अड़ोस-पड़ोस
छवि निगम
नाइट बल्ब की रहस्यमयी रौशनी कमरे में पसरी हुई थी। मच्छरों का ऑर्केस्ट्रा बीथोवन से होड़ ले रहा था। 20 साल 2 महीने 2 दिन की उमर का मैं यानि के दीपक, अपना सबसे पसंदीदा टाइमपास...यानि के सपना देख रहा था। इस वक़्त ...काले रंग की हार्ले डेविडसन पर सवार मैं बदमाशों का पीछा कर रहा था। ऊंची-ऊंची इमारतों के बीच...टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में...गोलीबारी की "शांये...बूम..धांय-धांय..भड़ाम"... और जेम्स बॉन्ड के तरण्टें ...गूँज रही थी। मेरे पीछे बैठी हसीना के हवा में लहराते बाल मेरे चेहरे से टकरा रहे थे। तभी एक तीखे मोड़ पर मेरी बाइक लहराई। जोर-से मेरे कंधे झिंझोड़ते हुए वो हसीना बुदबुदाई " ...…"अबे...उठ न !!"
उसके सख़्त मर्दाने लहज़े पर मैं चौंक पड़ा " अं..क्या हुआ डार्लिंग ??"
तभी मेरे सर पर जोरदार चपत पड़ी, और पापा के गुर्राने की आवाज़ भी आई " कौन डार्लिंग ...कैसी डार्लिंग, हैं ? नालायक, जब देखो, पड़ा-पड़ा ऊटपटांग सपने देखा करता है। अब उठता है कि नहीं ?"
आँखे मिचमिचाते हुए मैंने घड़ी की तरफ देखा और मिनमिनाया " क्या पापा ! अब रात के दो बजे बंदा सोये भी नहीं क्या ?"
उन्होंने बेदर्दी से हाथ खींचकर मुझे उठा दिया, और मच्छरदानी के 2 मोटे-मोटे डंडे पकड़ाते हुए बोले " ठीक आधा घन्टा हुआ होगा उस...निरंजन को सोये...चल जल्दी से चालू हो जा "
मेरा मन तो हुआ इस डंडे को झंडा बनाकर...इस तानाशाही के ख़िलाफ़ इंकलाब छेड़ दूँ, लेकिन फिर पॉकेटमनी का ख़्याल आ गया। अपने सपने को होल्ड पर रखकर...कसमसाते हुए मैं उठा...और पापा के कमरे की तरफ़ चल दिया। अब मुझे उन डंडों से छत को पूरी ताकत से तब तक ठकठकाना था, जब तक ऊपर से कुछ चुनिंदा गालियां न सुनाई पड़ने लगे। मैं जुट गया। कमरे में ठक्क-ठाक्क-ठक्क-ठाक्क की आवाज़ें गूंजने लगीं।पीछे से पापा किसी सेनापति की तरह मेरा हौसला बढ़ा रहे थे " हाँ शाब्बाश दीपू...और जोर से...क्या रोटी नहीं खाई आज हचकके , हैं ? कंधे अकड़ न रहे होते तो उस कम्बख़्त निरंजन की नींद हराम करने के लिये मैं ख़ुद ही काफ़ी था...बड़ा आया रात डेढ़ बजे तक धम्म-धम्मम करके मुझे परेशान करने के बाद अब चैन से सोने वाला... हुंह.…"
कोई आधे धंटे ऊपर गुस्से भरा शोरशराबा शुरू हुआ, और नीचे हमारा मिशन निरंजन नेसनाबूद खत्म हुआ। अब बॉलकनी से निरंजन अंकल की "देख लूंगा ...पुलिस बुलाऊँगा... आर्मी भी...छोड़ूँगा नहीं...." की चिल्लमचिल्ली जारी थी।उबासी लेते हुए मैंने पापा की तरफ़ देखा। अपने बेतरतीब खिचड़ी बालों को चश्मे से परे करते हुए....नीले-सफेद धारियों वाला नाईटसूट का एक बटन गलत लगाये हुए... जल्दबाजी में बस एक चप्पल पहने हुए पापा के चेहरे पर किसी शैतान बच्चे जैसी-ही ख़ुशी थी। मेरी पीठ थपथपाकर वो लेटने चले गए।
अपने कमरे में आकर मैंने भी वापस उसी सपने में जाने की कोशिश की...पर वो हसीना तो गधे के सर से सींग की तरह गायब हो चुकी थी। ऊबकर मैं बैठ गया, और पापा की निरंजन अंकल से जानी दुश्मनी के बारे में सोचने लगा। 10 मंजिला इस अपार्टमेंट में हम 9th फ्लोर पर आराम से रहते आये थे। लेकिन कोई 6 महीने पहले जबसे निरंजन अंकल सपरिवार हमारे ऊपर यानि 10th फ्लोर पर रहने आये, तब से सबकुछ बदल गया था। "मिले सुर मेरा तुम्हारा.." वाली शांतिपूर्ण स्थिति अब "टॉम एंड जैरी" की सिचुएशन में बदल चुकी थी....
