अंदर खुलने वाली खिड़की
(3)
बीमारियों के मौसम में अक्सर बहुत लोग एक साथ मर जाते थे। इतने अधिक, कि श्मशान घाट की जमीन पर घंटो मुर्दे अपनी अपनी अर्थियों में पड़े रहते, खासतौर से गरीब मुर्दे। एक चिता से छूती हुयी दूसरी चिता जलती। अक्सर एक चिता की लपटें दूसरी चिता की लपटों में मिल जाती। देर से आने वाले अक्सर गलत चिता में शामिल होकर गमगीन चेहरे से मुर्दे के अच्छे दिन, उसके मन की बात और उसके कामों के बारे में आपस में फुसफुसाते हुए बात करते। मुर्दे इतने अधिक होते कि डोम, महापात्र घाट पर घूमते कुत्ते, नदी की कीचड़, चिताओं के धुएं, पेड़ों के पत्ते भी, ज्यादा लहसुन खाने वाले व्यक्ति की तरह मुर्दा शरीरों की दुंर्गध उगलते रहते। ज्यादा मुर्दों की वजह से बूढ़े को वहां ज्यादा रहना पड़ता। ज्यादा रहने की वजह से उसके शरीर में उसकी अपनी गंध खत्म होकर मुर्दे की गंध रहने लगी थी।
सिर्फ दुर्गंध ही नही, उसके देखनें, बोलने के तरीके में, बल्कि आवाज तक में, जीवन के प्रति एक खास तरह की हिकारत या विरक्ति या उपेक्षा या उदासी पैदा हो चुकी थी। उसने मन, दिमाग और सोच तक में मृत्यु की अनिवार्यता से जन्मी विरक्ति, वर्तमान से मुक्ति की कामना, पेशेवराना रवैय्ये की क्रूरता और कठोरता शामिल हो गयी थी। धीरे धीरे उसे मुर्दों से सहानुभूति भी होने लगी थी। जीवित व्यक्ति से अधिक आत्मीयता से वह मुर्दे को देखता था। उसमें जीवन का सत्य और अंत देखता था। कई बार भावुकता में उसकी आँखों में आँसू आ जाते। वह कोशिश करता कि मुर्दे को किसी तरह की तकलीफ न हो। इसके लिए वह जीवित व्यक्तियों को प्रताड़ित करने और दुत्कारने और लूटने खसोटने को बुरा नहीं मानता था। नतीजे में उसने कुटिलता और कपटी उदासी का अच्छा अभ्यास कर लिया था। लोगों को चूसने के लिए कर्मकांड के नियम याद कर लिए थे। उसने देखा था कि लाशों पर लोगों का भावनात्मक दोहन बहुत आसान था। संवेदना न होते हुए भी, वे मरने वाले के लिए विलाप करते थे। मुर्दे की निरर्थक अंतिम इच्छा को कष्ट उठा कर पूरा करते थे। कर्मकांड के शोषण को सर झुका कर स्वीकार करते थे। यह सब करते हुए वे आत्मरति के सुख और आत्म सम्मोहन के अंहकार में जीते रहते। वे कर्मकांड की किसी मूर्खता या धूर्तता पर प्रश्न नहीं करते थे। किसी स्वांग पर शंका या उसे करने से इंकार नहीं करते थे। बल्कि सब कुछ कृतज्ञ भाव से करते। शाम को जब बूढ़ा, शमशान घाट के किनारे बनी पंडों, मल्लाहों, नाव मरम्मत करने वालों, और वेश्याओं, भिखारियों, ठेले वालों के कच्चे पक्के मकानों में से किसी एक में महापात्र या डोम या चिता की लकड़ी बेचने वाले या घाट पर मुर्दे के मरने का प्रमाण पत्र देने वाली सरकारी बाबू के साथ, सूखी नदी के किनारे निकली ताजी दारू, वहीं से खोदी हुयी ककड़ी और खीरे के साथ पीता, तो उस अपाहिज ईश्वर के नाम पर पहला गिलास पीता, जिसने ऐसे जगत में उसके धंधे को कामयाब किया जहाँ ढोंग, कुटिलता, मक्कारी, स्वार्थ, शोषण, नीचता, लाश पर शोषण करना धर्म, कर्मकांड या कि मनुष्य के जीवन का हिस्सा था। जहाँ इन सब बुराइयों का महिमा मंडन था, अनुपालन था, दासता थी। जहाँ इनका चुनौतीविहीन साम्राज्य था और जो हजारों सालों से चला आ रहा था और जिसमें कभी कोई परिवर्तन नही हुआ था। वहाँ कभी कोई क्रांति नहीं हुयी। कोई सुधार नहीं हुआ।
