ट्रांसजेंडर
डॉ. ललित सिंह राजपुरोहित
यही कोई शाम के छ: साढ़े छ: बजे का टाइम रहा होगा, कुमुद अपने कमरे में, सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की से छनकर कर आ रही ऊजासी में फोटो एलबम देखते-देखते स्मृतियों में खोई हुई थी। जब फोटो एलबम में एक-एक कर यादों के धागों में पिरोये गए चितराम उसकी आँखों के सामने आते तो बरबस उसकी कनखियों से आँसुओं को सोतें फूट पड़ते। धीरे-धीरे वह अतीत की धारियों में भटकने लगी। स्मृतियॉं सजीव हो उठतीं, कुमुद उन बीते हुए पलों को पुन: जीने लगती। मन की पीड़ा आँसुओं का रूप लेकर गाल पर लुढ़कते हुए बहने लगती। उसे लग रहा था जैसे किसी ने उसके कोमल गालों पर बूंद-बूंद कर तेजाब उड़ेल दिया हो, वह पीड़ा से छटपटाने लगती।
कुमुद सांझ ढल रही है.... खिड़कियों के पर्दों को बंद कर दे.... नहीं तो थोड़ी ही देर में मच्छर तुम्हारे रूम में अपना डेरा जमा लेंगे। वैसे भी बरसात के दिनों में कीट पतंगों के पंख निकल आते हैं, यहॉं-वहॉं न जाने कहॉं-कहॉं से वे घर में घुस आते हैं। अच्छा हुआ तुमने रोशनी नहीं की, वैसे एक बात पूछूँ... खिड़की के पास अकेले बैठकर क्या कर रही हो? कुमुद के बालों पर हाथ फेरते हुए कुमुद की माँ ने उत्सुकता से पूछा।
कमरे के भीतर प्रवेश करते हुए एक ही सांस में बोलते हुए माँ कब कुमुद एकदम पास आ गई, कुमुद को पता ही नहीं चला। माँ ने जब कुमुद के सर पर हाथ फेरा तो कुमुद चेतनालोक में लौटते हुए बोली ‘‘कुछ नहीं माँ बस यूहीं एलबम देख रही थी। देखो न पापा कितने हैंडसम लग रहे हैं इन फोटो में, किसने सोचा था कि एक दिन उनकी बेटी ही उनकी मौत का कारण बन जाएगी।’‘ बोलते-बोलते कुमुद फफक-फफककर रो पड़ी।
मुझे नहीं पता तुम बाप बेटी में उस रोज किस बात पर झगड़ा हुआ था... मुझे तो बस इतना पता है तुम्हारे पापा को कैंसर ने लील लिया। कहते हुए कुमुद की माँ का गला भर आया, उसने कुमुद के आँसुओं को पोंछा और उसको गले से लगा लिया।
कैंसर -वेंसर कुछ नहीं होता माँ.... मैंने एक आर्टिकल में पढ़ा था ये कैंसर नाम तो दवा कंपनी के दलालों ने गढ़ा है, ताकि वे अपनी दवा का कारोबार बढ़ा सके, पापा ने शायद मेरी बातों को अपने दिल में बिठा लिया और वो बातें पापा के दिल में नासूर बन गईं जो धीरे-धीरे खून के हर एक कतरे में रिस गईं। शायद लहू में घुली हुई इसी आकुलता को आप और डॉक्टर ब्लड कैंसर के नाम से पहचानते हैं। कुमुद ने अपनी माँ की बाहों को कसकर सुबकते हुए कहा।
बेटा तुम हमारी इकलौती औलाद हो। हमारे लिए तुम ही इस घर का चिराग हो, मैं तुम्हें यूँ हताश नहीं देख सकती। यदि तुम ही टूट जाओगी तो मेरा क्या होगा? मेरा एक पॉंव भी अब कब्र में है, जरा मेरा विचार करो। पोंछ दो इन आँसुओं को... जो बीत गई उसे तुम सुधार नहीं सकती... लेकिन उससे सीख लेकर अपने भविष्य को संवार सकती हो। मैं जानना चाहती हूँ उस रोज तुम्हारे और तुम्हारे पापा के बीच क्या बात हुई। ऐसी क्या बात हुई जिसने तुम दोनों को इतना आहत कर दिया। मैंने इस बारे में तुम्हारे पापा से कई बार बात की….. पर उन्होंने कुछ नहीं बताया और कुछ ही दिनों बाद वे बीमार और अधिक बीमार पड़ते चले गए। कुमुद की माँ ने कुमुद को बेड पर बिठाते हुए कहा और खुद भी उसके पास बैठ गई।
