निवारण
शाम होने को आई, शोभा सुबह से बिन कुछ खाये पिये ही अपने कमरे में लेटी है।
कोई भी उसके कमरे में नहीं आया। न ही आज खाने के लिए उससे पूछां, और यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि उसकी तबियत ठीक है या नहीं।
वह हमेशा अपनी गल्ती न होते हुए भी बहू के आगे झुक जाती है। वह नहीं चाहती थी घर का तमाशा बाहर वाले देखे। वह रिश्ते को हर हाल में बनाए रखना चाहती थी।
पर आज जब बेटे ने बहू का साथ देते हुए उस पर ही रिश्ते न निभाने का इल्जाम लगाया तो वह सहन नहीं कर पाई, उसकी आँखें भर आईं।
वह उठकर तैयार हुई, और बिना किसी से कुछ कहे सुधा के यहाँ पहुंची। वही तो है जिससे वह मन की हर बात कह सकती है।
"अरे आओ! शोभा, क्या बात है ? बहुत उदास लग रही हो। क्या फिर बहु ने कुछ कहा ?"
आह भरते हुए ,"अब तो बहू के साथ बेटा भी उसी की भाषा बोलने लगा है। "
"हाँ रे ! तेरी बहू इतनी सफाई से झूठ बोलती है कि कोई भी उस की बात पर विश्वास कर लेगा।"
"पर अब मैं थक चुकी हूँ।"ठंडी सांसे भरते हुए।
"तुम तो हमेशा कहती थी न, झुकने से यदि रिश्ते बने रहते हैं तो फिर झुकने में बुराई ही क्या है।"
"तो क्या मैं गलत कहती हूँ ?"
"गलत तो नहीं,पर अब मेरी भी एक बात सुन लो,जब बार-बार तुम्हें ही झुकना पड़े, तो झुकना बंद कर खड़ी हो जाओ।आखिर स्वाभिमान भी कोई चीज है।
कुछ सोचते हुए "समझ गयी। अच्छा तो अब चलती हूँ ।"
घर पहुंचकर बहू से बोली,"जब हम एक दूसरे को पसंद ही नहीं करते तो साथ रहने से क्या मतलब ?"
"वही तो मैं कह रही हूँ, कि आप अपना अलग ठिकाना ढूंढ़ लीजिए।"
"नहीं, यह घर मेरा है।अब तुम लोगों को एक सप्ताह का समय देती हूँ। अपना बंदोबस्त कर लो।"
***
जद्दोजहद
"बहू ये फाइलें रखी है। मैंने इसे देख लिया है, तुम बस इनपर अपने दस्तखत कर दो।"
फाइलें देखते ही वह खीज उठी। क्या इसी के लिए वह पटवारी बनी है। पिछली बातें चलचित्र की तरह आंखो के सामने घूमने लगी। प्रतिकूल परिस्थितियों की वजह से बारहवीं के आगे वह न पढ़ सकी। और शादी के एक साल में ही उसे अपना वजूद खोता हुआ महसूस होने लगा। ननद- देवर के लिए भाभी,जिठानी के लिए छोटी, सास- ससुर के लिए बहू,गांव वालों के लिए सिमरिया वाली।माँ- बाप ने कितने प्यार से उसका नाम रानी रखा था। नाम तो कोई लेता ही नहीं। वह भूल गई कि मैं क्या हूँ ? मेरी क्या पहचान है ? मेरा भी कोई नाम है।उसे तो लगता था कि वह इस घर में नौकरानी बन के रह गयी है।
पति फौज में थे।मन की बात किसी से कह नहीं पाती थी। मन ही मन कुढ़ती रहती थी।
