देस बिराना - 27 Suraj Prakash द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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देस बिराना - 27

देस बिराना

किस्त सताइस

बाहर अभी भी बर्फ पड़ रही है लेकिन भीतर गुनगुनी गरमी है। मैं गाव तकिये के सहारा लेकर अधलेटा हो गया हूं और संगीत की लहरियों के साथ डूबने उतराने लगा हूं। ब्रांडी भी अपना रंग दिखा रही है। दिमाग में कई तरह के अच्छे बुरे ख्याल आ रहे हैं। खुद पर अफ़सोस भी हो रहा है, लेकिन मैं मालविका जी के शानदार मूड और हम दोनों के जनमदिन के अद्भुत संयोग पर अपने भारी और मनहूस ख्यालों की काली छाया नहीं पड़ने देना चाहता। मुझे भी तो ये शाम अरसे बाद, कितनी तकलीफ़ों के सफ़र अकेले तय करने के बाद मिली है। पता नहीं मालविका जी भी कब से इस तरह की शाम के लिए तरस रही हों। इन्हीं ख्यालों में और ब्रांडी के हलके-हलके नशे में पता नहीं कब झपकी लग गयी होगी। अचानक झटका लगा है। महसूस हुआ कि मालविका जी मेरी पीठ के पीछे घुटनों के बल बैठी मेरे बालों में अपनी उंगलियां फिरा रही हैं। पता चल जाने के बावजूद मैंने अपनी आंखें नहीं खोली हैं। कहीं यह मुलायम अहसास बिखर न जाये। तभी मैंने अपने माथे पर उनका चुंबन महसूस किया है। उनकी भरी-भरी छातियों का दबाव मेरी पीठ पर महसूस हो रहा है। मैंने हौले से आंखें खोली हैं। मालविका जी मेरी आंखों के सामने हैं। मुझ पर झुकी हुई। वे अभी-अभी नहा कर निकली हैं। गरम पानी, खुशबूदार साबुन और उनके खुद के बदन की मादक महक मेरे तन-मन को सराबोर कर रही है। ज़िंदगी में यह पहली बार हो रहा है कि गौरी के अलावा कोई और स्त्री मेरे इतने निकट है। मेरे संस्कारों ने ज़ोर मारा है - ये मैं क्या कर रहा हूं.. लेकिन इतने सुखद माहौल में मैं टाल गया हूं। .. जो कुछ हो रहा है और जैसा हो रहा है होने दो। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा .. । मैं कुछ पा ही तो रहा हूं। खोने के लिए मेरे पास है ही क्या।

तभी मालविका ने मेरी पीठ पर झुके झुके ही मेरे चेहरे को अपने कोमल हाथों में भरा है और मेरी दोनों आंखों को बारी-बारी से चूम लिया है। उनका कोमल स्पर्श और सुकोमल चुंबन मेरे भीतर तक ऊष्मा की तरंगें छोड़ते चले गये। मैंने भी उसी तरह लेटे-लेटे उन्हें अपने ऊपर पूरी तरह झुकाया है, उनकी गरदन अपनी बांह के घेरे में ली है और हौले से उन्हें अपने ऊपर खींच कर उनके होठों पर एक आत्मीयता भरी मुहर लगा दी है - हैप्पी बर्थडे डीयर।

हम दोनों काफी देर से इसी मुद्रा में एक दूसरे के ऊपर झुके हुए नन्हें-नन्हें चुम्बनों का आदान-प्रदान कर रहे हैं। मैं सुख के एक अनोखे सागर में गोते लगा रहा हूं। यह एक बिलकुल ही नयी दुनिया है, नये तरह का अहसास है जिसे मैं शादी के इन चार बरसों में एक बार भी महसूस नहीं कर पाया था।

