म्यूजियम में चाँद amitaabh dikshit द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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म्यूजियम में चाँद

“कहते हैं पिछली सदी का चांद इस सदी जैसा नहीं था” एक बोला.

“नहीं बिल्कुल ऐसा ही था” दूसरे ने पहले की बात काटी.

“तुम्हें कैसे मालूम है” पहले ने पूछा.

“मैंने म्यूजियम में देखा था” दूसरे ने बताया.

“वहां चांद कहां से आया” पहले ने पूछा.

“यह मुझे क्या पता” दूसरा बोला.

“तुमने किस म्यूजियम में देखा था” पहले ने फिर सवाल किया.

“सरकारी म्यूजियम में” दूसरे ने अपनी जानकारी जाहिर की.

“चलो वही चलते हैं चलोगे “ पहले ने चलने की तैयारी करते हुए कहा.

दोनों चल दिए.

म्यूजियम पहुंचने पर पता चला कि वह चांद जरा टेढ़ा हो गया है तो आजकल म्यूजियम में नहीं है मरम्मत होने गया है जैसे ही मरम्मत हो जाएगी वापस आ जाएगा.

वे दोनों इससे आगे कुछ पूछते हैं इससे पहले लंच का समय हो गया और कर्मचारी खाना खाने चले गए.

अब समस्या यह थी कि चांद कहां देखने को मिलेगा और अगर नहीं मिला तो कैसे पता चले कि पिछली सदी का चांद इस सदी के चाँद जैसा था या नहीं था.

सो दोनों ने सोचा कौन झंझट में पड़े. चलो बहस का कोई नया मुद्दा तलाशते हैं.

सिगरेट सुलग गयी. चाय का आर्डर दे दिया गया और नए मुद्दे की तलाश की जाने लगी

मुद्दा मिला……….. चांद “टेढ़ा” कैसे हुआ ?

यानी सवाल यह है कि चांद “टेढ़ा” कैसे हुआ ?

दोनों पत्रकार थे, पढ़े लिखे थे, बुद्धिजीवी थे, संस्थाओं में कमेटियों में टीवी चैनल पर तमाम बहसों में हिस्सा लेते थे, अपने शोध संस्थान चलाते थे,दोनों पत्रकार थे, पढ़े लिखे थे, बुद्धिजीवी थे, संस्थाओं में कमेटियों में टीवी चैनल पर तमाम बहसों में हिस्सा लेते थे, अपने शोध संस्थान चलाते थे और सरकार से ग्रांट लेते थे ......यानि कुल मिलकर दोनों धाक वाले थे.

सो दोनों ने सरकार के गृह मंत्रालय को यह खबर देते हुए एक रिपोर्ट बनाकर भेजी कि म्यूजियम वाले चांद के टेढ़े होने का सही-सही कारण का पता लगाया जाए और बिना देरी किये आवश्यक कदम उठाया जाए क्योंकि ऐसा लग रहा है कि म्यूजियम के कर्मचारी विपक्ष के इशारे पर या अपनी ग़लती को छिपाने के लिए कोई साजिश रच रहे हैं.

दोनों ने सरकार के सामने इसी आशय का एक प्रस्ताव भी रखा है कि वे दोनों इसी प्रकार का एक शोध ब्यूरो चलाते हैं इस ब्यूरो के माध्यम से चाँद के टेढ़ेपन के कारणों का पता लगा सकते हैं बशर्ते सरकार उन्हें सहायता करें.

गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय,पर्यावरण मंत्रालय और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय को समस्या में पर्याप्त गंभीरता नजर आई और इसीलिये सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए बुद्धिजीविओं की मदद लेने का निर्णय लिया.

परिणामस्वरूप विभिन्न संबंधित शोधकर्ताओं व संस्थाओं को पत्र भेजे गए कि वह इस समस्या से निबटने के लिए सरकार की मदद करें. सरकार इसके लिए जरूरी आर्थिक सहायता भी उपलब्ध कराएगी.

कार्य आगे बढ़ा कई शोध संस्थान आगे आए और जल्दी ही ये पिछली सदी का “टेढ़ा चाँद” अखबारों की सुर्खियां और टीवी चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज़ बनने के साथ साथ हर शाम को होने वाले पैनल बहस का मुद्दा भी बन गया.

