सीता: एक नारी - 4 Pratap Narayan Singh द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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सीता: एक नारी - 4

सीता: एक नारी

॥चतुर्थ सर्ग॥

सहकर थपेड़े अंधड़ों के अनगिनत रहता खड़ा
खंडित न होता काल से, बल प्रेम में होता बड़ा

पहले मिलन पर प्रीति की जो अंकुरित थी वह लता-
लहरा उठी पा विपिन में सानिघ्य-जल की प्रचुरता

सिंचित हुई संपृक्त दोनों के हृदय-अनुभूति से
बढ़ने लगी थी नित्य-प्रति लगकर मृदुल उर-भीति से

लेकिन प्रदाहित वात से थी समय के मुरझा गई
पहले हरण फिर सति-परीक्षा, नित्य विपदाएँ नई

विच्छोह के बीते दिवस, हिय-गात अपने फिर मिले
अनुकूलता पाकर पुनः उसमें नए पल्लव खिले

फिर प्रस्फुटित होकर कली थी एक मुस्काने लगी
अनुपम, अलौकिक गंध से तन-प्राण महकाने लगी

आयाम यह बिल्कुल नया मेरे लिए व्यक्तित्व का
था कल्पना से भी परे अहसास वह मातृत्व का

आनंद का सागर हिलोरें मारने उर में लगा
प्रभु-प्रेम का शशि था झुका; सुख-ज्वार था उठने लगा

अंतस्थ, वहिरत राम ही, मैं राम-मय थी हो गई
फिर पल्लवित होने लगीं हिय मध्य इच्छाएँ कई

सानिध्य का ऋषि, मुनिजनों के; प्रकृति के संस्पर्श का
पाना शुभाशीर्वाद निज संतान के उत्कर्ष का

यद्यपि प्रथम मैं चाहती थी तातश्री के साथ ही-
जाना जनकपुर, राम के अभिषेक के उपरांत ही

वे पुष्करिणियाँ, वाटिकाएँ, खेलती जिनमें कभी
चलचित्र सी स्मृति पटल पर उभर आई थीं सभी

अमराइयों में भ्रमण की थी चाह मन में उठ रही
यात्रा जनकपुर की वृहद, थी उस समय संभव नहीं

मातृत्व सुख के साथ ही पितृत्व सुख होता जुड़ा
संतान का मुख देखने को व्यग्र नर होता बड़ा

पति-प्रेम की ऐसे समय में सहज बढ़ती तीव्रता
हर कामना अर्धांगिनी की पूर्ण करना चाहता

फिर राम तो थे श्रेष्ठतम नर; एक पत्नी व्रत लिया
उत्पन्न होने से प्रथम हर चाह को पूरी किया

देना तथा पाना यही तो नियम है संसार का
है माँग औ’ आपूर्ति ही आधार हर परिवार का

हर्षित हृदय था, वन-भ्रमण की माँग जो स्वीकृत हुई
मन में प्रकृति-सौंदर्य की गतिमान स्मृतियाँ कई

वैसे भला क्या कामना हो शेष, श्रीहरि-संधि में
है कामना का ज्वार उठता न्यूनता के अब्धि में

वे सकल जग के कामहर्ता, स्नेहमय, सम्पूर्ण हैं
संस्पर्श से ही मात्र जिनके जीव होता पूर्ण है

प्रस्तुत हुए फिर एक दिन सौमित्र उन्मन मन लिए
मुख म्लान, आभा-मुक्त, चिंतित भाल, मुख नीचा किए

तद्यपि सघन उद्विग्नता के बीच दर्शित हास था
राज्यनुशासित , स्वर्ण-मुद्रित हास जो उनका न था

उल्लेख कर दोहद हमारे भ्रमण का ऋषि-धाम की
अवगत कराए वन-गमन की स्वीकृति से श्रीराम की

मैं पूर्ण होते देख अपनी बहु-प्रतीक्षित कामना-
हर्षित हुई, मन व्योम पर उतरा शरद का चंद्रमा

