1 - माँ का फर्ज
शाम का धुंधलका गहराने लगा था । हिरणी सी लगभग कुलांचे मारती वो अपनी झुग्गी की तरफ भागी जा रही थी । बार बार आँखों मे भूखे बच्चों की तस्वीर कौंधती ।
संकरी गन्दी गलियों मे गहराती शाम गुलजार होने लगी थी । दिन भर रोजी रोटी की तलाश के बाद मुट्ठी भर अनाज को पकाना खाना भी एक जश्न से कम नही होता झुग्गी वालो के लिए ।
पैबंदो मे अटकी चादर जो सड़क और घर में फासला दिखाने की मजबूर सी कोशिश कर रही थी उसे सरका कर जल्दी से हाथ पांव धो चूल्हा जलाने लगी ।
बंगले से जश्न के बाद बचा मुर्गा जिसमे गोश्त नाम मात्र रहा होगा वही पन्नी भर मिला था । नथुनो से टकराई खुशबू बच्चों की आँखों मे गजब की चमक पैदा कर रहे थे । तीनों बच्चे एक दूसरे को देख कर रहस्यमय मुस्कान बिखेरते चूल्हे पर गिध्द दृष्टि जमाए थे जिसपर कनकी खदक रही थी ।
तभी अचानक ही पांच छः औरते और तीन चार मर्द आ धमकें ।
" देख जरा कुलक्षणी को ...माँस बेच कर माँस खाती है । खसम को मरे अभी साल नही लगा पर इसके ठसके तो देख..."
" अरी बेहया ! तूने क्या यहां धंधा करने का ठेका लिया है ?"
" देख रमुआ ! इसे भगा अपने चॉल से । ये तो छूत की तरह सभी औरतों को खराब करेगी । "औरतें चीख रहीं थीं । वो बदहवास स्थिति को समझती तब तक नशे मे लड़खड़ाते तीनो मुसटंडे उसे पकड़ने लपके । बच्चे घबड़ा कर रोते हुए उसके पीछे छुप गये । वो लपक कर चूल्हे से जलती लकड़ी खींच कर सबके सामने लहराती ललकारती बोली " खबरदार कि कोई हाथ लगाया मुझे ...हाँ मै माँस बेचती हूँ ...अपने बच्चों के लिए खून भी बेचूंगी और किसी ने मुझे हाथ लगाया तो खून भी कर सकती हूँ ।"
क्रोध और बेचारगी से आँसू छलछला आए थें पर आँखों मे छः महीने पहले की घटना उभर आयी जब वो आत्महत्या करने के लिए पटरियों पर लेट गयी थी । कानो मे गूंजती बंगले वाली मेमसाहब की आवाज कि ' स्त्री रूप मे हर फर्ज निभा लिया तुमने ...बेटी, बहन, पत्नी सभी का ...पर एक मां का फर्ज अभी बाकी है ..." जलती लकड़ी पर उसकी पकड़ मजबूत कर रहे थें और दिल का हौसला भी ।
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2 - यशोधरा
" सेवन टेन जा सेवेंटी ...शाबास चीनू ! होमवर्क हो गया...अब आप अपना बैग संभाल कर रख आओ ।" एक लंबी उबासी लेकर सरिता ने घड़ी पर नजर डाली ' उफ्फ साढ़े सात बज गयें , रात का खाना और कल सुबह की तैयारी भी ...बहुत काम फैला है ।' सोंचती वो अपनी थकान भूल झट से सब्जी की टोकनी उठाई जो चीनू को होमवर्क करवाते समय ही साफ कर ली थी ।
किचन की ओर जाते हुए उसने एक नजर रिया पर डाला जो कुछ लिखने मे व्यस्त थी। आज उसका चेहरा उतरा सा था ।
' अपनी व्यस्तता मे मैं रिया पर ध्यान ही नही दे पा रही आजकल ' तुरंत ही मन कचोटा उसका ।
" रिया क्या बात है बेटा ? आपका चेहरा क्यूँ लटका है ? "
"कुछ नही मम्मा ...आप बहुत थके हो ...चलो मैं आपके लिए शर्बत बनाती हूँ ।" कहती रिया अपनी कॉपी बंद करती सरिता के पीछे चल दी ।
" नहीं बेटा, आप पढ़ो ...आज थोड़ी थकान है ....वो ऑफिस मे आज कुछ अधिक काम था इसलिए ..."