रात गहरा रही थी, लेकिन ऊपर की खटर-पटर अभी-भी जारी थी। शुक्र है कि पापा के खर्राटे सुनाई देने लगे थे। वरना क्या भरोसा, वो फिर आकर मुझे झिंझोड़ने लगते " अबे दीपू, उठ न नालायक ! ज़रा दीवार से कान चिपकाकर सुन तो...क्या खुसुर-पुसुर चल रही है ऊपर ?" गोया कि मेरे कान...कान न हों...बल्कि वो फीमेल मॉडल्स हों जिन्हें जब चाहो शेविंग ब्लेड के विज्ञापन पर चेंप दो...जब चाहे किसी नामाकूल गोरेपन की क्रीम पर ।
वैसे एकाध बार तो वाक़ई मैंने भी किसी सीक्रेट एजेंट की तरह ये काम किया भी था। " अं पापा...अंकल कुछ सेंसर्ड बातों के अलावा...आपके स्कूटर के टायर में कील घुसाने की चिल्ला रहे...शायद " , मैंने बताया ,और फिर पापा को निरंजन अंकल की ईगो से लेकर उनके बीन बैग तक को पंक्चर करने की हर योजना बनाते सुनता रहा था। उनकी साँसे तेज चल रही थीं...मुट्ठियाँ कसी हुई थीं...और चेहरा लाल हो आया था। तब भी मैंने यही सोचा था, और अभी भी लेटे-लेटे वही सोच रहा था। पापा को हो क्या गया है ? पहले तो ऐसे बिल्कुल नहीं थे वो। इस अपार्टमेंट के बेताज बादशाह थे वो, और मेहमाननवाज़ी में तो मम्मी से भी 4 कदम आगे। कभी-कभी तो मुझे ऊब होने लग जाती " दीपू बेटा... ये मंगौड़े चड्डा साहब के यहाँ दे आ...और गाजर का हलुआ दीक्षित के यहाँ...और हाँ, 5th फ्लोर वाली मीना जी की तबियत भी पूछते आना , अच्छा ?"
कितने ख़ुश थे हम सब...कि बड़े वक़्त बाद ऊपर किरायेदार रहने आ रहे हैं। अब रौनक बढ़ जाएगी। हाथों में नमकीन-बिस्किट की प्लेट और चाय का थर्मस टांगे हुये मम्मी, पापा और मैं तपाक से उनसे मिलने पहुँच गये थे।
बैल बजाने पर नीले ट्रैकसूट में 18-19 साल की एक लड़की बाहर आयी। छोटे बॉयकट बाल उसके गोल चेहरे पर फ़ब रहे थे। " नमस्ते आँटी... मैं कृति " वो लड़की बोली। " हैलो...दीपक " मैं बुदबुदाया। पीछे-पीछे उसकी मम्मी भी आ गईं। फ़िर से नमस्ते-हाय-हैलो की अदलाबदली की। दोनों महिलाएं "आओ सहेली, चुगली करें " वाली बातों में मशगूल होने लगीं, और वो लड़की और मैं दबी-छिपी निग़ाहों से एकदूसरे को देखने लगे।
तभी अंदर वाले कमरे से निकलकर उसके पापा ..."आइये आइये" कहते हमारी तरफ आये। उनकी और पापा की निगाहें टकरायीं...फ़िर अचानक पूरा दृश्य बदल गया। अंकल की मुस्कुराहट का बल्ब फ्यूज़ हो गया...और पापा ने बाहुबली वाली हुंकार भरी। रामायण का भरत-मिलाप ...अचानक महाभारत में तब्दील हो गया। भड़ाम-भड़ाम की दो आवाज़ें एक साथ गूँज उठीं। पापा ने जमीन पर बिस्किट वाली प्लेट खींच मारी थी, और निरंजन अंकल ने वो हथौड़ी जिससे शायद वो अंदर कोई कील ठोक रहे होंगे। ये तो "हेट एट फ़र्स्ट साइट "था।दाँत पीसते... भंवें चढ़ाये हुए वो दोनों एकदूसरे को पूरी ताकत से घूर रहे थे। आँटी ,उनकी बेटी... मम्मी और मैं बराबर के हैरान थे। इस भयंकर नापसंदगी और नाराज़गी की वजह हम चार दर्शकों को समझ नहीं आ रही थी। जमीन पर लुढ़कते चटपटे बिस्कुटों के साथ कुछ अटपटे पल यूँही गुजरे।
