फौजी की बेटी Dr kavita Tyagi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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फौजी की बेटी

फौजी की बेटी

अनु की मम्मी सावित्री को विद्यालय की प्रधानाचार्या पिछले आधे घंटे से भिन्न—भिन्न तर्क देकर विभिन्न युक्तियों से एक ही बात समझा रही थी कि अनु की बारहवीं की परीक्षा शुरू होने में अब कुछ ही महीने शेष रह गये हैं, इसलिए अब उसकी पढ़ाई बंद न करवाएँ। अनु की मम्मी अपनी ही जिद् पर अड़ी हुई थीं — ”मैडम, मैंने फैसला कर लिया है, अब मैं इस लड़की को और नहीं पढ़ाऊँगी ! यह मेरा अंतिम निर्णय है !”

“ हाँ—हाँ ! अब मुझे भी नहीं पढ़ना है और आगे ! मैंने जितना पढ़ लिया, उतना ही बहुत है ! मैं तो कहती हूँ, मुझे आपने इतना भी नहीं पढ़ाना चाहिए था ! मुझे इतना पढ़ाना भी आपकी गलती ही थी! ” निकट ही एक कोने में खड़ी हुई रोती—सिसकती अनु ने कहा। अनु की प्रतिक्रिया से माँ का क्रोध और अधिक बढ़ गया था —

“ देख लिया आप सबने, कितनी लंबी जुबान है इस लड़की की !” अनु की मम्मी ने वहाँ उपस्थित प्रधानाचार्य तथा अन्य अध्यापिकाओं की ओर देखकर कहा —” घर में भी इसकी जुबान ऐसे ही चलती है ! दिन—भर अपने बनाव—सिंगार में लगी रहती है ; एक—से—एक बढ़कर फरमाइशें करती है ! उन्हें पूरा करने के लिए हम अपनी सामर्थ्य से अधिक खर्च करते हैं, ताकि यह खुश रह सके। पर इसके ऊपर क्या फर्क पड़ता है ? कुछ नहीं ! कोई मरता है मरे, इसकी बला से ! इसे तो अपनी मौज—मस्ती से मतलब है ! मैं दूसरों के घर काम करके इसके लिए सुख—सुविधाएँ जुटाती रही हूँ और यह घर में अपने जूठे बर्तन भी नहीं उठा सकती ! मैं हारी—थकी घर पहुँचती हूँ, तो यह एक कप चाय बनाकर नहीं दे सकती ! इसमें अब तक पढ़कर समझदारी नहीं आयी, तो आगे इसकी कौन-सी बुद्धि-बेल फैल जाएगी।” इतना कहकर सावित्री ने अनु की बाँह पकड़ी और घसीटते हुए प्रधानाचार्य के कार्यालय से बाहर निकल गयी। प्रधानाचार्य जी सावित्री को समझाने का एक और प्रयास करना चाहती थी, किन्तु सावित्री कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थी। वह बेटी को लेकर विद्यालय से चली गयी। उनक़े निकलने के पश्चात् प्रधानाचार्य जी ने व्यथित स्वर में लंबी साँस लेते हुए स्वगत संभाषण किया —

“ ऐसी ही माँएँ बेटियों को अबला बनाती हैं ; उन्हें अबला बनने के लिए युगों-युगों से विवश करती आयीं हैं।” कहते—कहते प्रधानाचार्य जी की दृष्टि निकट खड़ी अध्यापिका पर पड़ी, तो वे पुनः बोली — ” बताइये मैडम, इस देश का भविष्य उज्जवल कैसे बनेगा ? जब हमारे देश की बेटियाँ अशिक्षित और अशक्त होंगी ! नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था — ‘ आप मुझे साठ अच्छी माँएँ दे दो, तो मैं आपको एक अच्छा राष्ट्र दे सकता हूँ !’ लेकिन देखिए इस माँ को ! अभी—अभी अपनी बेटी का एडमिशन कैंसल कराने के लिए कितना हंगामा कर रही थी !”

