इहलोक से परलोक तक VANITA BARDE द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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इहलोक से परलोक तक

इहलोक से परलोक तक

हर जीव एक स्वतंत्र आत्मा है। उसका इस धरती पर आने का एक मुख्य उद्देश्य होता है। धरती पर जन्म लेने वाली हर जीवात्मा का प्रथम और अंतिम रिश्ता परमात्मा से होता है। बाकि हर रिश्ता दुनियावी है,जिसे हम अपनी सहुलियत या अपने स्वार्थ के आधार पर बनाते हैं। दरअसल इसी दुनियावी रिश्तों के आधार पर ही हम कहीं हद तक प्रेम को पहचान भी पाते हैं। वह प्रेम जो र्इश्वर ने स्थार्इ भाव के रूप हर मनुष्य के भीतर कहीं छिपा दिया है, जो समय , परिस्थिति व उचित अवसर पर देखने को मिल जाता भी है। जैसे पति-पत्नि का प्रेम, माँ व उसके बच्चों का प्रेम, भार्इ-बहनों का प्रेम व अपने पालतू जीवों के प्रति प्रेम।

एक समय तक तो ये रिश्ते मनुष्य को बाँध कर रख सकते हैं , परंतु समयावधि पूर्ण होने की घड़ी में परमात्मा अपने स्थार्इ रिश्ते का आभास करा ही देता है।जब मनुष्य इस लोक में निर्मित सभी रिश्तों को त्यागने पर बाध्य हो जाता है । तब मनुष्य को अवश्य अपना स्थार्इ रिश्ता याद आ ही जाता होगा कहना मुश्किल है परंतु अनुभूति इस बात की ही होती है। मृत्यु के अंतिम क्षणों में मानव को परमात्मा से जुड़ने का आभास तो हो ही जाता होगा, जो इस लोक को छोड़कर जाने की बेचैनी व छटपटाहट का नाश तो अवश्य करा ही देती होगी। मनुष्य का मन शांत अवस्था में पहुँच जाता होगा उसे गहरी नींद घेरती तो होगी ही। और फिर मनुष्य का सफर एक नर्इ मंजिल की ओर बढ़ जाता होगा जिसे कहते हैं परलोक का सफर।

जब गहरी निद्रा में मनुष्य इस लोक से दूसरे लोक पहुँचकर अपनी आँखें खोलता होगा तो उसे अपने पीछे छूटे रिश्तों का आभास तो होता ही होगा , ठीक उसी प्रकार से जैसे जब छोटे बच्चे का दाखिला किसी नए स्कूल में करवाया जाता है तो वह अपनी माँ को याद कर रो पड़ता है, उसी प्रकार मनुष्य भी दुनियावी रिश्तों की स्मृति लेकर उस लोक में विचरण करता होगा। प्रयास करता होगा पुन: अपने जीवन में लौट आने का अपने सगे संबंधियों को जब वह देखता होगा विचलित होते। परन्तु न आने की स्थिति में वह मार्ग खोजता होगा कि कैसे भी अपने परिजनों के पास में पहुँच जाऊँ।

अपनों को जब वह देखता होगा कि धीरे-धीरे उसे भूलाने लगे हैं तो वह भी परलोक का अभ्यस्त हो ही जाता होगा और वह अपने आप को परम सत्ता से जुड़ा होने का आभास करता होगा उसे आभास होता होगा कि वह परमात्मा की हीं भांति पाँच तत्वों का अंश है। फिर इस प्रकार परम सत्ता का अंश स्वयं को मानकर वह गौरांवित महसूस करता होगा। और इस प्रकार वह परलोक का निवासी ही बन जाता होगा।

क्या नाता है इस लोक या उस लोक का ? कौन - सी कड़ी मनुश्य को इस लोक से परलोक तक जोड़ती होगी ? विचार तो किया ही जाता होगा पर सवाल का उत्तर किसी के भी पास नहीं, मात्र कल्पनाओं का एक विस्तृत संसार है।

कभी -कभी आभास होता है कि चलने वाली हवा जरूर कुछ जानती है और बता देना चाहती है हमें जो हम जानना चाहते हैं पर ये बेबसी हमारी ही है कि हम उसके संकेतों को पूरी तरह समझ नहीं पाते हैं वह कोर्इ सुराग बताती है।

मेरे पापा और मम्मी दोनों इस लोक की यात्रा पूरी कर परलोक सिधार चुके हैं पापा की मृत्यु तो अभी हाल ही में हुर्इ है। मैं उन्हें अनुभूत करती हूँ वे अब परलोक में वास करते हैं क्योंकि एकांत क्षणों में हवा के झोकों में उनकी उपस्थिति का आभास मुझे होता है , जैसे वह दूसरे लोक में मुझे अपने होने का आभास दे रहे हो। और कह रहे हों कि तुम प्रसन्नता से अपने इस जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहँुचों मैं यहीं तुम्हारा इंतजार करूँगा ।

कभी दुखी होकर माँ को याद किया तो उन्होंने भी यही आभास कराया कि मुझे क्या याद करती है मैं तो अब तेरा ही रूप हूँ तेरे बच्चे जब भी तुझे पुकारते हैं तो समझना तेरे बच्चों में तुम और तुझमें मैं आकर कहीं बस चुकी हूँ। कभी शांत मन से हवा के झोकों को मौन रहकर सुनो वह इस लोक से आपको परलोक लेकर चली जाएगी जहाँ आप अपने बिछडों से मिल सकते हो।

बस अंतर मात्र इतना है कि पहले वो प्रत्यक्ष नजर आते थे अब उन्हें देखने के लिए मन की आँखें काम आती हैं पहले हर जरूरत वो प्रत्यक्ष तौर पर पूरी करते थे अब मात्र आभास कराते हैं कि कैसे हमें अपनी समस्या का समाधान खोजना है।

पता नहीं जाने वाला कब पुन: लौटकर इस संसार में आता है पर ऐसा आभास होता है कि जाने वाला कभी गया ही नहीं मन के कोने में जैसे कहीं बैठ गया है और वहीं से जैसे वो भाव जागृत होता है जो हमें परलोक के सफर की कल्पना का एहसास करा ही देता है।

जब भी हवा का झोंका तेज होता है, वो मुझे इस लोक में ही परलोक में बैठे मेरे माता-पिता से जोड़ देता है जैसे वे मेरा वहाँ इंतजार कर रहे हों। मेरा भरा -पूरा परिवार है जिसके साथ मैं अपना जीवन यापन करती हूँ पर अपने इस जीवन में ताल-मेल बिठाने की सीख मुझे परलोक से ही मिलती है। मैंने प्रारंभ में ही ये स्वीकार किया है कि दुनियावी रिश्तों का आधार स्वार्थ होता है। हाँ इस बात को मैं स्वीकार करती हूँ आज भी मुसीबत का सामना करने हेतु जब भी मुझे कोर्इ जरूरत पड़ती है मैं इस लोक में रहते हुए अपने माता पिता को अपनी सुविधानुसार याद कर सारी समस्याओं से मुक्ति पा ही जाती हूँ वे अनुपस्थित होकर भी मेरे लिए इस लोक में उपस्थित हैं।