"एक नया आसमां"
"अरे! तू तो बीमार थी न कमली फिर क्यों आयी?
और आज तो वैसे ही करवा चौथ है। मैं ये जानती हूं कि बीमार होने पर भी तू इसे छोड़ेगी नहीं तो आज और आराम कर लेती घर पर। "
'बीबीजी सच कहूँ तो आपके साथ दिन भर रहने की आदत सी हो गयी है। आपके बिना मन नहीं लगता। '
और अब मैं ठीक हूँ दो दिन से मेरा मरद काम पर नहीं गया बेचारा। दिन-रात गीला कपड़ा कर पट्टियां लगाता रहा डॉक्टर के कहने से। इसलिये बुखार उतर गया अब मेरा। बेचारे ने कई महीने रिक्शा ज्यादा चलाकर पैसे जोड़े थे जिससे ये मंगलसूत्र भी लाकर दिया। ।
ये देखिये। पूरे पांच हज़ार का है। '
हाथ नचाते हुए जब वो बोली तो रागिनी की हंसी न रुक सकी।
'कमली बहुत प्यार करता है तेरा पति तुझे। बड़ी भाग्यवान है री तू'।
ये सुनकर वो लजा गयी और नज़रें नीची कर नाखून से फर्श कुरेदने लगीं।
फिर कुछ सोचकर बोली। 'बीबीजी आप आज वो ज़री वाली बनारसी लाल साडी ही पहनना और पूरा शृंगार करना फिर देखना साहब देखते ही कैसे फिदा होते हैं?'
'धत....अब ज्यादा बातें मत बना...जा जाकर रसोई में देख दूध उफन न गया हो कहीं?'
ये कहकर रागिनी तैयार होने चल दी। आईने में खुद को निहारने लगी .....कहाँ दूध सी धवल, सुगढ़ नाक-नक्श और खूबसूरत काया वाली रागिनी? कहाँ काली मोटी बदसूरत कमली पर मन से वो उतनी ही खूबसूरत थी।
पर… पर.… पति के प्यार के मामले में बिल्कुल उलट तकदीर।
ये सब सोचते हुए गीली कोरों को हथेली से पौंछते हुए वो तैयार होने लगी।
हाथों में हीरे की चूड़ियां , कानों में कुंदन के झुमके, गले में रानीहार, सलीके से किया मेकअप, ज़री वाली लाल बनारसी साड़ी में रागिनी किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी।
वाह! बीबीजी आज तो साहब गश खाकर गिरने वाले हैं आपको देख कर।
उफ्फ.… क्या क्या बोलती है जाने?.…
रागिनी की नज़र कब से दरवाजे पर ही थीं। घड़ी की टिकटिक धड़कनें बढा रही थी ।
'बीबीजी नौ बज गए साहब अभी तक नहीं आये। '
'आ जाएंगे तू जा। तेरे मरद ने भी तो उपवास रखा है बेचारा भूखा बैठा है तेरे इंतज़ार में। '
'पर बीबीजी आप अकेली'।
...'अरे तू फिक्र मत कर, ये आते ही होंगे। '
'जी बीबीजी, मैं चलती हूँ। अपना ध्यान रखना। चाँद देख कर समय से ही खाना खा लेना। '
'हाँ री तू जा। इतनी फिक्र न करा कर मेरी। '
तभी रुद्र ने लड़खड़ाते कदमों से घर में प्रवेश किया और एक लड़की उसकी बाहों में थी।
'मीट माय प्रीटी वाइफ रागिनी'।
'और ये है ज़ोया मेरी नई सेक्रेटरी'।
'है ना ब्यूटिफुल ?'
रागिनी के मुँह के पास अपना मुंह लाकर बड़ी बेशर्मी से उसने कहा तो शराब की बदबू के कारण रागिनी पीछे हट गई।
अच्छा 'सुनो डोंट डिस्टर्ब अस'।
'पर आज तो करवा चौथ है। आज तो ये सब....…
आपकी लम्बी उम्र के लिए सुबह से भूखी बैठी हूँ मैं और आप?'.…
चटाक.… एक जोरदार चांटा रागिनी के गाल पर पड़ा।
'साली! मेरे ही टुकड़े खाती है और मुझसे ही जुबान लड़ाती है। इतने गहने, बंगला-गाड़ी सब तो दे रखा है तुझे और क्या चाहिए ?'