इन शोध संस्थानों में बहुत गंभीरता से इस विषय पर कार्य किया गया. उन्होंने जाने-माने जासूसी प्रकार के लेखकों से आलेख मंगवाए जिससे चांद में खराबी के कारणों का वैज्ञानिक परीक्षण किया जा सके.

खूब हो हल्ला हुआ. अखबारों में मोटी मीटिंग हेडिंग छपने लगी. टीवी चैनलों पर 24 घंटे की बहस चलने लगी. आखिर मुद्दा इतना महत्वपूर्ण बन गया इसमें सरकार से इस्तीफ़ा माँगा जाने लगा.

विपक्ष समझ चुका था कि इस मुद्दे में सरकार को गिराने की ताकत है.

संकट बढ़ता देख सरकार ने चुने हुए 3 शोध संस्थानों को जल्द से जल्द अपनी रिपोर्ट तैयार करके भेजने का आदेश दिया. चुने गए 3 संस्थानों में से एक संस्थान उपरोक्त दोनों व्यक्तियों का था.

पहले संस्थान द्वारा 3 वर्ष की लंबी और थका देने वाली मेहनत के बाद निम्नलिखित परिणाम सामने लाए गए:

1- पिछले दशक के दौरान घटी सभी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की घटनाओं में यह सबसे महत्वपूर्ण घटना है

2- यदि जल्द कारण न खोजे गए तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की प्रतिष्ठा को आंच आ सकती है.

3- इसमें किसी विदेशी खुफिया एजेंसी के हाथ की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

4- प्रचार माध्यमों ने इतना ज्यादा तूल दे दिया है कि यह देश की शांति के लिए खतरा बन गयी है.

5- इसके कारणों की तह तक पहुंचने में अभी 2 वर्ष का समय और लगेगा.

6- शोध के बढ़ते खर्च को देखते हुए सरकार हमें दुगनी अनुदान राशि प्रदान करे तभी हम इस समस्या

के सही-सही कारणों तक पहुंचने के लिए आगे बढ़ पाएंगे.

2 वर्ष और कठिन परिश्रम करने के बाद इसी संस्थान ने संस्तुति की कि अच्छा हो इस समस्या से निबटने के लिए एक ओर तो इसके संवैधानिक पक्ष की तरफ ध्यान दिया जाए और जिसके लिए अविलम्ब किसी रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में जांच आयोग का गठन हो और दूसरी तरफ इस समस्या से व्यवहारिक रूप से निपटने के लिए संसद के पटल पर ये मुद्दा रक्खा जाए और बिना विलंब विपक्ष को चाहिए के वे करोड़ों लोगों की भावनाओं को मद्दे नज़र रखते हुए अपनी ज़िम्मेदारी निभाएं और इस समस्या के पीछे के षडयंत्र से पर्दा उठाने के लिए सरकार से जेपीसी (Joint Parliamentary Committee) के गठन की मांग करें. जेपीसी का गठन होते ही सरकार को चाहिए कि इस तथ्य से संबंधित सारे कागजात जेपीसी के सामने रखे.

चुनाव नज़दीक आ चुके थे और ये मुद्दा सरकार की नाक में दम करे था.

नतीजतन सरकार ने दूसरे संस्थान को फटकार लगाई और रिपोर्ट जल्दी पेश करने को कहा.

इस दूसरे शोध संस्थान की इतने दिनों में विपक्ष से अच्छी सांठगाँठ हो चुकी थी तो इस दूसरे शोध संस्थान ने यह प्रोजेक्ट यह कह कर वापस कर दिया कि न केवल सरकार द्वारा दी गई राशि इतनी कम थी की उससे इस प्रोजेक्ट पर कोई गंभीर कार्यवाही नहीं की जा सकी बल्कि सरकार के आधीन आने वाले म्यूजियम की तरफ से भी हमें उचित सहयोग नहीं मिला. दूसरी ओर मीडिया ने इस बात पर जो इतना ज्यादा शोर मचा दिया तो इससे हमें जो तथ्य मिले भी वह तोड़ मरोड़ कर पेश किए गए बयानों के सिवा कुछ भी नहीं है.

अब तक चुनाव का समय एकदम समीप आ चुका था और सरकार की मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही है ऐसे में उन दोनों व्यक्तियों के संस्थान ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए इस समस्या का कारण स्पष्ट कर दिया और सरकार को और अधिक बदनामी से बचा लिया.

