भारतीय लोक कथा- लाल बुझक्कड़ के कारनामें
लेखक : राजनारायण बोहरे
बहुत पुरानी बात है, एक गाँव था बुद्धूपुरा। बुद्धूपुरा के निवासी बड़े बेवकफल और झगड़ालू स्वभाव के थे। गाँव में एक भी पाठशाला नहीं थी, इसीलिये गाँव का कोई भी बच्चा पढ़ना ही नहीं चाहता था। बुद्धूपुरा दूर-दूर तक बदनाम था। बाहर के किसी भी गाँव से बाहर नहीं निकलते थे। इस कारण वे कूप-मंडूक यानि कि ’’कम जानकारी वाले’’ बनकर रह गये थे।
बुद्धूपुरा गाँव में सबसे बुद्धिमान लालचंद नाम के एक पंडित माने जाते थे। इसके कई कारण थे। एक तो यह कारण था कि लालचंद एकबार बचपन में अपने गाँव से बाहर हो आये थे, और दूसरा कारण यह था कि वे तुरन्त कविता लिख लेने में बड़े माहिर थे। तीसरा कारण यह था कि वे पहेली कि वे पहेली पूंछने के बड़े शौकीन थे। गाँव वालों का यह मानना था कि पंडित लालचंद के पास हर पहेली का हल है। गाँव की कोई भी समस्या होती, लोग सीधे लालचंद पंडित के पास जा पहुंचते, लालचंद समस्या को बिना बुद्धि लगाये जानने की कोशिश करते और हर बात का जबाब कविता में देते। उनको हर बात के पहले एक पंक्ति गाने की आदत थी-
’’लाल बुझक्कड़ बूझ के और न बूझो कोय’’
पहेलियाँ और समस्याओं को बूझ लेने में विशेषज्ञान रखने के कारण गाँव के लोग उन्हें लालबुझक्कड़ के नाम से ही बुलाने लगे थे। लालबुझक्कड़ नाम सुनके पंडित लालचंद नाराज न होकर खुश ही होते थे।
एक बार की बात है, रात को बुद्धूपुरा गाँव के लोग गहरी नींद में सो रहे थे, कि पास के जंगल से भटका हुआ एक हाथी बुद्धूपुरा गाँव में घुस आया। गाँव की गलियों में रास्ता भूल गया और देर तक घूमता रहा, फिर किसी तरह गाँव के बाहर गया। हाथी जैसा भारी-भरकम जानवर गाँव की कच्ची गलियों के लिये तो पहाड़ जैसा ही था, उसने जहां-जहां पांव रखी वहां वहां की जमीन नीचे धंस गयी, और वहां थाली जैसे गोल-गोल गड्डे बन गये। सुबह जब गाँव वाले जागे, तो वे इन गड्डो को देखकर बड़े हैरान हुए। गाँव के सब लोग आनन-फानन में वहाँ इक्ट्ठे हो गये और अपनी-अपनी कल्पनायें करने लगे कि ये निशान कैसे पड़े होंगे ? किसी ने कहा कि इस गाँव में कोई बहुत बड़ा संकट आने वाला है, और उसी संकट के ये निशान हैं। यह सुनकर वहाँ मौजूद सब लोग डर गये। वे सब घबरा के लालबुझक्कड़ के पास आये और सारी स्थिति कह सुनायी।
लालबुझक्कड़ बड़े गम्भीर हो गये, फिर वे बड़ी तेज गति से उठे और गाँव की उस गली की ओर चल पड़े, जहाँ वे निशान देखे गये थे। उनके पीछे-पीछे गांव के लोगों का झुंड भी चल पड़ा था।
लालबुझक्कड़ ने पहले वे सब निशान गिने, फिर उन्हें नापा और एकदम से प्रसन्न हो उठे। उन्होंने गाँव वालों को विश्वास दिलाया कि उनके ऊपर किसी तरह का कोई संकट नहीं आया है, वे निश्ंिचत रहे। उन गड्डों के बारें में लालबुझक्कड़ ने जो अनुमान लगाया, वह उन्होंने एक कविता के रूप में गाँव वालों को कह सुनाया-
’’लाल बुझक्कड़ बूझ के और न बूझो कोय’’।
