इस दश्‍त में एक शहर था - 2 Amitabh Mishra द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इस दश्‍त में एक शहर था - 2

इस दश्‍त में एक शहर था

अमिताभ मिश्र

(2)

मैं जो ये किस्सा शुरू कर रहा हूं वो एक छत के नीचे रहने वाले परिवार से खिचता हुआ जाता है पूरे कसबे तक जो अब महानगर की शकल ले रहा है। फिलहाल बच्चा महानगर है इसलिए कुछ निशान हैं यहां इंसानियत के अपनेपन के भूले भटके लोग हैं यहां जो तब भी पागल थे और अब तो एकदम ही निकले हुए इंतिहाई पागल हैं । ये बात है एक पंडित खानदान की, जो बसा है एक कस्बे में जिसकी रगों में खुशबू का व्यापार दौड़ रहा है। चूंकि घर पंडितों का था और मंदिर वाला भी तो सन्तानों के नाम भगवान के नाम पर रखे गए और वो भी एक ही। विनायक, गणपति, गणेशीलाल, शिवानन्द, गजपति, पार्वतीनन्दन, शंकरलाल, बुद्धिनाथ, त्रिलोकीनन्दन यानि बिन्नू, गन्नू, छप्पू, शिब्बू, गज्जू, पप्पू, खप्पू, मुन्नू, तिक्कू। और बेटी थी दुर्गा। अवतार एकत्र थे वहां पर एक ही घर में। ये जो नौ रहे जो नाम के अलावा नंबर से भी आपस में बात करते रहे। मसलन विनायक भैया एक नंबर चाचा और उनकी पत्नी नंबर एक चाची, गणपति दो नंबर चाचा और उनकी पत्नी दो नंबर चाची, गणेशीलाल तीन नंबर चाचा और उनकी पत्नी नंबर तीन चाची, शिवानंद चार नंबर चाचा और उनकी पत्नी नंबर चार चाची, गजपति पांच नंबर चाचा और उनकी पत्नी नंबर पांच चाची, पार्वतीनंदन छः नंबर चाचा और उनकी पत्नी नंबर छः चाची, शंकरलाल सात नंबर चाचा और उनकी पत्नी नंबर सात चाची, बुद्धिनाथ आठ नंबर चाचा और उनकी पत्नी नंबर आठ चाची, त्रिलोकीनंदन नौ नंबर चाचा और उनकी पत्नी नंबर नौ चाची ।इन सबको उनके रहने का वातावरण आसपास खोली में बसे लोग जिन्हें इन पंडितों की प्रजा कहा जा सकता है, बांडे की चाल के किरायेदार, सामने अखाड़े के पिद्दी पहलवान लोग अद्भुत गरिमा प्रदान करते थे।

पंडित कालिकाप्रसाद अपने पिता की अर्जित की हुई संपत्ति और प्रतिष्ठा पर जिए उन्होंने अपने लिए न तो कोई संपत्ति अर्जित की और न ही कोई प्रतिष्ठा। बल्कि गंवाई ही। उन्होंने गुलछर्रे उड़ाए और उड़ाते रहे बस क्योंकि वही उन्हें आता था। इसी दौरान एक महिला से और उनके संबंध बने जिससे दो पुत्र और हुए। यह महिला उन्हें एक किराएदार के रूप में मिली थी जो उन कुछ खोलियों में रहती थी जो उनके पिता ने कर्जे के बदले अपने नाम कर लीं थीं। तो उस महिला ने उन्हें फांसा या उन्होंने उसकी मजबूरी का फायदा उठाया था या दोनों तरफ आग थी बराबर लगी हुईं। नतीजतन वे गर्भवती हुई और दो बार हुईं । कालिकाप्रसाद ने उस महिला से बकायदा विवाह भी कर लिया। उनके दो बेटों को कभी वो अधिकार या जगह नहीं मिली जो पीलियाखालियों को प्राप्त थी।

ये सब जब उनकी पत्नी को पता चला तो उन्होंने उन्हें अपने जीवन और घर से बाहर कर दिया। तो ये कारण था कि वे बाहर कुटिया में रह रहे थे। वो कुटिया जो बाहर भी थी और अंदर भी यानि बिलकुल किनारे पर सड़क किनारे। बाहर वाले कुएं के पास।