माँ आपको याद है उस रोज जब पापा के एक दोस्त अपने बेटे के साथ हमारे घर आए थे। पापा चाहते थे कि मैं साड़ी का लिबास ओढ़कर उन्हें चाय सर्व करूँ... पर मैंने उन्हें साफ मना कर दिया कि मुझे शादी ही नहीं करनी। पापा बार-बार मुझ से पूछ रहे थे, क्यों नहीं करनी शादी? लाज ने मेरे होंठ सील रखे थे.... मैं कैसे बताती उनको कि मैं एक गलत शरीर में पैदा हुई आत्मा हूँ। उन्हें मेरी बातें समझ में ही नहीं आ रही थीं, पापा ने मुझ पर बिल्कुल भी गुस्सा नहीं किया और प्यार से पूछा कि क्या मैं किसी और से प्यार करती हूँ? मैंने पापा को लाख समझाया... नहीं पापा मैं किसी से भी प्यार नहीं करती... मुझमें हार्मोनल इम्बैलेंस हैं.... मैंने लड़की का शरीर जरूर धारण कर रखा है पर मन से मैं एक लड़का हूँ... मैं शादी के बारे में सोच भी नहीं सकती। ऐसी शादी से क्या फायदा जिससे दो लोगों की जिंदगी बर्बाद हो जाए। उस रोज पहली बार मैंने पापा की आँखों में तैरती हुई लालिमा को देखा..!
उन्होंने मुझे बड़ी-बड़ी आँखों से घूरते हुए कहा ‘‘तुम्हें पता भी है तुम क्या कह रही हो? क्या तुम ताउम्र कुँवारी रहना चाहती हो? लोक-लाज की जरा भी परवाह है तुम्हें? क्या तुम्हें इसलिए बेटा मानकर पाला कि एक दिन तुम मेरी आँखें शर्म से नीची कर दो।’‘
अपने पापा की कही हुई बातों को दोहराते हुए कुमुद अचानक खामोश हो गई और टकटकी लगाकर खिड़की के पर्दों को हवा के साथ लहराते हुए देख रही थी। कमरे में निस्तब्धता छा गई। माँ ने कुछ नहीं कहा वह आज कुमुद के मन की बातों को पढ़ लेना चाहती थी।
थोड़ी देर खामोश रहने के बाद कुमुद ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा ‘‘पापा शायद मुझे समझ ही नहीं पाए थे कि क्यों मैं बचपन में उस समय सबसे ज्यादा खुश होती थी जब पापा मुझे उपहार में टीशर्ट और पैंट लाकर देते थे। फ्रॉक के बजाए टीशर्ट और पैंट में, मैं बहुत सहज अनुभव करती। पापा जब मुझे छोटे बाल रखने के कहते तो मैं उछलने लगती क्योंकि लड़कियों की तरह लम्बे बाल रखना बिल्कुल भी पसंद नहीं था, मेरे मन में किसी कोने में धीरे-धीरे पुरुषत्व पनप रहा था। उस रोज पापा के दोस्त बिना कॉफी पीये ही चले गए.... उस दिन पापा ने पूरे दिन मुझसे बात नहीं की और न ही आपको इस वाक़िअ: के बारे में बताया.... अगले रोज पापा मुझे साइकोलोजिस्ट के पास लेकर गए। मैं कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं थी और न ही पापा से नज़रे मिला पा रही थी। मुझे एहसास हुआ कि शायद पापा सोच रहे हैं कि मैं एक समलैंगिक हूँ इसलिए शायद मैं शादी के लिए मना कर रही हूँ। पापा अपने स्तर पर मेरी इस बीमारी का इलाज कराना चाहते थे।’‘ कहते हुए कुमुद अपनी माँ की कोख में मुँह के बल उलटा लेट गई और फिर से सुबकने लगी।