मालविका अभी भी मेरी पीठ की तरफ बैठी हैं और उनके घने और कुछ-कुछ गीले बाल मेरे पूरे चेहरे पर छितराये हुए हैं। उनमें से उठती भीनी भीनी खुशबू मुझे पागल बना रही है। उन्होंने सिल्क का वनपीस गाउन पहना हुआ है जो उनके बदन पर फिसल-फिसल रहा है। हम दोनों ही बेकाबू हुए जा रहे हैं लेकिन इससे आगे बढ़ने की पहल हममें से कोई भी नहीं कर कर रहा है। तभी मालविका ने खुद को मेरी गिरफ्त में से छुड़वाया है और उठ कर कमरे में जल रहे इकलौते टैबल लैम्प को भी बुझा दिया है। अब कमरे में चौंतीस मोमबत्तियों की झिलमिलाती और कांपती रौशनी है जो कमरे के माहौल को नशीला, नरम और मादक बना रही है। मैं उनकी एक-एक अदा पर दीवाना होता चला जा रहा हूं। जानता हूं ये मेरी नैतिकता के खिलाफ है लेकिन मैं ये भी जानता हूं आज मेरी नैतिकता के सारे के सारे बंधन टूट जायेंगे। मेरे सामने इस समय मालविका हैं और वे इस समय दुनिया का सबसे बड़ा सच हैं। बाकी सब कुछ झूठ है। बेमानी है।

मैंने उनके दोनों कानों की लौ को बारी-बारी से चूमते हुए कहा है - मेरे जनमदिन पर ही मुझे इतना कुछ परोस देंगी तो मेरा हाजमा खराब नहीं हो जायेगा। कहीं मुझे पहले मिल गयी होतीं तो!!

जवाब में उन्होंने अपनी हँसी के सारे मोती एक ही बार में बिखेर दिये हैं - देखना पड़ता है न कि सामने वाला कितना भूखा प्यासा है। वैसे मेरे पीछे पागल मत बनो। मैं एक बहुत ही बुरी और बदनाम औरत हूं। कहीं मेरे चंगुल में पहले फंस गये होते तो अब तक कहीं मुंह दिखाने के काबिल भी न होते।

- आपके जैसी लड़की बदनाम हो ही नहीं सकती। मैंने उन्हें अब सामने की तरफ खींच लिया है और अपनी बाहों के घेरे मे ले लिया है। मेरे हाथ उनके गाउन के फीते से खेलने लगे हैं।

उन्होंने गाउन के नीचे कुछ भी नहीं पहना हुआ है और हालांकि वे मेरे इतने निकट हैं और पूरी तरह प्रस्तुत भी, फिर भी मेरी हिम्मत नहीं हो रही, इससे आगे बढ़ सकूं। वे मेरा संकोच समझ रही हैं और शरारतन मेरी उंगलियों को बार-बार अपनी उंगलियों में फंसा लेती हैं। आखिर मैं अपना एक हाथ छुड़ाने में सफल हो गया हूं और गाउन का फीता खुलता चला गया है। मालविका ने अपनी आंखें बंद कर ली हैं और झूठी सिसकारी भरी है

- मत करो दीप प्लीज।

मैंने इसरार किया है - जरा देख तो लेने दो।

- और अगर इन्हें देखने के बाद आपको कुछ हो गया तो!!

- शर्त बद लो, कुछ भी नहीं होगा। उनकी बहुत आनाकानी करने के बाद ही मैं उनका गाउन उनके कंधों के नीचे कर पाया हूं।

और मैं शर्त हार गया हूं। मैंने जो कुछ देखा है, मैं अपनी आंखों पर यकीन नहीं कर पा रहा हूं। मालविका का अनावृत सीना मेरे सामने है। मैंने बेशक गौरी के अलावा किसी भी औरत को इस तरह से नहीं देखा है, लेकिन जो कुछ मेरे सामने है, मैं कभी उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था। मैंने न तो फिल्मों में, न तस्वीरों में और न ही किसी और ही रूप में किसी भी स्त्री के इतने विराट, उदार, संतुलित, सुदृढ़ और खूबसूरत उरोज देखे हैं। मैं अविश्वास से उन गोरे-चिट्टे दाग रहित और सुडौल गोलार्धो की तरफ देखता रह गया हूं और पागलों की तरह उन्हें अपने हाथों में भरने की नाकाम कोशिशें करने लगा हूं। उन्हें दीवानों की तरह चूमने लगा हूं। मालविका ने अपनी आंखें बंद कर ली हैं। वे मेरे सुख के इन खूबसूरत पलों में आड़े नहीं आना चाहतीं!! वे अपनी इस विशाल सम्पदा का मोल जानती रही होंगी तभी तो वे मुझे उनका भरपूर सुख ले लेने दे रही हैं। मैं बार-बार उन्हें अपने हाथों में भर-भर कर देख रहा हूं। उन्हें देखते ही मुझ जैसे नीरस और शुष्क आदमी को कविता सूझने लगी है। कहीं सचमुच कवि होता तो पता नहीं इन पर कितने महाकाव्य रच देता!

