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प्रेत का घर

अब से लगभग तीस साल पहले सन 1990 की बात है मध्यप्रदेश के एक छोटे से कस्वे में जहाँ नर्मदा के पानी का कल-कल करता मधुर संगीत अनवरत अपनी गति से बहता रहता है। उसी छोटे से कस्वे में इंद्रा अपनी पाँच संतानो के साथ एक बड़े मगर कच्चे मकान में किराए से रहतीं थीं। उनकी पाँच संतानो में सबसे बड़ा उनका लड़का राजेश एक फैक्टरी में काम किया करता था कभी - कभी ओवर टाइम करने की बजह से वो देर रात घर आता था। उनकी बड़ी लड़की रचना उस समय वो और उसकी दो और बहनें वंदना और अर्चना क्रमशः दसवीं, पाँचवीं और दूसरी कक्षा में वहीं एक छोटे से बालिका विद्यालय में पड़ते थे। उनका सबसे छोटा भाई सतीश नें अभी स्कूल जाना चालू ही किया था। ये सभी उसी मकान में साथ रहा करते थे घर से लगा एक बाड़ा था जहां गाय और बछड़े बंधे रहते थे, इंद्रा को जानबर रखना बहुत अच्छा लगता था। इनके पति सरकारी नौकरी किया करते थे और अधिकतर समय नौकरी के काम से बाहर ही रहते थे। घर काफी साल पुराना था और उसकी बनाबट के अनुसार सारे दरवाजे एक ही सीध में थे मतलब की अगर कोई एक दरवाजे पर खड़ा होकर देखे तो सारे दरबाजों को देखा जा सकता था।
एक रात सभी रात का भोजन करने के लिए साथ मे बेेेठे थे तभी अचानक रचना को एक काला साया उसी कमरे में नज़र आया उसकी तो मानों रूह डर से काँँप गई फिर उसने उस परछाईं को तेेजी से एक कमरे सेे दूसरे फिर तीसरे कमरे मेें चक्कर लगते हुुुए देखा उसका शरीर ठंडा पड़ गया और वो ख़ौफ़ जदा हो कर अपनी सुध-बुध खोती गई और बेेहोश होकर वहीं गिर गई।
लगभग दो घंटे बाद उसे होश आया और वो जोर से चीखती हुुई घर से बाहर की और भाागी, राजेेश और उसकी माँँ ने उसी जैसे तैसे करके दरवाजे पर पकड़ा और अंं दर लानें लगे पर रचना अपनी पूरी ताकत से उनसे छूट कर बाहर भागना चाहती थी और कुछ कहने की भी कोशिश कर रही थी पर राजेश ने ये कह कर के उसे शांत किया कि "कुुछ बोलने की जरूरत नहींं हैं हम सबने भी उस काले साये को देखा था।
वो रात उन सब की बहुत ही डर के साये में गुजरी, सभी पूरी रात एक साथ बैैैठ कर जागते रहे, ऐसे समय आखिर नींद किसे आ सकती थी। कुुुछ दिनों तक ये बात आम हो गई, रोज ही वो साया कभी अंंदर कमरों के या कभी बाहर से पूरे घर के चक्कर लगाता रहता फिर कुछ दिन खामोशी से बीते क्योंकि नवरात्रि के नोँ दिनों तक उसकी ना तो परछाई दी और न ही और कोई घटना घटी, क्योंंकि इन दिनों मेंं घर मे माता भगवती का वास होता है।
अब तो जैसे घर के सभी लोग उस साये को भूल गए थे। पर एक रात घर केे अंतिम कमरे जहाँ रसोई घर था वहाँ रचना पानी पीने के लिए गई और उसने रसोई घर के बल्ब को जलाया और पानी निकालने के लिए जैसे ही मटके में हाँथ डाला उसे लगा जैसे एक औऱ हाँथ उसके साथ-साथ मटके में जा रहा है उसका चेहरा ख़ौफ़ से पीला पड़ गया और ठीक उसी समय कमरे का बल्ब एक चिट-चिट की आवाज करते हुये बंद हो गया, उसके हलक से मारे डर के चींख निकल गई और वो वहीं बेहोश हो गई।
