बुआजी के फ्रैक्चर का इलाज
आर० के० लाल
उस दिन रश्मि बुआजी बाथरूम में फिसल कर गिर गई थी जिससे उनका पैर फ्रैक्चर हो गया था । उनके बेटे सुधीर ने उन्हें लाद-फांद कर शहर के एक नामी नर्सिंग होम में भर्ती करा दिया था। एक्सरे देखकर डॉक्टर ने बताया, “बुआजी के पैर की टिबिया और फिबुला दोनों हड्डियाँ टूट गई हैं । इनकी उम्र ज्यादा है, प्लास्टर लगाने पर बहुत समय लगेगा, इसलिए सर्जरी करना ही ठीक रहेगा। एक हफ्ते में मैं चला दूंगा”। अस्पताल में पड़ी पड़ी बुआजी रोये जा रहीं थी , “बड़ी मुसीबत हो गई है, भगवान ने टांग तोड़ कर बिस्तर पर लिटा दिया है। अब मेरी कौन देखभाल करेगा, कौन पानी देगा? महीनों चारपाई पर ही लैट्रिन , पेशाब सब कुछ करना पड़ेगा। पता नहीं मेरे किन कर्मों की सजा मुझे मिली है”।
फूफा जी भी वहीं बैठे थे। बुयाजी काफी झगड़ालू थी इसलिए दोनों में कम पटती थी। वे बुआजी से कह रहे थे , “अब तुम आराम करो, तुमने जीवन में बहुत काम कर लिया है। वैसे भी तुम्हारा सारा काम बेमतलब वाला ही होता है। तुम तो अपनी बहू सुधा को भी स्वतन्त्रता पूर्वक काम नहीं करने देती हो। हर बात में टीका टिप्पणी करती हो। वह बेचारी तुम्हारे डर से काँपती रहती है जिससे वह खाने में प्रायः दो दफे नमक डाल देती है। अब तुम अस्पताल में दस पंद्रह दिन रहोगी तो उसको भी सुकून मिलेगा। तुम एक सास का पूरा अधिकार चाहती हो परंतु अधिकार उसे दिया जाता है जो अपने कर्तव्य को अच्छी तरह निभाना जानती हो। पहले तुम्हें अपने परिवार को भली प्रकार समझने की जरूरत है”।
यह सुनकर बुआजी रोने लगीं और बोलीं, “मुझे पता नहीं था कि आप सबको मैं इतनी बुरी लगती हूं, मैं तो सबकी सहायता करती थी पर उसका प्रतिफल आप लोग मुझे नकारा कहकर दे रहे हैं । सही ही कहा गया है कि हवन करते हाथ जलते हैं। आप सब लोगों को मेरी तीमारदारी करने और अस्पताल आने की जरूररत नहीं है। मैं सब बर्दाश्त कर लूँगी”। सुधा ने बीच बचाव किया, “पापाजी! यह अस्पताल है और बुआ जी दुर्घटनाग्रस्त हैं, उन्हें दर्द हो रहा होगा। आपको तो ऐसे समय में उनका मनोबल बढ़ाना चाहिए मगर उल्टे आप उन पर तंज कस रहे हैं। देखिए बेचारी कैसे उदास हो गई हैं । तभी कमरे में एक डॉक्टर के आ जाने पर सब चुप हो गए। रश्मि का चेहरा पीला पड़ गया था उन्हें बहुत दर्द हो रहा था। डॉक्टर ने उन्हें एक इंजेक्शन लगवा कर सो जाने को कहा।
दूसरे दिन जिसे भी पता चल रहा था वह भागा-भागा अस्पताल आ रहा था। बुआजी भी सभी के सुख दुख में शामिल होती थी और सबके घर की सारी गतिविधियों की खबर रखती थी। उनके पास सभी की पूरी कुंडली होती थी। बुआजी में गजब का धैर्य था, जब लोग पूछते थे कि दीदी यह सब कैसे हो गया तो वे अपना सारा दर्द भूल जाती और अपनी पूरी कहानी बिस्तार से बताती कि कैसे वह बाथरूम में फिसल गई, फिर कैसे अपने आप उठ कर कमरे तक पहुंची। बाद में पैर पूरा सूज गया था और वे फिर उठ नहीं सकीं। वे अपने पैर के एक्सरे को सभी को दिखाती, और पूरी एनाटॉमी समझाती जैसे वे स्वयं एक डॉक्टर हों। फिर वे सभी को उस अस्पताल के मालिक डॉक्टर शर्मा की पूरी हिस्ट्री बताती। कहती कि बहुत नाम है डॉक्टर शर्मा का। जर्मनी से डॉक्टरी किया