सीता: एक नारी
॥पंचम सर्ग॥
संतप्त मन, हिय दाह पूरित, नीर लोचन में लिए
मुझको विपिन में छोड़कर लक्ष्मण बिलखते चल दिए
निर्लिप्त, संज्ञा शून्य, आगे लड़खड़ाते वे बढ़े
उठते नहीं थे पाँव, रथ पर अति कठिनता से चढ़े
रक्षार्थ खींचा था, गमन करते हुए, रेखा कभी
पर छोड़ असुरक्षित मुझे वे विपिन में, लौटे अभी
लेकिन नहीं दुर्भावना मन में उठी उनके लिए
थे कर्मचारी राज्य के दायित्व निज पूरा किए
निर्दोष थी मैं, सत्य यह थे राम, लक्ष्मण जानते
पर कर्मचारी तो सदा विधि राज्य का ही मानते
भाषा नियम की, राज्यकर्मी सर्वदा ही बोलते
हर सत्य को केवल विधानों पर सदा हैं तोलते
होता नहीं है मूल्य कोई व्यक्तिगत संज्ञान का
उनके लिए तो सत्य होता मान्य, लेख विधान का
भेजा गया अनुसार विधि ही अवध के मुझको यहाँ
कुल-गुरु तथा ऋषि, मुनि किसी ने भी उन्हें रोका कहाँ
मैं अग्नि में उतरी परीक्षा हेतु लेकिन बच गई
पर आज तो मेरी परीक्षा ही यहाँ स्वाहा हुई
मैं सच नहीं इस राज्य में अपना प्रमाणित कर सकी
देकर परीक्षा भी नहीं संतुष्टि मन में भर सकी
कोशल जनों के हृदय में शंका सघन पोषित हुई
इस रूढ़िवादी तंत्र में निर्दोष, निष्कासित हुई
मैं बंदिनी बन दुर्ग में लंकेश के जीती रही
बस राम के अस्तित्व-रक्षा हेतु विष पीती रही
यदि मर गई होती वहाँ तो नष्ट होते राम भी
होता बचा रावण, प्रताड़ित हो रहे होते सभी
करता दशानन मानवों पर नित्य अत्याचार ही
होता मचा इस अवनि पर सर्वत्र हाहाकार ही
यदि तज दिया होता वहीं पर वाटिका में गात को
जो सह सकी होती नहीं उस क्रूरतम संघात को
उत्साह खंडित हो गया होता, न जो रहती सिया
होते पराजित युद्ध से पहले, अगर मरती प्रिया
वापस अयोध्या जा न पाते राम तो सिय के बिना
पुरुषार्थ होता क्षीण करते मृत्यु की बस कामना
वे मुँह दिखा पाते कहीं भी तो नहीं इस लोक में
फिर त्याग देते प्राण अपना डूबकर अति शोक में
मैं किन्तु दुःख अपमान सारा ही वहाँ सहती रही
श्रीराम के पुरुषार्थ-रक्षा हेतु नित मरती रही
उस राम ने ही प्राण को मेरे विदा है कर दिया
निज प्रेयसी-अर्धांगिनी को कष्ट से है भर दिया
इस विपिन में है वरण करने मृत्यु का भेजा मुझे
आते समय क्षण-मात्र को भी था नहीं देखा मुझे
लेकिन नहीं स्वच्छन्द मैं हूँ आज मरने के लिए
जीना पड़ेगा, गर्भ में जो पल रहा उसके लिए
जीती रही है माँ यहाँ संतान के आभास से
उत्पन्न करती है उसे अपने हृदय की प्यास से
बनना पिता इस जगत में आमोद का बस वरण है
माँ के लिए तो किन्तु यह अस्तित्व-स्थानांतरण है
सह कर असह्य पीड़ा सदा देती जनम संतान को
रक्षार्थ उसके वार देती गात औ’ निज प्रान को