शादी के बारह साल बाद बूढ़े की जिंदगी में यह सब शुरु हुआ और धीरे धीरे बूढ़े की जिंदगी में और घर के अंदर पसरता चला गया था। शादी के बारह साल बाद से ही, उसके अंदर बुढ़िया के लिए भी, पकी हुयी मिट्टी की तरह भावनाएं और नकारात्मक दृष्टि मजबूत होती चली गयी थी, जो बारह साल पहले अपने चरम पर पहुँच गयी थीं। बारह साल पहले से और थोड़ा पहले से बूढ़े के शरीर की बढ़ती दुर्गंध, उसकी नजरों की हिकारत, आवाज की ठंडक, कभी कामुक तो कभी अपमानित करने वाली और भविष्य के लिए कमीनेपन से भरी किसी योजना के सोच से भरी तिरछी मुस्कराहट ने, बुढ़िया को भी खिड़की की तरफ ढकेलना शुरु कर दिया था। बूढ़े के घर में रहने पर तो निश्चित ही, और फिर बारह साल पहले से, उसके न रहने पर भी, बुढ़िया घर की दीवारों की तरफ पीठ करके रहने लगी थी।
बारह साल पहले से वह घर की दोनों खिड़कियों में से किसी भी खिड़की पर खड़ी हो जाती थी। पर जब बूढ़े ने शराब की वजह से लिवर खराब रहने, हीमोग्लोबिन कम बनने और बिजली की भट्टी में मुर्दों का जलना प्रचलन में आने की वजह से, काम करना बहुत कम कर दिया, तो उसने भी खिड़की की चौखट पर बैठ कर बाहर देखते हुए समय बिताना शुरु कर दिया। बुढ़िया ने तब अपनी खिड़की अलग चुन ली। उसकी जिदंगी में खिड़की इसी तरह शामिल हो गयी जैसे घाव पर मक्खी या प्रेम में चुबंन शामिल हो जाता है। चौखट पर झुकी वह नीचे सड़क पर गुजरती दुनिया को गहरे लगाव, उत्सुकता और कभी बेनियाज़ी से देखती रहती। 12 साल पहले हिम्मत करके, दीवार का सहारा लेकर, कभी सीढियों पर बैठते हुए भी चार मंजिल की सीढ़ियाँ उतर जाती थी। तब चढ़ते और उतरते समय उसके घुटने आवाज नहीं करते थे। वह इस बाहर की दुनिया में शामिल थी। इसमें रहती थी। पर समय और उमर के साथ, उसके लिए स्ीढ़ियाँ चढ़ना उतरना कठिन होता गया। उसने कभी कोशिश की, तो घुटने के आसपास की खाल सूज गयी। धीरे धीरे उसने उतरना छोड़ दिया। अब बूढ़ा ही कम सही, पर वही बाहर की दुनिया में आता जाता था। उसके घुटनों में अभी जान थी। हालांकि ऊपर चढ़ कर आने के बाद वह देर तक कुर्सी पर बैठ कर गहरी साँसे लेता था। पीले पड़े हुए चेहरे का पसीना पोछता, कमीज के बटन खोल कर बिना बालों वाली छाती रगड़ता। बुढ़िया आँखों के कोनों से उसे यह सब करते हुए देखती। उसे लगता कि उसका ध्यान और सहानुभूति पाने के लिए बूढ़ा यह नाटक कर रहा है। चाहता है कि वह उसके पास जाए। उसका हाल पूछे या उसकी छाती रगड़े, और जब वह यह सब करे, तो बूढ़ा छलाँग मार कर उसे बाँहों में जकड़ ले। उसे चूम ले। वह बूढ़े के कमीने शातिरपन को जानती थी। बारह साल पहले कई बार उसने इसी तरह बुढ़िया के शरीर को दबोचा था। लिहाजा़ बुढ़िया अपनी जगह बैठी चुपचाप देखती रहती। कुछ देर गहरी साँस लेने के बाद बूढ़ा उठता। पानी पीता। अपने लिए चाय बनाता और चाय लेकर अपनी खिड़की की चौखट पर इस तरह बैठ जाता, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