है । डॉक्टर शर्मा मेरे बेटे धीरज के परिचित हैं इसलिए मुझे कोई चिंता नहीं है, हाँ अस्पताल बहुत महंगा है । मैं तो मना कर रही थी मगर धीरज के पापा ही नहीं माने। जबर्दस्ती ए० सी० रूम ले लिया। रोज चार हज़ार लगेंगे। ऑपरेशन और दवा के लाखों का बिल आयेगा। फिर भी मेरा कितना ख्याल रखते हैं धीरज के पापा । मुझे कुछ होता है तो उनकी जान ही निकल जाती है। फूफाजी यह सब सुनकर महसूस कर रहे थे कि जिस औरत को वे हमेशा खरी-खोटी सुनाते रहते हैं वह सबके सामने मेरी कितनी तारीफ कर रही है। उसी समय फूफाजी भी निश्चय कर लिया कि आगे से वे बुआजी को कुछ नहीं कहेंगे और एक सच्चे पति की भूमिका निभाएंगे जैसा उन्होंने शादी करते समय बचन दिया था।
सब जानते थे कि रश्मि बुआजी बहुत शेख़ी मारती हैं मगर उनकी बात काटने का किसी में साहस ही नहीं होता था क्योंकि वे बोलाना बंद ही नहीं करती तो दूसरा कैसे कुछ कह पाता । कहने लगीं, “डॉक्टर शर्मा तो मुझसे पैसा ही नहीं मांग रहे थे मगर उनका मुंशी बहुत कमीना है तुरंत एडवांस का लंबा-चौड़ा बिल दे गया। तब तक डॉक्टर शर्मा चले गए थे वरना मैं उनसे खुद बात करती कि यह क्या लूट मचा रखी है। जान पहचान का भी लिहाज नहीं रखते”। रश्मि के पास एक मेडिक्लेम भी था लेकिन उस अस्पताल में उसके लिए कोई कैशलेस व्यवस्था नहीं थी । बिल कम कराने के चक्कर में दो दिन निकाल गए थे। मुंशीजी ने बताया कि बड़े डॉक्टर बहुत बिजी हैं, आप लोग उनसे खुद बात कर लीजिए ताकि माताजी का ऑपरेशन निर्धारित किया जा सके। सब ने बारी-बारी से डॉक्टर शर्मा के मोबाइल ट्राई किए मगर वे उपलब्ध नहीं हुये ।
फूफा जी ने भी एक दो लोगों से सिफ़ारिश करवाई मगर काम नहीं बना। संयोग से सुधीर की मुलाकात डॉक्टर शर्मा से हो गई। फीस के बारे में बात करने पर डॉक्टर ने दस हज़ार रुपये कम कर दिये। सुधीर उनके इस अहसान के तले दब सा गया। फिर डॉक्टर ने पूछा, “तुम्हारे मम्मी के लिए कौन सा इंटरामेडुल्लरी नेलिंग अर्थात कौन सा रॉड लगाए जाए? स्टेनलेस स्टील अथवा प्लेटिनम ? प्लेटिनम थोड़ा महंगा अठारह हजार का है”। सुधीर ने कहा, “आप जैसा उचित समझे । वैसे सबसे अच्छा वाला ही लगाना चाहिए । रश्मि जी सभी को यह बात बड़े गर्व के साथ बता रही थी तभी उनकी पड़ोसन ने समझाया कि डॉक्टर ने कैसे उनकी फीस में दस हजार रुपये कम तो कर दिये मगर अठारह हजार जोड़ दिये। बिल कम करने के चक्कर में दो दिन फालतू बिता दिये वरना दूसरे दिन ही ऑपरेशन हो जाता। बुआजी भी समझ गयी थी कि कोई बिजनेसमैन बेमतलब कुछ नहीं छोड़ता । किसी तरह अगले दिन सुबह पाँच बजे ऑपरेशन तय हो पाया। उसमें भी डॉक्टर ने खूब इंतज़ार कराया। बताया गया कि डॉक्टर अभी नहीं आए हैं, फिर एक दो सिरियस मरीजों को निपटाया गया। धीरज ऑपरेशन थिएटर के बाहर डरता हुआ खड़ा था और बुआजी उसे समझा रहीं थी “मनुष्य सोचता है कि वह अपनी बुद्धि और शक्ति से सब कुछ हासिल कर सकता है, लेकिन अनेक अवसरों में वह अपने आपको एक बौने की तरह अनुभव करता है। उन्होंने कहा कि सुख दुख देना सब ईश्वर के हाथ में है”। लगभग एक बजे ऑपरेशन सफलता पूर्वक खत्म हुआ। बुआजी ने बताया कि उन्हें बेहोश नहीं किया गया था और वे सब कुछ देख रहीं थी । सब उनकी हिम्मत की तारीफ कर रहे थे।