“ नहीं मैडम ! यह स्त्री बहुत अच्छी माँ है और देश की एक बहुत अच्छी नागरिक भी है। यह केवल बातें नहीं करती है, बेटियों के हितार्थ संघर्ष भी करती है ! मैंने देखा था आज उसके व्यवहार को ! अवश्य ही उसके इस निर्णय के पीछे कुछ गम्भीर कारण रहा होगा ! यदि आप उचित समझें, तो हम उसके घर चलकर वस्तुस्थिति ज्ञात कर सकते है और अनु की पढ़ाई जारी रखने के लिए उनकी यथासंभव सहायता भी कर सकते है।” अध्यापिका ने अपना प्रस्ताव इतने आत्मविश्वास के साथ प्रकट किया कि प्रधानाचार्या सहज ही अनु के घर चलने के लिए तत्पर हो गयी और विद्यालय की छुट्टी होने के पश्चात् वहाँ जाने का कार्यक्रम बना डाला।

विद्यालय से घर आकर अनु बड़े जोर से औंधे—मुँह बिस्तर पर जा पड़ी। अब तक उसका क्रोध सातवें आसमान पर पहुँच चुका था। सावित्री अपने बेटी के क्रोध से भली—भाँति परिचित थी, इसलिए उस समय उसने बेटी से किसी भी प्रकार की कोई बातचीत न करना ही उचित समझा और चुपचाप घर के कार्यों में व्यस्त हो गयी। माँ को घर के कार्यों में व्यस्त देखकर अनु का क्रोध और अधिक बढ़ रहा था। वह प्रतीक्षा कर रही थी कि कब माँ अपने निर्णय पर पछताते हुए उसके पास आएगी और अपनी गलती पर आँसू बहाते हुए बेटी को मनाने का प्रयास करेगी। माँ की प्रतीक्षा करते—करते दो घंटे बीत गये, किन्तु माँ अनु के पास नहीं गयी, बल्कि स्वयं को घर केे कार्यों में तल्लीन दिखाती रही। अब अनु की सहनशीलता उसका साथ छोड़ने लगी। उसने क्रोधावेश में अपनी बुआ को फोन किया कि बुआ शीघ्र ही उसके पास आ जाएँ, अन्यथा जीवन में फिर कभी उन्हें अनु के दर्शन नहीं होंगे।

फोन पर अनु की बातें सुनकर बुआ का हृदय बैठ गया। स्थिति की गंभीरता का आभास लेने के लिए बुआ ने सावित्री से फोन पर बात करनी चाही, परन्तु उसने फोन रिसीव नहीं किया,क्योंकि सावित्री को बुआ पर क्रोध आ रहा था। सावित्री को लगता था कि अनु की आदतों को बिगाड़ने में उसकी प्रकृति से कहीं अधिक योगदान बुआ का रहा है। सावित्री की इस सोच का कारण बुआ का अब तक का व्यवहार था। जब भी कभी वह अनु को अनुचित कार्य—व्यवहार करने से रोकती थी, तभी बुआ अनु के पक्ष में खड़ी होकर जोर—शोर से आरोप लगाती थी कि सावित्री दोनों बेटियों में भेदभाव करके अनु के साथ सौतेला व्यवहार करती है। अपनी बुआ को अपने पक्ष में खड़ा पाकर अनु का हौंसला बढ़ जाता था । तत्पश्चात् किसी भी अनुचित कार्य—व्यवहार को वह पहले की अपेक्षा अधिक शक्ति और आत्मविश्वास के साथ करती थी।

उधर, अनु की चेतावनी के बाद सावित्री के साथ बात न हो पाने से बुआ का हृदय बेचैन हो रहा था। अतः वह कपड़े बदलकर झटपट अनु से मिलने के लिए चल पड़ी । लगभग एक घंटा पश्चात् बुआ जब अनु के सामने उपस्थित हो गयी, तब अनु को अत्यधिक मानसिक शान्ति मिली। उसने आज जी-भरकर बुआ से माँ की आलोचना की। बुआ चुपचाप अनु की सारी बातें सुनती रहीं, अपनी ओर से कुछ नहीं बोली। चूँकि ऐसा आज पहली बार हुआ था कि बुआ अपनी ओर से सावित्री के विषय मे कुछ न कहे ; कटु बातें कहकर अनु के क्रोध की आग में घी न डालें, इसलिए अनु को कुछ विचित्र लगा था । परन्तु अपने क्रोध और दाखिला रद्द होने की पीड़ा के चलते उसने इस घटना को गंभीरता से नहीं लिया।