कुमुद की माँ कुमुद के बालों में हाथ फेरने लगी। कुछ देर के लिए कमरे में फिर से खामोशी छा गई, जब कुमुद की रूलाई बंद हो गई तो माँ ने चुप्पी तोड़ते हुए कुमुद से पूछा ‘‘और.... फिर.... डॉक्टर ने क्या कहा कुमुद?’‘
उस मनोचिकित्सक ने मेरी बातों को ध्यान से सुना, जब मैं उससे यह सब बातें कर रहीं थी तो डॉक्टर ने पापा को थोड़ी देर बाहर बैठने के लिए कहा। मेरी बातों को इत्मीनान से सुनने के बाद उसने पापा को वापस अपने चेम्बर में बुला लिया और कहा कि चिकत्सा विज्ञान की भाषा में, मैं जेंडर डाइस्फ़ोरिया से ग्रसित हूँ। पापा ने यह शब्द अपने जीवन में शायद पहली बार सुना था, उन्होंने डॉक्टर के साथ बहस करनी शुरू कर दी। डॉक्टर ने उन्हें समझाते हुए बताया कि किसी के जैविक सेक्स के विपरीत पुरुष या महिला के रूप में भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक पहचान महसूस करने की स्थिति को जेंडर डाइस्फ़ोरिया कहते हैं। यह कोई रोग नहीं है बस यूँ समझ लीजिए जिसे आप अपनी लड़की समझ रहे उसके शरीर में एक पुरुष भाव बसा हुआ है। पापा ने इसके बाद एक शब्द भी नहीं बोला और हम घर लौट आए। उस दिन के बाद से हम दोनों के बीच एक अघोषित दूरी बन गई और कुछ ही दिनों बाद पता चला कि पापा को कैंसर है। मैं उनके स्वस्थ होने का इंतजार करती रही ताकि मैं उन्हें अपना फैसला सुना सकूँ पर ईश्वर ने मुझे मौका ही नहीं दिया और मेरे पापा को मुझसे छीन लिया। कहते हुए कुमुद अपनी माँ की गोद से उठी और वापस खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गई। खड़की से सड़क का नज़ारा पूरी तरह साफ दिखायी दे रहा था। सड़क के किनारों पर उगे हुए बिजली के खंभों पर लगी ट्यूबलाइट की जगमगाती दूधिया रोशनी से सड़क पूरी तरह से नहायी हुई थी, इक्का-दुक्का लोग सड़क पर चहल कदमी कर रहे थे। ट्यूबलाइट के आस-पास सैंकड़ों कीट पंतगे जमा हो गए , कुमुद उन कीट-पंतगों को विचारशून्य भाव से देख रही थी।
क्या तुम एक हिजड़ा हो? आई मीन थर्ड जेंडर! जन्म से लेकर आज तक तुम मेरी गोद में पली बढ़ी हो, मुझे तो एक बारगी भी नहीं लगा कि तुम थर्ड जेंडर हो! कहते हुए कुमुद की माँ अपने माथे पर हाथ रखकर सोफे पर बैठ गई, उसका सर दर्द से फटा जा रहा था। माँ को लग रहा था जैसे उसके पैरों तले जमीन ही खिसक गई हो। माथे पर पसीने की बूँदों ने लड़ियों का रूप ले लिया।
कुमुद ने पर्दों को बंद कर दिया। कमरे में ऊमस सी होने लगी तो उसने रेगुलेटर को घुमाकर छत पर टंगे पंखे की गति को बढ़ा दिया। चहल-कदमी करते हुए कुमुद अपनी माँ के पास आकर सोफे के हत्थे पर बैठ गई और माँ के हाथों को अपने हाथों में भरते हुए कहा... ‘‘ओह माँ...! थर्ड जेंडर और ट्रांसजेंडर में अंतर होता है, बहुत ही महीन अंतर !’‘
तुम कहना क्या चाहती हो? सच पूछो तो मुझे तुम्हारी कोई भी बात समझ में नहीं आ रही है। कुमुद की माँ के तल्ख शब्दों में ख़ीज स्पष्ट झलक रही थी।
