इस दश्‍त में एक शहर था - 10 Amitabh Mishra द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इस दश्‍त में एक शहर था - 10

इस दश्‍त में एक शहर था

अमिताभ मिश्र

(10)

शिब्‍बू भैया यानि नंबर चार यानि बापू यानि शिवानंद बहुत ही व्यवस्थित किसम के जीव रहे। और बहुत ही चतुर चालाक थे। वे पढ़ने लिखने में सामान्य पर घर की मदद के लिए उन्होंने बी काम किया और अपने बड़े भाई के साथ ए जी आफिस में नौकरी की। शर को मदद होती रही पर वे यहां नौकरी करने के बिलकुल मूड में नहीं रहे। वे लगातार विनायक भैया के भी संपर्क में रहे और उसी दौरान उन्होंने विदेश सेवा में बाबू की नौकरी कर ली। इस नौकरी के चलते वे दिल्ली चले गए और अपने साथ दोनों छोटे बेटे बेटियों को साथ में रखा और उनके साथ वे दिल्ली भी रह और विदेश भी गए। ये वो समय था जब विदेश जाना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। इस दौरान वे जापान, कुवैत, इंग्लैण्ड, बांगला देश रह आए। जिस वक्त बांगला देश में शेख मुजीब की हत्या हुई उस वक्त वे बांगला देश में थे। बड़े बेटे बेटी में से दोनों मुख्यालय पर अपने कमरों मे। इसके अलावा पढ़ाई के लिए सबसे मुफीद जगह यानि गज्जू के यहां रहे। ये वो काल है जब रिश्‍तेदारियों मे लोग बाग अपने बेटे बेटियों को चाचा, मामा, ताऊ, फूफा, नाना नानी, दादा दादी के यहां रखते थे बकायदा रहने के लिए और कोई कभी भी किसी के घर बिना बताए आ जा सकता था।

तो शिब्‍बू भैया जिन दिनों जापान में थे उनके बड़े बेटे नितिन यानि दादा भाई छप्पू नायब तहसीलदार के यहां पानसेमल तहसील मुख्यालय में रह रहे थे। वे कक्षा नौ में थे उन दिनों। वहीं इनसे छोटी बहन यानि चारूलता मने दीपू मुख्यालय यानि इन्दौर में उनके खुद के कमरे में रहतीं रहीं नंबर जीन की देख रेख में। वे और उस घर के सारे लड़के लड़कियां पी एम टी यानि मेडिकल की सघन तैयारी करने के लिए प्रयासरत रहे। एक लंबे समय तक कोई भी चयनित नहीं हुआ। पढ़ाई सबकी इकठ्ठा होती रही मजे मजे में। अंततः बी ए एम ए बी एस सी एम एस सी या बी काम एम काम करते रहे सब लोग। पहला ब्रेक थ्रू मिला दिव्येन्दु को जो गणेशीलाल यानि छप्पू भैया के बेटे हैं और उन्हें भी मीसाबंदी के आरक्षण की वजह से दाखिला मिला। पिछली पीढ़ी के मुन्नू और टिक्कू के बाद मिसिरों के यहां डाक्टरी में इस पीढ़ी में पहले डाक्टर बने।

नितिन का चयन नहीं हुआ। वे गन्नू भैया के यहां रहने चले गए। बी एस सी पार्ट वन वे कर चुके थे फिर उसके आगे उन्होंने विज्ञान छोड़ा और बी ए किया फिर एम ए किया हिन्दी में । उनका विश्‍वविद्यालय में तीसरा नंबर था। इस दौरान उन्होंने कालेज में और विश्‍वविद्यालय में बहुत सारे संबंध स्थापित किए। वे बेहद मिलनसार और जीवन को छक कर जीने वाले व्यक्ति रहे। उन्होंने पी एच डी भी की और इधर उधर की भटकन के बाद वे इस्लामिया करीमिया कालेज में हिन्दी के प्रोफेसर बने। उनसे छोटे दीपंकर कोशिश कर रहे थे इंजीनियर बनने की। पर वे अंत तक दसवीं से आगे नहीं जा पाए जबकि वे पढ़ते रहे ढेर किताबें और विशयों से संबंधित एकदम लेटेस्ट किताब हुआ करती थी पर विशयों के नंबर उनके दो अंकों को भी नहीं छू पाए।