सावित्री ने बुआ के आतिथ्य सत्कार के लिए चाय-नाश्ता तैयार किया, तब तक उसकी बड़ी बेटी विदुषी भी आ पहुँची थी। अनु को इस समय उसका आना अच्छा नहीं लगा। वह अपनी बड़ी बहन को ईष्र्या मिश्रित घृणा की दृष्टि से घूरने लगी। माँ को विदुषी के प्रति अनु की यह दृष्टि असह्य थी, परन्तु आज उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की और विदुषी के लिए चाय-नाश्ता प्लेट में रखते हुए बोली —” चल बेटी, जल्दी—से मुँह—हाथ धोकर नाश्ता कर ले, चाय ठंडी हो रही है !”

विदुषी के लिए माँ का स्नेह-संभाषण सुनते ही अनु बिफर पड़ी — “ देखा बुआ ! माँ के दिल में विदुषी दी के लिए कितना प्यार है ! एक मैं हूँ ! मैं तो जैसे इस घर में फालतू की चीज हूँ, इसीलिए तो न कोई मुझे प्यार करता है, न कोई मेरी कद्र करता है ! इससे तो अच्छा था, मुझे जन्म देते ही मार दिया होता !”

“ चल चुप हो जा ! अब गुस्सा थूक दे !” बुआ ने अनु को समझाते हुए जीवन में आज पहली बार कोई सकारात्मक बात कही थी।

“ बुआ ! यह आप कह रहीं हैं ? आपने अभी देखा नहीं, माँ ने दी को कितने दुलार से नाश्ता करने के लिए कहा था। मुझे आज तक माँ ने इतना स्नेह नहीं किया !” इतना कहकर अनु बुआ की गोद में सिर रखकर फफक—फफक कर रो पड़ी। माँ भी अनु और उसकी बुआ की बातें सुन रही थी, किन्तु उन्होंने उन बातों में कोई रुचि नहीं दिखाई। चुपचाप विदुषी के बैग और कपड़े आदि समेटने में लग गयी। सावित्री को अपनी ओर आकर्षित न होता जानकर बुआ ने कहा —

“ विदुषी को तो स्नेह और दुलार करेगी ही ! विदूषी ने सावित्री की कोख से जन्म नहीं लिया ; उसकी धमनियों में मेरे भाई और तेरे पिता का रक्त नहीं बहता, फिर भी वह सबका कितना ध्यान रखती है ! पूरे घर की जिम्मेदारी का भार अपने कंधों पर उठाकर भी किसी प्रकार का एहसान नही जतातीं ; अहंकार नहीं दिखाती ; उसके माथे पर शिकन तक नहीं आती ! तेरे बीमार पिता की दवा—दारू का प्रबन्ध करती है ; उनकी देखभाल करती है ; घर में तेरी माँ के काम में हाथ बँटाती है ; बाहर से कमाकर भी लाती है और हर साल पढ़ाई में अव्वल आती है ! तभी तो तेरी माँ का सीना चैड़ा रहता है कि उसकी बेटी किसी भी बेटे से बढ़कर है ! दुनिया में उसका नाम रोशन कर रही है तेरी दी !”

“ बुआ यह क्या कह रहीं हैं आप ? तेरी माँ, तेरे पिता ! मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है ! माँ की प्रिय बेटी तो विदूषी दी है। उन्होंने कभी माना है मुझे अपनी बेटी ? आज आप कह रही हैं कि विदुषी दी ने माँ की कोख से जन्म नहीं लिया !”

“ सही कह रही हूँ मैं !” बुआ ने दृढ़तापूर्वक कहा।

सावित्री को आश्चर्य हो रहा था कि आज उसकी ननद का व्यवहार इतना सकारात्मक कैसे हो गया ? आज से पहले बुआ ने सदैव अनु को उसकी माँ के विरुद्ध भड़काया था और विदुषी के प्रति सदैव अनु के चित् में जहर भरती रही थी। अनु के अपने अठ्ठारह वर्ष के जीवन-काल में पहली बार यह रहस्योद्घाटन हुआ था कि विदुषी उसकी सगी बहन नहीं है। उस बुआ की वाणी द्वारा जिस पर अनु अपनी माँ से भी अधिक विश्वास करती थी, यह बात सुनकर कुछ क्षणों के लिए अनु जड़वत् स्थिर हो गयी। अनु की चेतना तब लौटी, जब किसी ने दरवाजे की घंटी बजायी। घंटी की आवाज सुनकर अनु तत्काल उठकर दरवाजा खोलने के लिए चली गयी।