हालांकि बुढ़िया नीचे नहीं उतरती थी, पर इन बारह सालों से, बुढ़िया खिड़की से एक ऐसी नयी, विराट और रहस्यमय दुनिया देख रही थी, जो नीचे जा कर, उसमे शामिल होने पर उसे नहीं दिखी थी। उसी तरह, जैसे नदी में रहते हुए आदमी को जल नहीं दिखता। जल देखने के लिए नदी से दूर, किनारे पर खड़ा होना पड़ता है। बुढ़िया के साथ यही हो गया था। चौथी मंजिल की ऊँचाई पर खड़े हो कर उसे दूसरे घर की खिड़कियों से घर के अलग हिस्से दिखते थे। उन हिस्सों में रहने वाले अलग अलग तरह के लोग दिखते थे, जो जिंदगी, अलग अलग तरह से जी रहे थे। यह जिंदगी अक्सर ‘पाप‘ या ‘बुरी‘ कही जाती थी, इसलिए सबसे छुपा कर रखी गयी होती थी। यह छुपी या वर्जित या पापी जिदंगी, घर में एकांत पाने पर स्वतंत्र, नंगी और निर्भीक हो जाती। अपने कुछ देर मिले एकांत की स्वतंत्रता में लोग पूरी वहशत, तड़प और उत्तेजना के साथ इस जिंदगी को जीते। किसी भी दमन, अंकुश, ढाेंग, आडम्बर, उपदेश, पवित्रता, नैतिकता से मुक्त अपनी नंगी आत्मा के नंगे नाच की मस्ती में डूबे हुए, उसे आखरी बूंद तक निचोड़ने की कोशिश करते। उतना ही नग्न, उत्तेजित और उन्मादी नाच, जैसा मरघट पर ताजे नरमुंडों को पहन कर प्रेत करते हैं। बुढ़िया खिड़की से उनके नाच को देखती, जो कभी उसकी इच्छाओं, वासनाओं और अधूरी तृप्तियों में भी रहा था। अक्सर इससे अलग, बिल्कुल अलग, खिड़की से किसी की थक चुकी मृत्यु कामना, घनीभूत वीतराग, हताश, व्यर्थता बोध भी देखती, जो अब उसकी जिंदगी में भी शामिल हो रहा था। इन खिड़कियों में और इनके बाहर, मनुष्य जीवन, हजार पंखुड़ियों वाले फूल की तरह खिला, फैला दिखता। इसमें धूप में जम्हाई लेकर अपनी छातियों को संभालती उदास लड़की थी, रात भर की जागी, थकी, टूटी चप्पल घसीटती, अपनी अंधेरी कोठरियों को लौटती बीमार वेश्याएं थीं, घुटने के दर्द से पाँव सीधा खींच कर देवताओं की मूर्ति धोते हुए पुजारी की विलाप करती पागल औरत थी, ग्रहण के दोष से बचने की दुआ देते पीली आँखों वाले भिखारी थे, पानी के नल पर बदहवास भीड़ थी, जुड़ चुकी हड्डी से निकाल कर फेंका गया प्लास्टर था, चटका, थरथराता हुआ आलाप था, चिमनियों से निकला और नीचे को टपकते काले रेशों से भरा धुँआ था। इन खिड़कियों में बहुत कुछ ऐसा भी था जो बुढ़िया को आँखों से दिखता नहीं था, पर उसे अपनी देह की झुर्रियों पर और आत्मा की नमी में महसूस होता था। यह सब कई बार तो नाखून धँसा कर उसके अंदर झूलता हुआ होता था और कई बार जीभ निकाल कर उसे चाटता हुआ। ये पवित्र कामुकता थी, न चाहे गए भ्रूणों की बेचैनियाँ थीं, मृत्यु की आहट की अगवानी में गाए जाते उल्लास के गीत थे, धर्मगुरूओं की हिंसक कुटिलताएं थीं, घाव चाटता कुत्ता था, मरी हुयी गिलहरी थी। देर तक खिड़की पर खड़े रहने से बुढ़िया को लगता कि वह ऐसी तितली की तरह है जिसकी खोपड़ी पर लगातार हथौड़े पड़ रहे हैं या शायद एक काले फूल की तरह है जिसकी पंखुरियाँ बिखर रहीं हैं। बुढ़िया तब खिड़की से हट जाती। पलंग पर लेट कर 12 साल पहले खुद की बनायी, बड़े फूलों की कढ़ाई वाली कत्थई चादर से मुँह ढक कर स्मृतियों में चली जाती।