सभी रचना की चीख को सुनकर रसोई की ओर दौड़े, बल्ब अचानक जैसे बंद हुआ था बैसे ही खुद ब खुद जल गया। इसी तरह की घटनाएं घर के सभी लोगों के साथ रोज ही होने लगी, कभी वो साया पूरे घर मे रात भर घूमता रहता, कभी कमरों के बल्ब अचानक बंद हो जाते और फिर खुद जल भी जाते। सभी इन बातों से बहुत परेशान हो गए पर गनीमत थी कि घर के किसी सदस्य को कुछ नुकसान नहीं हुआ था।
रचना की माँ उनके पति को एक पत्र के माध्यम से इन सभी बातों से अबगत करा चूकिं थी और बस उनके ही आने का इंतजार कर रहीं थी क्योंकि उनके पति को भुत-प्रेत बाधाओं से मुक्ति की कला आती थी पर उन्हें मन ही मन ये डर भी था कि कहीं उनके किसी बच्चे के साथ कोई अनहोनी न हो जाये इसलिए वो चाहती थीं कि उनके पति जल्दी से जल्दी यहाँ आ जाएं।
उसी समय दो साधु जो की देखने में पचास पचपन की उम्र के गेरुआ बस्त्र पहने बगल में राम नाम अंकित थैला लिए उनके घर की और आते दिखे उनकी चेहरे पर एक नितांत शांति फैली हुई थी। इंद्रा उन्हें देख कर उठ खड़ी हुई, उनमें से एक साधु ने भिक्षा के लिए गुहार लगाई, अब तक वो मुख्य द्वार तक आ गए थे, आते ही मानो वो ठिठके अचानक के भाव उनके चेहरे पर आते चले गए और उन्होंने दो कदम पीछे की और लेकर इंद्रा से कहा, "हम तेरे घर की भिक्षा नहीं लेंगें, इंद्रा ने प्रश्न-बाचक नजर से उन साधु रूपी संतों को देखा। एक साधु ने दरवाजे के दूसरी और उंगली दिख कर कहा "इसे घर में क्यों रखा है, इस प्रेत के रहते हम यहां का पानी भी नही पी सकते।
इंद्रा अंशुओ को पीती हुई आशा भारी नज़र से उन साधुओं के हाँथ जोड़ कर उनसे मदद की गुहार लिए हाँथ फैला कर इसरों में अपनी व्यथा कह दी। साधु समझ गए और इंद्रा से घर के अंदर से निम्बू लाने को कहा और अपने थैले से एक पालीथिन में रखा सिंदूर निकालने लगे, इतने में इंद्रा निम्बू लेकर आ गई। साधु ने वो निम्बू दरवाजे के बीच मे रखने को कहा और फिर कुछ समय तक हाँथ में रखे सिंदूर को माथे पर लगा कर कुछ मंत्र बुदबुदाते हुए उसे निम्बू पर डाल दिया फिर इंद्रा को समझाते हुए कहा " आज रात घर के दरवाजे बंद नहीं करना और ध्यान रहे कोई भी घर के बाहर न जाये और न ही इस निम्बू और सिंदूर को छुए, हम् सही समय देख कर आएंगे" इतना कह कर दोनों साधु वहां से चले गए।
रात में तकरीबन एक बजे के आसपास वो दोनों साधु हाँथ में कमंडल और बगल में वही थैला लिए हुए बापस आये, आते ही वो कमंडल का जल उस निम्बू-सिंदूर पर छिड़कने लगे और कुछ मंत्रों का उच्चारण करने लगे, अचानक हि माहौल बहुत ही भयाबह और भारी होने लगा, कुछ ही देर बाद वो काला साया उन नींबू-सिंदूर के ऊपर मंडराने लगा।