मुनियों तथा गुरुकुल-जनों को भेंट के सुविचार से
बहु वस्त्र, आभूषण, सरस फल, रथ भरा उपहार से

उत्ताल उच्छल हिय-सरोवर, हर्ष से होने लगा
फिर मन वहाँ की कल्पनाओं में विविध खोने लगा

शास्त्रार्थ, वार्ता औ’ कथा, अत्यन्त रुचिकर गान भी
समवेत स्वर में सांध्यवंदनरत वहाँ ऋषि, मुनि सभी

खगवृन्द के कलरव मधुरतम श्रव्य होंगे मध्य वन
अभिसंचरित होगा नवल आनंद मन में अति सघन

सुषमा प्रकृति की, वन्य जीवन की सरलता मोहती
कल कल प्रवाहित सरित की उन्मुक्तता अति सोहती

बहु रंग के खिलते सुमन पर मधुर गुंजन भ्रमर का
तरुपर्ण से छनती मही पर शुभ्र उज्जवल चन्द्रिका

यद्यपि भ्रमण-सुख अधिकतम होता पिया के संग ही
लेकिन प्रजापालन-नियम देता उन्हें अनुमति नहीं

थी हो चुकीं तैयारियां सब पूर्ण जाने के लिए
अति उल्लसित थी मैं नवल आनंद पाने के लिए

लक्ष्मण प्रतीक्षारत खड़े, अनुपस्थिति थी राम की
छवि साथ लेकर, चाहती जाना, नयन अभिराम की

है रुद्ध कर देती सदा लोकेषणा, कामेषणा
अब तो प्रजा का कार्य ही उनके लिए सबसे बड़ा

संभव नहीं अति देर तक था राह उनकी देखना
वन भ्रमण के उपरांत संध्या तक मुझे था लौटना

अब तो मुझे अविलम्ब ही प्रस्थान करना चाहिए
सौमित्र, रथ औ’ सारथी कब से खड़े मेरे लिए

पर आज लक्ष्मण का हृदय क्यों दीखता अति क्लांत है
मुख मलिन, ऐसा लग रहा भय से किसी आक्रांत है

हैं आज वे प्रस्थान को प्रस्तुत नहीं, यूँ लग रहा
अतिशय शिथिल, ज्यों भार उन पर आ पड़ा कोई महा

हैं किन्तु वे तैयार, होगा भ्रमित मेरा चित्त ही
हर कार्य होता लखन का सिय-राम-हर्ष निमित्त ही
चौदह बरस श्रीराम की सेवा तपस्या सी रही
पर आज तक आलस्य किंचित भी दिखाया था नहीं

हैं आज भी तैयार वे तो, देर मैं ही कर रही
थी दर्शनों के राम की इच्छा हृदय में भर रही

अब और ना हो देर, मैं रथ की तरफ बढ़ने लगी
तब चक्षु बाईं फड़क कर इंगित विषम करने लगी

क्यों अपशकुन सा हो रहा, ज्यों कुछ कहीं प्रतिकूल हो
मैं जा रही सत्कार्य में; हे देव सब अनुकूल हो !

जब साथ हों सौमित्र ही तब अपशकुन कैसा भला
है शक्तिशाली इस धरा पर कौन उन जैसा भला

मारुति, गरुण, गजराज का बल सामने टिकता नहीं
बलवीर कोई लखन सा त्रैलोक्य में दिखता नहीं

तप-तेज उनका, कौन है जग में, नहीं जो जानता

अति कोप को उनके सकल ब्रह्माण्ड ही है मानता

यह भ्रान्ति ही होगी, कदाचित मन नहीं कुछ स्वस्थ है
जलवायु अब प्राचीर का करता मुझे अस्वस्थ है

चौदह बरस तक झोपड़ी औ' वृक्ष ही आवास था
उन्मुक्तता का प्रकृति की अब हो गया अभ्यास था

उस वायु के अनुकूल ही था गात मेरा हो गया
कोशल नगर का अब मुझे वातावरण लगता नया

आश्वस्त होकर चल पड़ी भरकर नए उत्साह से
अति उल्लसित मन हो रहा था वन भ्रमण की चाह से