माँ... किशोरावस्था से लेकर अब तक मैंने कई साल इन्हीं प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ने में लगा दिए, मुझे अहसास हो गया था कि मेरे मन में पल रहे प्रश्नों के उत्तर किसी के पास नहीं है। मैंने किताबों में, नेट पर अपने प्रश्नों का समाधान ढूँढ़ना चाहा और पाया कि लोगबाग ने ट्रांसजेंडर, नपुंसक, हिजड़ा के बीच के महीन अंतर को नहीं पहचानते या यूँ कहो कि तथ्यों से अनभिज्ञ हैं। ट्रांसजेंडर वे होते हैं जो आम तौर पर यह महसूस करते हैं कि वे गलत भौतिक शरीर में पैदा हो गए हैं। उनमें यह धारणा घर कर जाती है कि वे समाज की उम्मीदों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। दूसरी ओर, जो लोग न तो पुरुष होते हैं और न ही महिला उन्हें थर्ड जेंडर के नाम से पुकारा जाता है। कुमुद अभी भी अपनी माँ के हाथों को अपने हाथों में सहला रही थी वह अपनत्व के भाव से माँ को अपनी मनोदशा समझाने की असफल चेष्टा कर रही थी।
कुमुद की माँ ने कुमुद की बात का कोई जबाब नहीं दिया और कुमुद के हाथों से अपने हाथ खींच लिए। वह सोफे से उठकर कमरे के दरवाजे तक आकर ठहर गई कुछ क्षणों बाद वापस पलटी और बोली ‘‘कुमुद तुम एक भयानक सपने में जी रही हो... तुम्हारे लिए अच्छा होगा कि जितना जल्दी हो सके इस सपने से बाहर आ जाओ।’‘
नहीं माँ, मैं किसी सपने में नहीं जी रही हूँ। सच्चाई तो यह है कि मैं आपको उस सच से अवगत कराने की कोशिश कर रही हूँ जिसे आज तक आपके सामने प्रकट करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पायी थी और मैं अच्छी तरह से जानती हूँ आप इस सच्चाई को फिलहाल स्वीकार करने की स्थिति में भी नहीं है। अच्छा होता मैं यह बात आपको बहुत पहले ही बता देती । जानती हो माँ... बचपन से ही मैं घुटन की जिंदगी जी रही हूँ, मैं हमेशा ईश्वर को कोसती रहती हूँ क्यों उसने मुझे एक गलत शरीर दे दिया, जब उसने मुझे नारी बनाया तो मेरे मन में पुरुषत्व का भाव क्यों भर दिया ? यह कोई मुग़ालता नहीं है माँ... एक कड़वी सच्चाई है। कुमुद ने जोर देकर अपनी बात कही, उसके शब्दों में कठोरता पसर गई थी।
जानती हो स्वपन क्या होते हैं स्वप्न हमारी उन इच्छाओं को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करते हैं जिनकी तृप्ति जाग्रत अवस्था में नहीं होती? मन एक संसार गढ़ता है और हम उस अलौकिक संसार के पात्र होते चले जाते हैं। ये अलौकिक संसार मजेदार होते हैं... कभी कल-कल बहती नदियॉं और झरने तो कभी वीरान रेगिस्तान... कभी मीलों तक फैली खामोशियॉं तो कभी कानफोड़ू कोलाहल। मैं अपनी बेटी को सपने के भीतर जीते-जी मरने नहीं दूँगी.. कुमुद मैं जल्द ही तुम्हारी दिवास्वप्न बेड़ियों को तोड़ दूँगी। कुमुद की माँ ने दृढ़ता से अपनी बात रखते हुए कुमुद को गले से लगा लिया।
माँ आप शिखंडी को जानती हो? कुमुद ने माँ से पूछा।
हॉं... तो... माँ ने रूखेपन से जबाब दिया।
