पोता आ गया था।
ताऊ ने दादी के सामने प्रण लिया था कि पितृहीन इस बालक को सदैव अपनी स्नेह छाया में रखूंगा और उसे पिता की कमी कभी महसूस नहीं होने दूंगा।
दादा ने अपने खोए बेटे की प्रतिबिंब छवि पोते के गोरे मुखमंडल में देखने की असफल कोशिश की।
"शायद बहू पर गया है।"यह सोचकर संतोष कर लिया कि मां पर पूत पिता पर घोड़ा कहावत यहां सत्य हो रही है।लेकिन है तो उनके पुत्र का अंश ही।उस पुत्र का,जिसकी दुखद मृत्यु ने परिवार की जड़ें हिला दी हैं।
पोता आ गया है।अब वह यहीं रहेगा,नौ साल के उस लड़के ने घोषणा कर दी है।सब हँस पड़े हैं,अति उत्साह में बच्चे जाने कैसे कैसे प्रण कर बैठते हैं।
पोते को स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता है।मां पुचकार कर,धमका कर,कूट छेत कर स्कूल भेज देती थी,लेकिन पिता के चले जाने से आय का कोई नियमित साधन नहीं रहा।स्कूल जाना पिछले साल लगभग छूटा रहा।अब दादी के यहां नए स्कूल में दाखिला करवाया गया है।न तो स्कूल ही उतना भव्य है न लेने बस आती है।गलियों में से पैदल चलते जाओ और पहुंच जाओ स्कूल।
यहां के बच्चे भी अजीब शरारती से हैं।टीचर भी बात बेबात कान उमेठते हैं।फिर उसका लिखने में हाथ काम चलता है।बात तो वह अच्छे से समझ लेता है लिखते वक्त सब गड़बड़ होता जाता है।
पोता ऐसी ही दसियों वजह से स्कूल नहीं जाना चाहता।दादी रोज सुबह टिफ़िन बैग तैयार करती है।बैग टिफिन तैयार करते हुए रोती है,"तेरा डैडी भी ऐसे ही स्कूल जाता था।मैं उसका बैग टिफिन तैयार करती थी।"ठीक है,मगर इसमें रोने की क्या बात है?"दादी के रोने से खामख्वाह उसके सिर में दर्द शुरू हो जाता है।दादी को रोने से दादा भी मना नहीं करते।बस ठंडी सांस भरकर,"ओ मेरे भगवान!"कहते हैं और उठकर बाहर चले जाते हैं।
पोते को दादा अच्छे लगते हैं।वह कहते हैं,"कोई बात नहीं। न पढ़ेगा तो।पढ़ाई से कोई ज्यादा फर्क न पड़ता।बिजनेस कर लेगा।सब क्या नौकरी करते हैं।"
दादी दादा की बात सुनकर नाराज होती है।दोनों में उसको लेकर अक्सर नोंक झोंक हो जाती है।उसको स्कूल जाना ही पड़ता है।रोज उसी समस्या से सामना करना ही पड़ता है।
उसे स्कूल जाने से इतनी तकलीफ नहीं है जितनी बड़े भैया से है।बड़े भैया यानि ताऊ जी के लड़के,बड़े भैया उसे वैसे तो बहुत प्यार करते हैं।लेकिन दिन भर पढ़ ले पढ़ ले कहते रहते हैं।उसकी कॉपी किताबें चेक करते रहते हैं।चेक करने के बाद ताऊ जी और दादी जी को रिपोर्ट करते हैं।टीचर लोग डायरी में क्या क्या तो मैसेज लिखकर भेजते हैं।सारे मैसेज ताऊ जी और दादी को पढ़कर सुनाते हैं।इस वजह से उसने मम्मा से कह दिया है।वह यहां दादी के पास रहकर नहीं पढ़ेगा।होस्टल में जाएगा।
उस नादान से बच्चे को होस्टल का ख्याल कहां से आया।क्यों उसे माँ की ममतामयी छांव या दादी के स्निग्ध प्यार के मुकाबले होस्टल का अनुशासन का जीवन ज्यादा बेहतर लगा।
पितृहीन वह बालक दादा में पिता की छवि न देख पाया यह तो समझ में आया।पिता और दादा के मिजाज के अंतर को वह निकट रहकर जितना भाँप पाया उतना उसे दूर से पता नहीं लगता।लेकिन ताऊ जी तो उसके पिता के सहोदर भाई थे।वे भाई जो कभी हमनिवाला और हमख्याल थे।ताऊ उसके पिता से महज तीन साल ही तो बड़े थे।उसे ताऊ जी में पिता की छवि का लेश भी न मिला।पिता गाहे बगाहे उसे आगोश में बांध कर चुम्बनों की बरसात कर देते थे तो वह पिता के प्यार से सरोबार हुआ हँसता हुआ कहता,"छोड़ो पापा!छोड़ो!!दाढ़ी चुभती है।"
यह सुनकर पिता उसके पेट में गुदगुदी करते,"अरे!तेरी तो!बदमाश!!"