कुछ ही क्षणों बाद अनु वापिस आयी, तो उसके साथ उसके विद्यालय की प्रधानाचार्या तथा एक अध्यापिका थीं। यह वही अध्यापिका थी, जिसने विद्यालय में सावित्री का पक्ष लेकर प्रधानाचार्या जी को यहाँ आने के लिए प्रेरित किया था। यहाँ आकर सावित्री के साथ अध्यापिका का व्यवहार देखकर प्रधानाचार्या को महसूस हुआ कि वे दोनों एक—दूसरे से न केवल परिचित हैं, बल्कि परस्पर घनिष्टता में बँधी हैं। अध्यापिका ने प्रधानाचार्या की ओर देखकर उन्हें बैठने का संकेत किया, मानों वह उनके साथ नहीं आयी थी, बल्कि सावित्री के साथ इसी घर में रहती है। इसी समय अध्यापिका ने अनुभव किया कि प्रधानाचार्य के अन्तः में जिज्ञासा और कौतूहल के भाव उमड़ रहे है। उनके मनोभावों को पढ़कर अध्यापिका ने सावित्री से कहा —

“सावित्री ! अनु की शिक्षा पूर्ण करने के लिए प्रिंसिपल मैडम यथासंभव तुम्हारी सहायता करना चाहती हैं। आज हम दोनों इसीलिए तुम्हारे घर पर आयी हैं। हमें बताओ, आखिर तुम्हारी क्या समस्या है, जिससे विवश होकर तुम अपनी सगी बेटी की शिक्षा बीच में ही छुड़वा रही हो ? अरी, तुमने तो विदूषी की — जो तुम्हारे गर्भ से भी नहीं जन्मी, उसकी शिक्षा और उन्नति के लिए इतने कष्ट उठाये हैं, जितने कि प्रायः स्त्रियाँ अपनी बेटियों के लिए कष्ट नहीं उठातीं !” अध्यापिका के अंतिम वाक्य को सुनकर प्रधानाचार्य की आँखें विस्मय से फैल गयीं। अब उनकी जिज्ञासा और अधिक बढ़ गयी। उन्होंने आश्चर्य से पूछा —

“क्या ! विदूषी आपकी सगी बेटी नहीं है ? फिर विदूषी ....? अपनी प्रत्येक कक्षा में टॉपर रहने वाली विदूषी आपकी बेटी नहीं है ! लेकन विद्यालय में पुरुस्कार ग्रहण करते समय मैंने माँ के स्थान पर सदैव आपको ही विदूषी की माँ के रूप में देखा था। मुझे स्मरण है कि विद्यालय में विदूषी लड़कों के साथ लड़ने—भिड़ने के लिए मशहूर थी, तब यह स्वयं को फ़ौजी की बेटी बताती थी । आपके पति आर्मी से रिटायर्ड हैं न ?”

प्रधानाचार्या जी के प्रश्न से सावित्री के चेहरे पर कई प्रकार के मिश्रित भाव उभर आये। एक ओर वह विदूषी की माँ हाने पर गर्व का अनुभव कर रही थी, तो दूसरी और उसके स्मृति—सागर में अतीत का घटनाक्रम चलचित्र की भाँति तैरने लगा, जो उसके लिए कष्टकारक था। वह तटस्थ—भाव से यन्त्रवत्—सी उस विषम घटनाक्रम का वर्णन करने लगी, जब बेटी के लिए समाज की संकुचित सोच से उसका प्रथम परिचय हुआ था, जिसके कारण उसकी सूनी गोद में नन्ही—सी बच्ची विदूषी आयी थी और सावित्री को उसकी माँ होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था और जिसमें प्रधानाचार्या जी के प्रश्न का उत्तर भी छिपा हुआ था —