ये कहते ही उसने उस लड़की को अंदर ले जाकर बैडरूम अंदर से बंद कर लिया।
पर आज रागिनी रोई नहीं। उसने दाँतों तले होठ काट लिया। खून की धार बह निकली पर वो जख्म उसके दिल के जख्म के सामने कुछ भी न था।
फिर अचानक दृढ़ता से कुछ सोच उसने अपनी m.b.a. की डिग्री और बाकी ज़रूरी कागज़ात निकाले। और वकील को तलाक के पेपर्स तैयार करने को कह। निकल पड़ी उस सोने के पिंजरे से बाहर अपने लिए एक नया आसमां ढूंढने।
***
2.“आज की दुर्गा”
आज शुभि को दिल्ली जाना था एक प्रेजेंटेशन के लिए। स्टेशन पर ट्रेन का इंतज़ार करते हुए उसकी नज़र आस पास पड़ीं। हद से ज्यादा भींड़ थी वहाँ। स्टूडेंट्स ही थे ज्यादातर। पैर रखने तक को जगह नहीं थी। शुक्र है उसने रिजर्वेशन करवा लिया था । और वैसे भी कॉलेज की प्रेजिडेंट और ब्लैक बेल्ट चैंपियन होने से उसमें आत्मविश्वास भी गज़ब का था। फिर उसे किसका डर? ये सब सोचते हुए उसने खुद को दिलासा दिया। पास ही में करीब उन्नीस बीस ग्रामीण लड़कियों का एक ग्रुप था। जो कि स्टेशन पर ज़मीन पर ही बैठीं हुईं थीं। उन्हें देख उसने मुँह बिचकाया’हुंह गंदे गंवार लोग’। उनमें से कुछ किताब खोले पढ़ भी रहीं थीं। उनकी बातों को सुनकर लगा कल पुलिस कांस्टेबल का एग्जाम है। जिसे वो भी देने जा रहीं हैं। 'उफ़्फ़ तभी इतनी भींड़ है आज'। उसने सोचा।
तभी सीटी बजाती हुई ट्रेन भी आ गयी। आश्चर्य से आंखें फैल गयीं उसकी। पूरी ट्रेन पर, खिड़कियों पर यहाँ तक कि छत पर भी ढ़ेर सारे लड़के ही लड़के बैठे हुए हैं। तिल भर भी जगह नहीं। एक बार वो डरी, थोड़ा सहमी पर फिर उसके अंदर की ब्लैक बेल्ट चैंपियन बोल उठी ‘अरे! तू ही डरेगी तो इनके जैसी गंवार, कमज़ोर लड़कियाँ क्या करेंगी भला? कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता तेरा, चल चढ़ जा। ‘
धक्का मुक्की करके वो चढ़ने लगी उसके थर्ड ए.सी. डब्बे में बगल में ही जनरल लेडीज कोच था । जिसमें वो ग्रुप भी चढ़ रहा था। तो एक बार फिर से मुँह बिचका दिया उसने घृणा से। अपने डिब्बे में गयी तो देखा ऊपर-नीचे सब जगह लोगों ने डेरा जमा रखा था। उसने उन्हें हटने को कहा तो बोले’ मैडम जी आज कोई रिजर्वेशन न है कोई कौ। आज तौ बस हमारौ ही राज़ रहैगो यहाँ। ‘
हालांकि उसे बैठने की जगह तो दे दी पर उस डब्बे में वो अकेली ही लड़की थी। बाकि सब आवारा, गंवार से दिखने वाले लड़के ही कब्ज़ा करके बैठे थे। ट्रेन चल पड़ी रात के आठ बजे थे। कॉलेज में उसने इतने आवारा मजनुओं को ठोका है। पर यहां तो पूरा डब्बा ही आवारा मजनुओं से भरा पड़ा है। वो उस पर फब्तियां कसने लगे। अंधेरा बढ़ते ही कुछ तो उससे सट कर बैठ गए और जैसे ही उनमें से एक ने उसे छूने के लिए हाथ बढ़ाया उसने उसे कस कर उसे एक जोरदार लाफा मार दिया। इससे वो सारे तैश में आ गए और उसे पकड़ लिया और उनमें से एक लड़का बोला’ ले अब हम तुझे सिर्फ छुएंगे ही नहीं तेरे साथ….