फ़िर "क्या हुआ पापा ? अच्छा...अच्छा, वापस चलिये " कहते हुए मैंने उनकी बाँह पकड़कर खींची .... और उस लड़की ने अंकल की। हमारी मायूस निग़ाहें टकरायीं, फ़िर जुदा हो गयीं। दोनों पापाओं यानी ...बिना तख़्त के सुल्तानों के बीच ऐलान-ए-जंग हो चुका था। फ़िलहाल सरहद के उस पार वो लोग थे और इस पार हम...
खिड़की से नज़र आते अंधेरे में अब सुबह का गुलाबीपन घुलने लगा था। मुझे कोफ़्त हो आयी। पापा और अंकल की टग-ऑफ-वॉर के चक्कर में मेरी जाने कितनी नींदें और बर्बाद होने वाली थीं। उस रस्साकशी के चक्कर में...और..और...कुछ-कुछ पहलू में धड़कते इस दिल के चक्कर मे भी। सोचते हुए मेरे होंठो पर मुस्कुराहट आ गयी।
उस लड़की यानि किट्टू से हुई दूसरी मुलाक़ात... मेरे ज़ेहन में तैर गयी। यूँ तो अक़्सर आमना-सामना हुआ करता, और हम हल्के-से मुस्कुराते हुए हैलो में सर हिला दिया करते। फ़िर एक दिन बात आगे बढ़ी। उस रोज़ कॉलेज जाते वक़्त... मेरी बाइक स्टार्ट ही नहीं हो रही थी। किक लगाते-लगाते पाँव दुखने लगे थे। तभी मेरे पीछे-से आवाज़ आयी " लिफ़्ट चहिए?"
चौंककर मैं पलटा। स्कूटी पर सवार, जीन्स-टीशर्ट और जैकेट पहने,हाथों में ग्लब्स चढ़ाये और हैलमेट के अंदर चेहरे को कपड़ें से लपेटे हुए....कोई लड़की मुझसे पूछ रही थी। मैं अचकचा गया, तो उसने हैलमेट उतारा, और धूल-धुंये से बचने के लिए लपेटा कपड़ा भी हटा दिया। ऊपर वाली उसी लड़की को देखकर मेरी बाछें खिल गयीं।दिल मे होती गुदगुदी छिपाते हुए मैंने अपने ब्लैक गॉगल्स ठीक किये " हैलो.. अं... कृति ! ...कॉलेज जाना तो था... पर ये बाइक न !!!...वैसे...वो बड़े चौराहे के आगे कॉलेज है मेरा...अगर वहाँ तक जा रही हो तो..."
उसने दोबारा कपड़ा लपेटकर हैलमेट लगाया " हैलो दीपक। वैसे किट्टू कह सकते हो मुझे । और हाँ, अभी मुझे यहाँ के रास्तों का अंदाजा नहीं...तुम बता देना...ओके? और अपना हेलमेट जरूर लगा लेना "
उसके पीछे बैठते हुए मैंने "हम्म...थैंक्स किट्टू। और तुम मुझे दीपू कह सकती ..." बोला ही था, कि उसने एक्सीलेटर घुमा दिया। उसकी धन्नो सटासट दौड़ने लगी। ये वो हकीकत थी जिसमें मेरा फेवरेट सपना अब उल्टा दौड़ रहा था। मतलब...जेम्स बॉन्ड वाले म्यूज़िक की जगह ट्रैफ़िक का शोरगुल था...और मेरे बजाय डाकू हसीना यानि किट्टू दोपहिया दौड़ा रही थी। लेकिन हुआ ये कि मुझे छोड़ने के चक्कर मे वो अपने कॉलेज का रास्ता भूल गयी...फिर...