बूढ़ा जितना लाशों की दुर्गंध में रहने लगा था, बुढ़िया उतना ही स्मृतियों में रहने लगी थी। बुढ़िया जब चाहती सुख या दुख की फूँक मार कर अपनी धुँधलाती स्मृतियों को मशाल की तरह रोशन कर लेती। आँखें बंद करके उनकी चमक, उष्मा और आलोक के अंदर चली जाती। सर्दियों की कुहासे भरी सुबह के बाद, धूप की हल्की सेंक के सुख की तरह, स्मृतियों में रहने का सुख उसकी बूढ़ी हडि्डयों के हर रेशे में उतर जाता। बुढ़िया की यह अंतिम शरण थी।
स्मृतियों के झुंड में तीन स्मृतियाँ उसे सबसे अधिक सुख देती थीं। पहली, टूटे सितार बनाने वाले अपने पहले प्रेमी की, दूसरी, पार्क में बैठी कुत्ते से खेलती और ग्राहक का इंतजार करती वेश्या की, तीसरी, गाँव के एकांत में अकेले पगडंडी पर चलते हुए भुलाए जा चुके लेखक की। ये तीनों स्मृतियाँ टुकड़ों में थीं। अक्सर एक स्मृति में दूसरी स्मृति चली जाती थी। बुढ़िया ने इस पर कभी समय की धूल नहीं जमने दी थी, इसलिए वह इन्हें छाँट बीन कर, अलग करके सही जगह रख लेती थी। उसने इन्हें विस्मृति की थक्केदार काई से बचाए रखा था। आश्चर्यजनक रुप से उसकी किसी स्मृति में बूढ़ा नहीं था। उसके साथ बिताए क्षण नहीं थे।
पहली स्मृति उसके पहले प्रेम की थी, जो उसने अपने पके भुट्टे की ताजगी, चमक और गठन वाली देह से किया था, जो उस उम्र में, इसी काम के लिए बनी होती है। इसमेें उसके छोटे शहर के एक पुराने घर के हिस्से में बना पुराना कॉफी हाउस था। कॉफी हाउस के ऊपरी हिस्से पर जाती घुमावदार लकड़ी की संकरी टूटी सीढ़ियाँ थीं। इन सीढ़ियों के अंधेरे और सन्नाटे में, लिए और दिए गए सीलन भरे चुम्बन थे। जूक बॉक्स था। ‘यू आर द क्रीम इन माई कॉफी‘ की महक थी, गली के तीन गली बाद, बरगद के पीछे टूटे सितार बनाने की दुकान थी। उसके छोटे कमरे में रखे टूटे सितार थे, सितारों के तारों पर लिए और दिए गए, संगीत से भरे आरोही अवरोही चुम्बन थे...छोटा रेलवे स्टेशन था,,,,स्टेशन की सर्दियों की धूप में विदा थी।...प्रतीक्षा थी, मृत्यु थी। उसकी दूसरी स्मृति में पार्क था। बेंच पर ग्राहक के इंतजार में बैठी वेश्या, उसके पाँव के पास फेंकी हुयी रोटी खाता कुत्ता था...सांझ के झुरमुटे में पेड़ों की शाखों से खेतों के लिए उड़ते चमगादड़ थे। घास पर पतझर के सूखे, कत्थई पत्ते थे, अचानक रजस्वला होने वाली वेश्या की उदासी, चिंता और भूख थी। उसकी तीसरी स्मृति में गाँव था। गाँव की पगडंडियों पर धूल भरे ओवरकोट में लिपटी एक दुबली पतली काया थी। कच्ची सड़कों पर उसका पाँव घसीट कर चलना था। उसके हाथों में छड़ी, आँखों पर काला चश्मा और सर पर अंग्रेजों के जमाने का कत्थई हैट था। पाँव में मोजे, फीते वाले जूते और आँखों की धीरे धीरे कमजोर होती रोशनी थीे। मिट्टी में छड़ी की नोक घँसा कर टटोलते हुए गहरी सोच, उदासी और निराशा में चलती काया थी। भौंकते कुत्तों के झुँड थे। डर और घृणा से काँपती काया का जेब में भरे छोटे छोटे पत्थरों को मार कर उन्हें भगाना था, छड़ी की नोक से झपटने वाले कुत्ते को डराना था। ‘तुम कुत्तों से इतना डरते क्यों हो‘ बाँसुरी बनाने वाले का सवाल था। ‘क्योंकि कुत्तों में आत्मा नहीं होती‘ उसका फुसफुसाहट भरा उत्तर था। बाँसुरी बनाने वाले की हैरत थी। वह नही, पर बुढ़िया जानती थी कि बाँसुरी वाले को जिसने जवाब दिया है, दुनिया उसकी किताबे हैरत, उत्सुकता और डर से पढ़ती है, क्योंकि उसने जीवन भर आत्माओं के भ्रूण के साथ यात्रा की है।
...