मैं एक बार फिर जी भर कर देखता हूं - वे इतने बड़े और सुडौल हैं कि दोनों हाथों में भी नहीं समा रहे।

मैं उन्हें देख कर, छू कर और अपने इतने पास पा कर निहाल हो गया हूं। अब तक मैं जब भी मालविका से मिला था, उन्हें ट्रैक सूट में, फार्मल सूट में या साड़ी के ऊपर लाँग कोट पहने ही देखा था। शाम को भी उन्होंने हाउसकोट जैसा कुछ पहना हुआ था और उनके कपड़े कभी भी जरा-सा भी यह आभास नहीं देते थे कि उनके नीचे कितनी वैभवशाली सम्पदा छुपी हुई है। वे इस समय मेरे सामने अनावृत्त बैठी हुई हैं। घुटने मोड़ कर। वज्रासन में। साधिका की-सी मुद्रा में। उनका पूरा अनावृत्त शरीर मेरे एकदम निकट है। पूरी तरह तना हुआ। निरंतर और बरसों के योगाभ्यास से निखरा और संवारा हुआ। कहीं भी रत्ती भर भी अधिकता या कमी नहीं। एक मूर्ति की तरह सांचे में ढला हुआ। ऐसी देह जिसे इतने निकट देख कर भी मैं अपनी आंखों पर विश्वास नहीं कर पा रहा हूं। ..वे आंखें बंद किये हुए ही मुझसे कहती हैं - अपने कपड़े उतार दो और मेरी तरह वज्रासन लगा कर बैठ जाओ। कुर्ता उतारने में मुझे संकोच हो रहा है, लेकिन वे मुझे पुचकारती हैं - डरो नहीं, मेरी आंखें बंद हैं।

मैं वज्रासन में बैठने की कोशिश करता हूं लेकिन उन्हीं के ऊपर गिर गया हूं। वे खिलखिलाती हैं और मुझे अपने सीने से लगा लेती हैं। उनके जिस्म की आंच मेरे जिस्म को जला रही है। कुछ ब्रांडी का नशा है और बाकी उनकी दिपदिपाती देह का। इतनी सारी मोमबत्तियों की झिलमिलाती रौशनी में उनकी देह की आभा देखते ही बनती है। उन्होंने अभी भी अपनी आंखें शरारतन बंद कर रखी हैं और बंद आंखों से ही मुझे हैरान-परेशान देख कर मजे ले रही हैं। तभी मैं उठा हूं और बुके के सभी फूलों को निकाल कर उन फूलों की सारी की सारी पंखुड़ियां उनके गोरे चिट्टे सुडौल बदन पर बिखेर दी हैं। उन्होंने अचानक आंखें खोली हैं और पखुंड़ियों की वर्षा में भीग-सी गयी हैं। उनके बदन से टकराने के बाद पंखुड़ियों की खुशबू कई गुना बढ़ कर सारे कमरे में फैल गयी है।

वे खुशी से चीख उठी हैं। मैंने उन्हें गद्दे पर लिटाया है और हौले हौले उनके पूरे बदन को चूमते हुए एक-एक पंखुड़ी अपने होठों से हटा रहा हूं। मैं जहां से भी पंखुड़ी हटाता हूं, वहीं एक ताजा गुलाब खिल जाता है। थोड़ी ही देर में उनकी पूरी काया दहकते हुए लाल सुर्ख गुलाबों में बदल गयी है।