कुमुद अपनी माँ को दरवाजे से वापस बेड तक खींच लायी और उसे बेड पर बैठने का इशारा करते हुए कहा सुनो माँ मैं आपको एक कहानी सुनाती हूँ। महाभारत के समय में शिखंडी का जन्म पंचाल के राजा द्रुपद की बेटी के रूप में हुआ था। पता है माँ...उसके जन्म के समय एक आकाशवाणी हुई कि उसका लालन-पालन एक पुत्री नहीं वरन पुत्र के रूप में किया जाए। इसलिए शिखंडी का लालन-पालन एक पुरुष के समान किया गया। उसने युद्ध कला सीखी और एक रोज उसका विवाह हो गया। थी तो वो स्त्री लेकिन विवाह पुरुष के रूप में किया, विवाह रात्रि के दिन शिखंडी की पत्नी ने सत्य का ज्ञान होने पर उसका अपमान किया। आहत शिखंडी आत्महत्या का विचार करते हुए शहर से दूर जंगल की ओर चल दिया। कहते हैं कि एक यक्ष ने उसे बचाया और लिंग परिवर्तन कर अपना पुरुषत्व उसे दे दिया। जब वो पुरुष बनकर वापस लौटा तो अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सुखी वैवाहिक जीवन बिताने लगा।
पर तुम शायद यह भूल गई हो कि लिंग परिवर्तन और पुरुषत्व प्राप्त करने के बावजूद समाज में उसकी पहचान एक स्त्री के रूप में ही रही, तभी तो महाभारत के युद्ध में भीष्म ने उस पर वार करने से मना कर दिया क्योंकि वो एक स्त्री पर हथियार नहीं उठा सकते थे। माँ ने अपना तर्क रखा।
ओह माँ.... मैं यह कहना चाहती हूँ कि आज से सैंकड़ों साल पहले भी ट्रांसजेंडर होते थे और आज भी होते हैं। उनमें से ही मैं एक हूँ। माँ हम ईश्वर के अर्द्धनारीश्वर रूप को भी पूजते हैं, जहॉं वे उभयलिंगी शरीर में विद्यमान माने जाते हैं। कुछ इसी तरह मेरी आत्मा पुरुष की है और यह शरीर स्त्री का। कुमुद अपनी माँ के साथ तर्क करने लगी।
अर्द्धनारीश्वर का अर्थ भी जानती हो तुम? अर्द्धनारीश्वर का मतलब है प्रकृति और पुरुष का मिलन। तुम जैसे लोग जो विज्ञान में अंधविश्वास रखते हैं वे इस गूढ़ रहस्य को नहीं जान पाएँगे। बेटी... हम जिस भाषा में बात कर रहे हैं उसमें भी केवल दो ही लिंग होते हैं एक स्त्रीलिंग और दूसरा पुल्लिंग, हमारे भाषा और संस्कार में तीसरे लींग जैसी कोई संकल्पना ही नहीं है। इसलिए ईश्वर से डरो, उसने जो रूप, लिंग दिया है उसे स्वीकार करो। अब हम इस विषय पर कोई बात नहीं करेंगे। कहते हुए माँ तेज कदमों के साथ कमरे से बाहर निकल गई, आज ऐसा पहली बार हुआ जब माँ ने कुमुद को डिनर तक के लिए भी नहीं पूछा। माँ के चेहरे पर झल्लाहट साफ दिखायी दे रही थी।
***
रोमन अक्षरों वाली पुरानी दीवार घड़ी का पेंडुलम कभी दायें कभी बायें दौड़ रहा था। रात के दस बज रहे थे, कुमुद की भूख मर चुकी थी। वह खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गई, पर्दों को हटाया तो ताजीं हवा कमरे में भर गई। सड़कें अभी भी दूधिया रोशनी में नहायी हुई थीं, मगर एकदम वीरान। रात की खामोशी अब सड़क पर अपना पहरा दे रही थी। सड़क पर पसरी खामोशी कुमुद के दिल में चल रही उठापठक को शांत नहीं कर पायी, कुमुद ने खिड़की के पर्दों को बंद कर दिया और कमरे में चहल-कदमी करने लगी। चहल कदमी करते हुए वह अपने कमरे की दीवारों पर टंगी हुई बचपन की तस्वीरों को गौर से देखने लगी, जैसे हर तस्वीर उस कुछ याद दिला रही हो। पूरे कमरे का चक्कर लगा लेने के बाद वह अपनी स्टडी टेबल के पास पहुँची और कुर्सी पर बैठ गई। एक दम शांत, हजार विचार उसके दिमाग में आ जा रहे थे। उसने अपनी डायरी उठायी और कुछ लिखने लगी।