था किन्तु अब भी लग रहा कि लखन हैं कुछ अनमने
थी चक्षु में निरपेक्षता, कुछ भाव मुख पर थे घने

शीतल समीरण बह रहा था सुरभि को भर अंग में
चहुँ ओर शोभित हो रहे थे सुमन दल बहु रंग में

मोहक बहुत तरु-शाख पर समवेत खग का चहकना
संज्ञान में पर थी नहीं, उनके प्रकृति-अभिव्यंजना

मैं जानती थी रोष उनका, और परिचित हास था
देखी हुई थी गर्जना, अज्ञात कब परिहास था

झुँझला उठे थे, शब्द कटु आघात जब मेरे किए
वन में कहा था राम के रक्षार्थ जाने के लिए

थी ज्ञात लक्ष्मण की मुझे तो शिष्टता, शालीनता
पर आज से पहले कभी लक्षित न थी यह मलिनता

मरघट बना मुख, मृत्यु जैसी शांति उस पर पल रही
ज्यों भावनाओं की निरन्तर अर्थियाँ हों जल रही

था दिवस के पूर्वान्ह तक भागीरथी तट आ गया
उस पार विस्तृत अति सघन वन हृदय को हर्षा गया

पावन मनोरम विपुल जल था सामने लहरा रहा
रथ से उतर हम मात-वंदन के लिए पहुँचे वहाँ

सौमित्र जब जल-पान करने को हुए तट पर खड़े
कुछ अश्रु-जल कातर नयन से गंग जल में चू पड़े

मेरे हृदय में एक शंका तड़ित सी तत्क्षण झरी
है बात क्या, जो लखन जैसे वीर की आँखें भरीं
क्या भेद है इस मौन का, यह दुःख उन्हें किसने दिया
वह कौन सा है घात जिसने लखन को विचलित किया

कोई कहीं दुःख तो नहीं श्रीराम पर है आ पड़ा
या राज्य पर मंडरा रहा कोई कहीं संकट बड़ा

हिय में खड़े थे फन उठाए व्याल शंका के नए
पर मौन ही छाया रहा, हम पार गंगा कर गए

तट पर उतर सौमित्र के मुख ओर जब की दृष्टि थी
था म्लान मुख, अविरल दृगों से अश्रुजल की वृष्टि थी

मुख दीप्त रहता सूर्य सा, क्यों आज इतना क्लांत है
हैं उभर आये स्वेद कण औ’ कँपकँपाता गात है

अति दग्ध दिखता है हृदय, व्याकुल बहुत ही चित्त है
हा! रो रहे हैं लखन, यह पीड़ा नहीं अनिमित्त है

पड़ने लगा तन शिथिल, सब उत्साह था खोने लगा
अज्ञात भय से हृदय मेरा ग्रस्त था होने लगा

कुछ तो हुआ है घटित ऐसा ज्ञात जो मुझको नहीं
क्या नियति तो फिर से नहीं है जाल कोई बुन रही

हे लखन भ्राता! कुछ कहो क्यों हो व्यथित, क्या बात है
जो ध्वंस हिय का कर रहा वह कौन सा आघात है

जो शूल सी है चुभ रही, वह कौन सी है वेदना
है कष्ट आखिर कौन सा जो अश्रु कारण बना

हे वत्स कह दो सत्य क्या है, शपथ तुमको राम की
संकट घिरा अब कौन सा, अनभिज्ञ जिससे जानकी

तुमको शपथ माता सुमित्रा की तथा कुलदेव की
कारण कहो क्या है तुम्हारे चित्त के दुःख-मेरु की

मेरे वचन सुन, नयन उनके मेह से झरने लगे
धरकर चरण रुँधते गले से निज व्यथा कहने लगे

"हे मात! मैं हूँ विवश वह अपराध करने के लिए
सौ सौ नरक भी कम पड़ेंगे पाप हरने के लिए

है जानकर सेवक मुझे यह कार्य राजा ने दिया
सम्पूर्ण मेरे जन्म भर के सुकृत का है क्षय किया