मैं उनके पास लेट गया हूं और उन्हें अपने सीने से लगा लिया है। उन्होंने भी अपनी बाहों के घेरे में मुझे बांध लिया है।

समय थम गया है। अब इस पूरी दुनिया में सिर्फ हम दो ही बचे हैं। बाकी सब कुछ खत्म हो चुका है। हम एक दूसरे में घुलमिल गये हैं। एकाकार हो गये हैं।

बाहर अभी भी लगातार बर्फ पड़ रही है और खिड़कियों के बाहर का तापमान अभी भी शून्य से कई डिग्री नीचे है लेकिन कमरे के भीतर लाखों सूर्यों की गरमी माहौल को उत्तेजित और तपाने वाला बनाये हुए है।

आज हम दोनों का जनम दिन है और हम दोनों की उम्र भी बराबर है। दो चार घंटों का ही फर्क होगा तो होगा हममें। हम अपनी अलग-अलग दुनिया मे अपने अपने तरीके से सुख-दुख भोगते हुए और तरह-तरह के अनुभव बटोरते हुए यहां आ मिले हैं बेशक हम दोनों की राहें अलग रही हैं। हमने आज देश, काल और समय की सभी दूरियां पाट लीं हैं और अनैतिक ही सही, एक ऐसे रिश्ते में बंध गये हैं जो अपने आप में अद्भुत और अकथनीय है। मुझे आज पहली बार अहसास हो रहा है कि सैक्स में कविता भी होती है। उसमें संगीत भी होता है। उसमें लय, ताल, रंग, नृत्य की सारी मुद्राएं और इतना आनन्द, तृप्ति, सम्पूर्णता का अहसास और सुख भी हुआ करते हैं। मैं तो जैसे आज तक गौरी के साथ सैक्स का सिर्फ रिचुअल निभाता रहा था।

हम दोनों एक साथ ही एक नयी दुनिया की सैर करके एक साथ ही इस खूबसूरत ख्वाबगाह में लौट आये हैं। पूरी तरह से तृप्त, फिर भी दोबारा वही सब कुछ एक बार फिर पा लेने की, उसी उड़ान पर एक बार फिर सहयात्री बन कर उड़ जाने की उत्कट चाह लिये हुए।

हम अभी भी वैसे ही साथ साथ लेटे हुए हैं। एक दूसरे को महसूस करते हुए, छूते हुए और एक दूसरे की नजदीकी को, ऊष्मा को अपने भीतर तक उतारते हुए। यह पूरी रात ही हम दोनों ने एक दूसरे की बाहों में इसी तरह गुजार दी है। हमने इस दौरान एक दूसरे के बहुत से राज़ जाने हैं, बेवकूफियां बांटी हैं, जख्म सहलाये हैं और उपलब्धियों के लिए एक दूसरे को बधाई दी है।

हमने आधी रात को खाना खाया है। खाया नहीं, बल्कि मनुहार करते हुए, लाड़ लड़ाते हुए एक दूसरे को अपने हाथों से एक-एक कौर खिलाया है।

मालविका नशीली आवाज में पूछ रही है - यहां आकर अफसोस तो नहीं हुआ ना!!

- हां, मुझे अफसोस तो हो रहा है।

- किस बात का?

- यहां पहले ही क्यों नही आ गया मैं।

- फिर आओगे!!

मैंने उसके दोनों उरोजों पर चुंबन अंकित करते हुए जवाब दिया है - आप हर बार इसी तरह स्वागत और सत्कार करेंगी तो जरूर आऊंगा।

- अगर तुम हर बार मेरे कपड़े उतारोगे तो बाबा, बाज आये हम! हमें कपड़े उतारने वाले मेहमान नहीं चाहिये!!

- अच्छी बात है, नहीं उतारेंगे कपड़े, लेकिन आयेंगे जरूर हम। इस खज़ाने की देखभाल करने कि कोई इन्हें लूट तो नहीं ले गया है।

- जब इसका असली रखवाला ही भाग गया तो कोई कब तक लुटेरों और उच्चकों से रखवाली करता फिरे!!