ख़ैर, दोस्ती की तरफ़ ये इशारा मुझे बुरा नहीं लग रहा था। आने वाले दिनों में पापा और अंकल के बीच जैसे सीज़ फ़ायर हो गया था। शीतयुद्ध के माहौल में भी इधर आँटी और मम्मी के बीच अदरक , शक्कर , नींबू की आवाजाही होने लगी थी, इधर हमारी दोस्ती मजबूत होने लगी थी। अक्सर हम दोनों अपने-अपने फ्लोर के बीच वाली सीढ़ियों यानि "नो मैन्स लैंड " पर बैठकर बातें किया करते।
रेलिंग पर टँगे गमलों से कोई टहनी तोड़ते मैंने एक शाम पूछा "तुम्हारे रूम की कल रात लाइट जल रही थी...स्टडीईंग ?"
वो खिलखिला पड़ी "न न...रेस्टलिंग देख रही थी..WWE का मैच !"
मारे खुशी के मैं 2 सीढ़ियां नीचे उचककर उसके पास खसक आया " सच्ची किट्टू ? तुम्हें भी शौक है इसका ?"
"तो ?" उसने कंधे उचका दिए " जाने कितनों को पटखनी दे चुकी हूँ अब तक। अरे मतलब, प्रोफेशनल ट्रेनिंग ले रही हूँ यार...रेसलर बनना है.…इंडिया के लिए मैडल्स लाने हैं मुझे "
अपने बत्तीसों दाँत झलकाते, मैं उसके नज़दीक सरक आया"मैं भी ...अपने कॉलेज की हॉकी टीम का कैप्टन हूँ "
उसकी आँखें भी चमक उठीं " दैट्स कूल दीपू "
हमारी बातें बढ़ती चली गयीं। बैकग्राउंड में वायलिन की पीं पीं नहीं थी...सनन-सन हवाओं में चेहरे पर बिखरती सुनहरी लटें नहीं... शर्म से झुकती पलकें, ग़ुलाबी होते गाल और पायल की खनखन भी नहीं थी। बस ढेर सारी बातों और एकाध धौल-धप्पों के बीच हमारी दोस्ती पायदान चढ़ती जा रही थी...
खिड़की में अब रौशनी भरने लग गयी थी। लेकिन मैं ब्यूरोक्रेसी की तरह अभी भी पसरा हुआ था। पूरी रात करवटों में बीती थी। पापा के जबरन उठाकर छत को ठकठकाने के बाद ...मेरी नींद गायब हो चुकी थी। तबसे मेरे जेहन में अपनी और किट्टू की गाढ़ी होती दोस्ती ,और उसमें अड़ंगा अटकाती पापा और अंकल की अनबन की बात घूम रही थी।
पहले दिन के एनकाउंटर के बाद...पापा और अंकल के खेमे में सन्नाटा पसर गया था। उनकी तनातनी इस कदर बढ़ रही थी, कि लिफ़्ट में अगर अंकल उतर रहे होते, तो पापा सीढ़ियाँ पकड़ लेते। पापा मेन गेट पर खड़े होते तो अंकल गार्ड से ज़बरदस्ती पीछे वाला गेट खुलवाते । एक पूरब देखता, तो दूजा पश्चिम। पहला डाल-डाल... दूसरा पांत-पांत। पापा अगर इलेक्ट्रिशियन बुलाते, तो अंकल उसे पहले अपने घर ले जाते, और अगर अंकल को मेकैनिक की जरूरत होती तो पापा उसे बीच रास्ते से रफ़ा-दफ़ा करवाते। अब तो अपार्टमेंट के और लोग भी पापा को टोकने लगे थे " क्या प्रशांत जी...इस बार ...नये मेम्बर के लिए वैलकम पार्टी नहीं देंगे क्या ?" तो कोई अंकल से पूछता " कमाल है निरंजन साहब। घर के फर्नीचर के लिए आपने प्रशांत जी से राय नहीं ली? अरे उनसे बड़ा जानकार और भलामानस कोई और है ही नहीं"
ऊपर से सब शांत था। पर किट्टू और मेरी गहराती दोस्ती की जमीन के नीचे .…लावा धधक रहा था। मैंने पापा से सीधे-सीधे, टेढ़े-मेढ़े, उल्टे-सीधे, आड़े-तिरछे, घुमा-फिराकर ...हर तरीके से जानने की कोशिश की थी कि उन्हें निरंजन अंकल से परेशानी क्या थी, पर नतीजा रहा शून्य बटा सन्नाटा। मम्मी से अपील की कि वो ही इस बाबत कुछ पता लगाएं, पर उन्होंने विपक्ष की तरह कंधे उचका दिए कि " भई तुमाई सरकार है...तुमई जानो "
