वार पुष्पों की धवल कांति से सजाकर चंद्रमा की किरणों के चूर्ण से प्रक्षालित कर और रजत रज से पोंछ कर जिसका निर्माण किया वह आद्योपांत मातृ शक्ति की अखंड रस धारा से आपलावित्त है
हर युग का ज्ञान कला देती रहती है
हर युग की शोभा संस्कृति लेती रहती है
इन दोनों से भूषित वेसित और मंडित
हर मातृशक्ति एक दिव्य कथा कहती है
कला और संस्कृति को अपने आंचल में संजोए प्रत्येक भारतीय नारी युगों युगों से अनेक देवीय एवं मानवीय मूल्यों की धरोहर को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करती रही है स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी के अंसार समाज व राष्ट्र के उत्थान हेतु भारत की गौरवशाली मातृशक्ति के पुनर्जागरण की अत्यंत आवश्यकता है
मातृशक्ति की गरिमामई प्रतिष्ठा और सम्मान को पुनः प्राप्त करने हेतु निश्चित ही हमें भारत के गौरवशाली अतीत के झरोखे में झांकना होगा आचार्य मनु ने मनुस्मृति के श्लोक की अर्धाली मैं ही भारतीय नारी के संपूर्ण वैभव प्रतिष्ठा और सम्मान को पूर्णरूपेण समाहित कर दिया है
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता
भारत के उस अतीत में जहां नारियों को इतनी श्रद्धा और आदर के साथ देखा जाता था उस समय देश भी संपूर्ण वैभव और संपन्नता से परिपूर्ण होकर सोने की चिड़िया कहलाता था नारी के इस सम्मान और प्रतिष्ठा के कारण ही धर्म की इस भूमि भारत वसुंधरा पर अवतरित होने के लिए देवता भी लालायित रहते थे
इस अपरमित श्रद्धा के मूल में निहित प्राचीन युग की भारतीय नारी का महिमामंडित पांडित्य पूर्ण रूप, मानवीय मूल्यों की खान, चारित्रिक उदात्तता, धैर्य की प्रतिमूर्ति, त्याग और तपस्या की देवी तथा आदर्श मातृत्व के गुणों को भुलाया नहीं जा सकता गार्गी, मैत्री , विद्योत्तमा , जैसी विदुषी हो देवी कौशल्या सुमित्रा तथा अनसूया जैसी मातृशक्ति देवी सीता जैसी पतिव्रता, सावित्री जैसा सतीत्व तथा दमयंती जैसा आदर्श भारतीय नारियों के नाम आज भी विश्व पटल पर गौरवान्वित है स्वामी जी वर्तमान नारी में भी इन आदर्श गुणों को पुनः प्रतिष्ठा पित्त होते देखना चाहते हैं प्रत्येक देश और समाज बस समय की परिस्थितियां भिन्न हो सकती हैं परंतु स्वामी जी का दृढ़ विश्वास है कि हिंदू समाज में माता बहनों ने अपने संस्कार और संस्कृति का संरक्षण करने में बड़ी अहम भूमिका निभाई है संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उन सभी को महापुरुषसत्व प्रदान करने में किसी न किसी नारी का बहुत बड़ा योगदान रहा है चाहे वह मां हो बहन हो मित्र हो या पत्नी रही हो
होते ना तुलसीदास कवि होती ना यदि रत्नावली
होते ना कालिदास भी होती है यदि विद्योत्तमा
निश्चय ही तुलसीदास और कालिदास जैसे व्यक्तियों को अमर कभी बनाने का श्रेय उनकी पत्नियों को ही है अत्यधिक प्रेम के गहन क्षणों में पत्नियों के द्वारा अपमानित किए जाने वाले दो शब्द ही पथ प्रदर्शक बन गए और उन्हें ऐसा उच्च कोटि का कवि बना दिया जिनके यशु के शरीर में जरा मरण का भय सदा के लिए समाप्त हो गया । उच्च कोटि का वैराग्य, अत्यंत प्रेम के क्षणों में ही संभव है घर से वैराग्य लेने के उपरांत भी जब तुलसीदास मैं संग्रह की प्रवृत्ति दिखाई दी तब रत्नावली ने पुनः चेतना देते हुए कहा----तुम्हारे कंधे पर न जाने कितना सामान लगा हुआ है यदि तुम इतना सब कुछ रख सकते थे तो मुझे भी साथ में रखते क्या आपत्ति थी मैं तुम्हारे कंधे के ऊपर तो ना चलती तुलसीदास को दूसरी चोट लगी उसी दिन से उन्होंने पर ग्रह का त्याग कर दिया इस प्रकार रत्नावली की चेतना ने उन्हें महाकवि ही नहीं महान संत भी बना दिया