प्यारी माँ,
आज तक आपको लिखकर मुझे अपने मन की बात कहने की कभी जरुरत ही नहीं पड़ी, पर आज लगता है कि जो बातें मैं, आपको बोलकर नहीं सुना सकती उन सभी को लिखकर बतला दूँ। अब-तक का जीवन मैंने कैसे जीया वो सब कुछ आज आपके समक्ष साझा कर दूँ। कहते हैं कि सुनी हुई बातें सीधे कानों से होती हुई दिमाग में जाती हैं पर पढ़ी हुई बात दिल में उतर जाती हैं। माँ.. मैंने अपने पशोपेश के चलते पापा को खो दिया और मैं किसी भी शर्त पर आपको नहीं खोना चाहती। जो आप कहेंगी, मैं वैसा ही करूँगी पर उससे पहले मेरी इतनी सी इल्तज़ा है कि एक बार डायरी के इन पन्नों को जरूर उलट के देख लेना क्योंकि ये खालिश डायरी के पन्नें नहीं, मेरी जिदंगी का आईना है जो आपको तुम्हारी उस बेटी से रूबरू कराएँगे जिसे आपने कभी जाना ही नहीं।
माँ.... जब मैं लगभग चार या पाँच साल की थी तब तक मुझे लड़के और लड़की का भेद भी नहीं पता था। छ: वर्ष की उम्र में जब लड़कियाँ ग्रुप बनाकर रिसेस टाइम में शौचालय जाती तो मुझे उनका समूह कतई पसंद नहीं आता। मैं लड़कों कि तरह अकेला जाना पसंद करती थी, मैं बाथरूम के दरवाजे को बंद नहीं करती ठीक वैसे ही जैसे लड़के खुले में कहीं भी हल्का हो जाते हैं। उस दिन को मैं भूल नहीं सकती जब मैं लगभग सात साल की रही हूँगी, मुझे याद है एक बार मैं लड़कों के शौचालय में चली गई तो लेडी टीचर मुझ पर बहुत चिल्लायी, मुझे भला बुरा कहा, उसी उम्र में मुझे एहसास हुआ कि मैं इन लड़कियों से थोड़ा अलग हूँ। नौ साल की उम्र से मैंने लंबें बाल रखना छोड़ दिया, माँ आपको याद है आप हमेशा मेरे छोटे बालों को लेकर झगड़ा करती थी... पर पापा ने हमेशा मुझे सपोर्ट किया। कभी-कभार थोड़े लम्बे बाल रख लेना भी मेरे लिए किसी त्रासदी से कम नहीं थे।
थोड़ी बड़ी हुई, जब...सब लोग सो जाते तो मैं चुपके से पापा के कपड़ों को पहन लेती और आईने के सामने खड़े होकर अपने आप से पूछती कौन हूँ मैं? स्त्री या पुरुष? पुरूषों के कपड़े पहनना मुझे अच्छा लगता, शायद ही कोई ऐसा त्यौहार रहा होगा जब बाज़ार में खरीददारी करते वक्त मैंने अपनी मर्जी से जींस-पैंट और शर्ट नहीं खरीदी हो। यह जो सलवार-कमीज़ है न वो सब आपकी जिद के कारण ही मुझे पहनना पड़ा। सलवार-कमीज़ और साड़ी में, मैं अपने आपको बहुत गौण महसूस करती हूँ ऐसा लगता है जैसे यह कपड़े मेरे पहनने के लिए बने ही नही है।