- तुमने कभी बताया नहीं वो कौन बदनसीब था जो इतनी धन दौलत छोड़ कर चला गया। उस आदमी में जरा सा भी सौंदर्य बोध नहीं रहा होगा।

- तुम मेरी जिस दौलत को देख-देख कर इतने मोहित हुए जा रहे हो, मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि इन्होंने मुझे कितनी कितनी तकलीफ दी है। इन्हीं की वजह से मैं यहां परदेस में अकेली पड़ी हुई हूं।

- कभी तुमने बताया नहीं।

- तुमने पूछा ही कब।

- तो अब बता दो, तुम्हारे हिस्से में ऊपर वाले ने कौन कौन से हादसे लिखे थे।

- कोई एक हो तो बताऊं भी। यहां तो जब से होश संभाला है, रोजाना ही हादसों से दो चार होना पड़ता है।

- मुझे नहीं मालूम था तुम्हारा सफर भी इतना ही मुश्किल रहा है, अपने बारे में आज सब कुछ विस्तार से बताओ ना..

- रहने दो। क्या करोगे मेरी तकलीफों के बारे में जान कर। ये तो हर हिन्दुस्तानी औरत की तकलीफें हैं। सब के लिए एक जैसी।

- अच्छा तकलीफों के बारे में मत बताओ, अपने बचपन के बारे में ही कुछ बता दो।

- बहुत चालाक हो तुम। तुम्हें पता है, एक बार बात शुरू हो जाये तो सारी बाते खुलती चली जायेंगी।

- ऐसा ही समझ लो।

- तो ठीक है। मैं तुम्हें अपने बारे में बहुत कुछ बताऊंगी, लेकिन मेरी दो तीन शर्तें हैं।

- तुम्हारे बताये बिना ही सारी शर्तें मंजूर हैं।

- पहली शर्त कि ये सारी बत्तियां भी बंद कर दो। मुझे बिलकुल अंधेरा चाहिये।

- हो जायेगा अंधेरा। दूसरी शर्त।

- तुम मेरे एकदम पास आ जाओ, मेरे ही कम्बल में। जैसे मैं लेटी हूं वैसे ही तुम लेट जाओ।

- मतलब .. सारे कपड़े?

- कहा न जैसे मैं लेटी हूं वैसे ही.. और कोई हरकत नहीं चाहिये। चुपचाप, छत की तरफ देखते हुए लेटे रहना। और खबरदार। लेना-देना काफी हो चुका। अब कोई भी हरकत नहीं होगी।

- नहीं होगी हरकत, लेकिन ये मेहमानों के कपड़े उतारने वाली बात कुछ हजम नहीं हुई। वैसे भी मांगे हुए कपड़े हैं ये।

- चुप रहो और तीसरी शर्त कि तुम मेरी पूरी बात खतम होने तक बिलकुल भी नहीं बोलोगे। हां हूं भी नहीं करोगे। सिर्फ सुनोगे और कभी भी न तो इसका किसी से जिक्र करोगे और न ही अभी या कभी बाद में मुझसे इस बारे में और कोई सवाल करोगे, न मुझ पर तरस खाओगे। बोलो मंजूर हैं ये सारी शर्तें।

- ये तो बहुत ही आसान शर्तें हैं। और कुछ?

- बस और कुछ नहीं। अब मैं जब तक न कहूं तुम एक भी शब्द नहीं बोलोगे।

मैंने मालविका की शर्तें भी पूरी कर दी हैं। सारी बत्तियां बुझा दी हैं लेकिन भारी परदों की झिर्रियों से बाहर की पीली बीमार रोशनी अंदर आ कर जैसे अंधेरे को डिस्टर्ब कर रही है। मैं मालविका की बगल में आ कर लेट गया हूं। उन्होंने हाथ बढ़ा कर मेरा हाथ अपनी नाभि पर रख दिया है।

***