बरिश अभी तक हो रही थी।
नीचे सड़क पर पानी भर गया था। कई तरह की गंदगी पानी पर तैर रही थी। बिजली के तारों पर बारिश की बूंदें लटकतीं और गिर जाती थीं। कुछ घरों और कुछ दुकानों की बत्तियाँ जल गयी थीं। उनके कमरे में अभी अंधेरा था। अंदर गिरते बाहर की रोशनियों के टुकड़ों में दोनों खिड़कियाँ दिख रही थीं। कमरे में रोशनी करने का बूढ़े का दिन था।
बुढ़िया ने आँखों के कोनों से देखा। बूढ़ा चौखट पर निश्िंचत बैठा था। जब घर लौटा था तो बारिश में पूरा भीगा हुआ था। दरवाजे पर ही उसने कपड़े, गीले जूते और मोजे उतार दिए थे। कमीज दरवाजे के पास लगी खूंटी पर लटका कर सीधा गुसलखाने में घुस गया था। वहाँ गीले कपड़े उतार कर बदन पोछ कर लौटा तो काँप रहा था। नए कपड़े पहन कर पलंग पर लेट गया था। लेटे हुए देर तक उसने गहरी साँसे ली थीं। बैचैनी में हाथ पैर पटके थे। कुर्ते के बटन खोल कर बिना बालों वाली छाती रगड़ी थी। बुढ़िया साथ के छोटे कमरे की चौखट पर खड़ी उसका नाटक देख रही थी। देखते हुए जब ऊब गयी तो उसकी तरफ पीठ करके खिड़की पर खड़ी हो गयी थी। हमेशा की तरह कुछ देर बाद सामान्य होकर बूढ़ा भी अपनी खिड़की पर आ गया था। हाथ में आधी बियर और आधा अनानास का रस मिला कर शैंडी बनायी और मग लेकर चौखट पर बैठ गया था। दोनों देर तक बारिश देखते रहे थे। अब अंधेरा हो चुका था, पर बूढ़ा उसी तरह बैठा था। बुढ़िया ने जब आँखों के कोनों से उसे देखा, तो बूढ़ा मुस्कराया, जैसे जानता था कि रोशनी न करने पर वह उसे जरूर देखेगी।
शायद वह चाहता था कि बुढ़िया उसे देखे। बुढ़िया से उसकी निगाह टकरायी। वह गहरी कुटिलता के साथ मुस्कराया। बाहर से अंगूर के गुच्छे की तरह गिरती रोशनी में उसकी स्लेटी, शैतानी आँखें, साँप की आँखों की तरह चमक रहीं थीं। उसका दूसरा हाथ जाँघों के बीच पड़ा था। उसकी आँखों में आसानी से भाँपी जा सकने वाली शैतानी खुशी थी। यह खुशी उसकी आँखों में तब दिखती थी, जब वह बुढ़िया को अंदर तक मर्माहत कर देना चाहता था। कोई बड़ा आघात या दुख देना चाहता था। उसे कुचल कर परास्त कर देना चाहता था। कोई ऐसा दुख, ऐसी पीड़ा देना चाहता था कि बुढ़िया चीख उठे और छिपकली की कटी हुयी दुम की तरह देर तक छटपटाती रहे। बुढ़िया को यह कष्ट भी वह अपमानित और ज़लील करके देना चाहता था। जब वह ऐसा करना चाहता था, उसके होठों पर बुढ़िया के लिए तुच्छता से भरी टेढ़ी हँसी खेलती थी। कामुक संकेत करते हुए वह जबान को होठों से बाहर अंदर निकालता था। कई बार छिपकली की तरह ज़बान लम्बी करके आँखों को चाटने का अभिनय करता था।