निज दुग्ध से है पालती, वह सींचती है अश्रु से
जीवन मरण का प्रश्न भी करता नहीं विचलित उसे
मातृत्व की उत्कट सदा नारी हृदय में कामना
बस हेतु संतति ही सदा करती सकल वह साधना
होता पुरुष भी है दुखी उसको न हो संतान जो
पर मीन सी नारी तड़पती बन सके माता न जो
सौंदर्य सारा नारि का संतान के आधान से
रहता सुवासित वाह्य-अंतर गर्भ के उद्यान से
मुख दीप्त रहता सतत नव अनुभूति के आलोक से
आभा उतर आती दृगों में दिव्य ज्यों परलोक से
बन रक्त बहती है रगों में, धड़कती वह प्रान में
विस्तार लेता सूक्ष्म उसका एक नव परिधान में
जननी रही रत हेतु संतति के सकल उत्थान के
है डोर नैसर्गिक जगत में मध्य माँ-संतान के
निज प्राण से भी अधिक वह संतान को है चाहती
हर कष्ट उसका ईश से अपने लिए है माँगती
संतान का किंचित नहीं वह देख सकती दुःख कभी
भगवान से हठ ठानती, उपवास, व्रत करती सभी
श्रीराम के तो पास परिजन और सारा राज्य है
मेरे लिए बस पुत्र ही मेरा सकल साम्राज्य है
निर्माण में वे रत रहें आदर्श कोशल राज्य के
वन में गढूँगी पुत्र मैं जो रूढ़ियों को तज सके
हे भूत प्रेत पिशाच सरिसृप! याचना मेरी सुनो
हिंसक सभी प्राणी विपिन के, प्रार्थना मेरी सुनो
याचक बनी है आज सीता, तुम दया उस पर करो
दो दान जीवन का मुझे, कुछ देर तक धीरज धरो
उपरांत अपने प्रसव के तन सौंप दूँगी मैं तुझे
करना क्षुधा तुम शांत अपना, भक्ष कर उस पल मुझे
अवधेश की संतान मेरे गर्भ में है पल रही
गर्भस्थ शिशु को मारने सा पाप है दूजा नहीं
निज पुत्र की रक्षा किसी भी भाँति, मेरा कर्म है
भावी अवध-सम्राट की रक्षा तुम्हारा धर्म है
देना पड़ेगा आज भिक्षा, है घिरा संकट महा
निर्दोष दण्डित पुत्र मेरे गर्भ में है पल रहा
मैं जन्म से दुखिया रही हूँ कष्ट हर पल भोगती
वनवास, कारावास फिर परित्याग की यह दुर्गती
अति शक्तिशाली पति मिला मैं किन्तु दुःख सहती रही
उबरी अहिल्या किन्तु सिय-उद्धार कर पाए नहीं
सब रीछ वानर साथ लड़ जीते महासंग्राम को
सौंपा मुझे था बिन किसी आरोप के श्रीराम को
संदेह के घन हृदय पर उनके तनिक छाए नहीं
स्वीकार मुझको अवध के जन किन्तु कर पाए नहीं
करते अवध-जन रूढ़िवादी सोच की अभिव्यंजना
वनचर तथा पशु-पक्षियों से हीन है संवेदना
हत्या हुई है आज मानव-मूल्य की इस तंत्र में
आदर्श शासन देखते पर राम तो जनतंत्र में
था फट पड़ा आकाश, पैरों के तले खिसकी धरा
अपमान के संताप से हिय, प्राण था मेरा भरा
मस्तक टिकाकर भूमि पर मैं देर तक रोती रही
गुरु वेदना के भार से मैं चेतना खोती रही
ऊपर उठाया भाल, मैंने एक आहट जब सुनी
उज्जवल वसन में सामने देखा खड़े कोई मुनी
थे केश सारे धवल, लोचन में अलौकिक दीप्ति थी