मामले की तह तक पहुंचने की कोशिश किट्टू भी कर रही थी, पर कामयाबी उसे भी नहीं मिली थी। लेकिन इस दौरान हम एकदूसरे के मैच में चीयरलीडर बन आये थे और खाऊ गली के मशहूर गोलगप्पे खा आये थे। पर वो अच्छे दिन ज्यादा चल कहाँ पाये थे ? कल सब गड़बड़ा गया था, जब निरंजन अंकल ने हमदोनों को गप्पास्टिक करते देख लिया...देख क्या लिया मतलब जैसे रंगे हाथों पकड़ लिया था। " अंदर चल किट्टू " चिल्लाते हुए उनकी आवाज़ वो घरघराई... नथुने वो फड़फड़ाये...भेड़िये जैसी उनकी आँखें मेरी तरफ़ यों लपलपायीं...कि हम समझ गये ...अब तो कांड होना ही होना है। ऐसा ही हुआ। आज आधी रात उन्होंने हमारी छत पर वो धमाधम मचाई...कि पापा की सेना की बागडोर मुझे संभालनी पड़ी थी। मतलब...ठकाठक्क करना पड़ा था। अब मेरी छठी इन्द्रिय... होशियार कर रही थी कि भैया...दुश्मन कोई पुलवामा जरूर करेगा। वैसे भी ये छठी इन्द्रिय...भूत-प्रेत,मार-कुटाई के मामलों में जाने क्यों हमेशा सही साबित हुआ करती है।
दोपहर को जब मैं कॉलेज से लौटा, तो घर मे हो-हल्ला मचा था। ऊपर-वाली अलगनी पर जानबूझकर गीले कपड़े टांग दिए गए थे...जबकि नीचे पापा के कड़क- नील लगे कपड़े सूख रहे थे। पापा का बीपी ...ग़रीबी की रेखा की तरह ऊपर चढ़ता जा रहा था...और सूखे के मारे किसानों की तरह मम्मी सर पकड़े बैठी थीं।
ये तो हद-ही थी। मैंने सोच लिया, अब कैसे भी करके इस दुश्मनी की वजह का पता लगाना ही पड़ेगा। क्योंकि मेरी और किट्टू की दोस्ती ख़तरे में थी....
जासूसी फिल्मों का चस्का होना एक बात है, और असल जीवन मे जासूसी करना बिल्कुल अलग बात। पापा और अंकल की तनातनी की वजह ढूंढते हुए मुझे इस बात का अच्छे से पता चल रहा था..यानी कि कुछ पता नहीं चल पा रहा था। मुझसे होशियार तो किट्टू निकली थी। एक रोज़ अपनी स्कूटी मेरी बाइक के बगल में लगाते वो बोली..."आज शाम " और फ़िर फर्राटे से आगे निकल गयी।
अब क्योंकि अपार्टमेंट की सीढ़ियों पर बैठना खतरे से ख़ाली नहीं रह गया था, इसलिए शाम को मैं स्टेडियम चला गया जहाँ किट्टू की प्रैक्टिस चल रही थी। आज उसके हर पेंच में गजब का दमख़म था, और सामने वाले की पटखनी लगाते हुए वो जिन निगाहों से मुझे देख रही थी...मुझे समझ आ रहा था कि जरूर कोई दूर की कौड़ी उसके हाथ लग गयी थी। कुछ देर बाद "ये Sss..देखो " कहते हुए उसने कुछ पुरानी फोटोज़ अपने बैग से निकालकर मेरे सामने रख दीं। काफ़ी फेडेड-सी तस्वीरें थी वो। मैंने पलकें झपझपायीं...उन्हें उल्टा-पलटा, पर कुछ समझ न आया।
"क्या हैं ये...किसकी?" पूछते हुए अचानक मेरे दिमाग की ट्यूबलाइट.. फुकफुका उठी। उसमें नज़र आते अनजान चेहरों में एक तो मेरे ही पापा थे। और दूसरे...दूसरे ...निरंजन अंकल थे। एक फोटो में वो एकदूसरे के कंधों पर हाथ रखे..एक तरफ झुके खड़े थे...दूसरी में अंकल किसी तरफ़ इशारा कर रहे थे और पापा उधर ग़ौर से देख रहे थे। एक कोई क्लास फोटोग्राफ़ था, जिसमें नीला ब्लेज़र पहने और टाई लगाये... दोनों आगे-पीछे की लाइनों में खड़े हुए थे।
मेरा मुँह खुला-का-खुला रह गया। ये कैसे सम्भव था ? आज की तारीख़ में जिनमे साँप-नेवले की दुश्मनी हो, वो क्या सचमुच ...
