मनोरंजन का फुल टू इंतज़ाम
वैसे तो, इसे लोकतंत्र की मजबूती का महायज्ञ कहा जाता है। पर आजकल अपने ताम-झाम के चलते यह यज्ञ कम जश्न ज्यादा हो गया है। वह भी बड़ा वाला दिलचस्प जश्न। मार्केटिंग के नए फंडों के हिसाब से सज-धज कर यह चुनावी माहौल किसी नयी-नवेली दुल्हन की तरह इठलाने लगता है। तम्बू, कनात, कुरता, पैजामा, साड़ी, लाईट, माईक, म्यूजिक, पोस्टर-बैनर छापने वाले प्रिंटिंग प्रेस, ऐड-मार्केटिंग-इवेंट मनेजमेंट और नारा लगाऊ लोगों की भीड़ को सप्लाई करने वाली ठेकेदार कंपनियों की चांदी हो जाती है। सड़कों पर अरसे से जमे-जमाये गड्ढे लापता हो जाते हैं। लगभग हर चौराहे और हर नुक्कड़ पर पुलिस चौकस खड़ी दिखाई पड़ने लगती है। बिजली की कटौती काफी कम हो जाती है। गुमशुदा नेताओं के दर्शन होने लगते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि हमेशा ऊंघते रहने वाली जनता भी अचानक से चैतन्य हो कर उछलने-कूदने लगती है। लगभग हर तीसरा आदमी चुनावी रंग में रंग जाता है। और सोते-जागते चुनावी महाभारत का संजय बन जाता है।
चुनाव चाहे देश का हो प्रदेशों का, बिगुल बजते ही चर्चाओं और बैठे-ठाले मज़मों का दौर अपनी पूरी रवानी में आ जाता है। हर गली, हर मोहल्ले, नुक्कड़, चौपाल, चाय की दूकान, ढाबों और ठेकों पर हर समय चुनावी चर्चायें आम हो जाती हैं। पुरानी यारी-दोस्ती और नाते-रिश्तेदारी को दरकिनार कर कोई कांग्रेसी बन जाता है, तो कोई भाजपाई। कोई सपाई हो जाता है, तो कोई बसपाई। कोई ममतामय हो जाता है, तो कोई अर्विंदिया जाता है। कोई थर्ड फ्रंट का झंडाबरदार बन जाता है, तो कोई चौथे फ्रंट का हिमायती।
जिस तरह से हर पुरुष अपनी खाल के भीतर एक मर्द होता है, उसी तरह से चुनावों के आगे-पीछे हर आदमी या तो हिन्दू राष्ट्रवादी हो जाता है या फिर असली-नकली सेक्यूलरवादी। किसी के भीतर से उसका धुर दक्षिणपंथ बाहर निकल आता है, तो किसी का धुर वामपंथ। कोई दलबदलुओं से परेशान दीखता है, तो कोई दागियों से। कोई इस बात से उखड़ा हुआ नज़र आता है कि पुराने निक्कमे नेताओं को फिर से टिकट क्यों दिया जा रहा है? कोई इस बात से अपने बाल नोचने लगता है कि परिवारवाद और वंशवाद को पानी पी-पी कर गरियाने वाली पार्टियाँ भी मौका पड़ने पर अपने ही रिश्तेदारों को टिकट क्यों दिलवा रही हैं? कोई किसी पुराने गठबंधन के टूटने से टूट जाता है, तो कोई नए गठबंधन के बनने से मुंह फुला लेता है।
जहाज डूबने की आशंका से कई चूहे जहाज छोड़ कर फ़ौरन पानी में कूद जाते हैं। और कुछ को तो ज़हाज़ का मालिक जहाज का भार कम करने के लिए खुद ही उठा-उठा कर पानी में फेंक देता है। कुछेक को तो जिताऊ माल समझ कर दूसरे जहाज वाले जाल डाल कर फ़ौरन निकाल लेते हैं। लेकिन कुछ अफना-अफना कर या तो डूब जाते हैं या फिर निर्दलीय उम्मीदवार बन जाते हैं। कल तक जो दूसरी पार्टी में भ्रष्ट और बेईमान हुआ करते थे, आज नयी पार्टी में आकर कर्मठ जन नेता बन जाते हैं। राजनीति में सब चलता है। यहाँ कभी कोई दोस्ती या दुश्मनी स्थाई नहीं होती। वैसे भी, जनता की याददास्त बहुत कमजोर होती है।
अब तो चुनावों के समय सट्टे का खेल भी खूब खेला जाने लगा है। सेंसेक्स की साँसे भी चुनावी हवाओं-लहरों की तरह पल-पल उखड़ने-जमनें लगती हैं। तो क्या सरकार या सरकारें जनता नहीं सट्टेबाज़ और शेयर किंग बनाते हैं? वैसे भी, चुनावी सर्वेक्षण और ओपिनियन पोल्स वगैरह भी तो एक तरह से सट्टेबाज़ी का ही खेल होते हैं। सही ओपिनियन बताओ चाहे मत बताओ, पर ओपिनियन बनाओ ज़रूर। हवा बहे चाहे मत बहे, हवा को बहाओ खूब। तो क्या, आईपीएल की तरह ये सब भी कहीं अन्दर ही अन्दर कोई फिक्सिंग-विक्सिंग तो नहीं करते?