बुढ़िया ने जब आँखों के कोनों से उसे देखा, तो उसकी निगाहें बूढ़े की निगाहों से मिल गयीं। वह समझ गयी कि बूढ़े का इरादा और नीयत कुछ ऐसी ही करने की है या शायद उससे भी ज्यादा कोई ऐसा दुख देने की इच्छा है, जो पचपन सालों की साझा जिंदगी में उसने बुढ़िया को अभी तक नहीं दिया था। बुढ़िया सर्तक हो गयी। उसका दिमाग तेजी से सोचने लगा कि वह क्या कर सकता है? भाँपने के लिए बुढ़िया ने उसे फिर देखा। सुअर के थूथन की तरह उसकी नाक सूज गयी थी। शैंडी की बूँदों की चमक उसके होठों की लार पर टिकी थी। बुढ़िया घृणा से भर गयी। बूढ़े का इतनी कुत्सित, कामुक और ज़लील चेहरा उसने सिर्फ पचपन साल पहले देखा था, जब वह बेल्ट से छिपकली को मार रहा था। बूढ़े से नजरें हटा कर उसने घृणा से थूक दिया। अंगूर के गुच्छे वाली रोशनी में थूक की लाली चमकी। थूकने के बाद खून से सनी गाढ़ी लार बुढ़िया के होठों के कोनों पर चिपकी रह गयी। बाँह कपड़े से होठ रगड़ने के लिए उसने सर घुमाया। बूढ़ा चौखट पर नहीं था।
बुढ़िया वाली खिड़की फिर कभी नहीं खुली। बाहर से देखने पर अब वह बूढ़े की खिड़की की चौखट पर बैठी दिखती थी।
मृत्यु, अकेलापन, पराजय, निराशा, गरीबी, रोग, असुरक्षा, निर्वासन, भय के अंधेरों से जिंदगी भरने लगती है। पता नहीं आत्मा के किस हिस्से में इतनी जगह निकल आती है जहाँ यह सब समाता चला जाता है। कौन सा पुराना हिस्सा अपनी जगह छोड़ कर इन नयी चीजों के लिए जगह बनाता है? क्या वे पुराने विश्वास, आस्थाएं, राग, मोह, लक्ष्य, स्वप्न, संकल्प होते हैं, जो धीरे धीरे अपनी जड़ों से उखड़ने लगते हैं और इन दुख भरे आत्मालापों को जगह देते हैं? कुछ नहीं है, से ज्यादा बड़ा सच कुछ नहीं है, यह आत्मबोध, आत्मज्ञान सबको नहीं होता, या शायद उम्र के आखरी हिस्से में होता भी है, तो लोग इसे समझ नहीं पाते। ईश्वर या आँसू या मृत्यु की प्रतीक्षा, उन्हें साँस लेते रहने के लिए उकसाती है। वे सिर्फ इसलिए जीवित रहते हैं क्योंकि मर नहीं सकते। वे जानते नहीं कि मरा कैसे जाए, उसी तरह, जिस तरह यह कभी नहीं जान पाए कि जिया कैसे जाए? ये लोग नही जानते कि जो वे जी रहे हैं, जिसे जीवन कह रहे हैं, वह क्या है?
कुछ खिड़कियां आत्मा में अंदर की तरफ खुलती हैं। इन खिड़कियों से दिखने वाली दुनिया अपनी आत्मा की दुनिया होती है। इन खिड़कियों पर लटके बूढ़े—बुढ़िया हर जीवन का भविष्य हैं। अपने इस निश्चित या वास्तविक भविष्य तक कौन, कब और कैसे पहुँचेगा, किन रास्तों से पहुँचेगा, कोई नहीं जानता। वह कुछ और नहीं कर सकता सिवाय इसके, कि अपने एकान्त, आत्मनिर्वासन और एकाकीपन में, इन खिड़कियों पर खड़े हो कर, अपनी आत्मा में जो गुजर गया वह, और जो गुजर रहा है, उसे देखे, और शांति, धैर्य और साहस के साथ अपने अंत की प्रतीक्षा करे।
प्रियंवद
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