दिखने में सुन्दर मुन्दर गोरे नारे पर वे कुछ भी गंभीर करने या पढ़ने लिखने में लगभग नाकाम। उनके पिता का चयन ए जी आफिस से विदेश विभाग की कारकून की नौकरी के लिए हो गया था वे दिल्ली में रह रहे थे और बीच बीच में उनकी पोस्टिंग विदेश भी होती रही। तेज खोपड़ी के रहे एजी आफिस में रह कर उन्हें पैसे कमाने के गुर पता थे जिसका गहरा ताल्लुक लोगों की जरूरत से होता है फिर विदेश जाने के लिए वीसा की जरूरत होती है जल्दी होती है जिसे उस जमाने में बकायदा तय फीस के तहत मुहैया करने का जिम्मा था शिब्‍बू के पास सो वे पैसा कमाने की मशीन थे। दिल्ली के अलावा उनकी पोस्टिंग रही जापान, कुवैत, बेल्जियम, पाकिस्तान फिर बांगला देश और आखिरी पोस्टिंग रही इंग्लैण्ड की। उनके दो बेटे दो बेटी हुए। जिनमें से बड़े वाले को संयुक्त परिवार के हवाले किया और बाद को बड़ी लड़की और छोटे बेटे को भी कुवैत के बाद भाइयों के पास हिन्दुस्तान में छोड़ा। पैसे उन्होंने इफरात में दिए तो भाइयों को भी भारी नहीं पड़ा। मतलब यूं रहा कि छोटी बेटी को वे साथ रखे रहे और बाकी तीनों को भाइयों में बांट दिया था। सबसे बड़े महाखुराफाती जीव रहे उन्होंने खुद तय किया था कि किसके यहां कब तक रहें सो पढ़ाई के लिय उन्हें गज्जू चाचा के यहां जमा और उनकी खासियत यह रही कि वे सबको पटा लेते थे और अपना काम कर ही लेते थे कोशिश उन्होंने डाक्टर बनने की की पर विफल रहे तो अंततः हिन्दी में एम ए पी एच डी कर के प्रायवेट काॅलेज में प्रोफेसर हो गए तो उनकी जीवन सुधर ही गया। तो बात हो रही थी टिप्पू की। ये वो काल था जब हर पढ़ने लिखने वाले की तमन्ना डाक्टर या इंजीनियर बनने की होती थी। घर में पहले से दो डाक्टर और एक इंजीनियर मौजूद थे सो सारे लोग डाक्टर या इंजीनियर बनने के सपने देख रहे थे। ज्यादातर लोग गणित या बायोलाजी ले रहे थे बाद को असफल होने पर बी एस सी एम एस सी करते थे लोग। उन दिनों डाक्टरी के लिए ग्यारहवीं के बाद बी एस सी पार्ट वन कर एक परीक्षा देनी होती थी पी एम टी जो उन दिनों ईमानदारी से होती थी जिसके आधार पर चयन हो कर मेडीकल कालेज में प्रवेश मिलता था। इंजीनियरिंग में प्रवेश ग्यारहवीं के पाए अंकों के आधार पर सीधे होता था उन दिनों। टिप्पू भाई ने भी गणित लिया पर दिन भर रात भर किताबों से सिर मारने के बावजूद उनमें और उनकी बड़ी बहन शिन्‍नी में यह प्रतियोगिता रही कि कौन किससे कितने कम नंबर लाता है। इसमें आगे रहे हमारे टिप्पू भाई जो भरसक प्रयास करने पर भी दसवीं से आगे नहीं बढ़े पर शिन्‍नी ने अपनी राह बदली और कई बार पी एम टी देने के बाद वे अंग्रेजी में एम ए कर कालेज में लग गईं। टिप्पू उस्ताद ने दसवीं के दम पर पोलेटेकनीक में एडमिशन लिया पर वे डिप्लोमा कर पाए या नहीं ये वे ही जानते हैं बस। एक बात जरूर रही कि उनके पास सिविल इंजीनियरिंग की आलातरीन किताबें रहीं और ड्राइंग बनाने के सबसे अच्छे उपकरण उनके पास थे जिनमें से ज्यादातर की तो पैकिंग भी नहीं खुली। एक और खासियत थी उनकी कि वे घंटों एकटक बैठे रह सकते थे किताब खोलकर बिना पढ़े। पर इसके साथ ही उन्होंने एक जरिया पकड़ा कमाई का वो यूं कि एक बंदा जो उनके साथ था वो लोक निर्माण विभाग में एस डी ओ था उसके जरिए उन्होंने उस विभाग में ठेकेदारी कीऔर उनकी वो ठेकेदारी दिलचस्प यूं थी कि उसे रिंग का काम कहा जाता था जिसमें इस तरह के ठेकेदार ठेके में भाग लेने की इच्छा जाहिर करते थे और जो काम लेने के प्रबल दावेदार ठेकेदार उन्हें कुछ रकम देकर ठेके में भाग लेने से रोक देते थे। इसके अलावा काम किया उन्होंने सप्लाइ का और रखरखाव के कामों का जिनमें ठेके होते रहे कागजों पर काम भी होता रहा कागजों पर जिसमें से दस प्रतिशत उन्हें मिल जाता था और बाकी विभाग के अधिकारी बांट लेते थे। इस बिना काम किए पैसे कमाने के नुसखे ने टिप्पू को मालामाल कर दिया था। और कुछ योग्यता हो न हो पर मौकों का भुनाने का हुनर रहा उनमें। इसके अलावा उनके बड़े भाई के साथ मिलकर पिता के लाए फारेन इम्पोर्टेड सामान को ठिकाने लगाया जिससे उन दोनों ने गाड़ियां खरीदीं, मकान बनवाया आलीषान और ऐश किए। आखिर यह सब उन्हीं का था उन दोनों ने उसका सही समय पर सही इस्तेमाल कर लिया और घर में किसी को भनक भी नहीं पड़ी। टाइमिंग के दोनों भाई माहिर हैं इसलिए तमाम तमाम भिन्नताओं के चलते भी दोनों भाइयों को जो तीन बातें जोड़ती हैं एक तो लालच दोनों में कूट कूट कर भरा है दूसरा खुदगर्जी कहें या स्वार्थ कहें उसमें भी दोनों एक हैं और तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात जिसने इन दोनों भाइयों को जोड़ा वो हैं उनकी बीवियां जो सगी बहनें हैं और अब सगी देवरानी और जेठानी भी। बड़े भाई की शादी के दौरान ही भाभी की सगी बहन पर लट्टू हो गए और तब तक लट्टू रहे जब तक शादी न हो गई उसके बाद से तो वे चकरघिन्नी हैं। लिहाजा बहनें अब देवरानी जेठानी की भूमिका में पूरे खानदान की नाक में दम किए रहीं।

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