रुद्राक्ष माला कंठ में, मुख पर झलकती तृप्ति थी
कुछ शिष्य भी थे साथ उनके जो तनिक पीछे खड़े
थी आम्र लकड़ी हाथ में, ज्यों यज्ञ करने थे बढ़े
ऋषि का अलौकिक तेज लख कर दण्डवत मैंने किया
“संताप, दुःख से मुक्त हो!” आशीष यह ऋषि ने दिया
पुत्री! नहीं हो विपिन में तुम अपितु निज आगार में
वाल्मीकि आश्रम हर्ष से प्रस्तुत सिया सत्कार में
आश्रय यहाँ मिलता दुःखी पीड़ित जनों को भी सदा
तुम तो सुता हो जनक की, इस भूमि की सुख-संपदा
तप दुःख निवारण हेतु होता जो उसी का अर्थ है
आत्माभिमुख हो की गयी सारी तपस्या व्यर्थ है
सच्चे तपस्वी को विनत सेवार्थ रहना चाहिए
संताप दुःख पीड़ित जनों का दूर करने के लिए
राजा, प्रजा लाभान्वित हों गहन अंतर्ज्ञान से
आश्रम तभी चलते यहाँ सब राज्य के अनुदान से
कारण तुम्हारी वेदना का शेष अब कोई नहीं
चिंता तथा भय का नहीं अस्तित्व आश्रम में कहीं
मैं जानकी के आत्मबल, तप, तेजबल से भिज्ञ हूँ
निर्दोषिता से भी सुता! बिल्कुल नहीं अनभिज्ञ हूँ
संपूर्ण लंका मात्र सिय संस्पर्श से स्वाहा हुई
मारा गया लंकेश भी, थे प्राप्त जिसको वर कई
तुम पूर्णतः निर्दोष हो, हैं राम भी दोषी नहीं
यह भ्रष्ट सामाजिक व्यवस्था कष्ट का कारण रही
तेजस्विता से हैं तुम्हारे अवध जन परिचित नहीं
वनवास के कारण, वहाँ थोड़े समय तक ही रही
भ्रम वश अयोध्या-जन गहन संदेह आरोपित किए
सत्कर्म सारे कम पड़ेंगे पाप धोने के लिए
वंचित रहेंगे अवधजन सीता-कृपा से सर्वथा
वातावरण दूषित अयोध्या का नहीं सिय योग्य था
रत साधना में अति कठिन ही अनवरत श्रीराम हैं
किंचित नहीं सुख भोग, उनका राज्य पालन काम है
वनवास की पहले तपस्या, आज राजा-धर्म की
मन तप्त, पर अवहेलना करते नहीं निज कर्म की
कोशल महल तो राज्य कर्मी, परिजनों से है भरा
सिय के बिना निर्जन लगे पर राम को अम्बर, धरा
कर्तव्य से बँधकर हृदय में ही दबाए प्रीति को
अति वेदना सहकर निभाए राम रघुकुल-रीति को
सुत मोह था, पर तात ने भी धर्म का पालन किया
फिर त्याग कर निज प्राण, अपने प्रेम का परिचय दिया
जब नीति आकर प्रीति के सम्मुख खड़ी होती कभी
है श्रेष्ठ चुनना नीति को, कहतीं यही श्रुतियाँ सभी
हैं रो रहे श्रीराम उनका हृदय दुःख से फट रहा
अनुमान करना कठिन, जो हिय मध्य उनके घट रहा
साकार तो हैं राम पर क्रन्दन नहीं साकार है
हिय-रक्त बहता नेत्र से, उसका कहाँ आकार है
हो राम की पूरी तपस्या, दुःख तुम्हारा दूर हो
विजयी बने फिर सत, असत सबके हृदय का चूर हो
कोशल जनो को एक दिन अपराध निज स्वीकार हो
होगा उचित उस काल तक तुम अवध से बाहर रहो
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