विवाह के वर्षों पश्चात् भी मैं अपनी ससुराल वालों को माँ बनने का शुभ समाचार नहीं दे पायी, तो सास, ननद, देवरानी, जेठानी ने ताने कसने शुरू कर दिये कि मैं बांझ हूँ ; मैं कभी माँ नहीं बन सकती ! उनके ताने सुन—सुनकर मैं अपने मन ही मन कुढ़ती रहती और बन्द कमरे में बैठकर तब तक रोती रहती जब तक मुझे अपने कमरे की ओर किसी के आने की आहट सुनायी नहीं देती थी। यह इसलिए नहीं था कि मैं माँ नहीं बन सकती थी, बल्कि इसलिए कि मैं स्वयं यह मानने के लिए तैयार नहीं थी कि मैं बांझ हूँ!

वायु सेना में नौकरी करने वाले मेरे पति ने विवाह से अब तक मेरे साथ एकान्त में इतना समय व्यतीत ही नहीं किया था कि मेरी प्रजनन—क्षमता के विषय में पूर्णतः निष्पक्ष निर्णय लिया जा सके। जब भी मेरे पति सेना से छुट्टी लेकर घर आते थे, उनकी माँ चाहती थी कि बेटा अपना पूरा समय उन्हीं के साथ बिताए ! कभी अवसर पाकर बेटा अपना पति—धर्म निभाने के लिए आगे बढ़ा, तो माँ तुरन्त ताना कसती थी — “ अब तो काले बालों वाली के आगे—पीछे डोलेगा, माँ को काहे पूछेगा ! सही कहा है किसी ने औलाद कोई किसी की ना होती है ! अरे—रे, इस बेइज्जती की जिन्दगी से तो अच्छा है, मैं कहीं डूबके मर जाऊँ या किसी वृद्धाश्रम में जा रहूँ !” कहते—कहते माँ रोना—चीखना आरम्भ कर देती थी, तो उनका फौजी बेटा हथियार डालकर उल्टे पाँव लौट जाता। वह माँ को संतुष्ट करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते हुए स्वयं भी संतोष कर लेता।

उस विषम परिस्थिति की भुक्तभोगी, तनावग्रस्त, मैं, ससुराल के तानों से तंग आकर कुछ दिन अपने पिता के घर चैन से रहना चाहती थी। एक दिन सास—ससुर और पति से अनुमति लेकर मैं पिता के घर आ गयी। वहाँ आकर मैंने देखा, पिता के घर की परिस्थिति मेरी ससुराल से भी अधिक गम्भीर थी।

मेरी भाभी चार वर्ष के एक बेटे की माँ थी। अब दूसरे बेटे की माँ बनने वाली थी, लेकिन वह इस बच्चे को जन्म नहीं देना चाहती थी, क्योंकि जाँच द्वारा उसे ज्ञात हो चुका था कि उसके गर्भ में कन्या भ्रूण पल रहा था। मेरे पिता गर्भपात के विरुद्ध थे, जबकि भाभी के समर्थन में भाई और माँ खड़े थे । चूँकि बहुमत भाभी के पक्ष में था, इसलिए वह पीछे हटने को तैयार नहीं थी । भाभी अपनी जिद् पर अड़ी हुई थी कि बेटी को जन्म देकर आधा जीवन उसके पालन—पोषण में बीत जाएगा और शेष उसके लिए दहेज का कर्ज चुकाने में । मेरे पिता अपनी पूरी दृढ़ता के साथ उनके विपक्ष में थे, जिनके पास बहुमत तो नहीं था, किन्तु वे घर—मकान, जमीन—जायदाद आदि पर्याप्त चल—अचल सम्पत्ति के स्वामी थे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा कर दी थी कि अबोध—अजन्मी बच्ची के हत्यारों को न तो मेरे घर में स्थान मिलेगा और न ही मेरी चल—अचल सम्पत्ति में अधिकार मिलेगा ! भाभी विचित्र दुविधा में फँसी गयी थी। न तो वह संपत्ति का लोभ संवरण कर पा रही थी और न ही अपने गर्भ से कन्या को जन्म देना चाहती थी। ऐसी विषम परिस्थिति में वहाँ पहुँचकर मैंने बीच का एक रास्ता निकाला। मैंने भाभी के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट की कि वह उस बच्ची को जन्म देकर मेरी सूनी गोद भर दें, तो मैं आजीवन उनकी आभारी रहूँगी !