स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी का मानना है कि संपूर्ण विश्व में सामूहिक रूप से संस्कारों के प्रचार प्रसार में माता बहनों का सदैव से ही योगदान रहा है और सदा बना रहेगा माता जीजाबाई द्वारा सिखाए गए संस्कारों के कारण ही शिवाजी हिंदुस्तान के इतिहास के महापुरुष और बुद्धिमान वीर माने जाते हैं इसी संदर्भ में इंग्लैंड में प्रवचन करते समय स्वामी जी ने मदालसा का उदाहरण प्रस्तुत किया वेद पुराण उपनिषदों का अध्ययन करने वाली मातृशक्ति मदालसा अपने बेटे को पालने में सुनाते समय भी लोरी गाते हुए मोह निद्रा से जागने की चेतना प्रदान करती है शु
शुद्धोअसी बुद्धोअसी निरंजनोअसी
संसार माया परिवर्जितोअसी
संसार माया त्यज मोहनिद्रा
मदालसा वाक्यमुवॉच पुत्र
मां कहती है तुम शुद्ध हो बुद्ध हो तुम निष्कल निरंजन हो संसार की माया रूप निद्रा
जब तेरे ऊपर चढ़ने लगे तब तू अवश्य यह विचार करना की यह माया निरंतर परिवर्तित होने वाली है अतः इस मिथ्या जगत की मोह निद्रा का तुझे त्याग करना होगा इस प्रकार मां अपने छोटे से बालक के अवचेतन मन में भारतीय संस्कृति के दिव्य विचारों को भरने का प्रयत्न करती है और यही शब्द उनके पुत्रों के लिए स्थाई प्रेरणा बन जाते हैं
गांधी जी का उदाहरण सु विदित है अपनी मां से किए गए प्रतिज्ञा वचनों के कारण ही वे विदेश में भी एक चरित्र निष्ठ के रूप में रह सके प्रातः स्मरणीय मां शारदा और कस्तूरबा भी आधुनिक युग की ही ज्योतिषमति देवियां थी भारतीय इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण धुड़े जा सकते हैं राजपूताना का स्वर्ण इतिहास आज भी विलुप्त नहीं हुआ है चुणावत सरदार की नवोधा पत्नी का अपूर्व बलिदान आज भी स्वर्ण अक्षरों में जगमग आ रहा है नारी का सहयोग पुरुष को बंधन नहीं बल्कि मुक्ती रूप में मिलना चाहिए सौंदर्य की मूर्ति और कोमलता की प्रतिमा बहुत सरदार पत्नी अपने जीवन की इस महत्ता को मधुर तम क्षणों में भी विस्मृत नहीं कर सकी क्षणिक सौंदर्य का क्या मूल्य है और उसका सदुपयोग किस प्रकार किया जा सकता है इसे वह जानती थी और फल स्वरुप उसकी मुंडमाला सरदार के जीवन की प्रेरणा बनकर उसे देश के प्रति अपना कर्तव्य निष पन्न करने में समर्थ कर सकी कितनी दृढ़ता थी उस कोमल ह्रदय में इंग्लैंड में प्रवचन करते समय स्वामी जी ने जब इस बीर पत्नी के बलिदान की कथा विस्तार से सुनाई तो निश्चय ही लोग आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सके स्वामी जी का मानना है कि हर युग की मान्यताएं भिन्न हो सकती है परंतु फिर भी इतिहास की ऐसी अनेक घटनाएं मानव को शाश्वत चेतना प्रदान करने में बड़ी सहायक होती हैं
नारी का पत्नी रूप से भी अधिक महत्वपूर्ण और गौरवशाली स्वरूप है उसका मातृत्व। मातृत्व में मानो पत्नी रूप पूर्णत्व को प्राप्त किया जाता है परंतु यह मातृत्व मोह का बंधन बनकर संतान की प्रगति में बाधक नहीं बनना चाहिए माता कौशल्या का वात्सल्य कोमल ह्रदय यद्यपि राम बियोग की आशंका से शत विदीर्ण हो रहा था तथापि उनका मातृत्व उन सभी कोमल भावनाओं से ऊपर राम को आदेश दे रहा था
जो केवल पितु आयसु ताता तो जन जाओ जान बड़ी माता
जो पितु मातु कहेउ वन जाना तौ कानन सत अवध समाना
इसी प्रकार माता सुमित्रा का कथन दृष्टव्य है
पुत्रवती युवती जग सोए रघुपति भगत जासु सुत हो ई
नतरु बाॅझ भली बादि बियानी राम विमुख सूत ते हित जानी