माँ.... मेरा स्कूल का दौर बेहद मुश्किल भरा रहा, अपनी बातों को मैंने अपने मन में घुटने दिया। छोटे बालों और लड़कों के कपड़े पहनने के लिए मुझे चिढ़ाया जाता। लड़कों की तरह मुझे क्रिकेट और फुटबाल खेलना था पर मुझे टीम का हिस्सा बनने ही नहीं दिया गया। कभी-कभी तो ऐसा लगता है जिंदगी लिंग और लैंगिकता के बीच एक मखौल बन कर रह गई है। दिन-प्रतिदिन के आधार पर मैं लोगों को नहीं बता सकती थी कि मैं ट्रांसजेंडर हूँ। सबसे अधिक मनौवेज्ञानिक पीड़ा तब भुगतनी पड़ी जब मैं यौवन की दहलीज़ पर पहुँची, मेरे शरीर में उस तरह के बदलाव पूरी तरह से नहीं हो रहे थे जितने दूसरी लड़कियों के हो रहे थे। युवा होते-होते मेरी आवाज़ में भारीपन आता गया जिसे आप लोगों ने नार्मल समझा। मगर मैं एक मनोवैज्ञानिक पीड़ा से गुजर रही थी, कभी-कभी तनाव इतना बढ़ जाता कि अपने आप को समाप्त कर देने का ख्याल आने लगता। आप अनुमान भी नहीं लगा सकती, अपनी जिंदगी के इतने बरस मैंने किस अबूझ पीड़ा के साथ गुजारे हैं।
जब मैं तेरह साल की थी, पापा के साथ मैं एक फंक्शन में गई, वहॉं थोड़ी बहुत भीड़ थी, भीड़ में एक बुजुर्ग मुझसे टकरा गए उन्होंने पलट कर कहा ‘‘माफ करना बेटा’‘, शायद मेरे डील-डोल से और मेरे पहनावे से उन्होंने मुझे लड़का समझ लिया था। इसमें उस बुजुर्ग की कोई गलती नहीं थी पर पापा उन पर बहुत नराज हुए उन्होंने गुस्से में कहा ‘‘दिखाई नहीं देता, अंधे हो क्या? यह लड़का नहीं लड़की है।’‘ पापा इतने गुस्सा हो गए थे कि उन्होंने फंक्शन अटेंड भी नहीं किया और हम वापस घर लौट आए। इस वाकअ: ने मुझमें और ज्यादा तनाव भर दिया, मैं यह सोचने लगी कि उस बुजुर्ग ने मुझे लड़का समझ लिया तो पापा इतना गुस्सा हो गए हैं यदि मैं उनसे जेंडर ट्रांसप्लांट की बात करूँ तो कितना गुस्सा होंगे, पूरा आसमान सर पर उठा लेंगे। मैंने अपने होंठ सील लिए, तब से अब तक सिले हुए होंठ आज आपके सामने खुल रहे हैं, यह सोचकर कि शायद एक महिला होने के नाते आप मेरी भावनाओं को समझ पाओ।
एक बार की बात है मेरी दोस्त नेन्सी की बर्थडे पार्टी में उस रात हमने बहुत शराब पी, इतनी पी कि हम बहक गए। नाचते वक्त जब दूसरे लड़के मेरे पास आ रहे थे तो मुझे घिन्न का अनुभव हो रहा था। नशे में भी मैं सजग थी और दूसरे पुरुष के प्रति यह भावना और कुछ नहीं बस मनोवैज्ञानिक पीड़ा का ही परिणाम थी। माँ... मेरा विश्वास करो मैं समलैंगिक नहीं हूँ फिर भी पुरूषों के मेरे नज़दीक आने पर मुझे विरक्ति का बोध होता है। मैं समझ ही नहीं पा रही हूँ कि मैं हूँ क्या...? आपके गर्भ से पैदा हुई एक औरत या फिर औरत के शरीर में बसी हुई पुरुष आत्मा...!
माँ.... अगर आप मेरा साथ दो तो मैं जमाने से लड़ने के लिए तैयार हूँ। आज विज्ञान के युग में जेंडर ट्रांसप्लांट करना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ट्रांसफॉर्म का पहला कदम है हार्मोन इंप्लांट और सर्जरी। माँ.... लिखने के लिए बहुत कुछ है शायद ये रात कम पड़ जाए। जो मैं पत्र नहीं लिख पा रही हूँ, जीवन के वो सब पल इस डायरी में कैद हैं। आशा है आप डायरी के इन पन्नों में जब गोते लगाएँगी तो मेरे मनोभावों को अच्छे से जान पाऍंगी। कुछ पंक्तियों के साथ मैं कलम को यहीं विराम देती हूँ...