होगा उल्लंघन राज-आज्ञा का, न जो पूरा करूँ
औ जो करूँ, जन्मान्तरों तक नर्क में जलता मरुँ

हिय वेदना से भर रहा, मेरे लिए यह दुःख बड़ा
ज्यों विष रगों में उतरता, यह मृत्यु जैसी यंत्रणा

है रोक सकती मृत्यु ही अब तो मुझे इस कार्य से
करना वरण ही काल का है श्रेष्ठ तो दुष्कार्य से

पर मृत्यु भी मुझ से नराधम को सहज आती कहाँ
जलता रहूँगा उम्र भर पापाग्नि में मैं तो यहाँ

मैं हूँ विवश अति आज ढ़ोने के लिए इस पाप को
आज्ञा मिली है लौट जाऊँ छोड़ कर मैं आप को

साम्राज्य की सीमा परे, वनवास करने के लिए

चिरकाल तक वन में अकेले ही विचरने के लिए

लोकापवादों से हुआ अवधेश का मन ग्रस्त है

कोशल-जनों की रूढ़ियों से हृदय उनका त्रस्त है

हैं बाध्य कोशल-नीतियों का मान रखने के लिए

अतिशय विवश हैं आपका परित्याग करने के लिए

जो मेघ था उर पर घिरा वह फूटकर झरने लगा
मन, प्राण में अति दग्ध, तापित ज्वाल सा भरने लगा

मैं दे चुकी थी सति-परीक्षा सकल जग के सामने
स्वीकार मुझको कर लिया था उस समय श्रीराम ने

क्या अब नहीं पर्याप्त वह निर्दोष होने के लिए
भेजी गई वन, कौन सा अब पाप धोने के लिए

क्या राम के मन में कहीं संशय अभी भी पल रहा
संदेह की बड़वाग्नि में क्या हृदय उनका जल रहा

हैं प्राण-प्रिय पतिदेव, मैं अर्धांग उनको मानती

पर आज ऐसा लग रहा किंचित नहीं मैं जानती

यदि राम के मन को कुटिल संदेह ने था धर लिया
आधान निज संतान का फिर क्यों भला मुझमें किया

कारण अभी तक था बना क्या रुप, अंगीकार का
क्या क्षेत्र लोभी राम हैं? क्या क्षय हुआ आचार का?

दे दी मुझे अनुमति नहीं क्यों युद्ध के उपरांत ही
मै जल मरी होती परीक्षा-अग्नि में वन-प्रान्त ही

जिस गात को परिजन तथा पति मानते अपवित्र हैं
जीवित रहे वह गात, अब कोई नहीं औचित्य है

नित धर्म साधन हेतु ही इस देह का बस अर्थ है
हो धर्म च्युत जो जगत में अस्तित्व उसका व्यर्थ है

पुनि पुनि मिलेगा गात लेकिन धर्म फिर मिलता नहीं
है कीर्ति अति कोमल, मिटा देता तनिक आघात ही

दुर्दांत रावण भी जिसे बल से न खंडित कर सका

क्षण मात्र को भी लोभ, भय हिय पर नहीं पग धर सका

व्यक्तित्व ही सम्पूर्ण, निज पति ने कलंकित कर दिया

संदेह की ज्वाला, अखण्ड सतीत्व पर है धर दिया

सौमित्र! तुम निर्दोष हो, है क्षुद्र मेरा भाग्य ही
सम्राट पति मुझको मिला, फिर भी भिखारिन ही रही

अब मोह जीवन, जगत का मुझमे न किंचित शेष है
मेरे लिए दूषित हुआ संसार का परिवेश है

कैसे तजूँ, संतान को पर, देह में जो पल रहा
यदि साथ लेकर मर गई तो पाप यह होगा महा

यह जन्म से ही पूर्व मेरे साथ निष्कासित हुआ
वनवास को है विवश, क्या अपराध आरोपित हुआ