लेटे-लेटे बुआजी दिन भर विजिटिंग टाइम की प्रतीक्षा करती रहती थी । उन्हें अपनी सहेली अनुराधा का इंतजार था जो अस्पताल में उसके पाँच दिन बीत जाने के बावजूद नहीं आई थी । वे भूली नहीं थी कि एक बार जब उनका एबार्सन हो गया था तो उन्होंने उनको अपना खून तक दिया था। अगर बीमारी में ऐसा व्यक्ति देखने न आए तो हड्डी टूटने से ज्यादा पीड़ा होती है। उन्हें अनुराधा पर इतना गुस्सा आ रहा था कि रात में उनका ब्लड प्रेसर काफी बढ़ गया था। बुआजी ने तय किया कि आगे से वे ऐसे मतलबी लोगों से कोई रिश्ता नहीं रखेंगी।
एक रात बगल वाले कमरे से एक महिला सोनाली के कहारने की आवाज आ रही थी। पता चला कि उनकी अपनी बहू से रोज लड़ाई-झगड़ा होता था इसलिए वे अपने बेटे के साथ अपनी बेटी के ससुराल जा रहीं थी कि हाईवे पर उनकी बस का एक्सीडेंट हो गया। उसने अपने बेटे को तो बचा लिया लेकिन उनके दोनों हाथ टूट गए थे। उनके कमरे में कोई तीमारदार नहीं है । उनको लोग नर्स के भरोसे छोड़ कर चले गए थे। बुआजी ने सुधा को भेज कर उनकी मदद करवाई। दूसरे दिन शाम को उनकी बहू अस्पताल आई तो सुधा से बोली, “इन्होंने आपको भी परेशान किया। बुढ़िया मर जाती तो अच्छा होता” । फिर वह सुधा से कहने लगी कि मैं देखती हूं कि तुम्हारी सास तुम्हें यहाँ भी डांटती रहती हैं। मेरी सास मेरे साथ रहती हैं मगर मैं उनकी बोलती बंद रखती हूँ। तुम्हारी सास तुम्हारे साथ रहती हैं तब तो तुम्हारा जीना हराम कर देती होंगी। सुधा ने तुरंत उत्तर दिया, “ पहली बात - मेरी सास मेरे साथ नहीं रहती बल्कि मैं उनके साथ रहती हूँ। दोनों में बड़ा अंतर है। दूसरी बात – जब ये मुझे डांटती हैं तो मुझे लगता है कि मैं उनकी बेटी हूं। शादी के समय मुझे कुछ नहीं आता था। इनकी डांट का ही परिणाम है कि आज मैं सब कुछ कर पाती हूं, बच्चों को पढ़ा पाती हूं और नौकरी भी करती हूं” । बुआजी उन दोनों की बातें सुन रहीं थी। उन्हें सुधा के प्रति अपने व्यवहार पर शर्म आयी। उन्होंने आगे से उसे कुछ न कहने की कसम खाई।
बुआजी ने सोनाली की बहू से प्यार से पूछा, “तुम्हारी सास तो बहुत अच्छी हैं फिर उनसे इतना नफरत क्यों? क्या वे तुम्हें मारती या गाली देती हैं”? उसने कहा नहीं, “बस मुझे वे अच्छी नहीं लगती इसलिए मैं चाहती हूं कि वे हमारे साथ न रहें”। बुआजी ने उसे समझाया कि शायद उनकी बदौलत ही तुम्हारे पति एक्सीडेंट में बच गए वरना उस बस के पाँच आदमियों की मृत्यु हो गई थी । सोचो तुम्हारी सास तुम्हारे लिए कितनी लकी हैं। अगर तुम प्यार से रहोगी तो तुम्हारे बच्चों की देखभाल भी वो करेंगी। उसे अपनी गल्तियाँ रियलाइज हुईं । उसने तुरंत अपनी सास से माफी मांगी , उन्हें साथ रखने को भी तैयार हो गयी।
दस दिन बुआजी ने अस्पताल के सभी नर्सों, मरीजों और करामचरियों से इतना मधुर संबंध बना लिया था कि जब वे डिस्चार्ज हो रहीं थी तो सभी उन्हें बिदा करने वहाँ खड़े थे। घर वालों को आश्चर्य हो रहा था कि अस्पताल में रह कर वे स्वयं इतना कैसे बदल गईं और फूफाजी, सोनाली और उसकी बहू के जीवन की लाइफ स्टाइल को कैसे बदल दिया ।
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