इन दोनों यानि संपत्ति और प्रतिष्ठा की क्षति होते होते पंडित जी के तीन बेटे बड़े हो चले थे। सबसे बड़े विनायक ने बड़े होने के अधिकार के चलते बिना किसी को जताए बताए कुछ संपत्ति खुद कालिका प्रसाद से ऐंठ ली और चलते बने। वे पढ़ने में बेहद जहीन थे दिखने में सुदर्शन दिमाग के तेज और दुनिया के साथ चलने वाले। वे पीलियाखाल के नाले के एक तरफ वाले बाड़े में बसने वाले जीव कतई नहीं थे। उन्होंने पढ़ाई की थी। वे मिसिर खानदान के पहले मेट्रिक, पहले बी ए थे आखिर। नौकरी के लिए आवेदन किया तो वे पुलिस में दरोगा के लिए चुन भी लिए गए। यह अंग्रेजों का जमाना था। उनकी पोस्टिंग उनके घर से दूर बिलासपुर जिले में पेंठ्रारोड में की गई थी। इस बीच उनकी शादी भी हो गई थी। उस जमाने में शादियां पीलियाखाल की बहुत ही अनूठी होती थी । जिस बारे में आगे सही मौके पर बात करेंगे।

तो विनायक ससुराल से भी संपन्न थे। कुछ पैसा वहां से लिया कुछ पिता से ऐंठा और चल पड़े पेंठ्रारोड नौकरी करने। पुलिस की नौकरी थी। थानेदार थे सो पैसा भी कमाया और रौब भी खूब गालिब किया। आधे अंग्रेज तो थे ही अब वे पूरे अंग्रेज हो चले थे। अच्छा खासा रौब था इसी रौब के चलते किसी मामले में अंग्रेजों की हुकुमऊदूली की होगी या कुछ लोगों का मानना है कि मसला लेन देन का था पर हमारे विनायक बाबू ने उसे बगावती तेवर का जामा पहनाया सो कुछ तो बर्खास्तगी हो गई सो पैसा भी कमाया और बागी का खिताब भी लेकर वापस घर को आ गए। इस बार वापसी में उनके पास पैसे थे एक खास किसम की दरोगाई अकड़ और तेवर शहीदाना कि अंग्रेजों से बगावत कर अच्छी खासी पुलिस की नौकरी छोड़ आए। यहां माहौल देखकर वे शहर के कांग्रेसियों से जुड़ गए थे। वे लिखते भी थे यहां अखबारों के लिए बकायदा लिख रहे थे, परचे भी लिख रहे थे। मन से न सही पर तन से वे सड़कों पर उतर कर बकायदा स्वाधीनता के आंदोलन में भाग ले रहे थे। वे बेहद नफीस किसम के आदमी थे। उनके शौक बहुत उच्च कोटि के थे। उस समय उस दौर में उनकी गिरी हुई हैसियत के घर में भी वे न सिर्फ फोटोग्राफी करते थे बल्कि बकायदा डेवलप भी करते थे वे अंधेरे कमरे में जिसे डार्क रूम कहा जा सकता है। वे उस समय की साहित्यिक पत्रिकाओं में मसलन माधुरी, माध्यम वगैरा में छप रहे थे। लेख, कहानी इत्यादि। वे उपन्यास भी लिख रहे थे। पर तभी इसी दरम्यान देश की आजादी की घटना घटी और इस आजादी के साथ ही उन्हें अंग्रेजों से तथाकथित बगावत का पुरस्कार मिला और वे सरकारी नौकरी में बहाल कर दिए गए। इस बार उन्का महकमा था महकमा ए बंदोबस्त और उन्हें ठीक पास के शहर में बन्दोबस्त अधिकारी की नियुक्ति मिली।

देश की आजादी और विभाजन इन दो घटनाओं ने इस देश में एक अजीब सी स्थिति पैदा की। आजादी की लड़ाई में जो लोग कंधे से कंधा मिला कर लड़े। जिनका दुश्‍मन तब एक था। जो हर सुख दुख में शरीक थे हर वार त्यौहार में शामिल थे। कैसी ये हवा चली कि वे रातों रात दो कौमें एक दूसरे की जान के दुश्‍मन हो गए, एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए जिस हवा की बदबू फ़िज़ाओं में अभी तक है कुछ लोग हैं जो इस आग को हमेशा सुलगाए रखते हैं। तो हुआ यूं कि कुछ मुसलमान पाकिस्तान चले गए और कुछ हिन्दू हिन्दुस्तान आ गए। बाकी जो जहां रह रहा था वह वहां रहता रहा।