तभी किट्टू ने मेरे सिर पर धप्प करते हुए कहा " जी हाँ, गहरे दोस्त थे दोनों। 12थ तक साथ ही पढ़े थे दोनों अपने कस्बे वाले स्कूल में "
मैंने उसकी पीठ ठोकी " वाह किट्टू! तुम तो बड़ी होशियार निकलीं। और क्या-क्या पता लगा ?"
वो कुछ पल ख़ामोश रही। फिर फ़ोटोग्राफ़...बैग में डालते हुए बोली " मैं पापा के पीछे पड़ गयी थी...तब उन्होंने बताया...कि तुम्हारे पापा ने धोखा दिया था उन्हें..."
मेरे ज़ेहन में मम्मी के टीवी सीरियल का जुमला "क्या..क्या...क्या ???" कौंध गया। इधर किट्टू कहे जा रही थी..." जाने कितनी बार अंकल की ख़ातिर चोरी-छिपे अमरूद और टिकोरे तोड़े थे उन्होंने...हथेली पर सांय-सांय संटियाँ खायी थीं। लेकिन ग्यारहवीं के एग्जाम में एक बार उन्होंने तुम्हारे पापा से आंसर पूछ लिया...तो उन्होंने... मना कर दिया। 2% मार्क्स घट गये मेरे पापा के ..."
कहते हुए वो रुआँसी हो गयी, तो मैं हँस पड़ा " लो, खोदा दुश्मनी का पहाड़ और निकली एक पिद्दी-सी वजह। अरे यार, ये तो कितनी पुरानी बात हुई...और कितनी चाइल्डिश ! "
उसने संजीदगी से मेरी आँखों मे देखा " वजह बहुत बड़ी है दीपक। धोखा और विश्वासघात...गहरी-से-गहरी दोस्ती तोड़ देते हैं"
उसकी तीख़ी निगाहें जैसे आरोप लगा रही थी। मैं कसमसा उठा। ये तो गलत बात थी...सीधे-सीधे मेरे पापा पर दोषारोपण था। यहाँ गुटनिरपेक्षता नहीं चल सकती थी। अगर वो अपने पापा का साथ दे रही थी...तो मुझे भी अपने पापा का साथ देना था। एक पुरानी दोस्ती के टूटने से एक नई दोस्ती दांव पर लग गयी थी...
