बलि का बकरा Annada patni द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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बलि का बकरा

बलि का बकरा

अन्नदा पाटनी

समारोह समाप्त होते ही, सभागृह से निकलने की सभी को उतावली थी । तभी एक सज्जन सामने आ कर खड़े हो गए । " मैं कब से आपसे बात करना चाह रहा था पर आप तक पहुँच ही नहीं पाया। अब अवसर मिला तो सोचा दर्शन तो कर लूँ ।"

लतिका के पिता बड़े प्रतिष्ठित लेखक थे और जो सज्जन सामने आ खड़े हुए थे उनकी गिनती भी वरिष्ठ लेखकों में थी । लतिका के पिताजी ने परिचय करवाया, "लतिका ये शुभेंदु हैं, बहुत अच्छा लिखते हैं और अनेक लोकप्रिय पत्रिकाओं के संपादक भी रह चुके हैं । शुभेंदु, यह मेरी बेटी है लतिका ।"

"अरे वाह ! बड़ा प्यारा नाम है बिल्कुल लवंग लतिका मिठाई सा मीठा । मैं पहले कभी इनसे मिला नहीं ।"

लतिका के पिता ने कहा ," यह यहाँ नहीं रहती, बड़ौदा में रहती है अपने पति और दो बच्चों के साथ ।"

" ओह तभी ।" कह कर शुभेंदु ने हाथ जोड़ कर विदा ली ।

लतिका ने देखा कि शुभेंदु के बाल भले ही सफ़ेद हो गए थे परन्तु देखने में लंबे,ग़ौर वर्ण और काफ़ी मोहक लगे ।

कई साल गुज़र गए । इस बीच लतिका के पिता का देहांत हो गया । पति भी रिटायर हो गए तो लतिका भी दिल्ली आ कर सैटल हो गई । चालीस वर्ष दिल्ली से बाहर रहने के कारण लतिका कम लोगों को जान पाई । सांस्कृतिक और साहित्यिक कार्यक्रम देखने सुनने का अवसर तो बाबूजी के साथ चला गया ।

उस दिन दोपहर को फ़ोन की घंटी बजी । लतिका ने रिसीवर उठाया तो उधर से आवाज़ आई ," क्या हो रहा है ? " लतिका समझ ही नहीं पाई कौन है जो इतने अनौपचारिक ढंग से बात कर रहा है । तभी उधर से हँसने की आवाज़ आई ,"अरे शुभेंदु बोल रहा हूँ । आशा है अच्छी होंगी । ऐसा है कल एक समारोह का आयोजन कर रहा हूँ कॉंस्टीट्यूशन क्लब में । तुम्हें आना है और ज़रूर आना है । तुम्हें लेने आऊँ या गाड़ी भेजूँ ?"

"नहीं नहीं । उसकी ज़रूरत नहीं है । " लतिका ने कहा । फ़ोन रखते ही लतिका ख़ुशी से उछल पड़ी कि इतना बड़ा लेखक इतने आग्रह से उसे आमंत्रित कर रहा है । पति भी ख़ुशी -ख़ुशी राज़ी हो गए चलने को ।

कार्यक्रम बहुत सुंदर रहा । शुभेंदु ने लतिका से सबका परिचय कराया। साथ खाने का आग्रह किया । फिर उसने और उसके पति ने धन्यवाद देकर उनसे विदा ली । तब भी पूछते रहे ,"गाड़ी तो है न, या छुड़वाऊँ।"

घर आकर बहुत देर तक लतिका और उसके पति यही बात करते रहे कि शुभेंदु ने कितना ध्यान रखा और पूरे समय साथ-साथ रहे । अगले दिन सुबह शुभेंदु का फ़ोन आया , कल बहुत अच्छा लगा , तुम आईं । यह बताओ कुछ लिखती भी हो क्या ?"

लतिका बोली," कुछ ख़ास नहीं, बस यूँही ।"

यूहीं क्या , लिखो । मैं तुम्हें मार्गदर्शन दे सकता हूँ । संकोच मत करो । अच्छा मैं कल तुम्हारे यहाँ लंच पर आ जाता हूँ । पूरा दिन चर्चा करेंगे कि तुम्हें लेखन के क्षेत्र में कैसे आगे बढ़ना है । यह मेरा ज़िम्मा रहेगा तुम्हें ज़माने का ।"

फिर तो रोज़ फ़ोन और घर पर आना जाना । लतिका ने देखा कि शुभेंदु कभी प्रशंसा में पीठ थपथपा देते या फिर उसका हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाते रहते । पहले लतिका को यह सहज लगा पर कुछ समय बाद उसे यह महसूस होने लगा कि शुभेंदु उसे स्पर्श करने का बहाना ढूँढते रहते हैं । सोफ़े पर भी बैठते तो उसे पास बैठा लेते कि लिखने की बारीकियाँ समझने के लिए पास बैठना ज़रूरी है ।

लतिका को यह सब बहुत अटपटा लग रहा था पर पति से भी कैसे कहे और उम्र में बड़े, इतने प्रसिद्ध लेखक के चरित्र पर शंका प्रकट करे । उल्टे कहीं उसी को नहीं सुनना पड़ जाय कि कैसी गंदी सोच है उसकी । कई बार उसके पति शुभेंदु की प्रशंसा करते हुए कहते भी कि देखो कैसे तुम्हें प्रोत्साहित करते हैं, इतने बड़े लेखक हैं पर घमंड तक नहीं है । लतिका चुप रह जाती।

किसी प्रकार का विरोध न होते देख शुभेंदु की हिम्मत और बढ़ गई । एक दिन न जाने क्या लतिका के मन में आया कि वह शुभेंदु के घर पहुँच गई । शुभेंदु कहीं गए हुए थे अत: उनकी पत्नी से मिलना हुआ । बड़ी सीधी सादी सी . माथे पर बड़ी सी बिंदी और सूती साड़ी पहने हुए । उनकी पत्नी बात तो कर रहीं थीं पर उनकी आँखों में एक अकुलाहट और जिज्ञासा थी। वह लतिका को ऊपर से नीचे तक निहारे जा रहीं थीं जैसे कह रहीं हों ,"अच्छा अब तुम्हारी बारी है बलि का बकरा बनने की ।" तभी शुभेंदु आ गए । लतिका को देख कर सकपका गए, बोले," अरे तुम यहाँ क्यों आ गईं ।" इस से पहले वह कुछ और कहते उनकी पत्नी मुस्कराने लगीं । लतिका तपाक से उठी, जाने के लिए । शुभेंदु बोले," रुको मैं छोड़ देता हूँ तुम्हें । "

लतिका ने दृढ़ता से कहा," नहीं ,मैं चली जाऊँगी ।" फिर उनकी पत्नी की ओर मुड़ी और दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार किया, फिर उनकी आँखों में आँखें डाल दी मानो उन्हें आश्वस्त कर रही हो कि ,"मैं बलि का बकरा नहीं बनने वाली ।"

*****