हमारे दरोगा जी यानि कि अब जो बंदोबस्त अधिकारी थे के अधीन अब वह सारी संपत्ति थी जिसे विवादास्पद कहा जा रहा था यानि उन मुसलमानों की संपत्ति, जो देश छोड़कर पाकिस्तान चले गए, की देखरेख और सबसे खास बात आबंटन विनायक मिश्रा जी के अधीन था। यह एक ऐसा काम था जो उन्हें खूब रास आया। इस काम में उनकी बुद्धि और अंग्रेजों के जमाने की दरोगाई के अनुभव ने बहुत रंग जमाया। नज़र अली की मिल, अनवार मियां का प्रेस जो उनका एक अड्डा था जिसे उन्होंने ही हथिया लिया और मुकम्मल खुद की प्रेस डाल ली, जुबैदा बेगम का महल, कल्लू और तमाम लोगों के छोटे छोटे मकान, कुछ झोंपड़ियां, दाल मिल, आटा चक्कियां, नमकीन चाय की दुकान, वो तालाब जिसमें सिंघाड़े की खेती होती थी और मछलियां पकड़ीं जातीं थी, तमाम तमाम दुकानें जिनके आबंटन में खासा पैसा ऐंठा बिन्नू बाबू ने। महीनो उनके यहां दाल चावल आटा मछली गोश्‍त ( वे ठेठ कनौजिया ब्राम्हण कुल से थे बीस बिस्वा कान्यकुब्ज जिनके यहां मांसभक्षण शास्त्रसम्मत है। ) वगैरा सब आता रहा।

एक आदमी कितने किरदार एक साथ निभा सकता है उसका नायाब नमूना रहे विनायक जी मिश्रा। वे बेहद लालची किसम के थे पर दान पुण्य और गरीबों को नौकरी और तमाम लोगों को मदद पहुचाते रहे। महकमे में सबसे भ्रष्ट, बददिमाग अधिकारी पर इससे इतर बेहद नफीस, मीठा बोलने वाले। बहुत व्यावहारिक जीवन में और लेखन में बहुत आदवार्शवादी थे। अंगे्रजों के क़ायल थे उनके रहन सहन आचार व्यवहार कपड़े पहनने के तरीके सलीके के क़ायल थे और कायल थे अंग्रेजी भाषा के पर अ्रग्रेजों के बागी भी रहे वे। खांटी किसम के ब्राम्हण, एकदम बीस बिस्वा उच्च कुल के कान्यकुब्ज ब्राम्हण, मनुस्मृति के अनुयायी, जातिप्रथा के घनघोर अनुयायी और उसके साथ बल्कि समानानंतर महात्मा गांधी के अनुयायी भी। वे एक ईमानदार नागरिक थे, भ्रष्टाचार के कट्टर आलोचक पर भ्रष्ट व्यवस्था के भ्रष्टतम औजार भी वही थे। इन सब पर खरे उतरना रस्सी पर चलने की तरह था और कभी कभार चूक हो जाती थी तो रास्ते वही भ्रष्टाचार के जिनकी महारत अंग्रेजों के समय से ईज़ाद किए हुए थे पर उन्हें एक समय यह लगा कि अब न तो सरकार को उनकी जरूरत है और न ही उन्हें इस तरह की नेोकरी की तो उन्होंने तत्काल ये नौकरी छोड़ी और जो अनवार मियां का प्रेस उन्होंने बन्दोअस्त अधिकारी रहते हुए हड़प लिया था उसको चालू कर दिया । ये वो दौर था जब शहर में इक्के दुक्के प्रेस हुआ करते थे तो चल निकला था यह प्रेस धड़ल्ले से। अब उन्हें एक विश्‍वस्त हाथ की जरूरत थी न साथी की न साझीदार की। उन्हें तो अपने छोटे भाइयों की याद आई बल्कि एक भाई की जो इन दिनों फरारी में दिन काट रहा था। ये एक अजीब और दिलचस्प किस्सा है। जिस पर आप गौर फरमाएं

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