पांव मे चक्की बांध के, हिरना कूदा होय।।
अर्थात् इस समस्याकी जानकारी लालबुझक्कड़ ने बूझ ली, समझ ली है, और दूसरा इस समस्या को नहीं जान सकता। कल रात जंगल का कोई हिरन अपने पाँवों में आटा पीसने वाली पत्थरकी पाट बांध के इस गली से कूदता हुआ निकल गया है, उन्हीं पाटों के ये निशान बने हैं।
यह सुनकर, बिना सोचे-विचारें सब गाँव वाले, हमेशा की तरह संतुष्ट होकर अपने-अपने घर लौट गये।
उसी दिन शाम को वह भटका हुआ हाथी, दुबारा उसी गाँव की ओर लौट आया। दूर से देखकर गाँव वाले चौंके, क्योंकि इसके पहले किसी आदमी ने हाथी जैसा अजीब और विशाल जानवर देखा ही न था, वे तो बस गाय-बैल और भैंस को ही पहचानतें थे। सो गाँव वाले डर गये और कुछ लोग दौड़कर लालबुझक्कड़ को बुलाने जा पहुँचे।
लालबुझक्कड़ ने आकर देखा कि एक काला-कलूटा पहाड़ जैसा जंतु हिलता-डुलता सीधा चला आ रहा है, वे दौड़कर एक मकान की छत पर चढ़ गये और दूसरों से भी किसी ऊँची जगह चढ़ जाने को कहा। हाथी सीधा चलता हुआ गाँव के बाहर चला गया, तो लालबुझक्कड़ नीचे उतर आये। गाँव वाले उनके चारों ओर सिमट आये और उस काले-पहाड़ के बारे में पूंछने लगे। गंभीर होते हुये लालबुझक्कड़ ने तुरन्त ही एक कविता बनायी व गाँव वालों को सुनाने लगे-
’’लाल बुझक्कड़ बूझ के और न बूझो कोय’’।
या तो रात इक्ट्ठी हो गयी, या फिर झाँसी वाला होय।।
अर्थात् इस समस्या को अब लालबुझक्कड़ ने समझ लिया है, और किसी से पूंछने की जरूरत नहीं है। यह जो काला-काला पहाड़ सा है, यह तो अमावस्या की रात का काला अंधेरा एक जगह इक्ट्ठा हो कर आ गया है, या फिर यह झाँसी में देखा गया वह विचित्र जानवर है, जो मैंने बचपन में देखा था।
एक बार की बात है, बुद्धूपुरा के पटैल यानि ग्राम प्रधान के यहाँ कोई उत्सव था। पटैल की दालान में एक व्यक्ति बच्चों को शक्कर के मीठे बताशे बांट रहा था। दालान में खूब भीड़ थी।
बांटने वाला बड़ा परेशान था। दालान के बीचों-बीच एक मोटा खंभा गढ़ा हुआ था। एक शरारती बच्चे ने ज्यादा बताशा लेने के लालच में खुद को खंभे के पीछे छिपा लिया और खंभे के दोनों ओर से अपने दांये-बांये हाथ निकालकर फैला दिये। बच्चों की भीड़ में बताशा बांटने वाला शरारत नहीं समझ पाा और उसने एक-एक मुटठू बताशा उस शरारती बच्चे के दोनों हाथों में रख दिये। छोटी-छोटी हथेलियां ज्यादा बताशें न संभल सकी। बताशे फैलने लगे तो बच्चे ने जल्दी से दोनों हाथ मिला कर अंजुली बना ली। उसके बताशे फैलने से बच गये। लेकिन अब वह अपने हाथ अलग करने से डर रहा था कि बताशे गिर न जाये, इसलिये वह वहीं खड़ा रह गया। कुछदेर बाद सारी भीढ़ चली गयी, सूने दालान में एक वही शरारती बच्चा खंभे को लपेटे खड़ा रह गया था।
लोगों का ध्यान उसकी तरफ गया तो कुछ लोग उसके पास आये। बच्चे ने हाथ अलग-अलग करने में असमर्थता बतायी तो गांव वाले ये समझे कि इसके हाथ चिपक गये हैं। पूरे गाँव में हड़कम्प मच गया। लोग लालबुझक्कड़ के पास दौड़े गये और बच्चे से संबंधित मामला होने के कारण वे भी भागते हुये चलेे आये।