ऐसा कहकर दूसरे लड़के की तरफ आँख दबाते हुए बेशर्मी से ठहाके मार कर हंसने लगा’ ‘ले अब बुला ले किसी को खुद की इज़्ज़त बचने के लिए’जैसे ही उसने उसके टॉप की तरफ हाथ बढ़ाया। एक लात उसके मुँह पर लगी और दो दाँत टूट कर बाहर आ गिरे उसके। शुभि ने भौचक्की होकर सामने देखा तो सामने उन्हीं लड़कियों का ग्रुप खड़ा था। उनमें से कुछ ने उन लड़कों को हॉकी से ठोकना शुरू किया। धड़ाधड़ हाथ और लातें चल रहीं थीं उनकी। चोट खाये नाग की तरह जब सारे लड़के एक साथ उनकी ओर बढ़ने लगे तो हाथ में उन लड़कियों ने बड़े बड़े चाकू निकाल लिए और बोलीं’बेटाऔ, वहीं रुक जाओ, नहीं तो एक एक की गर्दन अभी नीचे पड़ी होगी।
चलो मैडम हमारे साथ। इस दुनियां में जब रावण ही रावण भरे पड़े हों तो हमें खुद ही दुर्गा बणना पडेगो कोई राम न आवेगों हमें यहां बचावे।
***
3.
"डार्विन का सिद्धान्त"
फ़ूट फ़ूट कर रोते रोते हुए अचानक वो उठी और आंखों से आंसू पौंछ, कुछ दृढ़ निश्चय कर अलमारी से साड़ी निकाली और फंदा गले में डाल लिया।
अब तक का सारा जीवन चलचित्र के सदृश उसके जहन में घूमने लगा।
पढ़ाई लिखाई में बचपन से ही तेज़ थी वो। उसके पिता कस्बे से बाहर शहर कॉलेज जाकर पढ़ने के विरोधी थे इसलिए घर पर रहकर दूरस्थ शिक्षा से उसने परास्नातक तक पढ़ाई की वो भी गोल्ड मेडल के साथ। पर उसमें आत्मविश्वास की कमीं थी वो कुछ अंतर्मुखी, अपने में ही सिमटी और सहमी हुई सी रहती थी। किसी बाहरी व्यक्ति से बात करने में भी बहुत झिझकती थी वो। क्योंकि बचपन से ही उसने घर में पिता का कठोर अनुशासन और हमेशा माँ को उनके सामने नतमस्तक होते हुए देखा है। छोटे भाई से भी जब कभी उसकी लड़ाई होती तो माँ सिर्फ उसे ही चुप रहने को कहती और यही समझाती रहती कि बेटी लड़कियों और औरतों को तेज बोलना, ज्यादा ज़ोर से हँसना, बहस करना इन सबसे बचना चाहिए तभी घर इन सुख शांति रह सकती है। '
तो बस इन्हीं बातों को दिल में सहेजे वो ससुराल चली आयी। यहाँ पर भी सारे दिन काम में खटते रहना पर उसे बदले में पति, सास और ससुर और ननद के ताने और दुत्कार ही मिलतीं। माँ बाबा से कुछ कहती तो कहते 'बेटी तुम्हारा घर अब वही है। हर हाल में तुम्हें वहीं रहना है। थोड़ी और सहनशीलता रखो सब ठीक हो जाएगा। '
ऐसे ही दो बरस बीत गए अब तो बच्चा न होने के ताने भी उसे दिए जाने लगे। अभी कुछ देर पहले भी खाने में कमीं बताकर उसे जली कटी सुनाकर उसके माँ बाप को कोसा गया तो दौड़ कर वो कमरे में चली आयी।
"अब और कोई रास्ता नहीं बचा अब बर्दाश्त नहीं होता माँ"
पत्र लिख टेबल पर छोड़ दिया।
और स्टूल नीचे से वो हटाने ही वाली थी कि तभी उसकी साइंस टीचर का मुस्कुराता चेहरा उसके दिमाग में कौंध गया और उनका पढ़ाया पाठ डार्विन का सिद्धांत 'survival of fittest(योग्यतम की उत्तरजीविता) भी घूमने लगा।
तभी अचानक एक झटके से उसने फंदा गले से निकाला और 100 न. मोबाइल से डायल कर दिया।
मौलिक व अप्रकाशित
ज्योति शर्मा