उनकी रिपोर्ट में जो कारण बताए गए वह बहुत ही यथार्थवादी समीचीन और तकनीकी रूप से एकदम सही और तार्किक थे:

उन्होंने बताया कि क्योंकि हिंदी साहित्य के किसी गजानन माधव “मुक्तिबोध” नाम के अज्ञात कवि ने अपनी कविताओं का एक संग्रह एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करा दिया जिसका शीर्षक था “चांद का मुंह टेढ़ा है “. तो इसका एक अप्रत्यक्ष प्रभाव यह हुआ कि:

1- या तो म्यूजियम में रखे चांद ने उपरोक्त पुस्तक पढ़कर अपना मुह टेढ़ा कर लिया

2- या फिर उपरोक्त पुस्तक के शीर्षक के प्रभावस्वरूप म्यूजियम में रखे चांद में गड़बड़ी मान ली गई और उसे मरम्मत के लिए भेज दिया गया.

अतः इस पूरी समस्या के लिए यह मुक्तिबोध नाम का आदमी ही दोषी है और वह जहां कहीं भी हो उसे पकड़कर बुलाया जाए और तुरंत उस पर मुकदमा चलाकर सारे मीडिया को और विपक्ष को जवाब दे दिया जाए.

सरकार ने राहत की सांस ली और त्वरित कार्यवाही हुई.

अब क्योंकि मुक्तिबोध तो सशरीर पृथ्वी पर थे नहीं अतः न्यायालय में जैसे ही ये विवाद पंहुचा तो इस मुकदमे की पहली सुनवाई के समय ही यह आदेश दे दिया गया कि इस पुस्तक पर गंभीर धाराओं के अंतर्गत देश ई शांति भंग करने का केस बनता है और इस कारण तुरंत प्रभाव से इस पुस्तक की सभी प्रतियों को चाहे वह जहां हो संग्रह करके उन्हें न्यायिक हिरासत में ले जाया जाए और और अगली सुनवाई तक यथासंभव इस पर अखबार और टीवी चैनलों इत्यादि में चर्चा पर रोक लगा दी जाए क्योंकि ये मामला न्यायलय में विचाराधीन है .

पता नहीं कैसे शीघ्र ही अगली सुनवाई भी पूरी हो गई और अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया

अब मीडिया में रोज नए कयास लगाए जाने लगे कि आखिर फैसला होगा तो होगा क्या. कौन दोषी होगा. किसे सजा मिलेगी . मिलेगी भी या नहीं.

दूसरी तरफ उन सब लोगों के व्यक्तिगत संग्रह से भी वह पुस्तक सरकार ने पुलिस की मदद से वापस मंगा ली जिन्होंने बड़े चाव से इसे खरीद कर पढ़ा था और अपने घरों में रक्खा हुआ था . लाइब्रेरी और स्कूल कॉलेजों की तो बात ही छोड़िए.

प्रकाशक तो उसी दिन से अंडर ग्राउंड हो गए थे जिस दिन उक्त शोध संस्थान की रिपोर्ट आई थी. सुना है वह अपना व्यवसाय बेच कर विदेश में कहीं सेटल हो गए हैं.

इधर सरकार की सारी कोशिशों के बावजूद चुनाव हुए और सरकार बदल गई.

आखिर वो दिन भी आ गया जब न्यायालय ने अपना सुरक्षित फैसला सुनाया. न्यायालय ने अपने 2000 पन्नों के फैसले में मूलभूत बाद यह लिखी की उपरोक्त शोध संस्थान द्वारा दिए गए कारण बिल्कुल सही है और उस समय की सरकार को बिना मतलब बदनामी झेलनी पड़ी अतः इस पुस्तक को सश्रम उम्र कैद की सजा सुनाई जाती है.

अब जैसा कि होता है तुरंत बचाव पक्ष की तरफ से दंड के विरोध में हाई कोर्ट में अपील की गई मगर हाई कोर्ट ने फैसले में कोई बड़ा परिवर्तन न करते हुए केवल इतना जोड़ दिया की सारी प्रतियों को एक ही कारागार में ना रखा जाए इन्हें देशभर के अलग-अलग जेलों में स्थानांतरित कर दिया जाए जिससे इनमें किसी प्रकार की संगठन शक्ति ना विकसित हो पाए और यह एक दूसरे से संवाद करने की स्थिति में भी न रहे और न ही अन्य कैदियों को प्रभावित कर सकें.