लालबुझक्कड़ ने बच्चे के चारों ओर घूमकर बच्चे का निरीक्षण किया फिर बताश बांटने वाले व्यक्ति को एक लम्बी डांट पिलायी। इस समस्या के हल के लिये उन्हें जो तरकीब समझ में आयी, उसे एक कविता के रूप में उन्होंने गाँव वालों को सुनाया-
’’लाल बुझक्कड़ बूझ के और न बूझो कोय’’ ।
या तो छप्पर पलटो, या फिर हाथ कटैया होय।।
अर्थात् लालबुझक्कड़ के बूझ लेने के बाद और कोई इस समस्या को नहीं बूझ सकता। अब तो इस समस्या से निटने के दो ही रास्ते हैं- या तो इस दालान का छप्पर हटा दिया जाये, या फिर कुल्हाड़ी से इस बच्चे के हाथ काट दिये जाये।
हाथ काटने की बात सुनकर बच्चे ने बताशे का लालच छोड़ा, और झट से अपने दोनों हाथ अलग-अलग कर लिये। बताशे बिखर गये और वह बच्चा खंभे से दूर छिटकते हुये छलांग लगाकर बाहर भागता चला गया। बच्चे को वहाँ से सकुशल जाता देखकर गांव वाले एक बार फिर लालबुझक्कड़ का लोहा मान गये, और उसकी तारीफ करने लगे।
गाँव-गाँव जाकर घरेलू सामान बेचने वाले छोटे दुकानदारों की एक टोली एक बार बुद्धूपुरा के पास से निकली। दूसरे लोगों की तरह वे भी गांव के बाहर से होते हुये आगे बढ़ रहे थे कि एक दुकानदार का पांव फिसल गया। उसका सामान नीचे गिरा और यहां वहां फैल गया। वह आदमी रसोई के काम आने वाला सामान बेचता था। उसने अपना सामान समेटा और जल्दबाजी में वहाँ से चल पड़ा। जल्दी के कारण उेस यह ध्यान नहीं रहा कि वह एक ओर ढड़क गयी आटा छानने की छलनी को भी उठा ले। छलनी वहीं पड़ी रह गयी।
अगले दिन बुद्धूपुरा का चरवाहा वहाँ से निकला तो सूरज की रोशनी में चमकती हुयी उस छलनी को देखा वह उसके पास चला गया। फिर उसने अपने हाथ में लिये लम्बे बांस पर वह छलनी टांगी और उसे लटकाये हुये ही गांव ले आया। चौपाल पर उसने वह बांस गाड़ दिया और दूर खड़ा होकर छलनी देखने लगा। कुछ ही देर में गाँव के तमाम लोग वहाँ आकर खड़े हो गये। किसी आदमी ने इसके पहले छलनी नहीं देखी थी, इस कारण वे समझ नहीं पा रहे थे कि चमकती हुयी यह गोल-गोल छेंददार चीज क्या है ?
हर बार की तरह लालबुझक्कड़ को बुलाया गया, तो उनने पूरी गंभीरता से छलनी का निरीक्षण किया, फिर वे जमीन पर लेट कर छलनी को प्रणाम करने लगे।
लोगों ने पूंछा तो उन्होंने एक बार फिर उस छलनी को प्रणाम किया और तुरन्त ही एक कविता बना ली, गाँव वालों को वह कविता सुनाते हुये वे बोले-
’’लाल बुझक्कड़ बूझ के और न बूझो कोय’’।
घुन लागा है चंदा मंे, सो वो टपको होय।।
अर्थात् लालबुझक्कड़ के बूझ लेने के बाद कोई दूसरा ये बात नहीं बूझ सकता, पुराने चन्द्रमा में घुन लग गया था, सो वह टपक कर गिरा है, अब ईश्वर ने नया चन्द्रमा आसमान में टांग दिया है।
बुद्धूपुरा के बुद्धूओं ने लालबुझक्कड़ की बात सही मान कर छलनी को प्रणाम किया और बरसों तक उस छलनी को चन्द्रमा समझ के पूजते रहे।
-------