बहुत खूबसूरत है तेरी धरती
कुमुदिनी, लताओं-पत्तियों से सजी संवरी
माना तुम्हारा लौकिक अवचेतन है सबसे न्यारा
लेकिन मुझे है मेरा आकाश प्यारा
गुरुत्वाकर्षण से विकर्षण का नया नियम ढूँढ़ती
अपने आकाश की तलाश में
तुम्हारी
कुमुदिनी
रात के तीन बज रहे थे। कुमुद एक बार फिर खिड़की के पास गई, पर्दों को उठाकर खिड़की से बाहर सड़क की ओर झांकने लगी। अपने भविष्य के अंधकार की तरह सड़कें भी उसे वीरान और गहरी काली नज़र आ रही थीं। सड़क के किनारे लगे बजे बिजली के खंभों पर कल शाम जो कीट-पंतगे उड़ते नज़र आ रहे थे वे सब जमीन पर औंधे मुँह गिरे पड़े थे। कुमद को लग रहा था जैसे उसके पंख माँ के हाथों में हैं, माँ चाहे तो लगा दे और माँ चाहे तो उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए तोड़कर फेंक दे। कुमुद ने पर्दों को बंद कर दिया, स्टडी टेबल से डायरी उठायी और जिस आखरी पन्ने पर उसने माँ के लिए पत्र लिखा वहॉं वह सुनहरी कलम लगा दी जो पापा ने उसे पिछले साल जन्मदिन के दिन बतौर तोहफे में दी थी। अपनी डायरी को हाथ में लिए वह सीढ़ियों से नीचे उतरी और सीधे माँ के कमरे में आ गई। मोबाइल की रोशनी में माँ के चेहरे को देखा, वो गहरी नींद में सो रही थी। धीरे से उसने डायरी अपनी माँ के सिरहाने रख दी और दबे पॉंव अपने कमरे में लौट आई।
रोमन अक्षरों वाली दीवार घड़ी के पेंडुलम की टिक-टिक की आवाज नीरवता को चीर रही थी। सुबह के चार बज रहे थे, मगर अभी भी कुमुद की आँखों से नींद कोसों दूर थी। विचारों के ज्वार उसके दिमाग में उमड़-घुमड़ रहे थे। सुबह माँ क्या कहेगी? अगर माँ ने मेरा साथ नहीं दिया तो? आगे उसे क्या करना है? एक विचार जाता नहीं कि दूसरा विचार उसके दिमाग में कौंधने लगता। पूरी रात आँखों-ही-आँखों में गुजर गई और भौर होते-होते पता नहीं कब उसकी आँख लग गई।
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सुबह के नौ बज रहे थे। माँ चाय-नाश्ते की ट्रे के साथ कुमुद के कमरे में दाखिल हुई, माँ ने ट्रे को स्टडी टेबल पर रख दिया। मीठी सेवइयाँ, सेब की कटी हुई फलकें और कुछ सूखे मेवे आज के नाश्ते के लिए प्लेटों में परोसे गये।
उठो कुमुद नौ बज रहे हैं। अरे..! आज तुमने खिड़की के पर्दों को बंद कर दिया ..! रोजाना तो पर्दों को खोलकर सोती हो, शिकायत करती हो कि अगर खिड़की के पर्दें बंद होंगे तो कमरे में ताजी हवा कहॉं से आएगी? कहते हुए कुमुद की माँ ने खिड़की के पर्दें खोल दिए, कमरा सूरज की रोशनी से नहा गया, ताजी हवा का झोंका कुमुद के बालों को सहलाने लगा।
गुड मोर्निंग माँ... अपनी आँखें मसलती हुई बेड से उठकर बैठते हुए कुमुद ने माँ को विश किया।
गुड मोर्निंग बेटा... जल्दी चाय नाश्ता कर तैयार हो जाओ हमें हमें हास्पिटल जाना है। मैंने डाक्टर से डेट ले ली है, दस बजे तक हमें वहॉं पहुँचना हैं। माँ ने कुमुद की डायरी उसे वापस लौटाते हुए कहा।
कुमुद अवाक होकर अपनी माँ की बातों को सुने जा रही थी, विस्मय से उसकी आँखों की पुतलियॉं फैल कर चौड़ी हो गईं .... !
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