पुनः इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई और साथ में यह याचिका भी डाली गई थी इस केस को सुनने के लिए जजों का एक पैनल नियुक्त हो और वह पैनल संवैधानिक दृष्टिकोण से उस पुस्तक को पूरी तौर पर पढे तथा उसके बाद ही कोई निर्णय ले. उपरोक्त न्यायिक प्रक्रिया 5 वर्ष तक चलती रही.

एक बार फिर चुनाव का मौसम आ गया और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का भी समय भी आ गया.

मौजूदा सरकार चाहती थी कि निर्णय चुनाव के बाद आए लेकिन वह सरकार जो अब विपक्ष में थी वह चाहती थी निर्णय चुनाव से पहले आए.

तिथियां घोषित हो जाती थी किंतु सुनवाई ना हो पाती थी.

अंततः सुनवाई हुई और सुप्रीम कोर्ट में अपना निर्णय सुना दिया.

लगभग 3000 पेज के इस निर्णय में मुख्य बात यह थी कि:

1- जजों के पैनल ने पुस्तक को लगभग पांच सौ बार संवैधानिक दृष्टिकोण से पढा

2- और उसके बाद लगभग एक हजार बार विधिक दृष्टिकोण से पढा.

3- तदोपरांत अनेकों बार व्यवहारिक दृष्टिकोण से पढा.

चूंकि सुप्रीम कोर्ट एक संविधान द्वारा स्थापित एक विधिक संस्था है इस लिए हर दृष्टिकोण से पढने के बावजूद इस पुस्तक को साहित्यिक दृष्टिकोण से पढने की आवश्यकता ही नहीं रही.

वकीलों और जजों द्वारा म्यूजियम में काम करने वाले कर्मचारियों को अनेक बार सम्मान भेजकर बुलाया गया और उनके बयानों को गौर से जांचा परखा गया .

चांद जिस मिस्त्री के यहां बनने गया था उस मिस्त्री को भी अदालत में कई बार बुलाकर उस से गहन पूछताछ की गयी और हर बार उसका स्टेटमेंट रिकॉर्ड किया गया और आखिर अंत में यह पाया गया कि यह सही है कि यह पुस्तक पिछली सदी के चांद को लेकर लिखी गई मगर पिछली सदी के चांद ने पुस्तक को पढ़ते समय यह ध्यान नहीं रखा कि वह केवल उपमा दी जा रही है उसको सीधे-सीधे कुरूप नहीं कहा जा रहा है. ठीक तरीके न समझ पाने के कारण चांद तनावग्रस्त हो गया और उसने अपना मुंह टेढ़ा कर लिया.

दूसरी तरफ ध्यान देने योग्य बात ये भी है कि इस सदी का चांद 19 बरस का होकर खूबसूरत और वयस्क हो चुका है. ये तो नहीं पता कि वो पुस्तक इस सदी के चाँद ने पढी है या नहीं क्योंकि अन्तरिक्ष में होने के कारण अदालत उसका बयां नहीं ले सकी मगर देखने में तो वो किसी भी तरह से टेढ़ा मेढ़ा नहीं लग रहा है तो अगर इस सदी के चाँद ने वह पस्तक पढी है और फिर भी उसने अपना मुह टेढ़ा नहीं किया तो इस सदी का चांद पिछली सदी के चांद से ज्यादा परिपक्व और अकल मंद है.

तीसरी ध्यान देने योग्य बात ये भी है कि कि इस पूरे मामले में तत्कालीन सरकार का कोई दोष नहीं है हाँ ये ज़रूर हो सकता है कि बुढ़ापे के कारण पिछली सदी के चांद को पुस्तक की बात समझने में कोई परेशानी आई हो और उस परेशानी के चलते उसका मुंह टेढ़ा हो गया हो.

खैर जो भी हो नतीजा कुल मिलाकर यह है कि इसमें पुस्तक का कोई दोष नहीं यह दोष चांद का है और वह भी अज्ञानवश,लापरवाहीवश है या जानबूझकर कहा नहीं जा सकता.