छुट्टी पर पति के आने पर अपनी उलझन बताई।काफी ना नुकुर के बाद आखिर ससुर जी प्राइवेट पढ़ाई के लिए राजी हो ही गये। तो उसने बी. ए. पास किया। फिर पटवारी की परीक्षा पास कर ली।और उसी गांव में उसे पटवारी की नौकरी मिल गई।वह खुश हैं कि अब उसकी अपनी एक पहचान होगी, नाम होगा, रुतबा होगा। पर यह क्या ससुर जी का नया फरमान, घर में ही रहकर काम करो। जो फाइलें मैं दूँ उस पर चुपचाप दस्तखत कर दिया करो।
"नहीं अब और नहीं! मैं अपनी पहचान गुम नहीं होने दूंगी।"
"बहू दस्तखत हो गये।"
"नहीं बाबूजी आफिस का काम आफिस में और वह भी मैं पूरी ईमानदारी से करूंगी।"
***
अंतिम पंक्ति
रिटायरमेंट के बाद सुमनलता उम्र के उस दौर पर पहुंच गयी थी। जहां लोगों को अकेला और खालीपन काट खाने को दौड़ता है।बच्चों के यहाँ भी ज्यादा दिन तक उसका मन नहीं लगता था।पर उसे पढ़ने का शौक तो बचपन से था ही।समयाभाव के कारण लेखन नहीं कर पा रही थी।पर अब फेसबुक मित्रों और लेखन से उसने अपने खालीपन को भर लिया।
उसने आज एक कहानी लिखी, जिसके अंत को लेकर असमंजस में है।समझ नहीं आ रहा था उसे तो दोनों ही अंत सही लग रहे थे।
"किसकी सलाह लें।" सोच ही रही थी कि काम करती सुकू बाई पर नजर पड़ी,"क्यों न आज इससे ही पूंछा जाए?"
"नहीं! नहीं! ये तो यही कहेगी शराबी पति ने मारपीट कर भगा दिया।यही तो आए दिन होता है इनके यहाँ। "
"आभा से ही बात करती हूँ वही सही सलाह देगी।" फोन उठाती हैं।
"नहीं ! एक बार सुकू बाई से ही पूछ कर देखती हूँ।आखिर लिखी भी तो उन्हीं लोगों पर है।"
"सुकू बाई दो कप चाय बनाना।"
"जी दीदी, इस कमरे में पोंछा लगा लूं फिर बनाती हूं।"
"और हाँ पहले साबुन से हाथ धो लेना।"
"जी दीदी।" थोड़ी देर बाद
"दीदी चाय।"
"तू भी अपनी यही ले आ न।"
"आज फिर कोई कहानी सुनाना है क्या दीदी ?"
"नहीं रे, आज तुझसे अपनी कहानी पर सलाह लेना है।"
आश्चर्य से!! "मुझसे कहानी पर सलाह! क्यों मजाक करती हो दीदी ?"
"तुम्हीं लोगों के ऊपर कहानी लिखी है तो सलाह भी तुमसे लूंगी"
कहानी सुनाने के बाद। "इसके यह दो अंत है। अच्छा अब तू बता कौन सा अंत सही लग रहा।पहला पति उसे चरित्र हीन कहकर उसे और बच्चों को घर से निकाल देता है।और दूसरा वह स्वयं ही बच्चों को लेकर घर से निकल जाती है।"
कुछ सोचकर "दीदी, मेरे हिसाब से तो दोनों ही अंत सही नहीं है।"
"अच्छा, फिर सही क्या है ?"
"पहली बात तो हम लोग इतने गिरे हुए नहीं है। घरों में हम पुरुषों की कैसी-कैसी नज़रों का सामना करते हैं,क्या बताए?
और दूसरी बात हम अनपढ़ जरुर है, पर इतना तो कमा ही लेते हैं कि अपने परिवार का पेट भर सके।"
"अच्छा अगर उस जगह तुम होती तो क्या करती ?"
" मैं होती! तो उस शराबी-कबाबी, हरामी को ही घर से निकाल देती।"कहते हुए उसका चेहरा चमक उठा।
***
मधु जैन