साधु ने उस साये को मंत्रों द्वारा बांध दिया था, फिर साधु उस साये की और देख कर उससे पूछने लगे "बताओ तुम्हारा नाम क्या है, तुम्हारा इस परिवार से क्या बस्ता, तुम यहाँ क्यों आये हो" पर उसने कुछ भी नही कहा, अब साधु और भी अधिक जोर से मंत्रों का उच्चारण करने लगे और फिर वही प्रश्न दोहराने लगे, कुछ देर कि मशक्कत के बाद साये ने बोलना चालू किया।
साया बोला "मेरा नाम रईश अंसारी है और ये घर मेरा ही है, मेरी इस परिवार से कोई दुश्मनी नहीं है पर में नही चाहता कोई मेरे घर और मेरी कब्र पर आकर रहे"
साधु बोले "कब्र कैसी कब्र, यहां तो कोई कब्र नजर नही आती, साफ-साफ और सच-सच बोल"
साया बोला " आज से तकरीबन 20 साल पहले में यहां मेरी बैगम रुखसार के साथ रहता था, मेरे एक करीबी दोस्त ने मेरे भरोसे का फायदा उठा कार, बदनीयती से मेरी बैगम के साथ गलत किया, जब इस बात का इल्म मुझे हुआ तो में उसके घर उसे मारने गया पर वो पाँच भाई थे, उन्होंने चाकू से मेरे गला काट कर मुझे मार डाला और मेरी लाश को मेरे ही घर लाकर मेरे कई टुकड़े करके कमरे में दफना दिया, साथ ही मेरी रुखसार को उठा कर ले गए, एक दिन उनकी ज्यादतियों से तंग आकर उस बदकिस्मत ने आत्महत्या कर ली। तब से इसी घर मे रह कर में उन दरिंदों का इंतजार कर रहा हूँ ताकि उनका खात्मा कर में अपना इंतकाम पूरा कर सकूँ, तभी मेरी रूह को सुकून मिलेगा, पर वो काफिर यहाँ आने या यहां से गुजरने से भी डरते है"।
साधु बोले "पर इन सब मे इस परिवार का क्या कशूर, तुम इन्हें क्यों परेशान कर रहे हो, अब तुम ये घर छोड़कर चले जाओ नहीं तो में तुम्हारे रवी का वास्ता दूंगा"।
साया बोला "ऐ पाक बंदे खुदा कर लिए ऐसा न कर, ये मेरा घर भी है और मेरी कब्र भी, घर तो में छोड़ दूं पर कब्र छोड़ कर कैसे जाऊं, पर हाँ में अब इस परिवार को परेशान नही करूँगा, पर यहां से नही जाऊंगा"
साधु ने उसे बहुत प्रकार से समझाने और डराने की कोशिश की पर वह नही माना, आखिर साधु को एक रास्ता सूझा,
साधु ने कहा " ठीक है हम तुम्हारी बात मानते हैं हम तुम्हे यहां से जाने को नहीं कहेंगें, पर तुम्हे हमारी दो बातें माननी होंगी, पहली की अब तुम इस परिवार को परेशान नही करोगे और दूसरी की इस घर मे तुम्हारा दायरा सिर्फ तुम्हारी कब्र तक ही सीमित होगा, अगर मानते हो तो बताओ"
साया बोला "मंजूर है पर इस परिवार के जाने के बाद ये पूरा घर पहले की तरह मेरा होगा फिर में कब्र में कैद नही रहूंगा,,
साधु ने कुछ सोच कर हाँ कहा और प्रेत से वादे का बार-बार इकरार करवा कर उसे जाने दिया। कुछ समय बाद वो दोनों साधु भी चले गए।
फिर जब तक वो परिवार वहां रहा तक वहां कोई साया दिखाई नही दिया, कुछ समय बाद वो परिवार उस घर और शहर को छोड़ कर कहीं और चला गया।
कहानी लिखने तक फिर कोई परिवार वहां रहने नही आया, पर फिर भी उस घर मे कोई रहता है, वही वो साया जिसने कहा था ये मेरा घर है "प्रेत का घर".......

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