दोस्ती का चटखना क्या होता है, आने वाले दिन मुझे इसका अहसास करा रहे थे। किट्टू और मैं अब कतराते...हाय-हैलो की जगह नज़रों के तीखे तीर चलाते... और बजाय मुस्कुराने के मुँह बिचकाते।मेरे कमरे में रीमिक्स की बजाय मोहम्मद रफ़ी गूंजने लगे थे, मैदान में मुझसे गोल चूकने लगे थे, यहाँ तक कि हेयर जैल लगाकर आगे वाले बाल खड़े करने में भी मेरा इंटरेस्ट चला गया था। जब मैंने पोहे में डले मटर पर, धुलाई के दौरान फेवरेट शर्ट पर लगे मम्मी के दुप्पट्टे के गुलाबी निशान पर और अपनी खड़खड़ाती बाइक को लेकर भुनभुनाना छोड़ दिया, तो पापा- मम्मी को थोड़ी-बहुत फ़िक्र हुई, पर मैं हर फ़िक्र को धुंये में उड़ाता चला गया। मतलब अंगीठी के उस धुँए में...जो मैं पापा की लगाई ख़ास चिमनी में छोड़ा करता था...जिसका मुँह ऊपर वाली बाल्कनी की तरफ़ खुलता था।
फ़िर कोई हफ़्ते भर बाद...सुबह-सुबह हमारे अपार्टमेंट में एक जोरदार चीख़ गूँजी। मैं बाहर दौड़ने को हुआ...तभी ग़ौर किया कि ये तो ऊपर वाली आँटी थीं। इसे अपनी कामयाबी समझकर मैं ठिठका ही था, तभी अचानक जोरदार चीखों की सीरीज़ आती चली गयी।मैं चौंक पड़ा । ये तो पापा की आवाज़ थी।वो रुंधी आवाज़ में चिल्ला रहे थे " अरे ये क्या हो गया निरंजन। आँखें खोलो। कोई डॉक्टर को बुलाओ...दीपू...जल्दी आओ, इसे अस्पताल ले चलो। अरे जल्दी करो...दीपू..दीपू "
मैं दो छलांगों में बाहर पहुंचा, और स्तब्ध/शॉक्ड रह गया। सीढ़ियों पर निरंजन अंकल बेहोश पड़े थे। सिर से लगातार खून बह रहा था।शायद जल्दबाजी में सीढ़ियाँ उतरते वक़्त वो फिसल गये होंगे।आँटी रोये जा रही थीं, परेशानहाल किट्टू कभी उन्हें समझाती, कभी अंकल को हिलाती, कभी डाक्टर को फोन लगाती... और सबसे बदहवास हालत में पापा थे, जो अंकल के सर के जख्म पर अपना रुमाल रखे हुये चिल्लाये जा रहे थे " निरंजन.... तुझे कुछ नहीं होगा यार...आँखे खोल....दीपू,जल्दी-से ले चल इसे अस्पताल...निरंजन... "
कुछ पल मैं हैरानी से उन्हें देखता रहा। उनकी भीगी आँखों और...कांपते हाथों को।उन्हें इस क़दर बेहाल मैंने कभी नहीं देखा था। एम्बुलेंस बुलाते हुये...मैंने पापा को उनका पर्स थमाया...मम्मी को दोनों घरों का जिम्मा, और अस्पताल को चल दिया। माथे पर टांके लगने के कुछ देर बाद अंकल को होश आ गया। वो अब ठीक थे।उनकी धुंधली नज़र कमरे में घूमी...और हम सब के ऊपर से घूमती हुई ...बगल वाली कुर्सी पर बैठे पापा पर अटक गयी। नम कोरों से दोनों एकदूसरे को देखते रहे। फिर उन्होंने चुपचाप हाथ बढ़ाकर पापा की हथेली थाम ली। दोनों को इसी मुद्रा में छोड़कर... हमसब धीरे-धीरे बाहर निकल आये। बाहर शाम का धुंधलका फैल रहा था। किट्टू, उसकी मम्मी और मैं वेटिंग एरिया में बैठ गये।हमें बहुत हल्कापन महसूस हो रहा था...लेकिन क्या बात करें समझ नहीं आ रहा था। अचानक मेरे फोन में रिमाइंडर बज उठा। एक्साइटमेंट में मैं खड़ा हो गया " "ओहो SS ...आज तो WWE का मैच है यार "..किट्टू झट मेरे पास आ गयी "जॉन सीना की फाइट होगी क्या ?"
मैंने उसकी चमकती आँखों में झाँका " और अंडरटेकर की भी । शायद..ख़ली भी लड़े "
झटके-से हम दोनों ने मुड़कर आँटी को देखा तो वो मुस्कुरा दीं " मैं तो यहाँ हूँ ही...तुम लोग घर हो आओ "
कुछ देर बाद...शहर की अंधेरी सड़कों पर एक बाइक भाग रही थी। मैं था...हसीना भी थी...और बाक़ी सब जाने भी दीजिये....
लेखिका-छवि निगम
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