ताऊ जी उसे स्नेह से जरूर बुलाते।लेकिन पिता के मुकाबले यह स्नेह उसे कहीं अधूरा सा लगता।लेकिन ताऊ जी तो अपने बेटे को भी ज्यादा प्यार करते नहीं दिखाई दिए उसे कभी।
उसने सुना कि बड़ी दीदी होस्टल में रहकर पढ़ाई कर रही है।जब वह होस्टल से घर छुट्टियों में आई हुई थी तब उन्होंने होस्टल लाइफ की जो रंगीन और खुशियों से भरे दिनों की कहानियां सुनाई उसने उसके दिल में भी होस्टल में रहकर पढ़ने की इच्छा बलवती कर दी थी।इस बार जब मम्मी का फोन आया तब उसने साफ कह दिया,"मम्मी या तो आप मुझे अपने पास बुला लो या मुझे होस्टल भेज दो।मुझे यहां रहना अच्छा नहीं लगता।"
"तुझे क्या लगता है,तुझे मैने वहां क्यों भेजा है।मेरे पास तेरी फीस भरने का पैसा नहीं है।तू होस्टल जाने की बात करता है।"
यह सुनकर पोता, जिसका नाम राज्यवर्धन था मगर माँ उसे राजू या राजे कहती है,और अधिक उदास हो गया।
मां व पिता के स्नेहिल आँचल के नीचे बच्चा जो सहज सुकून महसूस करता है उससे वंचित होकर उसके मन मस्तिष्क में जो उमड़ घुमड़ मची रहती है उससे उबर पाना राजू के लिए बहुत कठिन हो रहा था।जब भी दादी उसे गोदी में खींचकर प्यार करती थी।उसकी बलाएं लेती थी।वह उसके झुर्रियों में छिपे चेहरे की तुलना अपनी मां की स्निग्ध युवती छवि से करता और माँ को दादी के मुकाबले हर तरह से बेहतर पाता,ऐसे वक़्त में वह भावुक होकर कहता,"दादी!मैं यहां नहीं रहूंगा।मैं मम्मी के पास जाऊंगा,अपने घर।"
दादी यह सुनकर उसे गोदी से उतारने की असफल चेष्टा करती,"उतर मेरी गोदी से।कमीना न हो तो।आईयो मेरे से दस रुपये लेने।"
राजू को अपनी गलती का एहसास तुरंत हो जाता।रोज दस रुपये दादी से वह जेबखर्च के लेता है।आर्थिक नुकसान की संभावना तो बच्चा भी भाँप लेता है।फिर आजकल के बच्चे तो समझदारी में बड़ों के भी कान काटते हैं।तुरंत बात संभालने के लिए कहता है,"अभी नहीं!अगले साल।फिर मैं आपसे मिलने आता रहूंगा।जैसे पापा आते थे।"
पापा का जिक्र करने से दादी दुखी होती है।हां उनका बेटा मां से मिलने नियम से आता था।चाहे रुकता एक ही रात था।माँ इतने में ही संतोष कर लेती थी।सोचती थी बेटा कबीलदारी में उलझा हुआ है।जितना वक़्त निकाल पाता है,मां को याद तो कर लेता है।
अब बेटा चला गया है।उसका ध्यान मृत संतान के फोटो की तरफ चला गया है।वह सफेद चुन्नी से अपनी आंखें पोंछती है और छत की तरफ देखकर हाथ जोड़ती है।मानो भगवान को कहती हो,मेरा बेटा तूने अपने चरणों में बुला तो लिया है।उसे दुखी न रखना।"
बच्चा तो बच्चा है।दादी की गोदी से उतर जाता है लेकिन वह दुखियारी अपना टूटा मन लिये बहुत देर तक बैठी रहती है।शाम घिर आने पर भी बत्ती जलाना भूल जाती है।उसके पति यानि राजू के दादा आते हैं।अंधेरे में बैठी बुढ़िया पत्नी को देखते हैं,"क्या बात!कैसे अंधेरे में बैठी हो।बत्ती नहीं जलाई!"
"बत्ती जलाने से भी क्या होगा।जो अंधेरा हमारे जीवन में छा गया है।वह कभी दूर न होगा।"कहकर वह सिसकने लगती है।
उसे सिसकते देख पति का दिल डूबने लगता है।
वह चिल्लाकर कहते हैं,"दो वक्तों का वेला तो देख।लगी है टिस टिस करने।जो भाना वरत गया उसको लेकर न बैठ।जो बच गया उसकी खैर मांग।पता नहीं दाता किस बात से नाराज हो जाएगा।"
पति की फटकार सुनकर वह झटपट आंसू पोंछती है और पूछती है,"चाय बनाऊं आपके लिए।"
पति जाने कहाँ ख्यालों में खो गया है,दोबारा पूछने पर कहता है,"हैं?क्या कहा??"