बहरहाल, अभी गंगा-जमुना में बहुत पानी मौज़ूद है। और तमाम प्रदूषणों को फैलाये जाने के बावजूद उसे सदियों तक ऐसे ही बहते रहना है। इसलिए अंतिम दौर का चुनाव खत्म होते-होते इन चुनावी महा-आयोजनों में न जाने कितने दिलचस्प मोड़ आते हैं और चले जाते हैं। कभी सस्पेंस बढ़ता है। कभी घटता है। अखबारों की बिक्री खूब बढ़ जाती है। चैनलों की टीआरपी दिन दूना और रात चौगुना बढ़ने लगती है। और चुनावी चस्केबाज़ रात-दिन टीवी, अखबार और न्यूज़ चैनलों से चिपक कर अपनी राजनीतिक खुजली को शांत करने में जुट जाते हैं। इन चुनावी मौसमों में हर पार्टी अपने आप को हीरो-सुपरहीरो और दूसरों को विलेन-महाविलेन साबित करने की मुहिम में तन-मन-धन से जुट जाती है। बीच-बीच में आंसू, संवेदना, भावुकता और भावनाएं। जाति-धर्म की तलवार बाजियां। नोट-रोटी-बेटी-दारू-नमक के कसमें-वादें। नाच-गाना। फिल्मी सितारों के गेस्ट एपीयरेंसी दर्शन के साथ-साथ वॉलीवुड, टॅालीवुड और न जाने किस-किस वुड की नर्तकियों के ठुमकों का तड़का। कुल मिला कर भरपूर मसाला। और इंटरटेंमेंट! कभी-कभी तो सिचुएशन की मांग न होते हुए भी इसमें मार-काट और हिंसा के ऐसे-ऐसे मंज़र ठूंस दिए जाते हैं कि कलेजा मुंह को आ जाता है। फिर भी यकीन मानिये, मनोरंजन भरपूर होता है।
इस दुनिया के किसी भी आंसूं बहाऊ सोप-सीरियल या फैमिली ड्रामा वाली फिल्म से कहीं बढ़ कर मनोरंजक होती हैं हमारे यहाँ की चुनावी दंगल बाजियां। भरपूर मसालेदार। और फुल टू इंटरटेंमेंट वाली! “महंगाई डायन खाए जात है”, “गली-गली में शोर है....”, “जब-तक सूरज-चाँद रहेगा...” और “चढ़ विपक्ष की छाती पर...” की मधुर धुनों से लबरेज यह खेल वाकई हर बार अपनी अंतिम परिणति तक पहुंचते पहुंचते काफी इंटरेस्टिंग और हैपेनिंग हो जाता है।
पर क्या सिर्फ मसाला और मनोरंजन ही होता है चुनाव? क्या इतने भर से ही पूरा हो जाता है इस महान देश के महान लोकतंत्र की मजबूती का महायज्ञ? इन चुनावों को तो विकास की ओर बढ़ते देश के अगले कदम के तौर पर इस्तेमाल किया जाना चाहिए। एक अगला और विकसित कदम। पिछली सरकार की कमियों को दूर करके नयी जिम्मेदार सरकार को सत्ता में लाने का एक ज़रूरी और स्वस्थ अभियान। और इसके लिए चाहिए कि हर पार्टी और हर नेता एक दूसरे को गरियाने के बजाय जनता के सामने अपनी नीतियों, विचारों, सिंद्धांतों और पक्षधरता को पूरी तरह से स्पष्ट करे। वह यह साफ़-साफ़ बताये कि वह प्रो-कार्पोरेट है या प्रो-आम जनता? क्योंकि जब तक इस देश के आख़िरी वंचित इंसान का सपना पूरा नहीं होगा, वह न तो सही ढंग से तरक्की कर पायेगा और न ही कोई महाशक्ति या विश्वगुरू बन पायेगा।