मगर फिर भी किसी ना किसी को तो सजा देनी ही है तो न्यायालय पिछली अदालतों के निर्णय को पलटते हुए इस निर्णय पर पहुंचा है कि वास्तव में दंड पुस्तक को नहीं चांद को मिलना चाहिए क्योंकि यदि चांद को पुस्तक में लिखी बातों का अर्थ समझ में नहीं आया था तो उसे किसी और से सलाह लेते हुए उस अर्थ को ठीक तरह से समझना चाहिए था मगर उसने ऐसा नहीं किया यही उसका दोष है.

अतः दंड स्वरूप उस पिछली सदी के चांद को बिना किसी देरी किए तुरंत अंतरिक्ष में भेज दिया जाए फिर

चाहे ही वहां दो चाँद इकठ्ठा हो जाएं . दूसरी तरफ तुरंत प्रभाव से कैद की गयी सभी पुस्तक प्रतियां कैद खाने से मुक्त कर दी जाएं.

हेल ही वहां दो चाँद इकठ्ठा हो जाएं और भविष्य में सरकारों, कवियों, और भविष्य में सरकारों, कवियों, लेखकों द्वारा यह ध्यान रखा जाना बहुत ज़रूरी है कि इस तरीके की घटनाओं की पुनरावृत्ति ना हो क्योंकि ऐसी बातों से देश की व्यवस्था बिगड़ती है और अनावश्यक ही देशवासियों को और अदालतों को परेशानी होती है जहां पहले ही करोडो मुकदमें न्याय की राह देख रहे हैं.

चुनाव से 15 दिन पहले आए हुए अदालत के इस निर्णय का बड़ा व्यापक असर पड़ा और मौजूदा सरकार को इस निर्णय का खामियाजा भुगतना पड़ा.

पिछली वाली सरकार वापस आ गई और इस सरकार के कुछ थोड़े से संसद पंहुचे लोगों को अब ऊंघते हुए विपक्ष में बैठने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा.

अब निर्णय को सही तरीके से लागू करने की जिम्मेदारी नई सरकार पर आ गई

सरकार ने तुरंत कार्यवाही करते हुए चांद को वापस भेजने के लिए लांचर बनाने की योजना बनाई और इसके लिए वैज्ञानिकों का एक दल नियुक्त किया गया और उस मिस्त्री को उस वैज्ञानिक दल का नेता नियुक्त किया गया जिसके यहाँ चाँद मरम्मत के लिए गया था.

यह वैज्ञानिक दल लम्बे समय तक उसी लांचर को बनाने में व्यस्त रहा और चांद मिस्त्री के यहां पड़े पड़े जंग खाता रहा.

दूसरी तरफ भले ही उन दोनों व्यक्तिओं के शोध संस्थान के नतीजों को सर्वोच्च अदालत में तवज्जो नहीं मिली मगर जाती हुई सरकार ने इतनी बड़ी समस्या से निपटने के लिए उन दोनों व्यक्तियों के शोध संस्थान को विशेष तवज्जो दी और भविष्य में आने वाली बड़ी बड़ी समस्याओं से निपटने के लिए सरकार ने उन दोनों व्यक्तियों को सत्ता से हटने से पहले ही न केवल विशेष सलाहकार का पद प्रदान किया बल्कि उनके संस्थान का पुरस्कार स्वरूप राष्ट्रीयकरण कर दिया गया.

5 साल और बीत गए. न लांचर बना और न कोई नई समस्या आई. सब मज़े में हैं. मगर चाँद ने जंग खा खा कर एक दिन आत्महत्या कर ली पर उस पर आश्चर्य ये कि वो फिर म्यूजियम में पंहुच गया मगर इस बार ताबूत में.

इस इंतज़ार में कि कोई आकर उसे ताबूत से निकाले और एक बार पूरी सच्चाई के साथ उसे मुक्तिबोध की वही कविता सुना दे “चांद का मुंह टेढ़ा है”.

जिस दिन ऐसा होगा चाँद फिर से जिंदा हो जाएगा और अपनी पूरी चमक के अंतरिक्ष में लौट जाएगा उस म्यूजियम से निकल कर जहां वह कभी था ही नहीं.

अमिताभ दीक्षित

adxt2007@gmail.com