भाभी को मेरा प्रस्ताव अच्छा नहीं लगा। उन्होंने मुझे घूरकर देखते हुए कहा — “ बच्चा पैदा करना कोई खेल नही है ; सिर पर कफ्न बँधा होता है। तुम चाहती हो, मैं अपने जीवन को संकट में डालकर अपने माथे पर पूरे जीवन के लिए कलंक लगा लूँ कि बेटी को जन्म दे दिया, पालन—पोषण और विवाह करने से बचने के लिए बच्ची ननद को सौंप दी ?”

मैंने भाभी को बहुत समझाया, किन्तु वे समझने के लिए तैयार नहीं थी। उधर मेरे पिता का दबाव बढ़ता जा रहा था कि यदि भाभी ने गर्भपात कराया, तो भाई—भाभी को वे अपनी सारी संपत्ति से बेदखल कर देंगे। अन्त में सारी स्थिति पर गंभीरतापूर्वक विचार करके भाभी इस शर्त पर अपनी बच्ची को जन्म देने के लिए तैयार हुई कि भविष्य में कभी भी मैं उस बच्ची को या समाज में अन्य किसी को यह नहीं बताऊँगी कि बच्ची उनके गर्भ से जन्मी थी। इस बात को प्रमाणित करने के लिए भाभी ने प्रसव के समय अस्पतसाल में माँ के नाम के स्थान पर मेरा नाम तथा पिता के नाम के स्थान पर मेरे पति का नाम लिखवाया था।

जन्म देते ही भाभी ने बच्ची को मेरे हाथों में थमा दिया। बच्ची को लेकर मेरे अन्तः उपवन में बसन्त की बहार आ गयी थी, परन्तु भाभी ने मेरे समक्ष एक नयी समस्या खड़ी कर दी । उन्होंने मुझे कठोर निर्देश दिया कि बच्ची को लेकर मैं अपने पिता के घर नहीं रह सकती ! पिता के घर के अतिरिक्त मेरे पास रहने के लिए एक ही विकल्प था — ससुराल । अतः बच्ची को लेकर मैं विवशतापूर्ण कदमों से अपने ससुराल पहुँची। मुझे उस नन्हीं बच्ची के साथ देखकर मेरे सास—ससुर ने अपने संकुचित हृदय का परिचय देते हुए कहा —

“दूसरे की जनी औलाद को तू हमारे बेटे के मत्थे नहीं मँढ़ सकती ! इस बच्ची के साथ हमारे घर में तेरे लिए कोई जगह नहीं है !” यद्यपि मेरे पति ने बच्ची को स्वीकारने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं दिखाई थी, तथापि माता—पिता की चेतावनी के विरुद्ध जाकर कि यदि इन्होंने मेरा साथ देकर बच्ची को घर में रखा, तो वे आत्महत्या कर लेंगे, इन्हें मेरा साथ देना स्वीकार्य नहीं था।

उस घर को छोड़ने के लिए भी मैं विवश हो गयी। मैं और मेरी नवजात बच्ची इस भरी—पूरी दुनिया में अकेले रह गए। उस विषम परिस्थिति में अपनी नन्हीं-सी बेटी को लेकर मैं इस बस्ती में आयी और बहुत ही छोटा और सस्ता एक कमरा किराये पर लिया। पड़ोस में सभी लोग अच्छे स्वभाव के थे। सभी ने मेरी यथासंभव सहायता की ; मुझे काम दिलाया। मेरे काम के समय मेरी बेटी की देखभाल भी मेरे पड़ोसी मिलजुलकर करते थे। जब मेरे पिता को मेरे यहाँ रहने के विषय में ज्ञात हुआ, तब यथावश्यक उन्होंने मेरी सहायता की। यह मकान, जिसमें आज हम सब बठे हैं, मेरे पिता ने उसी समय मुझे बनवाकर दिया था। कुछ वर्षों पश्चात् मेरे पति को मेरे प्रति अपने कर्तव्यों की याद आयी, तो ये भी हमारे पास आ गए। ये विदूषी को बहुत स्नेह करते थे और सदैव फ़ौजी की बेटी कहकर बुलाते थे। ये इसे बलशाली बनाना चाहते थे, इसलिए बचपन से ही कुश्ती और जूड़ो—कराटे का अभ्यास कराने लगे थे। ये अपनी बेटियों को अधिक कुछ दे पाते, उससे पहले ही एक दुर्घटना में अपना एक पैर और एक हाथ गँवा बैठे। उस समय भी मेरे पिता ने यथासंभव हमारी सहायता की थी। इस घटना के दो वर्ष पश्चात् ही मेरे पिता का देहान्त हो गया। पिता के देहान्त के बाद भाई ने हमसे नाता तोड़ लिया। अभी कुछ दिन पहले, जब उन्हें पता चला कि विदूषी को लाखों रुपये महीना की नौकरी मिल गयी है, तब मेरे भाई—भाभी अपनी बेटी को अधिकारपूर्वक लेने के लिए यहाँ आ पहुँचे।