अपने तरुण नवविवाहित पुत्र लक्ष्मण को अग्रज अनुगामी बनाकर वनवास की अनुमति प्रदान करती हैं लक्ष्मण का त्याग निश्चय ही सराहनीय है परंतु इसका श्रेय लक्ष्मण को नहीं बल्कि उनकी माता सुमित्रा को है उनकी नवोढा पत्नी उर्मिला को है जिन्होंने अनुराग की बेला में विराग को संयोग के स्वर्णिम क्षण में दीर्घ वियोग को अपना सौभाग्य समझ कर प्रसन्नता से वरण कर लिया था
पत्नी और मातृत्व
दोनों ही नारी के प्रकृति प्रदत्त क्षेत्र हैं जिस में रहकर हमारी प्राचीन भारतीय नारियां सदा से ही एक सुंदृढ एवं सू संगठित राष्ट्र का निर्माण करती रही हैं महारानी दुर्गावती वीरांगना लक्ष्मीबाई तथा अनेक राजपूतांगानाओं के सुव्यवस्थित राज्य संचालन और अपूर्व रण कौशल की अगणित गाथाएं आज भी इतिहास में अमित है नारी का चाहे ब्रह्मवेर्ता विदुषी का रूप हो चाहे वीरांगना का चाहे पतिव्रता का या फिर मातृत्व का वह हर रूप में वंदनीय रही है कुछ भी हो हमारे प्राचीन भारतीय नारी के सभी स्वरूपों में सात्विकता थी एक दिव्यता थी जो समाज के शिरो भाग को विभूषित करती थी संघर्ष के बिना ही अपने प्राकृतिक गुणों की सहज अभिव्यक्ति में स्वभाव से ही नारी को वह पूज्य पद प्राप्त था जिसके लिए महाराज मनु ने कहा था
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता यात्राओं ताश तो न पूज्यंते सर्वा कतरा अफला क्रिया
मनु स्मृति 3/ 56
भारतीय नारी का प्राचीन इतिहास उज्जवल प्रतीक बनकर आज भी हमारे समक्ष उपस्थित है हम उसे किस प्रकार में देखते हैं यह हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है भारतीय नारी अपने सरबाश में पूर्ण है वह देवी अन्नपूर्णा है जिसे संसार से कुछ लेना नहीं है वह देना ही जानती है लेने की लालसा उसमें नहीं है वह सेवा को अपना अधिकार समझती है इसलिए देवी है वह त्याग करना जानती है इसलिए साम्राज्ञी है विश्व उसके वात्सल्यमय आंचल में स्थान पा सकता है इसीलिए जगन माता है व्यक्ति परिवार समाज देश संसार को अपना अपना भाग मिलता है नारी से, फिर वह सर्वस्व देने वाली महिमामयी नारी सदा अपने सामने हाथ पसारे खड़े हुए इन भूलोक वासियों से क्या मांगे? और क्यों मांगे? प्राचीन भारत के नारी समाज में अपना स्थान मांगने नहीं गई थी मंच पर खड़े होकर अपने अभावों की मांग पेश करने की आवश्यकता उसे कभी प्रतीत ही नहीं हुई उसने अपने महत्वपूर्ण क्षेत्र को पहचाना था जहां खड़ी होकर वह संपूर्ण को अपने निस्वार्थ सेवा और त्याग के सुधा प्रभाह से आप लावित कर सकी थी नारी की सरलता कर्तव्य निष्ठा सेवा भाव तथा मातृत्व की गरिमा के कारण ही समाज में उसका अलौकिक स्थान था सृष्टा की रचना में नारी और पुरुष दोनों का ही अपना महत्व है दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और इसी रूप में उनके जीवन की सार्थकता भी है हमारी प्राचीन हिंदू संस्कृति में गृहस्थ जीवन को एक यज्ञ का स्वरूप दिया गया है और उस यज्ञ में नारी अर्धांगिनी के रूप में पुरुष को सहयोग प्रदान करती है परंतु इसी यज्ञ की भावना जब अंतर्मुखी हो जाती है तब नारी का समस्त जीवन ही यज्ञ में होकर एक पवित्र साधना का रूप धारण कर लेता है वर्तमान में नारी को पाश्चात्य प्रभाव से दूर रहकर वासना के मोह आवृत से बाहर निकल कर इस पवित्र यज्ञ की अग्नि में तप कर तपः पू त चरित्र से अपनी मातृ शक्ति की उदात्ता से समाज को पुनः चेतना वन बनाने का दृढ़ संकल्प लेना होगा तभी अपने देश भारत को भी माता का दर्जा देकर भारत माता की निरंतर उपासना व सेवा में संलग्न रहने वाले महामहिम स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी के साथ हम सब भी बड़े गौरव के साथ कह सकेंगे
जननी जन्मभूमि च स्वर्गादपि गरीयसी
वास्तव में माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है ।