दण्डित हुआ है भ्रूण, कैसा राम का यह न्याय है
निष्पाप, स्व-वंशी प्रजा को दण्ड!..अति अन्याय है

लक्ष्मण खड़े उद्विग्न, अविरल अश्रु-जल था बह रहा
करते हुए संयत उखड़ती साँस को, मुझसे कहा-

हे मात! यह है पति, पिता श्रीराम का निर्णय नहीं
हैं आप तो निर्दोष बिल्कुल, मानते हैं वे यही

जन-मान्यता प्रेरक बनी, इस घृणित कुत्सित काम की
यह नीति-गत है विवशता "अवधेश राजा राम" की

आचार्य गण की नीतियाँ, जन मान्य के ही मत तथा
इस राज्य में आधार बनते निर्णयों के सर्वथा

अतिशय व्यथित हैं राम इस जनमत-जनित आदेश से
सिय पर नहीं संदेह किंचित, मन भरा है क्लेश से
श्रीराम का निर्णय कभी निज मोह, भय, उद्वेग से-
होता नहीं किंचित प्रभावित भावना के वेग से

केवल प्रजा औ’ राज्य का रहता भला है मूल में
है व्यथित अति उनका हृदय ज्यों बिद्ध कोटिक शूल में

सामान्य जन के बीच ही हर बात पहले जन्मती
छतनार बरगद के सदृश फिर मान्य जन तक फैलती

श्रीराम का वनवास दासी बुद्धि ने ही था जना
जो अंततः सम्राट के देहांत का कारण बना
थी सति-परीक्षा पुरजनो ने अवध के देखी नहीं
अब नीतियों पर राज्य के नित उँगलियाँ हैं उठ रहीं

सर्वत्र चर्चा का विषय यह बन रहा कुविचार है-
श्रीराम ने बस मोहवश सिय को किया स्वीकार है

हैं बाध्य प्रभु, जन-मान्यता का मान रखने के लिए
निज प्राणघाती, विवश थे, आदेश करने के लिए

लक्ष्मण-वचन से राम के प्रति रोष कुछ तो कम हुआ
लेकिन अकारण दण्ड पाने का न दुःख मद्धम हुआ

हे लखन ! क्या नारी बनी दुःख भोगने को ही सदा
अपमान, आँसू, कष्ट क्या उसकी यही है संपदा

करता अपहरण एक, रखता दुसह कारावास में
फिर नीति की ले आड़ दूजा है डुबाता त्रास में

मारा गया रावण, उचित था दण्ड यह उसके लिए
अपराध मेरा कौन सा, वनवास यह जिसके लिए

कारण प्रमाणित कर सकोगे किस तरह वनवास का
यह पृष्ठ कालिख से पुता रघुवंश के इतिहास का

था राक्षसों के बीच रावण ने रखा मुझको वहाँ
पर आज तो भेजा गया है मध्य पशुओं के, यहाँ

क्या यह अयोध्यावासियों की है नहीं अति क्रूरता?
फिर किस तरह है भिन्न असुरों से यहाँ की सभ्यता

होगा यही आदर्श क्या अब राम के इस राज्य का
इस कर्म से ही फलित होगा भाग्य क्या साम्राज्य का

लोकाभिमुख शासन व्यवस्था की विचित्र विडम्बना
जड़मति यहाँ, मेरे दुखद वनवास का कारण बना

शासन व्यवस्था मात्र बदली है अभी इस राज में
रहते वही हैं रूढ़िवादी लोग वृद्ध-समाज में

शासन बदलने मात्र से यह राज्य बदलेगा नहीं
मिलता रहेगा राम-सिय को तो यहाँ वनवास ही

जब तक बदलता है नहीं हिय आम जनता का यहाँ
नव-राज्य की श्रीराम के फिर स्थापना होगी कहाँ

अब लौट जाओ, पूर्ण राज्यादेश तुमने कर लिया
औ’ भोगने दो भाग्य ने मेरे लिए जो तय किया

जीवित रहूँगी मैं यहाँ हर कष्ट का कर सामना
रक्षार्थ अब संतान के करनी पड़ेगी साधना

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