“ फिर ?” वहाँ पर उपस्थित सभी लोग एक स्वर में बोले। सभी के चेहरे पर यह जानने की उत्सुकता झलक रही थी कि सावित्री और उसकी बेटी विदूषी की उन लोगों के प्रति क्या प्रतिक्रिया थी, जिन्हें पच्चीस वर्ष में यह सुध आयी थी कि इस दुनिया में उनकी कोई बेटी भी है !

“ विदूषी को को पहले से ज्ञात था कि उसको जन्म देने वाले माता—पिता आपके भाई—भाभी हैं ?” प्रधानाचार्या ने साव्त्री से पूछा ।

“ नहीं ! विदूषी को पहले ज्ञात नहीं था। ज्ञात हो जाने से भी क्या हुआ ? मैंने कह दिया था कि यदि विदूषी चाहे तो, वे उसे अपने साथ ले जा सकते हैं ! विदूषी से भी कह दिया कि यदि वह जाना चाहे तो किसी प्रकार का मानसिक बोझ अनुभव किये बिना जा सकती है, मुझे बुरा नहीं लगेगा ! पर....!”

“ पर ?” सभी ने एक स्वर में पूछा।

“ विदूषी ने जाने से इनकार कर दिया। इसने कहा कि सामाजिक, कानूनी और आत्मिक सभी प्रकार से यह हमारी बेटी है, फिर उनके साथ कैसे जा सकती है ? और क्यों जाए ?”

सावित्री का अंतिम वाक्य पूरा हुआ ही था कि विदूषी आकर छोटी बच्ची की भाँति उसकी गोद में सिर रखकर लेट गयी। सावित्री भी उसके बालों में अंगुली डालकर दुलार करने लगी। तभी प्रधानाचार्या जी ने ताली बजायी और वहाँ पर उपस्थित सभी लोगो ने भी उनका साथ देते हुए तालियाँ बजानी आरंभ कर दीं। तालियों की आवाज सुनकर सावत्री अपने अतीत से वर्तमान में लौटी, तो प्रधानाचार्या जी ने कहा —

“ कल हमारे वि़द्यालय में महिला दिवस के उपलक्ष्य में एक कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है। हम चाहते हें, उस कार्यक्रम की विशिष्ट अतिथि आप और विदूषी रहें ! प्लीज़ !,हमारे निमंत्रण को अस्वीकार मत करना !”

“ माँ ! प्लीज़ ! मैडम का निमंत्रण स्वीकार कर लीजिए ! माँ, मैं प्रॉमिस करती हूँ, भविष्य में आपको कभी किसी तरह की शिकायत का अवसर नहीं दूँगी, प्लीज़ ! माँ!”

“ हाँ, हाँ, ठीक है!”

“ माँ, मेरी पढ़ाई भी बंद मत करवाइये ! मैं भी अब कठोर परिश्रम करूँगी और विदूषी दी जैसी बनूँगी ! प्लीज़ ! माँ ! ”

“ तुझे क्या लगता था, मैं तेरी शिक्षा अधूरी रखना चाहूँगी ? नहीं, मैं स्वयं तो क्या, मेरे जीवित रहते किसी अन्य को भी ऐसा नहीं करने दूँगी ! आखिर तू भी तो फ़ौजी की बेटी है। विदूषी के नक्शेकदम तुझे भी अपने देश का नाम रोशन करना है !"

***