" कल स्कूल मे बुद्ध जयंती है मम्मा ..इसलिए होमवर्क नहीं है ..अभी महात्मा बुद्ध पर हीं आलेख लिख रही थी मैं " रिया ने शर्बत का ग्लास सरिता को पकड़ाते हुए कहा । सरिता मुस्कुराते हुए घुंट भरने लगी ।
" मम्मा एक बात पूछूं ? "
सरिता ने प्रश्न सूचक नजरों से बेटी को देखा ।
" क्या स्त्रियों को शांति और ज्ञान की जरूरत नहीं होती ? " हजारों भाव थें रिया की आँखों में ...
सरिता की नजर बेटी से टकराई और अचानक हीं सुबह का दृश्य आँखों मे घूम गया जब पतिदेव गुस्से मे पांव पटकते गाड़ी स्टार्ट कर ये भुनभुनाते निकले थें कि ' इस घर मे कभी शांति नही मिल सकती ....'
उसने एक निश्वास लिया ...बेटी का आशय स्पष्ट था । चीनू भी बैग रख कर सरिता के पास आ खड़ा हुआ .…
बहुत ही सहज हो कर उसने दोनों बच्चों को अपनी गोद मे समेटते हुए मुस्कुरा कर कहा
" बेटा, जिस शांति और ज्ञान की तलाश मे पुरूष पलायनवादी मानसिकता दिखाते हैं वो हम स्त्रियों को सहज प्राप्त है क्योंकि हमें पता है कि घर - गृहस्थी और जिम्मेदारियों को नकारते कथित ज्ञान और शांति एक मिथक है ... और हम यशोधरा बन कर ही संतुष्ट हैं ।"
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3 - नालायक बच्चा
घनी रोबीली मूंछें, हाथो मे दोनाली बंदूक, स्टूल पर एक पांव जमाए खड़े ठाकुर रायचंद जी और बाजू मे सिंहासननुमा कुर्सी पर सकुचाइ मृगछौने जैसी राधिका देवी ....ताजे गुलाबों का हार चित्र पर चढ़ा कर हाथ जोड़े खड़ा निलय अब भी स्तब्ध था । नियति के क्रूर पंजे अचानक हीं झपट ले गये माँ बाबा को । डबडबाई आँखों मे अतीत गडमगड होने लगे थे...कानों मे कुछ प्रतिध्वनित सा हो रहा था.…
तीन भाईयों मे सबसे छोटा ओर नाजुक मिजाज निलय । माँ के कामो मे हाथ बँटाना , नई नई डिश बनाने का शौकीन, आम लड़कों से अलग शांत और गम्भीर । क्रिकेट का बैट नही उसे तो तूलिका और रंगो से प्यार था । अपनी ही दुनिया मे विचरते इस बेटे से रायचंद खुश न थें । खासकर जब उसने पेंटिंग को ही करियर के लिए चुना तो मानो भूकंप आ गया था घर में । पहली बार दहाड़ते हुए रायचंद जी ने सभी के सामने उसे कहा था ' नालायक बच्चा ' !
वैसे तो बचपन से ही उसका उपनाम बन गया था ये ...पिता के साथ भाई भी बोल देते थें अक्सर ...एक माँ ही थीं जो उसे समझती थीं ..जिनके पल्लू मे सर छुपा कर खुद को शांत करता और अडिग रहने की हिम्मत बटोरता । मगर उस दिन सबके सामने हुए अपमान से उसका कलाकार मन इतना आहत हुआ कि रात के गहन अंधेरे मे वो घर छोड़ गया ।
पाँच सालो मे उसने कला की दुनिया मे अपना एक स्थान बना लिया था । तभी उसे खबर मिली की कार दुर्घटना में माँ - बाबा गुजर गयें । आखिरी दर्शन भी न मिल पाया उसे ...
" निलय, ये रहे जायदाद के कागज ...गांव की जमीन तुम्हारे नाम कर गये है पिताजी । यहां की फैक्ट्री और दोनों बंगले हमारे नाम है "। बड़े भईया की आवाज से उसकी तंद्रा टूटी । खाली नजरो से उसने कागजात देख कर वापस लौटा दिये । पूजाघर मे माँ का रखा शालिग्राम और पिता का ओवरकोट उठा कर फीकी मुस्कुराहट लिए बोला " अब यही मेरी जायदाद है भईया ...आप सभी का स्नेह बना रहे बस "।
घर से बाहर निकलते हुए तस्वीर पर दुबारा नजर गयी तो लगा मानो पिताजी ने फिर से कहा हो ' नालायक बच्चा ' पर इस बार पहली दफा आँखों मे स्नेह सा कुछ झलका था ...
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नाम :- अपराजिता अनामिका